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शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ता हमारा देश

 
पिछले कुछ समय से घटित देश की राजनैतिक गतिविधियों को देखें तो लगता है हमारा  देश उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ने लगा है.देश में  नित्य बढ़ रही अराजकता ,अत्याचार ,अनाचार ,हिंसा,विषमता को लगाम लगने की आशा जगी है.         जानते हैं कैसे;--
  १, गुजरात के मुख्य मंत्री  नरेन्द्र मोदी को अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की और से भावी प्रधान मंत्री का उम्मीदवार घोषित किया गया है.यहाँ पर यह बताना उचित होगा की मोदी को बी. जे. पी. का उम्मीदवार घोषित किया गया यह महत्वपूर्ण नहीं है ,महत्त्व पूर्ण है बहुत समय पश्चात् राष्ट्र पटल पर एक ऐसा नेता उभर कर आया है जिसके  पास देश के विकास के लिए अपनी सोच है.उसके अन्दर देश को विक्सित करने की इच्छा शक्ति  है,उसके पास अनेक उत्साहवर्द्धक योजनायें हैं,और उन योजनाओं को कार्यरूप देने की क्षमता भी है,अतः यदि आज का निराश मतदाता उस पर विश्वास करके उसे जिताता है और देश के सुखद भविष्य के सपने देखता है कुछ भी गलत न होगा।
२,अन्ना हजारे जैसे क्रांतिकारी नेताओं के प्रयास से देश को सूचना का अधिकार प्राप्त हुआ(RTI) ,जिस कानून के कारण सरकार  और नौकर शाही के काले कारनामे जनता के समक्ष आ सके,सत्तारूढ़ नेताओं की कार्यशैली का भंडाफोड़ हुआ.जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त टैक्स की बर्बादी जनता के सामने आ सकी.
३,सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश के अंतर्गत फैसला  दिया की जो भी व्यक्ति किसी भी अदालत द्वारा दोषी ठहराया जाता है और उसे दो वर्ष या उससे अधिक सजा दी जाती है,तो वह जनप्रतिनिधि के पद से वंचित हो जायेगा,और सजा काटने के उपरांत अगले छः वर्ष तक चुनाव नहीं लड़ सकेगा। 
४,हमारे नेताओं ने तुरंत सुप्रीम कोर्ट के आदेश को प्रभावहीन करने के लिए अध्यादेश तैयार कर लागू करने का प्रस्ताव किया, जो जनता के सर्वव्यापी विरोध के कारण,और माननीय राष्ट्रपति महोदय की सक्रियता के कारण, सरकार को वापस लेना पड़ा,जिसे जनता की बहुत बड़ी जीत के रूप में देखा जा सकता है. और सभी पार्टियों को उस अध्यादेश का विरोध करने का उपक्रम करना पड़ा.इस अध्यादेश के रद्द हो जाने से सभी पार्टियों को दागी नेताओं को चुनाव लडाने से बचना होगा, जो देश के विकास के  लिए सकारात्मक उपलब्धि सिद्ध होगा 
      यदि देश के नेता अपराधी नहीं होगे, स्वच्छ छवि वाले, मेधावी और राष्ट्रभक्त होंगे,देश की सेवा की भावना से ओत  प्रोत होगे तो,वे अपनी तिजोरी भरने की कम देश की और देश की जनता के भलाई के  लिए अधिक  सोच पाएंगे,सार्थक योजनायें बनायेंगे, जिससे देश का विकास निश्चित है। कानून व्यवस्था सुधरेगी,भ्रष्टाचार को लगाम लग सकेगी, जो जनता के लिए राहत कारी होगा,कल्याणकारी  होगा,देश का भविष्य उज्जवल बन सकेगा।     
​ 
 
 
 

  सत्य शील अग्रवाल 
  

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

हिंदी के समर्थन के लिए अंग्रेजी की उपेक्षा घातक!

हिंदी के समर्थन के लिए अंग्रेजी की उपेक्षा घातक!
    हिंदी का उत्थान उसका  प्रचार प्रसार ,उसकी समृद्धि,उसकी लोकप्रियता सभी देश वासियों के लिए गौरव की बात है।विदेशों में हिंदी को सम्मान मिलना,उसको एक भारतीय भाषा के रूप में सम्मान मिलना प्रत्येक भारतवासी का सम्मान है।अतः प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य है की वह अपनी राष्ट्र भाषा का सम्मान करे उसके प्रचार प्रसार में अपना योगदान दे,आपसी बातचीत में नित्य व्यव्हार में लाये।हिंदी साहित्य का अध्ययन करे और उसे समृद्ध करने में सहायक बने।हिंदी भाषा ही पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोकर वार्तालाप का सुलभ माध्यम बन सकती है, प्रत्येक देशवासी को अपनेपन का अहसास करा सकती है।
     सरकारी काम काज की भाषा हिंदी होने से  देश का प्रत्येक नागरिक,सरकारी कानून,सरकारी आदेश,सरकारी सन्देश,एवं समस्त सरकारी गतिविधियों का लेखा जोखा आसानी से समझ सकता है।उसे देश के कानूनों का पालन करने में आसानी होती है।देश का प्रत्येक नागरिक चुनावों में उचित एवं योग्य उम्मीदवार को वोट देकर देश के विकास में अपना सार्थक योगदान दे सकता है।अतः यह तो निश्चित  है,सर्वसाधारण द्वारा समझी जाने वाली भाषा ही देश के विकास में सहायक सिद्ध हो सकती है।समाज में शान्ति की स्थापना में सहायता मिल सकती है।किसी भी सरकार के लिए जनता से संपर्क बनाना और शासन व्यवस्था बनाये रखना आसान हो सकता है। 
    वर्तमान में हिंदी भाषी राज्यों में जनता दो वर्गों में विभाजित है,एक वर्ग बोलने में तो हिंदी का ही प्रयोग करता है परन्तु अपने कामकाज अंग्रेजी में करना अपनी शान समझता है,अपनी विद्वता की निशानी मानता है।उसके विचार से अंग्रेजी में कामकाज करना उसे आम व्यक्ति से ऊंचा करता है।इसलिए अंग्रेजी को छोड़ना नहीं चाहता,अंग्रेजी के पक्ष में अपनी आवाज को बुलंद करता है,वह हिंदी का समर्थन करने वालों को कम पढ़े लिखे या कम बुद्धिमान कह कर नकारता है।एक दूसरा वर्ग जो हिंदी समर्थक है अंग्रेजी को विदेशी भाषा बताकर उसका विरोध करता है,उसका हर संभव तिरस्कार भी करता है।शायद ये वो लोग हैं जो स्वयं को अंग्रेजी लिखने और पढने में असमर्थ पाते हैं।अतः अपनी अयोग्यता को ढकने के लिए यह वर्ग  अंग्रेजी का विरोध करता है।यह वर्ग हिंदी भाषी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश,बिहार, राजस्थान,इत्यादि में मिलता है,और यह भी सर्व विदित है ये सभी राज्य अन्य राज्यों से पिछड़े हुए भी हैं।शायद अंग्रेजी से दुराव भी उनकी गरीबी या बेरोजगारी का एक कारण हो।दक्षिण भारत के विद्यार्थी अपनी स्थानीय भाषा के साथ साथ,अंग्रेजी और हिंदी पर भी अपनी पकड़ बनाते हैं और राष्ट्रिय प्रतिस्पर्द्धा में आगे बढ़ जाते हैं।  
    वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेजी भाषा का अपना महत्त्व बढ़ गया है,वैश्विक स्तर पर किसी  अन्य देश के व्यक्ति से संपर्क करने के लिए (व्यापार करते समय,विदेशों में कोई जॉब करते समय )वार्तालाप का माध्यम अंग्रेजी भाषा ही होती है जिसे लगभग सभी देश के पढ़े लिखे व्यक्ति समझते हैं बोलते हैं।अतः सिर्फ धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाला युवक बिना किस अन्य योग्यता के भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में जॉब पा लेता है,और अच्छी खासी जिंदगी जीने योग्य हो जाता है।अतः वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में अपने विकास के लिए अंग्रेजी को अपनाना अत्यंत आवश्यक हो गया है, इससे  ही हमारी अपनी और देश की उन्नति निर्भर है।हिंदी भाषा को अपनाते हुए उसे पूर्ण सम्मान देता हुए, अंग्रेजी पर अपनी पकड़ बनाना कोई अपनी संस्कृति का अपमान  नहीं है और न ही देश के सम्मान के साथ कोई खिलवाड़।
     यदि हमें अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए,अपने व्यवसाय को अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर स्थापित करने के लिए,अपने समाज और देश को विकास की ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए ,अंग्रेजी को सीखना और समझना आवश्यक है तो इसमें बुराई क्या है।हिंदी को समर्थन देने का अर्थ यही नहीं हो सकता की हम अंग्रेजी को एक विदेशी भाषा होने के कारण नकार दें।अंग्रेजी की उपेक्षा करना स्वयं अपने साथ अन्याय होगा।वर्तमान दौर में हमारा देश विकासोन्मुख है,हमें विश्व स्तर पर अपनी योग्यता,अपनी कार्यक्षमता एवं गुणवत्ता साबित करनी है,विश्व में हमें विकसित देश के तौर पर अपनी पहचान बनानी है।जब हम अपने देश को विकसित देशो की श्रेणी में खड़ा कर लेंगे,तो अन्य  देश वासियों को मजबूर कर सकेंगे की वे हमारी भाषा में हमसे व्यव्हार करें,जब हम अपनी शर्तों पर व्यापार कर सकेंगे। दुनिया हमारे सामने नत मस्तक होगी और हमारी भाषा को सीखने को मजबूर होगी। तब हम वास्तव में अंग्रेजी को नकार सकते हैं।अतः अभी अपने देश को अपने समाज को उन्नत बनाने के लिए अंग्रेजी का तिरस्कार करना आत्मघाती हो सकता है। 

-    सत्य शील अग्रवाल,  532/6, शास्त्री नगर मेरठ 
             



 

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

मृत्यु भोज देना कितना उचित?

                  हिन्दू समाज में जब किसी परिजन की मौत हो जाती है,तो अनेक रस्में निभाई जाती हैं।उनमे सबसे आखिरी रस्म के तौर पर मृत्यु भोज देने की परंपरा निभाई जाती है।जिसके अंतर्गत गाँव या मौहल्ले के सभी लोगों को भोजन कराया जाता है।इस दिन तेरेह ब्राह्मणों को भोजन कराने के तत्पश्चात सभी (अड़ोसी, पडोसी, मित्र गण,रिश्तेदार) आमंत्रित अतिथियों को भोजन कराया जाता है। इस भोज में सभी को पूरी और अन्य व्यंजन परोसे जाते हैं।अब प्रश्न उठता है क्या परिवार में किसी प्रियजन की मृत्यु के पश्चात् इस प्रकार से भोज देना उचित है ?क्या यह हमारी संस्कृति का गौरव है की हम अपने ही परिजन की मौत को जश्न के रूप में मनाएं?अथवा उसके मौत के पश्चात् हुए गम को तेरह दिन बाद मृत्यु भोज देकर इतिश्री कर दें ? क्या परिजन की मृत्यु से हुई क्षति तेरेह दिनों के बाद पूर्ण हो जाती है, अथवा उसके बिछड़ने का गम समाप्त हो जाता है? क्या यह संभव है की उसके गम को चंद दिनों की सीमाओं में बांध दिया जाय और तत्पश्चात ख़ुशी का इजहार किया जाय। क्या यह एक संवेदन शील और अच्छी परंपरा है? हद तो जब हो जाती है जब एक गरीब व्यक्ति जिसके घर पर खाने को पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध नहीं है उसे मृतक की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज देने के लिए मजबूर किया जाता है और उसे किसी साहूकार से कर्ज लेकर मृतक के प्रति अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।और हमेशा के लिए कर्ज में डूब जाता है,सामाजिक या धार्मिक परम्परा निभाते निभाते गरीब और गरीब हो जाता है।कितना तर्कसंगत है यह मृत्यु भोज ?क्या तेरहवी के दिन धार्मिक परम्पराओं का निर्वहन सूक्ष्म रूप से नहीं किया जा सकता,जिसमे फिजूल खर्च को बचाते हुए सिर्फ शोक सभा का आयोजन हो।मृतक को याद किया जाय उसके द्वारा किये गए अच्छे कार्यों की समीक्षा की जाय।उसके न रहने से हुई क्षति का आंकलन किया जाय।सिर्फ दूर से आने वाले प्रशंसकों और रिश्तेदारों को साधारण भोजन की व्यवस्था की जाय।
                अत्यधिक खेद का विषय तो यह है की जब घर में कोई बुजुर्ग मरता है तो उसे ढोल नगाड़ों के साथ श्मशान घाट तक ले जाया जाता है,उसके पार्थिव शरीर को गुब्बारे,झंडियों,पताकाओं ,जैसी अनेक वस्तुओं से सजाया जाता है जिसे विमान का नाम दिया जाता है।और सब कुछ परमपराओं के नाम पर तत्परता से किया जाता है।मरने वाला बूढा हो या कोई जवान, था तो परिवार का एक सदस्य ही।अतः परिजन के बिछुड़ने पर जश्न का माहौल क्यों?इन परम्पराओं को निभाने वालों में कम पढ़े लिखे या पिछड़े वर्ग से ही नहीं होते, अच्छे परिवारों में और उच्च शिक्षित व्यक्ति भी शामिल होते हैं।क्या यह बिना सोचे समझे परम्पराओं को निभाते जाना,लकीर पीटते जाना नही है? क्या यह हमारे रिश्तों में संवेदनशीलता का परिचायक माना जा सकता है? क्या इन दकियानूसी कर्मों में फंसे रह कर हम विकास कर पाएंगे ,विश्व की चाल से चाल मिला पाएंगे?



     {वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर आधारित पुस्तक “जीवन संध्या”  अब ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है.अतः सभी पाठकों से अनुरोध है www.jeevansandhya.wordpress.com पर विजिट करें और अपने मित्रों सम्बन्धियों बुजुर्गों को पढने के लिए प्रेरित करें और इस विषय पर अपने विचार एवं सुझाव भी भेजें. }
मेरा   इमेल पता है ----satyasheel129@gmail.com
 


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रविवार, 21 जुलाई 2013

बुजुर्गो का नजरिया अपनी संतान के प्रति

      अक्सर देखा गया है की बुजुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नजरिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है.वे अपनी संतान को अपने अहसानों के लिए कर्जदार मानते हैं. उनकी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपनी संतान को बचपन से लेकर युवावस्था तक लालन पालन करने में अनेक प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ा,जिसके लिए उन्हें अपने खर्चे काट कर उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा, उनकी आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास किये. ताकि भविष्य में ये बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बने.जब आज वे स्वयं कमाई करने लगे हैं तो उन्हें सिर्फ हमारे लिए सोचना चाहिए, हमारी सेवा करनी चाहिए. कभी कभी तो बुजुर्ग लोग संतान को जड़ खरीद गुलाम के रूप में देखते हैं.

बुजुर्ग लोग दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा विरोधी व्यव्हार से क्षुब्ध रहते हैं.उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान को दोषी मानते हैं.वे उनकी तर्क पूर्ण बातों को बुजुर्गों का अपमान मानते हैं.वे युवा पीढ़ी की बदली जीवन शैली से व्यथित होते हैं.नयी जीवन शैली की आलोचना करते हैं.क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान तो करना चाहती है या करती है परन्तु चापलूसी के विरुद्ध है. परन्तु बुजुर्ग उनके बदल रहे व्यव्हार को अपने निरादर के रूप में देखते हैं. बुजुर्गो के अनुसार उनकी संतान को परंपरागत तरीके से अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए ,नित्य उनके पैर दबाने चाहियें उनकी तबियत बिगड़ने पर हमारी मिजाजपुर्सी को प्राथमिकता पर रखना चाहिए. उन्हें सब काम धंधे छोड़ कर उनकी सेवा में लग जाना चाहिए और यही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए. यही संतान का कर्तव्य होता है.उनके अनुसार संतान की व्यक्तिगत जिन्दगी, उसकी अपनी खुशियाँ, उसका अपना रोजगार, उसका अपना परिवार कोई मायेने नहीं रखता.और जब संतान उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो वे उन्हें अहसान फरामोश ठहराते हैं.
बुजुर्गो के अनुसार आज की नयी पीढ़ी अधिक स्वछन्द और अनुशासन हीन हो गयी है.वह पहनावे के नाम पर अर्ध नग्न कपडे पहनती है, उसके परिधान अश्लील हो गए हैं,देर से उठना, देर से सोना ,जंक फ़ूड खाना इत्यादि सब कुछ अप्राकृतिक हो गया है.ऐसे सभी जीवन शैली के बदलावों से पुरानी पीढ़ी खफा रहती है,आक्रोशित रहती है,और जब वे उन्हें बदल पाने में असफल रहते है तो कुंठा के शिकार होते हैं. परिवर्तन प्रकृति का नियम है इस पर किसी का बस नहीं चलता. प्रत्येक बदलाव से जहाँ कुछ सुविधाएँ जन्म लेती है तो कुछ बुराईयां (बुजुर्गो के अनुसार)भी पैदा होती हैं.और होने वाले परिवर्तनों को कोई नहीं रोक सकता.अतः नए बदलावों को स्वीकार कर ही नयी पीढ़ी से सामंजस्य बनाया जा सकता है यह स्वीकृति ही बुजुर्गो के हित में है.
कभी कभी घर के बुजुर्ग व्यक्ति अपनी संतान के मन में उनके लिए सम्मान को, अपनी मर्जी थोपने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन्हें भावनात्मक रूप से ब्लेक मेल करते हैं.इस प्रकार से यदि कोई बुजुर्ग अपने पुत्र या पुत्रवधू को अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाते हैं,जैसे उन्हें शहर से दूर कही रोजगार के लिए नहीं जाना है या विदेश नहीं जाना,(चाहे उन्हें मिला जॉब का आमंत्रण ठुकराना पड़े.) वर्ना वे उसे कभी माफ़ नहीं करेंगे ,या वे अनशन कर देंगे इत्यादि इत्यादि. इस प्रकार से वे अपनी संतान के भविष्य के साथ तो खिलवाड करते ही हैं, उनके मन में अपने लिए सम्मान भी कम कर देते हैं. और उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं. अतः प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने हित से अधिक संतान के हित के बारे में सोचें ताकि उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो या कम से कम हो.
अनेक परिवारों में देखा गया है की माँ ने अपना पूरा जीवन विधवा या परित्यक्ता होकर भी अनेक कष्ट उठा कर अपने परिवार का पालन पोषण किया होता है, या फिर पिता ने बिना पत्नी के अर्थात बच्चो की माँ के अभाव में अपने बच्चों को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर बड़ा किया होता है,परिवार में पिता की विधवा बहन रहती है जिसे पारिवारिक सुख नसीब नहीं हुआ ,ऐसे परिवारों में जब बच्चे बड़े होकर अपने जीवन साथी के साथ सुखी पारिवारिक जीवन बिताना शुरू करते हैं है तो घर के बड़ों को सहन नहीं होता वे असहज हो जाते हैं.और पुरानी बातों को याद कर परिवार के वातावरण को बोझिल बना देते हैं.कभी कभी तनाव पूर्ण स्थिति भी बन जाती है. क्योंकि वे अपने परिवार के नवयुवक को अपनी पत्नी के साथ हंसी मजाक करते देख खीज का अनुभव करते हैं.जो उनके व्यव्हार से भी स्पष्ट होता रहता है.परन्तु अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं से संतान को आहत करना कितना उचित है? अपनी खीज व्यक्त कर अथवा तनाव पूर्ण वातावरण दे कर किसका भला हो सकता है? ऐसा व्यव्हार शायद आपको नयी पीढ़ी से अलग थलग कर दे. इस सन्दर्भ में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आपके हित में होगा. बल्कि आपको खुश होना चाहिय की आप की मेहनत और तपस्या का ही तो फल है,जो आज आपके बच्चों के जीवन में खुशियाँ आ पायीं. बच्चों की खुशियाँ ,उनकी किलकारियां,आपकी ही महनत का परिणाम है. अतः उनके साथ खुश होना आपका सम्मान बढ़ाएगा .वैसे भी उनकी खुशियों के लिए ही तो आपने अपने जीवन साथी के न होते हुए भी अनेक कष्ट उठा कर उनको यहाँ तक ला पाए और बच्चे को अपने जीवन को हंसी खुशी जीने लायक बन पाए.अपने जीवन के दुखद क्षणों को भूलकर परिवार की खुशियों में अपना योगदान दें और वातावरण को प्रफुल्लित बनायें, उससे ही आपकी संतान के मन में आपके लिए श्रृद्धा भाव जागेगा. और हमेशा यही कामना करें की जैसा कष्टदायक जीवन अपने जिया है आपके बच्चों को उसकी परछाई भी न पड़े. उनके जीवन में दुनिया भर की खुशियाँ सदैव बनी रहें. वे समाज में सम्मान पूर्वक जियें और निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढते रहें. आपका अपने बच्चों के प्रति सकारात्मक नजरिया ही परिवार को प्रफुल्लित करेगा, और आपका शेष जीवन सुखद, शांति पूर्ण, एवं सम्मानजनक व्यतीत होगा.
- सत्य शील अग्रवाल, शास्त्री नगर मेरठ

बुधवार, 3 जुलाई 2013

अभिशप्त आस्था के केंद्र




        प्रतिवर्ष सैंकड़ो व्यक्ति अपने आस्था के केन्द्रों पर आने वाली विभिन्न प्रकार की विपदाओं के कारण मौत के शिकार होते हैं।आस्था के केन्द्रों से तात्पर्य , विभिन्न धार्मिक स्थानों से है अर्थात मंदिरों, मठों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, या फिर पवित्र नदियों के घाटों पर(कुम्भ मेले इत्यादि ) या अन्य स्थानों पर होने वाले धार्मिक आयोजनों से है।उत्तराखंड में गत दिनों में आयी विपदा को सिर्फ प्राकृतिक विपदा के रूप में नहीं देखा जा सकता।प्राकृतिक घटनाओं पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता परन्तु उचित सावधानियां और कुशल प्रबंधन से उन हादसों की तीव्रता को कम किया जा सकता है ,जान माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।

अक्सर देखा गया है धार्मिक स्थलों या धार्मिक आयोजनों में अप्रत्याशित भीड़ जुट जाती है जो संभावनाओं से कहीं अधिक हो जाती है और स्थानीय प्रशासन द्वारा किये गए सभी प्रबंध बौने साबित होते है अर्थात अपर्याप्त सिद्ध होते है। किसी भी दुर्घटना की स्थिति में शासन और प्रशासन की शिथिलता और संवेदनहीनता खुल कर सामने आती है, जो पीड़ितों की परेशानियों को और भी बढ़ा देती हैं।जो यह सिद्ध करती है की हमारी सरकारें जनता के जान माल के लिए कितनी फिक्रमंद हैं,शायद उनके कार्य शैली में आम व्यक्ति की जान की कोई कीमत नहीं है,हमारे राज नेता विप्पति में भी अपनी राजनीती से बाज नहीं आते।नौकरशाहों के लिए भी उनका जनता के दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो सिर्फ अपने आकाओं को खुश रखना ही उनकी नौकरी बचाए रखने के लिए काफी है।
सभी धार्मिक स्थलों पर या धार्मिक आयोजनों के समय स्थानीय प्रशासन यात्रियों ,आगंतुकों,श्रद्धालुओं से भारी प्रवेश शुल्क वसूल किया जाता है,फिर भी यात्रियों के जान माल की सुरक्षा और सुविधाओं का सदैव अभाव बना रहता है।सरकारी मशीनरी द्वारा उपलब्ध कराये गए साधन और सुविधाएँ हमेशा अपर्याप्त ही होते है।विपत्ति की स्थिति में तो जैसे प्रशासन की नींद बहुत देर से खुलती है, शायद जब खुलती है जब मीडिया में बहुत के शोर शराबा होने लगता है।अक्सर देखा गया है पीड़ित व्यक्ति अपने प्रयासों से ही विप्पत्ति से बहार आता है या फिर किसी हादसे का शिकार होकर अपनी जान गवां बैठता है।,सिर्फ कुछ निजी संगठनों का सहयोग ही मिल पाता है जिनके कार्य कर्ताओं में मानवता के प्रति स्नेह होता है और सेवा भाव झलकता है।निजी संगठनों की अपनी सीमायें होती है वे दुर्घटना को रोकने के उपाय नहीं कर सकते। किसी भी दुर्घटना की सम्भावना को रोकना शासन या प्रशासन द्वारा ही संभव है।उनकी जिम्मेदारी है की विकास कार्यों की योजना बनाते समय पर्यावरण की सुरक्षा का ध्यान रखे और पर्यटक एवं जनता के हितों का भी ध्यान रखा जाय।साथ ही स्थानीय व्यवस्था को इस प्रकार से निरापद बनाया जाय ताकि कोई भी अनहोनी की आशंका न रह जाय।जिसके लिए शासकों,योजना कारों में इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
जनता द्वारा उत्तराखंड की भयानक आपदा के सन्दर्भ में निम्न प्रश्न शासन से पूछना स्वाभाविक है;
***क्या उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा की भयानकता को कम करना संभव नहीं था?
***क्या धर्मिक आयोजनों एवं धार्मिक स्थलों का प्रबंधन और व्यवस्था आधुनिक तकनीक द्वारा संभव नहीं है?
****क्या धार्मिक स्वतंत्रता के रहते श्रद्धालुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन प्रशासन की नहीं है?या सिर्फ टैक्स वसूलना ही उसकी जिम्मेदारी है ताकि नेताओं की जेबें लबालब भरती रहें??
(जनता की जिम्मेदारी ;-क्या एक श्रद्धालु का समाज के प्रति कर्तव्य नहीं बनता की वह हर वर्ष चार धाम की यात्रा न कर, जीवन में सिर्फ एक बार यात्रा का प्रण ले,ताकि अन्य श्रद्धालुओं को सुविधा मिल सके,भीड़ कम हो सके जिससे दुर्घटना की सम्भावना घटती है।क्या उनके लिए धन और श्रद्धा से बढ़ कर सामाजिक दायित्व नहीं है?)
यदि कुछ निचे लिखे उपायों पर ईमानदारी से निर्वहन किया जाय तो शायद दुर्घटनाओं को कम किया जा सकता है और किसी विपत्ति के समय शीघ्रता से राहत कार्य किये जा सकते हैं।
,पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ यात्री काफी संख्या में पहुँचते हैं,विशेष तौर पर धर्मिक स्थलों जैसे उत्तर के चार धाम,कुंभ मेले,अन्य पर्यटन स्थल इत्यादि ,ऐसे स्थानों पर पहुँचने के लिए अनेक मार्ग होने चाहिए,जिसमे अनेक सड़कों के अतिरिक्त रोप वे ,एयर वेज़ इत्यादि। कम से कम दो रोप वे बने और एक ऐसा स्थान बने जहाँ हवाई जहाज को उतरने की सुविधा हो।
,पर्वतिये क्षेत्रों के विकास कार्यों की योजना बनाते समय पृकृति का दोहन करने के लिए पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के उपाय भी होने आवश्यक हैं,और यह सुनिश्चित किया जाय की प्राकृतिक आवेगों के सञ्चालन में कोई बाधा उत्पन्न न हो पाए।
(प्रकृति के दोहन से तात्पर्य है ऊर्जा आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए बांध का निर्माण,इंधन या लकड़ीअथवा खाद्य आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए पेड़ों,पौधों की कटाई,निर्माण कार्य के लिए जंगलों की सफाई,खनिज आवश्यकताओं के लिए खनन कार्य,जानवर के मांस,खाल,दन्त जैसी आवश्यकताओं के लिए वन्य जीवों का वध इत्यादि)
,धार्मिक स्थल,पर्यटन स्थल पहाड़ पर हो या मैदान में उनके प्रवेश पर पर्याप्त जाँच व्यवस्था हो,प्रत्येक आगंतुक का परिचय फोटो सहित पंजीकृत किया जाय(जो CCTV द्वारा भी संभव है) ताकि विपत्ति के समय उसकी पहचान और उसके परिजनों से संपर्क साधने में आसानी हो। साथ ही आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगा रहे।ऐसे सभी स्थलों पर(धार्मिक हो या अन्य ) जहाँ पर्यटक भारी संख्या में पहुचते हो,आपदा पर्बंधन की टीम पूरे साजो सामान के साथ उपस्थित रहे।
,प्रत्येक पर्यटक ,यात्री ,श्रद्धालु ,का पर्यटन स्थल पर प्रवेश करते ही उसका बीमा किया जाये ताकि उसे विपत्ति के समय आर्थिक सहायता मिलने में कोई संशय न रहे।तुरंत राहत मिल सके।
,यात्रियों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए प्रवेश के समय टोकन दिए जाएँ जिन्हें लौटते समय वापिस लिया जाय।और पर्यटन स्थल की क्षमता के अनुसार ही प्रवेश की इजाजत दी जाय।
उपरोक्त उपायों को अपनाये जाने से निश्चित ही किसी भी आपदा की आशंका और उसकी भयावहता पर नियंत्रण किया जा सकता है

गुरुवार, 9 मई 2013

विकास के लिए धार्मिक कट्टरवाद से मुक्त होना आवश्यक



 ‘‘किसी भी देश को विकास पथ पर निरंतर आगे बढ़ने के लिए धार्मिक कट्टरवाद से मुक्त होना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। धार्मिक सहिष्णुता और इंसानियत धर्म के पालन से ही विकास संभव है।’
वैश्वीकृत विकास के वर्तमान स्वरूप को समझना होगा। यातायात एवं संचार साधनों के विकास के साथ ही गांव से शहर और शहर से मैट्रो शहर और इसी प्रकार पूरे विश्व के देश आपस में इस प्रकार जुड़ चुके हैं कि पूरा संसार एक संयुक्त गांव की भांति हो गया है। पूरे विश्व का विकास एक साथ हो रहा है और सब देश अन्य देशों पर निर्भर हो गये हैं। सभी देशों को अन्य देशों से व्यापारिक सम्बन्ध बनाये रखना आवश्यक हो गया है। बिना व्यापारिक सम्बन्धों के देश की जनता अपना सामान्य जीवन जीने से भी वंचित हो जाती है,उन्नति तो दूर की बात रह जाती है। भौतिकवादी वर्तमान युग में किसी एक देश के लिए सम्भव नहीं है कि वह अपने संसाधनों, वन संपदा, खनिज संपदा और कारखानों में उत्पादित वस्तुओं से अपनी जनता की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। कोई भी उत्पादक देश अपने उत्पादन को सिर्फ देश तक सीमित कर उत्पादन लाभ नहीं ले सकता। अतः जहाँ विकसित देश अपने उत्पादन बेचने के लिए अविकसित एवं विकासशील देशों में बाजार ढूंढने को मजबूर हैं तो गरीब एवं विकासशील देश की जनता को विभिन्न उत्पादक वस्तुओं के लिए विकसित देशों का सहारा लेना पड़ता है। विकसित देशों के पास पूंजी है परन्तु श्रम शक्ति की कमी है तो विकासशील देशों के पास पूंजी का अभाव है, बेरोजगारी है, अथाह श्रम शक्ति है। अतः सभी देशों को किसी न किसी रूप में एक-दूसरे पर निर्भर रहना होता है।
             उपरोक्त निर्भरता को इस प्रकार समझा जा सकता है। एक बाग में बहुत बड़ी मात्रा में सेब लगे हैं यदि वह स्थानीय बाजार में बेचे जायें तो स्थानीय खपत के पश्चात बहुत बड़ी मात्रा में सेब बच जाता है यदि उसे अन्य किसी शहर और फिर किसी अन्य देश को न भेजा जाये तो बाकी बचा सेब सड़ जायेगा और सेब उत्पादक को अपने उत्पाद का पूरा लाभ न मिलकर कम लाभ से सब्र करना पड़ेगा और शायद अगली फसल के उत्पादन की तैयारी भी कम उत्साह से करेगा । परन्तु यदि उसके सेबों को खरीदने के लिए अन्य शहरों एवं अन्य देशों से व्यापारी आते हैं, उसे बचे सेब की खेप के उचित दाम मिल जाते हैं और व्यापारी जिस देश से आते हैं उस देश की जनता को सेब का रसास्वादन करने को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार विश्व की जनता प्रत्येक देश के उत्पादन का उपभोग कर सकती है, यद्यपि वह वस्तु उसके देश में उत्पादित नहीं होती। और विश्व का प्रत्येक देश अन्य देशों से सम्बद्ध हो चुका है। अन्य देशों पर निर्भरता बढ़ गई है।
        इसी प्रकार यदि किसी देश के अन्य देशों से सम्बंध मधुर नहीं हैं तो उस देश से नवविकसित तकनीक एवं टैक्नीशियन प्राप्त नहीं कर सकता और कारखानों में उत्पादन पुरानी तकनीक से करते रहने को मजबूर होगा। यदि आपस में सबसे मधुर सम्बंध बने हुए हैं किसी देश से आवश्यकतानुसार श्रम शक्ति (इंजीनियर एवं विशेषज्ञ) आयात कर अपने देश की आवश्यकताएं पूर्ति कर सकता है। किसी देश के विकास के लिए पूरे विश्व से सहयोग सहभागिता, व्यापार सम्बंध आवश्यक हैं। धार्मिक कट्टरता विभिन्न देशों से सम्बंधों में मधुरता नहीं ला सकती।
         आज हमारा भौतिक विकास इस स्तर तक पहुंच गया है कि इससे ऊपर विकास करने के लिए विश्व समुदाय को एक साथ मिलकर चलना होगा। कोई भी देश प्रत्येक वस्तु का उत्पादन नहीं कर सकता। सभी देशों की वन सम्पदा, खनिज सम्पदा, बौद्धिक सम्पदा भिन्न जलवायु के कारण अलग-अलग है। विकास के लिए सभी प्रकार के खनिजों, वनस्पतियों एवं बौद्धिक क्षमताओं की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त कल कारखानों के उत्पादन के आदान-प्रदान के लिए प्रत्येक देश को एक-दूसरे की आवश्यकता होती है जो आज के विकास का मुख्य स्रोत बने हुए हैं। कल कारखाने के विकास से ही हमारे जीवन में सुविधाएं उपलब्ध हो पाती हैं और हमारा जीवन स्तर ऊँचा होता है। एक कार निर्माता को कारखाना लगाने के लिए पहले भारी पूंजी जुटानी होती है वह अपने देश और विदेश से धन एकत्र करता है फिर उसकी उत्पादित कारों के लिए विश्व का बाजार चाहिये वरना उसका उत्पादन सीमित रह जायेगा और सीमित उत्पादन से कारखाने की लागत के खर्चे, उत्पादन में नियोजित श्रम एवं मशीनरी की मेंटीनेंस के खर्चे पूरे न हो पाने के कारण कारखाने को चलाते रहना असम्भव हो जायेगा। इसी प्रकार सभी कारखाने विश्व समुदाय के सहयोग से ही चल पाते हैं और वस्तुओं की कीमत हर इंसान की पकड़ में आ पाती है।
         कारखानों के अतिरिक्त आज एक और विकास की ओर मानव उत्सुकता से देख रहा है। वह है ब्रह्मांड की खोज उसकी सौर मंडल की जानकारी और यह अध्ययन किसी एक देश के बूते के बाहर है अनेकों गृहों पर अपने यान भेजना, उपग्रह भेजना काफी मंहगे और श्रम साध्य कार्य हैं। अतः अनेक देश एक साथ एक मिशन बनाकर अपने रिसर्च वर्क को अंजाम देते हैं। उसी प्रकार असाध्य रोगों से लड़ने के लिए शोध कार्य सभी देश आपसी सहयोग से मानव जाति के हित के लिए कार्य करते हैं।
              इतिहास उठाकर देखने से ज्ञात होता है पुराने समय में प्रायः अपने देश के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए अपनी काफी ऊर्जा व्यय करनी पड़ती थी। यद्यपि रक्षा व्यय अब भी काफी होते हैं परन्तु किसी देश का अस्तित्व खतरे में नहीं रहता क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय किसी भी देश को अन्य देश पर कब्जा करने नहीं दे सकता है। अतः विश्व समुदाय से अलग हो देश का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है।
         यदि मानव सामाजिक प्राणी नहीं होता तो जिस विकास की मंजिल पर आज पहुंचा है, पहुंचना सम्भव था। तुम अकेले अथवा कुछ परिवार मिलाकर क्या कर सकते हो? अपने लिए कपड़े बना सकते हो उसको सिलने के लिए मशीन और बटन तैयार कर सकते हो, मशीन के लिए लोहे के कारखाने और खान से लोहा निकाल सकते हो।क्या तुम खेतीबाड़ी में सभी आवश्यक खाद्य पदार्थ अपने लिए पैदा कर सकते हो, जैसे गेहूं, विभिन्न मसाले, सब्जियां बहु प्रकार के फल पैदा कर पाओगे?  क्या कागज और पैन प्राप्त करने के लिए, जूता तैयार करने के लिए, सोना चांदी उत्पादन, विभिन्न दवाईयां प्राप्त करने के लिए स्वयं कारखाने लगाने के लिए सक्षम हो सकते हो?   टी.वी. फ्रिज, मोबाइल, स्कूटर, कार, मकान के लिए सीमेंट, ईंट, क्या-क्या तुम स्वयं तैयार कर सकते हो? यही कारण है अब एक शहर या गांव तक सीमित नहीं रह गया है, पूरे देश के लिए भी असम्भव हो गया है कि वह स्वयं सब कुछ तैयार कर जनता को विश्व स्तरीय जीवन स्तर दिला सके।
        इसी वजह से भारतीय नेताओं ने, विशेषज्ञों ने विश्व उद्यमियों के लिए भारत में उदारता के द्वार खोले और आर्थिक उन्नति के लिए स्वयं को विश्व समुदाय के साथ जोड़ा जिसने सवतंत्र प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया। जनता को रोजगार के अवसर प्राप्त हुए और विश्व स्तरीय वस्तुओं का उपयोग करने का मौका मिला, साथ ही देश के कारखानों, बागानों, खेत खलिहानों के लिए विश्व का बाजार मिला ताकि उन्हें उचित कीमत मिल सके और अधिक उत्पादन के अवसर मिल सकें।
      उपरोक्त उदाहरणों से वस्तु स्थिति स्पष्ट हो गयी होगी कि क्यों विश्व सहयोग चाहिये?कोई भी समाज अथवा देश विकास के पथ पर आगे बढ़ना चाहता है तो धार्मिक उदारता को गले लगाना होगा। सभी धर्मों का सम्मान ही विश्व के अन्य धर्म प्रेमियों को जोड़ सकता है। किसी से व्यापार सम्बन्ध बनाने के लिए जातिवाद, कट्टरवाद काम नहीं आ सकता। स्वतन्त्र प्रतिस्पर्द्धा के लिए सभी धर्मों को आमन्त्रित करना होगा। उनकी धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखना होगा। उन्हें अपने देश में खुलेपन, दूरदर्शिता का वातावरण प्रदान करना होगा। कोई भी देश अपनी शर्तों पर दूसरे देश से स्वछन्द व्यवहार नहीं कर सकता।  आज विश्व में विकसित देशों के अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जो ‘सर्वधर्म सम्भाव’ का उदाहरण बनकर विकसित हुए हैं। अमेरिका, ब्रिटेन अन्य यूरोपीय देश सभी निष्पक्ष न्याय एवं व्यवहार में विश्वास करते हैं। स्वयं ईसाई होते हुए भी सभी अन्य धर्मानुयायी वहाँ निवास करते हैं जिन्होंने वहाँ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। अमेरिका में अनेक उच्च श्रेणी के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, राजनीतिज्ञ भारतीय मूल के हिन्दू या मुसलमान हैं। खाड़ी के देशों का उदाहरण सबके सामने हैं, जिस देश ने धार्मिक उदारता दिखाई विकसित श्रेणी के देशों में खड़ा हो गया जैसे कुवैत, यूएसई, ओमान, बहरीन, कतर इत्यादि सभी मुस्लिम देश हैं परन्तु अपनी उदारता के कारण सर्वसाधन सम्पन्न हो गये। जबकि ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सउदी अरब अपनी कट्टरता को न छोड़ पाने के कारण आज भी विकसित नहीं हैं। जबकि ईरान, इराक, सउदी अरब के पास अकूत तेल सम्पदा है। अफगानिस्तान के पास प्राकृतिक सम्पदा की कोई कमी नहीं है परन्तु कट्टरता के कारण अशांत क्षेत्र है और अविकसित है। अतः धार्मिक उदारता ही विकास की सीढ़ी पर चढ़ने का मौका दे सकती है। क्योंकि विश्व में अब राजतन्त्र के दिन लद चुके हैं। धीरे-धीरे सभी देश लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं। लोकतन्त्र अर्थात जनता के वोट पर आधारित सरकारी तंत्र।
            अतः यह आवश्यक हो जाता है कि जनता के प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक धर्म का सम्मान किया जाये। प्रत्येक देश के लिए धर्मनिरपेक्ष होना आवश्यक होता जा रहा है। देश के कोने-कोने में शांति और विकास की लहर लाने के लिएधार्मिक उदारता मुख्य मार्ग है।(SA-105D)
-     सत्य शील अग्रवाल,   शास्त्री नगर मेरठ

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

क्यों करते हैं हम पूजा


 
 आज ईश्वर  के अस्तित्व को नकारने वालों  की संख्या निरंतर बढती जा रही है।ऐसे लोग बिना तर्कपूर्ण तथ्यों  के सिर्फ आस्था के आधार  पर ईश्वरीय सत्ता को मानने को तैयार नहीं हैं।यदि इश्वर के अस्तित्व को मान  भी लिया जाय ,परन्तु ईश्वर  को खुश रखने के लिए उसकी पूजा अर्चना करना तर्कसंगत नहीं  लगता है। अपने इष्ट देव की पूजा आराधना करने का क्या औचित्य है?यह भी विचार मंथन का विषय है। पूजा के क्या लाभ हैं,क्या पूजा करना आवश्यक है?और क्यों?इश्वर अपनी भक्ति क्यों करवाना चाहता है?क्या वह भी मानव की भांति चापलूस पसंद है?यदि एक सर्वशक्तिमान भी चापलूसी जैसे सांसारिक दोषों का शिकार है तो उसकी सार्वभौमिकता  भी अपने आप में प्रश्न चिन्ह खड़ा करती  है। विश्व पटल पर विद्यमान सभी धर्मों की मान्यता है की, अपने आराध्य देव की पूजा करके उसे खुश किया जा सकता है और अपनी इच्छा पूर्ती के लिए इश्वर का सहयोग लिया जा सकता है। क्या  सिर्फ इश्वर की पूजा आराधना से मनुष्य अधिक सुख शांति पाने का अधिकारी हो जाता है? क्या उसका परिश्रम,अध्यवसाय,ईमानदारी इत्यादि सुख प्राप्त करने के साधन नहीं हैं?क्या कोई व्यक्ति अनैतिक,हिंसक,अवैध कार्य करने के पश्चात् भी पूजा के माध्यम से अपने गुनाहों से मुक्ति पा सकता है? यदि ऐसा संभव है तो  सिर्फ पूजा अर्चना द्वारा खुशियाँ  प्राप्त कर लेने की धारणा इन्सान को निष्क्रिय बनाने की प्रेरणा स्रोत नहीं बन जाती?यानि पहले अनैतिक,अवैधानिक,असामाजिक कार्य कर अपने भौतिक उद्देश्य प्राप्त  कर लें ,तत्पश्चात इश्वर के दरबार में जाकर सारे पापों,सारे दुष्कर्मों से मुक्ति पा लें, दान जैसे धार्मिक कृत्य द्वारा अपने असंगत कार्यों पर पर्दा डाल दिया जाय।
    पूजा, आराधना, प्रेयर,नमाज,धार्मिक मान्यता के अनुसार स्वर्ग,जन्नत या हैविन जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।क्या ईमानदारी,मेहनत,लगन,अहिंसा,परमार्थ जैसे गुण रखने वाला व्यक्ति(परन्तु पूजा में विश्वास न रखने वाला ) सिर्फ पूजा को अपने जीवनका उद्देश्य मानने वाले व्यक्ति के सामने बौना रह जाता है,परन्तु क्यों? जब एक डकैत को विश्वास है, की काली माँ उसके लूटपाट,हिंसा आदि अपराधों को क्षमा कर देगी,तो उसे अधर्म,अनैतिक,असामाजिक एवं हिंसक कार्यों को करने से कैसे रोक जा सकता है?क्या उसकी अराध्य देवी पूजा के माध्यम से उसके गुनाहों को वास्तव में माफ़ कर देगी?
      इश्वर के अस्तित्व की कल्पना अर्थात उसके अस्तित्व को स्वीकार  करना और उसकी आराधना करना दोनों प्रथक प्रथक कल्पनाएँ हैं।शायद इश्वर की कल्पना ने ही उसे पूजा करने की प्रेरणा प्रदान की होगी, ताकि मानव अज्ञात शक्तियों के प्रकोप से बचा रहे और उसकी कृपा पाने से उसके जीवन में सुख समृद्धि का अस्तित्व बना रहे। उसका अशांत,उद्वेलित,मन शांत हो सके। जीवन में आने वाली उलझनों से निजात पा सके। प्रत्येक धर्म ने अपने प्रथक प्रथक पूजा के नियम नियत किये हुए हैं ,और पूजा,अर्चना धर्म के प्रचार,प्रसार का माध्यम बन गया।
     विज्ञान के शोधों द्वारा सिद्ध हो चुका है सभी पूजा पद्धतियां मानव स्वास्थ्य को भी लाभ पहुंचाती हैं। समस्त पूजा सामग्री एवं क्रियाएं मानव को शारीरिक एवं मानसिक लाभ पहुंचती है.पूजा से होने वाले अप्रत्यक्ष, लाभ इन्सान का इश्वर में विश्वास को दृढ कर देता है,वह सोचने लगता है की यह उसकी पूजा का फल है।और इस प्रकार धर्माधिकारियों एवं धर्मों का बर्चस्व बना रहता  है।  

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  सत्य शील अग्रवाल