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शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

हमारी शिक्षा पद्धति की खामियां


पिछली अर्धशताब्दी के अन्तराल में शिक्षा के प्रचार प्रसार में आशातीत उन्नति हुई है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया अर्थात टी.वी. एवं इंटरनेट के विकास ने शिक्षा जगत को पंख लगा दिए हैं.परन्तु हमारी शिक्षा पद्धति, शिक्षा के मुख्य उद्देश्य से कहीं भटक गयी है.शिक्षा का अर्थ सिर्फ रोजगार पा लेने की क्षमता विकसित करा देना अथवा किसी विषय में पारंगत हो जाना ही नहीं है,शिक्षा का का उद्देश्य मात्र देश दुनिया की जानकारी प्राप्त कर लेना भर नहीं है या भाषा का विद्वान् हो जाना नहीं है.शिक्षा का मकसद सभ्य समाज का निर्माण करना बच्चों का चरित्र निर्माण करना भी है, और उन्हें स्वास्थ्य जीवन व्यतीत करने के लिए राह दिखाना भी होता है.जो हमारे पाठ्यक्रमों में लुप्त प्राय रहता है. हमारी शिक्षा पद्धति में कुछ कमियां निम्न प्रकार है;
, हमारी शिक्षा संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में विज्ञानं,गडित, एवं भाषा जैसे अनेक विषय शामिल रहते हैं. परन्तु बच्चों को जीवन भर स्वास्थ्य रहने की जानकारी देने का अभाव रहता है,उन्हें नैतिक ज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषय से अन्भिग्य रक्खा जाता है.जो उनके चरित्र निर्माण में सहायक हो सके
,बच्चे को उसकी रूचि के अनुसार भविष्य निर्माण के अवसर नहीं दिए जाते , अक्सर अभिभावकों द्वारा थोपे गए उद्देश्यों के लिए उसे जूझना पड़ता है,विद्यार्थी की सफलता के लिए उसकी रूचि ,उसकी क्षमताओं का आंकलन कर शिक्षा के विषय चुनना अवशयक है जो सिर्फ मनोवैज्ञानिक की सलाह द्वारा ही संभव है.
,आधुनिक चकाचोंध के युग में टी.वी. जैसे इलेक्ट्रोनिक माधयमों से प्रेरित हो कर आज का किशोर अपने सपनों की दुनिया में विचारने लगता है,वह उच्च जीवन शैली से प्रभावित होकर जीने लगता है.परन्तु स्वप्न पूरे होने पर अवसाद ग्रस्त या कुंठित होने लगता है. अतः उसे जीवन की हकीकत,उसकी अपनी क्षमता,उसकी अपनी परिस्थति से अवगत कराना आवश्यक है,ताकि वह अपने सपने अपनी योग्यतानुसार बुने और उन्हें पूर्ण करने के लिए आवश्यक प्रयास करे. ताकि वह अपने जीवन में सफलता पा सके की निराशा. उचित मार्गदर्शन उसके भविष्य को संवार सकता है.
,आज का शिक्षक वर्ग अपने समाज सेवा के मूल कर्तव्य से भटक गया है ,उसे ट्यूशन द्वारा धन अर्जन करना ही अपने जीवन का उद्देश्य दिखाई देता है.
,अनेकों अवांछनीय तत्व एवं नक़ल माफिया सक्रीय हो गए हैं जो विद्यार्थियों को नक़ल करने से लेकर नकली डिग्रियां उपलब्ध कराने के समाज विरोधी कार्य में संलंग्न है और हमारी शिक्षा प्रणाली का मजाक उड़ा रहे हैं. .सख्त एवं पारदर्शी परीक्षा व्यवस्था द्वारा ही उन्हें हतोत्साहित किया जा सकता है.और विद्यार्थी की योग्यता का लाभ देश को मिल सकता है
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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

राष्ट्र निर्माण में फिल्मों का योगदान

कहा जाता है कल्पना विकास की पहली सीढ़ी है फिल्मों ने आम व्यक्ति को कल्पना के संसार तक पहुँचाया .उच्च गुणवत्ता जीवन शैली के लिए प्रोत्साहित किया. परिणाम स्वरूप आज प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य को फ़िल्मी स्टाइल में करने का प्रयास करता है. यहाँ तक कभी कभी नकारात्मक प्रभाव भी सामने आते हैं,जब चोरी डकैती भी फ़िल्मी शैली में करते हुए दिखाई पड़ती है. फिल्मों ने और अब मीडियाने और टी.वी भौतिवाद को हवा दी है, साथ ही आम जन को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक भी किया है. अधिक धनार्जन के लिए कठोर परिश्रम,अनुशासन,सहनशीलता,दूरदर्शिता जैसे गुणों का विकास भी किया है. कहते हैं जब किसी ने जिराफ देखा ही नहीं उसे पाने की इच्छा कैसे करेगा . यही कल्पना रुपी जिराफ फिल्मों एवं टी.वी ने दिखा कर राष्ट्र निर्माण में सहयोग किया है.किसी समाज को उठाने के लिए उसमें भूख पैदा करनी पड़ती है जब भूख जागेगी तो स्वतः समाज आगे बढ़ने लगता है यही काम हमारी हिंदी फिल्मो ने किया है.हिंदी फिल्मो ने पूरे देश को हिंदी भाषा का ज्ञान करा कर एकता का परचम लहराया है.
     आज सामाजिक जागरूकता एवं सामाजिक उत्थान का कार्य इलेक्ट्रोनिक मीडिया कर रहा है.भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे की आवाज जन जन तक पहुँचाने में मीडिया की मुख्य भूमिका रही इसी कारण उनका आन्दोलन सफल हो पाया.

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सोमवार, 29 अगस्त 2011

अन्ना जी और गाँधी जी.


अन्ना जी के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन की सफलता के पश्चात्, एक बहस छिड़ गयी है की क्या अन्नाजी को गाँधी जी के समकक्ष रखना उचित होगा.अन्ना जी की तुलना गाँधी जी से करना न्याय संगत है क्या? क्या अन्ना जी का कद गाँधी जी से भी बड़ा हो गया है?
मैं अपने विचार से अन्ना जी के कद को गाँधी जी कद से बड़ा मानता हूँ और अपने विचार के समर्थन में अपने निम्न लिखित तर्क प्रस्तुत करता हूँ. ताकि प्रत्येक विचार शील व्यक्ति मेरी बात को समर्थन दे सके
गाँधी जी के स्वतंत्रता आन्दोलन के समय अनेक स्वतंत्रता सेनानी आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे. अर्थात नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ,स्वामी विवेकानंद,लाला लाजपत राय,बाबा साहेब अम्बेडकर,जवाहर लाल नेहरु जैसे अनेको नमी गिरामी नेता स्वतंत्रता आन्दोलन को चला रहे थे. परन्तु वर्तमान आन्दोलन के मात्र एक ही सूत्रधार हैं,श्री अन्ना हजारे, जो अपनी टीम के सदस्यों के साहसिक सहयोग के साथ आगे बढ़ रहे थे.अन्य कोई पार्टी,कोई नेता इस आन्दोलन को नहीं चला रहा था. स्वामी रामदेव के आन्दोलन को अवश्य सहयोगी नेतृत्व कहा जा सकता है परन्तु रणनीतिकारों के अभाव में वे प्रभावशाली नेतृत्व नहीं कर पाए.
गाँधी जी सुविधा संपन्न पारिवारिक प्रष्ट भूमि से आए थे, अतः शिक्षा प्राप्त करने का पर्याप्त अवसर मिला,जो आन्दोलन को चलाने के लिए महत्वपूर्ण मार्ग दर्शन उपलब्ध कराता है.परन्तु श्री अन्ना हजारे एक बेहद गरीब एवं पिछड़े माहौल से आए थे, इसी कारण शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पाए मात्र प्राइमरी शिक्षा तक अध्ययन कर सके. फिर भी इतने बड़े आन्दोलन का नेतृत्व कर पाने में सफल हुए.
अन्ना जी की लोकप्रियता को गाँधी जी की लोकप्रियता से किसी भी प्रकार से कम नहीं आंका जा सकता. उनका देश के लिए संघर्ष रत जीवन, जो करीब चालीस वर्ष है कम नहीं माना जा सकता. जिसमे उन्होंने जनता को अनेकों समस्याओं से निजात दिलाई है.राष्ट्रिय स्तर पर यह उनकी पहली सफलता है. इनकी लड़ाई को आजादी की लड़ाई से कम नहीं माना जा सकता बल्कि यह संघर्ष अधिक जटिल संघर्ष है. क्योंकि विदेशी सरकार से लड़ना आसान होता बनिस्वत अपनी सरकार के अर्थात अपनों से लड़ना अधिक चुनौती पूर्ण होता है.
अन्ना जी का आन्दोलन गाँधी दर्शन पर आधारित था ,अतः यदि अन्ना जी को गाँधी जी का अनुयायी कहने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए उनके सिद्धांतों के कारण ही आन्दोलन को अहिंसक तरीका अपना कर सफल बनाया जा सका. परन्तु गाँधी जी के सिद्धांतों पर चल कर यदि कोई व्यक्ति गाँधी जी के कद से ऊपर कद बना लेता तो यह स्वयं गाँधी जी के सम्मान से कम नहीं है.
सत्य शील अग्रवाल

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार किस हद तक



हमारे देश में आजादी के पश्चात् भ्रष्टाचार ने जो गति पकड़ी वह बढ़ते बढ़ते बेलगाम हो गयी है .आम जनता ने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार या सुविधाशुल्क मान कर अपना लिया.भ्रष्टाचार रुपी गंगा का उद्गम स्थान मंत्री और प्रथम पंक्ति के नौकर शाह हैं उन्होंने सारी हदें पार कर बलगम भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए .अब तो भ्रष्टाचारियों की खाल इतनी मोटी हो गयी है, की उन्हें कोई वार या कोई कानूनी शिकंजा प्रभावित नहीं कर पाता. जिससे सपष्ट है, की हमारे कानून भ्रष्टाचार को रोक पाने में सक्षम नहीं है. .
भारत के वर्तमान विकास में सरकारी सहयोग का योगदान नगण्य ही माना जायेगा . पिछली अर्द्ध शताब्दी में देश के विकास में देशवासियों की अपनी श्रमसाध्य्ता को ही श्रेय जाता है. सरकारी अमले ने प्रत्येक व्यापारी या उद्योगपति के कार्यों में व्यवधान ही पैदा किया है. सरकार से सहयोग मिलने की बात तो बेमानी है
अब तो भ्रष्टाचार की सीमा करोड़ों से उछल कर लाखों करोड़ तक पहुँच गयी है. जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त राजस्व भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है.अन्ना हजारे का आन्दोलन भी इसी भ्रष्टाचर रुपी राक्षस को ख़त्म करने के लिए किया जा रहा है यदि कानून में पारदर्शिता आ जाय तो भ्रष्टाचार की गुंजाईश भी कम हो जाएगी .जो मजबूत जन लोकपाल बिल से ही संभव है.अतः हमें श्री अन्ना हजरे के आन्दोलन में भागीदारी दे कर अपने कर्तव्य को निभाना होगा. इस में ही हमारा और पूरे देश का भला है.अन्ना जी समर्थन में उठे जन सैलाब ने स्पष्ट कर दिया है की भ्रष्टाचार को लेकर.जनता में कितना आक्रोश है.
अन्ना तुम संघर्ष करो देश तुम्हारे साथ है --


बुधवार, 24 अगस्त 2011

इंसानियत


हमारे देश में प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म अपने विचारों को प्रसारित एवं प्रचारित करने की पूरी स्वतंत्रता है,विभिन्न धर्मों के व्यापक प्रचार एवं प्रसार के बावजूद इमानदारी,सच्चाई,शालीनता,अहिंसा,सहिष्णुता,जैसे गुणों का सर्वथा अभाव है। जिसने अपने देश में अराजकता ,अत्याचार,चोरी,डकैती,हत्या जैसे अपराधों का ग्राफ बढा दिया है.दिन प्रतिदिन नैतिक पतन हो रहा है.उसका कारण यह है की हम धर्म को तो अपनाते
हैं परन्तु धर्मो द्वारा बताये गए आदर्शों को अपने व्यव्हार में नहीं अपनाते। सभी धर्मों के मूल तत्व इन्सनिअत को भूल जाते हैं,और अवांछनीय व्यव्हार को अपना लेते हैं।
यदि हम किसी धर्म का अनुसरण भी करें और इन्सनिअत को अपना लें ,इन्सनिअत को अपने दैनिक व्यव्हार में ले आए तो सिर्फ अपने समाज,अपने देश, बल्कि पूरे विश्व में सुख समृधि एवं विकास की लहर पैदा कर सकते हैं.



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शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

सरकारी कर्मियों से विनम्र निवेदन


आज जो आन्दोलन अन्ना हजारे द्वारा चलाया जा रहा है, यह एक अनुशासन पर्व की भांति है ,सभी को आत्मशुद्धि का मौका मिल रहा है. अतः अन्ना जी के आन्दोलन में सहयोग देने के लिए हम सभी को कुछ संकल्प लेने की आवश्यकता है .एक तरफ जहाँ आम जनता को घूस देने से बचने की कोशिश करनी है, तो दूसरी तरफ सभी सरकारी कर्मचारियों को भी संकल्प लेना चाहिए --न तो वे स्वयं रिश्वत लेंगे और न ही लेने देंगे-- और अपने इस संकल्प को ईमानदारी से निभाएंगे. यही हमारा प्रायश्चित भी होगा. क्योंकि सारे भ्रष्ट कार्य की पहली जिम्मेदरी सरकारी कर्मियों की है यदि वे चाहें तो नेता भी घोटाले नहीं कर सकते, क्योंकि एकता में बहुत शक्ति है.
एक प्रश्न भी आपके मन में कोंध रहा होगा. आज जनता भी बिना रिश्वत दिए भरोसा नहीं करती की उसका काम वास्तव में हो जायेगा. ऐसे लोग जबरन रिश्वत देने की कोशिश करते रहेंगे उसका समाधान भी है, सभी सरकारी वेतन भोगी अपने संकल्प पर अडिग रहते हुए जबरन दी गयी राशी को ईमानदारी से अन्ना हजारे के मिशन पर खर्च कर दें. यह हजारे साहेब के आन्दोलन को बल प्रदान करेगा .हमारे देश और हमारी संतान का भविष्य सुरक्षित हो सकेगा

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सोमवार, 15 अगस्त 2011

अन्ना हजारे और उनका आन्दोलन


आज अन्ना जी की गिरफ़्तारी से पूरा देश आक्रोशित हो उठा है .अन्ना के आन्दोलन को जिस प्रकार से कुचलने का प्रयास किया जा रहा है, सरकार में फैली घबराहट को प्रदर्शित करता है.सभी सरकार में बैठे नेताओं और नौकर शाहों को अपना भविष्य अंधकार में दिखने लगा है.उसी प्रकार जनता में भी अनेक ऐसे व्यक्ति विद्यमान हैं,जो जाने अनजाने या फिर मजबूरी वश भ्रष्ट कार्यों का हिस्सा बने हुए हैं अथवा कभी हिस्सा रहे हैं,वे भी परेशान हैं,हैरान हैं. ये लोग आन्दोलन का समर्थन देने इच्छा रखते हुए भी अपने को जकड़ा हुआ पाते हैं. यही कारण है अन्ना जी को जो समर्थन मिलना चाहिए था उतना समर्थन नहीं मिल पा रहा है, यही वजह है की सरकारी अधिकारी आन्दोलन को कुचल देने का स्वप्न देख रहे हैं .जबकि यह उनकी भयानक भूल है अब तो प्रायश्चित स्वरूप उन्हें आन्दोलन का एवं जन लोकपाल बिल का समर्थन करना चाहिए ,यही उनके हित में हो सकता है.
मजबूरी वश या परिस्थिति वश भ्रष्टाचार में लिप्त रहे लोगों के लिए पश्चाताप का यह सुनहरी अवसर है और यदि प्रायश्चित में सजा भी भुगतनी पड़ती है तो भी अपने एवं अपने बच्चों के सुखद भविष्य के लिए त्याग मान कर तैयार रहने चाहिए. और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में अन्ना जी का साथ देना चाहिए.उन्हें आज से ही भ्रष्ट कार्यों से स्वयं को अलग कर लेने के लिए संकल्पाबद्ध हो जाना चाहिए.आपके इस प्रायश्चित से अन्ना जी के आन्दोलन को ताकत मिलेगी.

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*सत्य शील अग्रवाल *
(blogger)*

रविवार, 14 अगस्त 2011

सभी मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की शुभ कामनाएं


सभी मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की शुभ कामनाएं
राष्ट्रिय पर्व की इस पावन बेला पर यदि हम सब कुछ महत्वपूर्ण संकल्प ले सकें तो यह राष्ट्र के प्रति हमारे नैतिक दायित्व को सार्थक करेगा
*हम अपने स्वार्थ से अधिक राष्ट्र हित को महत्त्व देंगे
**राष्ट्र की संपत्ति की यथा शक्ति रक्षा करेंगे.
*भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक जुट हो कर आन्दोलन रत रहेंगे .
*देशद्रोहियों,आतंकियों के इरादों को कभी कामयाब नहीं होने देंगे उन्हें नेस्तनाबूद करने के यथा संभव प्रयास करेंगे.
*समाज सेवकों,देशसेवकों को प्रोत्साहित करने के साथ भरपूर सहयोग भी करेंगे.
*शिक्षा के प्रसार प्रचार में यथाशक्ति सहयोग करेंगे.
*महिलाओं को सम्मान एवं समानता का अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहेंगे.
*बच्चों को चरित्रवान ,सभ्य,एवं समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनायेंगे.
*इंसानियत अपनाएंगे,इंसानियत की रक्षा करेंगे .
*देश में सुख शांति और न्याय का परचम लहरायेंगे.

जय हिंद

*सत्य शील अग्रवाल *


शनिवार, 6 अगस्त 2011

विचार मंथन भाग छः

क्या यह सभी भ्रष्टाचार के साइड एफ्फेक्ट नहीं?
#स्पीक एशिया जैसी फर्में अपनी असंगत योजनाओं के साथ वर्षों तक चलती रहती हैं, जब लाखों लोग उनकी ठगी के शिकार हो जाते हैं तब शासन,प्रशासन की नींद खुलती है. फिर पकड़ धकड़ चलती है,संसद में उसकी गूंज सुनाई पड़ती है. आखिर ऐसी फर्में इतने समय तक अस्तित्व में क्यों बनी रहीं? और जनता को ठगती रहीं, सरकारी विभाग क्या कर रहे थे?
##विक्टोरिया पार्क मेरठ अग्नि कांड होते हैं, सैंकड़ो व्यक्ति काल के गाल में समां जाते हैं. तब अग्निशमन विभाग ,विद्युत् विभाग, स्थानीय प्रशासन सब अपने अपने नियमों के उल्लंघन होने का शोर मचाते है .आयोजकों पर आरोप मढ़ते हैं तथा स्वयं को पाक साफ होने का नाटक करते हैं. क्या नियमों का पालन करने की जिम्मेवारी किसी विभाग की नहीं है सिर्फ आरोप लगा कर अपन रोब गांठना ही उनका काम है?
###उपहार सिनेमा दिल्ली अग्निकांड होता है, अनेकों बेगुनाह मनोरंजन करता करता मौत के आगोश में समां जाते हैं,तब सरकारी विभाग अपने कायदे कानून याद आते हैं ,सिनेमा घर के मालिकों पर सारे आरोप सिद्ध करने की होड़ लग जाति है परन्तु इस लापरवाही में निरीह जनता पिस जाति है. क्यों?
####शहर में नकली दवाओं,नकली खाद्य पदार्थों ,जैसे घी,मावा,सिंथेटिक दूध,नकली सोस,इत्यादि के बड़े बड़े कारोबार चलते रहते हैं.स्थानीय प्रशासन को भनक तक नहीं लगती. क्या संभव है बिना स्थानीय प्रशासन की जानकारी के कोई इतना बड़ा धंधा चला सकता है.?.
#####बड़ी बड़ी फाइनेंस कम्पनियां अनेक प्रकार के लालच में जनता को फंसा कर विराट राशी डकार जाती हैं. सम्बंधित विभागों के अधिकारी जब जागते हैं तब तक जनता को भारी चूना लग चुका होता है. फिर दिखावे के लिए मालिकों को उठा कर बंद कर दिया जाता है अनेक वर्षो तक मुकदमा चलता है धीर धीरे सेटिंग हो जाती है सबूत नष्ट कर केस को कमजोर कर दिया जाता है. सब मामला रफा दफा हो जाता है. जनता के हाथ कुछ नहीं आता कुबेर फाइनेंस कम्पनी जैसी अनेको कम्पनियां इसका उदहारण है .
######सभी सरकारी विभागों में अफसर बाजार भाव से कई गुना अधिक भाव पर अपने विभाग के लिए सामान खरीदते है,ठेकेदार से कई गुना कीमत देकर कार्य करवाते हैं,बड़े बड़े अफसर मंत्री अपनी मौन स्वीकृति देते रहते हैं जब कभी मीडिया कोई प्रसंग उछाल देती है तो निचले अधिकारियों को बलि का बकरा बना कर आरोपित कर दिया जाता है बड़े अधिकारी साफ बच जाते हैं.
उपरोक्त सभी ऐसे उदाहरणहैं जो स्पष्ट बताते हैं की रिश्वत के लालच में अनेक अवैध कार्य शासन प्रशासन के संरक्षण में चलते रहते हैं जिनके भयंकर परिणाम जनता को भुगतने पड़ते हैं.सरकारी विभागों के अधिकारियों का कुछ नहीं बिगड़ता जबकि उनके लालच के कारण ही अवैध कार्य हो पाते है.सभी दुर्घटनाओ का असली जिम्मेदार भ्रष्टाचार है.

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*सत्य शील अग्रवाल *

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

विचार मंथन (भाग पांच)


देश का मालिक कौन ?
कभी सरकारी वेतन कर्मियों के वेतन तर्क संगत नहीं हुआ करते थे.अतः सरकारी कर्मियों को भ्रष्टाचार अपनाये बिना परिवार चलाना मुश्किल था अथवा कम वेतन दे कर सरकार ने भ्रष्ट तरीके अपनाने को प्रेरित किया. धीरे धीरे पूरा सिस्टम भ्रष्टाचार में डूबता चला गया और नेताओं की जेबें भरने लगीं .प्रत्येक सरकारी कर्मी की नियति बन गयी की बिना कुछ लिए उसे फाइल को हिलाना भी गवारा न रहा. परन्तु पिछले बीस वर्षों में सरकारी वेतन आयोग की सिफारिशों के चलते वर्तमान में सरकारी कर्मियों को वेतनमान मार्केट में प्रचलित वेतनमानों से कहीं अधिक कर दिए गए हैं. परन्तु तर्क संगत वेतनमान से भी अधिक वेतन मिलने के पश्चात् भी भ्रष्टाचार पर किसी प्रकार से अंकुश नहीं लगा. बल्कि घूस की दरें भी वेतनमान के अनुसार बढा दी गयीं. अब पांच सौ प्रतिदिन के हिसाब से वेतन पाने वाला कर्म चारी पचास रूपए रिश्वत कैसे ले सकता है,उसे भी कम से कम दो सौ या ढाई सौ से कम रिश्वत कैसे रास आ सकती है.इसी प्रकार अधिकारियों ने अपनी घूस की दरें बढा दीं .अर्थात वेतनमान तो जनता की गाढ़ी कमाई से गया ही, रिश्वत दरें बढ़ने से अपरोक्ष रूप से भार पड़ा सो अलग.जनता तो शोषित किये जाने के लिए ही है. शायद हमारे देश में नेताओं,पूंजीपतियों,सरकारी कर्मियों को ही जीने का अधिकार है. बाकी जनता तो लुटने के लिए है.
हमारी चुनाव प्रणाली दोष पूर्ण होने के कारण ,चुनावों में विजय मिलती है, या तो धनवानों को या फिर बाहुबलियों को जो दबंगई के बल पर चुनाव जीत जाते हैं .धन वाले उम्मीदवार धन के बल पर समाज के कमजोर वर्ग को आसानी से भ्रमित कर वोट प्राप्त कर लेते हैं.और चुनाव जीत जाते हैं यही कारण है कोई भी नेता आरक्षण व्यवस्था को हटाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता.परिणाम स्वरूप मेधावी नागरिक जो उच्च जाति के होते हैं, को देश के विकास में योगदान का अवसर नहीं मिल पाता .अतः वे अधिकतर विदेशों को चले जाते हैं और देश के विकास अवरुद्ध हो जाता है.जनता को चुनाव का अधिकार होते हुए भी वह उसका सदुपयोग नहीं कर पाती .
जनता तो देश की मालिक है उसे सिर्फ प्रितिनिधियों को चुनने का अधिकार है,वोट देने का अधिकार है बस यहीं तक जनता देश की मालिक है.जनता अपनी मेहनत से विकास करेगी,पैदावार बढ़ाएगी,मिलों में उत्पादन बढ़ाएगी, तो लाभ सरकार में बैठे नेता या फिर सरकारीकर्मी चाटते रहेंगे,फिर जनता महंगाई से पिसती रहेगी . और अपने नसीब को कोसती रहेगी.वाह रे लोकतंत्र,वाह रे जनतंत्र, या बेईमानी तेरा सहारा.......देश का विकास होगा तो विकास होगा सरकारी कर्मियों का विकास होगा नेताओं का या फिर उद्योगपतियों का ,पूंजीपतियों का ----------.

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

समलैंगिक संबंधों को दंडनीय अपराध घोषित करना उचित नहीं.

हमारे देश की सामाजिक एवं धार्मिक परम्पराओं के आधार पर समलैंगिक सम्बन्धों को मान्यता मिल पाना मुश्किल है.वैज्ञानिक तर्कों के अनुसार समलैंगिक सम्बन्ध अप्राकृतिक यौन क्रिया के अंतर्गत आते है. अतः समलैंगिक यौन क्रियाओं में लिप्त व्यक्तियों को मनोविकार ग्रस्त कहा जाय तो गलत न होगा. जिन्हें प्राकृतिक यौन संबंधों से भी अधिक समलैंगिक सम्बन्ध अधिक प्रसन्नता देते हैं.
जहाँ तक कानूनी दंड के प्रावधान का प्रश्न है,किसी भी अपराधिक गतिविधि के लिए कानूनी हस्तक्षेप आवश्यक होता है, परन्तु सामाजिक संबंधों को लेकर बनाय गए कानून बिना सामाजिक सहयोग के प्रभावहीन हो जाते हैं दहेज़ प्रथा के विरुद्ध बनाय गए कानून,किस प्रकार अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा पाए ,सर्व विदित है. कारण है सामाजिक जागरूकता का अभाव. परन्तु तुच्छ स्वार्थ वाले व्यक्ति अपना बदला लेने की नियत से दहेज़ कानूनों का दुरूपयोग अवश्य करने लगे.जिस दिन सामाजिक चेतना आ जाएगी दहेज़ प्रथा स्वतः ही समाप्त हो जाएगी.जिस दिन समाज दहेज़ को नकारने लगेगा किसी कानून के बिना भी दहेज़ का उन्मूलन संभव हो जायेगा.
समलैंगिक सम्बन्धों को लेकर सामाजिक मान्यता न होने के बावजूद सामाजिक नियंत्रण द्वारा रोक पाना संभव भी नहीं है. क्या समाज प्रत्येक पुरुष को पुरुष से संपर्क बनाने से रोक पायेगा,स्त्री को स्त्री से मिलने से पर पाबन्दी लगा सकेगा क्या ऐसी कोई बंदिश तर्क संगत है.या किसी भी सम्बन्ध को संशय के दायरे में रखना उचित होगा.
विषम लिंगी संबंधों को लेकर अनेक सामाजिक नियंत्रण होने के बावजूद बलात्कार या अवैध सम्बन्ध जैसे अपराध नित्य प्रकाश में आते रहते हैं, समलिंगी व्यक्तियों को किस प्रकार से संपर्क बनाने से रोक सकेंगे,और जब संपर्क को नियंत्रित नहीं कर सकते तो समलिंगी संबंधों को कैसे नियंत्रित किया जा सकेगा.और जिस पर सामजिक नियंत्रण(गतिविधियों पर)ही संभव नहीं है ,कानूनी शिकंजा कितना कारगर हो सकेगा .कुछ लोग किसी पर भी बेबुनियाद आरोप लगाकर आपने तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करने में कामयाब होते रहेंगें .उनको कानून का दुरूपयोग करने का अवसर अवश्य मिलता रहेगा .
सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद समलैंगिक विवाह या समलैंगिक संबंधों को दंडनीय अपराध बना देना उचित प्रतीत नहीं होता. आपसी सहमती से कोई भी समलैगिक सम्बन्ध बनाय तो बनाय परन्तु जबरन संबंधों को बनाना पहले से ही दंडनीय अपराध है..अर्थात इस सन्दर्भ में अनेक कानून पहले से ही मौजूद हैं.इस असामाजिक कार्य को रोकने के लिए देश के शिक्षाविदों , बुद्धिजीवियों को युवा पीढ़ी को उचित मार्ग दर्शन कराने के प्रयास करने चाहिए.

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मंगलवार, 19 जुलाई 2011

विचार मंथन (भाग चार )

गाय हमारी माता है तो बिजार या बैल?
हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार गाय को माता के सामान पूज्यनीय माना गया है. और्वेदिक चिकत्सा में गाय का दूध, गाय का मूत्र, गाय का गोबर सभी वस्तुएं उपयोगी बताई गयी हैं. अर्थात मानव स्वास्थ्य के लिया लाभकारी हैं. परन्तु इसी गाय की नर संतान यानि बिजार या बैल को पूज्यनीय तो क्या सामान्य व्यव्हार भी नहीं दिया जाता .क्या उसके अवयव उपयोगी नहीं होते ,इसीलिय उसे नपुंसक बना कर खेतों में जोता जाता है उसको बधिया बना कर अपनी जिन्दगी सामान्य जीने का अधिकार भी नहीं दिया जाता .इससे तो यही सिद्ध होता है गाय की उपयोगिता के कारण ही उसे माता मान लिया गया और पूजा गया .इन्सान अपने स्वार्थ के लिए ही किसी को पूजनीय मान लेता है.
यह कैसा देवी रूप?
हमारे शास्त्रों में स्त्री को देवी के रूप में पूजनीय बताया गया है. प्रत्येक पूजा पाठ में स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी मानते हुए उसका उपस्थित होना अनिवार्य माना गया है. प्रत्येक सामूहिक शब्द में नारी को प्राथमिकता देते हुए उच्चारण किया जाता है, जैसे देवी देवता, माता पिता, सीता राम,राधा कृष्ण अर्थात नारी को उच्च सम्मान दिया गया है. परन्तु फिर भी हजारों वर्षों से नारी को दोयम दर्जे का व्यव्हार दिया गया है. उसे भोग्या समझ कर उसका शोषण, उसका अपमान किया जाता रहा है.परन्तु क्यों?धार्मिक होने का दावा करने वाले अपने व्यव्हार में इतने अधार्मिक क्यों?क्या इस प्रकार का व्यव्हार धर्म का अपमान नहीं? शास्त्रों का अपमान नहीं? अपने इष्ट देव का अपमान नहीं?. नारी जागरण के लिए अनेक आन्दोलन चलने के बावजूद, अनेक सरकारी कानून बन्ने के बावजूद महिला के साथ हिंसा,दुर्व्यवहार,दुराचार अपमान आज भी जारी है.
राम नाम सत्य है
प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिए राम के नाम को सत्य मानना उसके विश्वास का प्रतीक है. परन्तु साधारण बोल चाल में यदि कोई कह दे "राम नाम सत्य है"तो शायद कोई भी कुपित हो जाय , कहने वाले को कातर निगाह से देखेगा. क्योंकि "राम नाम सत्य है" का उच्चारण सिर्फ मृतक को श्मशान घाट तक ले जाने के लिए वैध माना गया है . अर्थात राम का नाम सिर्फ जब ही सत्य है जब कोई मर जाय अन्यथा राम का नाम सत्य नहीं होता, राम का नाम सत्य कहना, अशुभ होता है., कितनी विरोधाभासी मान्यता है हमारे समाज की ?.

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शनिवार, 9 जुलाई 2011

विचार मंथन (भाग ३)


धर्म मानव के लिए है. या मानव धर्म के लिए.
जिस प्रकार विश्व में धर्म के नाम पर युद्ध की स्तिथि बन गयी है, ऐसा लगता है, प्रत्येक धर्म पूरी मानवता को अपना गुलाम बना लेना चाहता है. शायद धर्माधिकारी धर्म के वास्तविक उद्देश्य को भूल गए हैं. धर्म का वास्तविक उद्देश्य मानवता की सेवा करना है, मानव को सभ्यता के दायरे में रखकर समाज में मिलजुलकर, शांति पूर्वक, जीवन व्यतीत करने का मौका उपलब्ध कराना है.
किसी भी व्यक्ति को जन्म से पूर्व धर्म चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती. उससे नहीं पूछा जाता की वह कौन से देश और कौन से धर्म के समाज मैं जन्म लेना चाहता है. परन्तु प्रत्येक धर्म अपने जातकों को उसके नियम और आस्थाओं को मानने के लिए बाध्य करता है. पर क्यों?उसे तर्क संगत तरीके से अपने धर्म की विशेषताओं से प्रभावित क्यों नहीं किया जाता?उसे अपनी इच्छा अनुसार धर्म चुनने क्यों नहीं दिया जाता ? प्रत्येक धर्म का अनुयायी अपने धर्म को श्रेष्ठ एवं अन्य धर्म को मिथ्या साबित करता है. जबकि सबका उद्देश्य उस अज्ञात शक्ति तक पहुंचना है, जिसे विश्व का निर्माता माना गया है.
आस्था को सिर्फ आस्था तक ही सिमित क्यों नहीं किया जा सकता. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आस्था या विश्वास को मानने का अधिकार क्यों नहीं है?उसे अपने तर्क के आधार पर किसी धर्म को मानने की छूट क्यों नहीं दी जाती ?
क्या मुझे वेद पुराण जैसे धर्म ग्रंथों की बातों पर इसलिए विश्वास करना चाहिय क्योंकि मैं हिन्दू परिवार में पैदा हुए हूँ?
क्या मुझे कुरान एवं उसकी आयतों में इसलिए आस्था रखनी चाहिए क्योंकि मेरे जन्म दाता मुस्लिम हैं? और मुझे सच्चा मुस्लमान साबित होना होगा?
मुझे बाइबिल के दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिय क्योंकि मैं ईसाई हूँ या ईसाई परिवार में जन्म लिया है ,और मेरे माता पिता ईसाई धर्म के अनुयायी हैं?
अधिकतर धर्माधिकारी तर्क की धारणा सामने आते ही आग बबूला हो जाते हैं, वे सहन नहीं कर पाते. मानवता की सच्ची सेवा ,धर्म को लागू करने में नहीं , इनसानियत को लागू करने में होनी चाहिए. वही विश्व कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर सकता है.



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गुरुवार, 7 जुलाई 2011

विचार मंथन (भाग दो )

p style="text-align: center">बच्चों के साथ व्यव्हार में संतुलन
बच्चे के विकास में अभिभावकों की मुख्य भूमिका होती है. अभिभावकों के असंगत दवाबों में पल बढ़ रहा बच्चा संकोची एवं दब्बू बन जाता है. तानाशाही व्यव्हार बच्चे को कुंठित करता है. इसी प्रकार गंभीर विषम परिस्थितियों में पलने बढ़ने वाले बच्चे क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं. दूसरी तरफ अधिक लाड़ प्यार में पलने वाला बच्चा जिद्दी,उद्दंडी,एवं दिशा हीन हो जाता है. अनुशासनात्मक सख्ती बच्चे में आत्मसम्मान का अभाव उत्पन्न करती है.और आत्म ग्लानी तक ले जा सकती है.अतः अभिभावकों के लिए आवश्यक है की बच्चों के पालन पोषण में उसे निर्मल,स्वतन्त्र,प्यार भरा एवं अनुशासन का संतुलन का वातावरण उपलब्ध कराएँ. ताकि आपका बच्चा योग्य एवं सम्मानीय नागरिक बन सके. (कम शब्दों में गंभीर विचार)

राजनैतिक पदों के लिए शैक्षिक योग्यता क्यों नहीं?
सरकारी पदों पर चपरासी से लेकर सचिव की भर्ती पर न्यूनतम अहर्ता नियत होती है.उस योग्यता के आधार पर ही नियुक्ति की जाती है. परन्तु विधायक, संसद यहाँ तक मंत्री और प्रधान मंत्री तक के लिय फॉर्म भरते समय न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता नहीं होती क्यों? जबकि किसी भी राजनैतिक पद पर रह कर जनता की सेवा करना कम महत्वपूर्ण कार्य नहीं है.एक मंत्री पूरे मंत्रालय को चलाता है जिसमे अनेको I .A .S .अधिकारी उसके अधीन कार्य करते हैं उन्हें नियंत्रित करने के लिय योग्यता क्यों आवश्यक नहीं?शायद इसी का परिणाम है की हमारे देश में लोकतंत्र के नाम पर लूटतंत्र विकसित हो गया है. लालची राजनेता जनता की परवाह किये बिना अफसरों के हाथों की कठपुतली बने रहते हैं.योग्य मंत्री मंत्रालय को जनता की उम्मीदों के अनुसार चला पाने में समर्थ हो सकता है और सरकारी तंत्र की कमजोरियों को पकड कर उन पर चोट कर सकता है.

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सोमवार, 4 जुलाई 2011

विचार मंथन (भाग एक)

कलाकारों की फीस जनता के साथ अन्याय
समाचार पत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार बड़े बड़े एक्टर, टीवी. चेन्नल पर एक एपिसोड में अपना किरदार निभाने के करोड़ों रूपए अपने पारिश्रमिक के रूप में वसूलते हैं. इसी प्रकार विज्ञापन के लिए भी लाखों में फीस वसूल करते है. जबकि एक उद्योगपति के लिए अरबों रूपए लगाकर,अनेकों जोखिम उठाने के पश्चात् भी पूरे वर्ष में एक करोड़ की कमाई कर पाना निश्चित नहीं होता.क्या इन एक्टरों का कार्य इतना कष्ट साध्य या दुर्लभ है जिसके लिए उन्हें इतनी बड़ी कीमत चुकाई जाती है.कार्पोरेट सेक्टर के पास जनता का पैसा होता है अतः उन्हें खर्च करने में कोई परेशानी नहीं होती. एक्टरों द्वारा जनता में अपनी पहचान बना लेने की इतनी बड़ी कीमत वसूलना जनता के साथ, देश के साथ अन्याय है. सरकार को चाहिए जो कलाकार एक करोड़ रूपए से अधिक वार्षिक आमदनी करते हैं उनसे पचास प्रतिशत तक आय कर वसूल किया जाय .
यह कैसा सर्वशिक्षा अभियान?
गुलामी की जंजीरों से मुक्ति मिलने के पश्चात् हमारे देश की विभिन्न सरकारों ने देश की समस्त जनता को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया. समय समय पर अनेक कानूनों द्वारा साक्षरता मंत्रालय ने विभिन्न स्तर पर साक्षरता अभियान चलाये, शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिय, मिड डे मील,छात्रवृति इत्यादि प्रलोभनों से अभियान को प्रभावी करने का प्रयास किया. फलस्वरूप शिक्षा का प्रचार प्रसार द्वारा साक्षरता दर बढ़ी.परन्तु सरकार ने आज भी सर्वशिक्षा एवं शिक्षा की गुणवत्ता के लिए प्रयास अधूरे ही किये हैं. विद्यालयों ,कालेजों का अभाव आज भी सर्व विदित है . निजी स्कूल, कालेजों की आयी बाढ़ और उनके द्वारा अभिभावकों का शोषण इस बात का प्रयाप्त सबूत है, स्कूल कालेजों की संख्या आज भी अपर्याप्त है. उच्च गुणवत्त के स्कूल तो सिर्फ निजी सेक्टर के पास ही हैं
उपरोक्त स्तिथि तो तब है जब चालीस प्रतिशत बच्चे आज भी पढने जाते ही नहीं. सिर्फ पंद्रह प्रतिशत बच्चे ही हाई स्कूल तक पहुँच पाते हैं और सात प्रतिशत किशोर ही स्नातक बन पाते हैं .उच्च शिक्षा पाने वाले युवकों का प्रतिशत तो और भी कम hoga