Powered By Blogger

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

लचर न्याय व्यवस्था




     लोकतान्त्रिक राज्य के चार प्रमुख स्तम्भ होते हैं,(प्रथम) विधायिका यानि जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का सदन--जिसका मुख्य उद्देश्य देश की जनता की आवश्यकता के अनुरूप कानूनों का निर्माण करना है,अर्थात विधायिका को देश के लिए और प्रदेश के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है. (द्वितीय) कार्य पालिका(सरकारी तंत्र)--देश या प्रदेश के सभी प्रशासनिक कार्यों को संपन्न कराना इस संस्था का अधिकार है.(तृतीय) मीडिया- जनता को सरकार के, प्रशासन के सभी कार्यों की सूचना से जनता को अवगत कराना, उसे जागरूक बनाये रखना, और सरकार के प्रत्येक कार्य की समीक्षा करना मीडिया का कार्य है.(चतुर्थ) न्याय पालिका-इसका मुख्य कार्य संविधान प्रदत्त कानून और अधिकार एवं सरकार द्वारा बनाये गए कानूनों का जनता से पालन कराना,कानूनों को तोड़ने वालों को दण्डित करना,विधायिका,कार्य पालिका एवं मीडिया के कार्यों का कानूनी विश्लेषण कर अपना निर्णय सुनाना,अवैध कार्यों को रोकना.
     लोकतान्त्रिक देश में न्याय पालिका का मजबूत होना,सक्रिय रहना और विश्वसनीय होना अत्यंत आवश्यक है.यही वह संस्था है जो जनता और देश के हितों का ध्यान रखते हुए, निष्पक्षता के साथ, संविधान में वर्णित एवं विधायिका द्वारा समय समय पर बनाये गए कानूनों का देश के प्रत्येक नागरिक से पालन कराने की जिम्मेदारी निभाती है.
      हमारे देश में वोटों की राजनीति  ने विधायिका और कार्य पालिका को पंगु बना कर रख दिया है.हमारे देश के नेता जनहित,देश हित से भी अधिक अपने और अपनी पार्टी के स्वार्थों को महत्त्व देते है.परन्तु न्याय पालिका की विश्वसनीयता और सम्मान आज भी कायम है.आजादी के पश्चात् इस संस्था ने अपना रोल मजबूती से निभाया है,उसने समय समय पर प्रशासनिक कार्यों में अपना दखल देकर असम्भव कार्यों को भी संभव कर दिखाया है.उदाहरण के तौर पर जब दिल्ली में सरकार प्रदूषण नियंत्रण कर पाने में असमर्थ हो गयी, तब न्यायालय ने ही अपना फरमान सुना कर दिल्ली वासियों को मजबूर कर दिया की वे प्रदूषण फैलानी वाली सभी इकाईयों  को शहर से बाहर ले जाएं और प्रदूषण फ़ैलाने वाले वाहनों को या तो CNGसी,एन.जी.से चलाएँ या शहर से बाहर करें.(वोटों की राजनीति  के चलते सरकार के लिए सख्त कदम उठाना संभव नहीं था,परन्तु अदालत के आदेश का पालन,जनता द्वारा करना और सरकार द्वारा करवाना मजबूरी बन गयी),इसी प्रकार जब भी अवैध निर्माण,अतिक्रमण से जनता त्रस्त होती है,तो अदलत के फैसले समाधान बनते हैं.आरक्षण पर सटीक टिप्पड़ियां करना  भी सिर्फ अदालत द्वारा ही संभव था.देश की एकता और अखंडता को बनाये रखना न्यायपालिका का ही उत्तरदायित्व है.
       आज हमारे देश की न्याय व्यवस्था में बहुत से दोष बने हुए हैं,न्याय मिलने में देरी होना,संपन्न लोगों,प्रभाव शाली या दबंग लोगों द्वारा अपराधों के सबूतों को अपने प्रभाव से नष्ट कर देना,कभी कभी न्यायाधीशों पर लगने वाले विवादित आरोप, हमारी न्याय प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं, जिन्हें दूर किया जाना अत्यंत आवश्यक है.
       न्याय में मिलने वाली देरी न्याय को अन्याय बना देती है, अतः एक निश्चित सीमा में केस का निपटारा किया जाना सुनिश्चित किया जाना अत्यंत आवश्यक है.अदालतों पर बढ़ते जा रहे कार्य के भार को न्यायाधीशों की संख्या बढ़ा कर केसों के निपटारे में तेजी लायी जा सकती है. मुक़दमे में होने वाली देरी के अन्य अनेक कारणों को समझ कर उनका समाधान किया जाना  चाहिए.चुस्त-दुरुस्त न्याय प्रक्रिया से जनता में न्यायपालिका के प्रति विश्वसनीयता बढ़ेगी.और समाज में अपराधों में कमी आयेगी,अपराधी में कानून का भय व्याप्त होगा.  
      न्याय प्रणाली को इस प्रकार से दुरुस्त करना होगा ताकि कोई भी व्यक्ति कितना भी ताकतवर क्यों न हो कानून के शिकंजे से बच न सके,गवाहों को पर्याप्त संरक्षण देना होगा ताकि उसे गवाही देने में अपराधी से डरना न पड़े, उसे अदालत तक जाने के खर्च के साथ साथ पारिश्रमिक देने की व्यवस्था हो तो किसी के लिए भी गवाह को तोडना आसान नहीं होगा,और न्याय की रक्षा हो सकेगी.
   जिस प्रकार से गत कुछ i समय से न्यायाधीशों के अनियमित व्यव्हार पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है, यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात है.यह एक गंभीर विचारणीय विषय है, की इतने महत्वपूर्ण और जिम्मेदार पदों पर सुशोभित व्यक्ति की क्या मजबूरी है जो उन्हें अनियमित कार्य करने को मजबूर करती है. उनकी सेवा शर्तों को गंभीरता से अध्ययन करने की आवश्यकता है,ताकि उन्हें सम्मानपूर्ण, सुविधाजनक जीवन जीने के लिए कोई अभाव न रहे. उनके कार्य को महत्त्व देते हुए उनके वेतन मान अन्य सरकारी कर्मियों के मुकाबले अधिक होने चाहिए.उन्हें सुरक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ भी विशेष दर्जे की मिलनी चाहियें.जजों की नियुक्ति के समय उसका चाल चरित्र,और आचरण  की विशेष जाँच की जानी  चाहिए ताकि ईमानदार लोग ही न्यायाधीश बन सकें.यदि किसी न्यायाधीश पर अनियमितता का आरोप लगता है तो उसे तुरंत पद से हटा कर तहकीकात हो और आरोप सिद्ध होने पर दोबारा न्यायाधीश न बनाया जाय, चाहे उसे कोई भी अन्य कार्य सौंप दिया जाय.
        वकील (अधिवक्ता)न्यायालय की मुख्य कड़ी होता है, जो अदालत को तथ्यों से अवगत कराकर अपराधी को कानून के अनुसार उसके अपराध की सजा दिलाने,और पीड़ित को न्याय दिलाने  में सहायक होता है.परन्तु दुर्भाग्यवश आज वकील सिर्फ अपनी कमाई के लिए,या अपनी साख बनाने के लिए अपना मुकदमा लड़ते हैं.अपने केस को दमदार बनाने के लिए सबूतों से छेड़ छाड़ कर केस को कमजोर करने का प्रयास करते हैं,गवाहों को तोड़ कर केस को अपने मुवक्किल के पक्ष में करने के लिए प्रयास रत रहते हैं.उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती की एक अपराधी को उचित सजा से बचाने से समाज में विकृति आयेगी.अपने लाभ के लिए उन्हें एक बेगुनाह को सजा दिलाने में भी कोई परेशानी नहीं होती.उन्हें चिंता होती है तो अपने केस को जीतने की, फिर चाहे उसको पाने के लिए कितने भी अनुचित हथकंडे क्यों न अपनाने पड़ें.यदि वकील अपने लाभ से अधिक  न्याय को महत्व दें, तो अदालतों को गुमराह कर उसके निर्णय को प्रभावित करने से रोका जा सकता है. और जनता को वास्तविक न्याय मिल सकता है,अपराधी को उसके अपराध के अनुरूप सजा मिल सकेगी।न्याय प्रणाली अधिक विश्वसनीय बन सकेगी,समाज अपराध मुक्त हो सकेगा.
       पुलिस न्याय व्यवस्था का मुख्य अंग है जिसके बिना जनता को न्याय दिला पाना संभव नहीं है और आज जो भी दोष हमारी न्याय् व्यवस्था में आये हैं उसमें पुलिस विभाग की अकर्मण्यता,निष्क्रियता और भ्रष्टाचार मुख्य कारण बने हुए हैं.अतः पुलिस विभाग को चुस्त दुरुस्त करना अत्यंत आवश्यक है.पुलिस कर्मियों की ट्रेनिंग में जनता के साथ उसके उदार व्यव्हार पर जोर दिया जाना भी आवश्यक है,उन्हें अंग्रेजी शासन के समय की सामंतवादी विचार धारा से मुक्त करना होगा ताकि आम नागरिक को पुलिस कर्मी अपना सहयोगी लगे न की कोई जल्लाद. आज एक शरीफ इन्सान थाने जाने से कतराता है,जिसका कारण पुलिस का अशोभनीय आचरण है. पुलिस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण अपराधी भय मुक्त हो गए हैं.पहले तो वे पकडे ही नहीं जाते यदि किसी कारण वे कानून की गिरफ्त में आ भी जाते हैं तो पुलिस से मिल कर केस को कमजोर करने के सारे हथकंडे अपना लेते हैं.इस प्रकार से वे या तो अपने को निर्दोष साबित कर लेते हैं, या किये गए अपराध से बहुत कम सजा प्राप्त कर शीघ्र मुक्त हो जाते हैं.
    हमारे देश में जिस प्रकार से राजनीति  में स्वार्थ वाद का बोलबाला है,अपराधीकरण हुआ है.जनता को उनके(राजनीतिज्ञों के) कुत्सित इरादों से बचाने के लिए न्याय पालिका का विश्वसनीय,बेदाग और निष्पक्ष होना, और पुलिस विभाग की कार्यशैली में अमूल चूल परिवर्तन लाना नितांत आवश्यक है.अन्यथा देश को अराजकता की ओर जाने से कोई नहीं रोक सकता.जिसमे प्रत्येक नागरिक असुरक्षित हो जायेगा और देश में जंगल राज हो जायेगा.अतः सरकार को प्राथमिकता के आधार  पर न्याय प्रणाली को सक्षम और विश्वसनीय बनाने के उपाय करने चाहिए.(SA-170C)       
       

शनिवार, 11 जुलाई 2015

पुलिस थर्ड डिग्री यातनाएं क्यों देती है?



 
          हमारे देश में पुलिस की कस्टडी में मुलजिमों की मौत हो जाना एक आम बात है.आखिर क्या कारण है की न्याय की गिरफ्त में आने वाले व्यक्ति, सरकारी संरक्षण में किसी नागरिक की मौत हो जाती है.या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है.यह देश या प्रदेश की सरकार के लिए शर्मनाक बात है उसकी शासन व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता है
      हम सभी जानते हैं अक्सर सुनने में आता है की अमुक थाने में किसी व्यक्ति की मौत हो गयी.अर्थात पुलिस द्वारा दी गयी यातनाओं के कारण संदेहग्रस्त व्यक्ति की मौत हो जाती है.आखिर पुलिस इतनी बुरी तरह से किसी भी नागरिक को पीटती क्यों है क्या उसे  अधिकार प्राप्त है की वह किसी भी व्यक्ति को संदेह के घेरे  में लेकर उस पर यातनाये करे,जुल्म ढाए?क्या पुलिस का यह  व्यव्हार देश विदेशी राज की याद नहीं दिला देता.क्या पुलिस की कार्य शैली आज भी सामंतवादी बनी हुई है?क्या पुलिस विभाग का काम जनता में दहशत फैलाना है?क्या पुलिस का अस्तित्व जनता पर सरकार की सत्ता बनाये रखने के लिए है या जनता की सेवा के लिए है, उसे अपराधी तत्वों से सुरक्षा दिलाने के लिए है.थर्ड  डिग्री की यातनाओं के कारण ही अक्सर अनेक बेगुनाहों की मौत हो जाती है.
क्यों यातनाएं देती है पुलिस;
हमारे देश में पुलिस की जिम्मेदारी है की वह किसी भी अपराधिक गतिविधि की जाँच करे और अपराध की तह तक जाकर असली गुनाहगार तक पहुंचे और अदालत के समक्ष प्रस्तुत करे.जिसके शीघ्र से शीघ्र क्रियान्वयन के लिए उसे जनता का दबाव और शासन का दबाव निरंतर झेलना पड़ता है.जिसके कारण पुलिस का व्यव्हार कठोर हो जाता है वह अपने अधिकारीयों को खुश करने या संतुष्ट करने के लिए जनता पर जुल्म ढहाती है.उसके इस व्यव्हार के लिए मुख्य कारण निम्न हैं;
१,पुलिस पर शासन अर्थात शासन में बैठे राजनेताओं का अनुचित दबाव झेलना पड़ता है जो कभी कभी जाँच को अपनी इच्छनुसार करने के लिए पुलिस  पर असंगत दबाव बनाते हैं उसके कार्यों में अवैध रूप से दखलंदाजी करते हैं और उसे कानून के अनुसार कार्य करने से रोकते रहते है.
२,किसी भी अपराध की वास्तविकता पता लगाने के लिए पुलिस अपना श्रम बचाने के लिए संदेह ग्रस्त व्यक्ति को थर्ड डिग्री की यातनाएं देकर जल्दी से जल्दी अपनी जाँच पूरी करना चाहती है,परिणाम स्वरूप अनेक बार निरपराध व्यक्ति पुलिस मार से घबराकर जुल्म को क़ुबूल करने को मजबूर  हो जाता है,जो बाद में अदालत में ख़ारिज हो जाता है.अतः पुलिस जाँच को शीघ्र पूरी करने के लिए शोर्ट कट अपनाते हुए सदेह के घेरे में आये व्यक्ति पर जुल्म करती है.
३,किसी भी केस की जाँच के दाएरे में आने वाले किसी भी व्यक्ति पर पुलिस अपने डंडे का डर दिखा पर अपनी आमदनी पक्की करती है,बेगुनाह की खाल का सौदा करती है.यही कारण है की एक आम व्यक्ति थाने जाने से भी घबराता है, जिससे अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं.
४,थानेदार अपने बड़े अफसरों को खुश करने के लिए केस को जल्द से जल्द हल करने के प्रयास में,कागजी खाना पूर्ती के लिए निरपराध व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करता है.और उसे अपराधी के रूप में प्रस्तुत कर देता है.इस प्रकार उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है.
५,पुलिस विभाग में कार्यरत पुलिस कर्मी अत्यधिक कार्य के दबाव के कारण मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाते है, परिणाम स्वरूप अपना गुस्सा हवालात में बंद मुलजिमों पर कहर बरपा कर उतारते हैं.
६,पुलिस की कार्यशैली और सोच अभी भी विदेशी दासता जैसी बनी हुई है वे(पुलिस कर्मी) अपने को जनता का सेवक नहीं मानते बल्कि अपने को सरकारी हुकूमत के कारिंदे मानते हैं और मानते हैं की आम जनता पर रौब ग़ालिब करना.उसके साथ गली गलौच करना या किसी को भी थर्ड डिग्री की यातना देना अपना विशेष अधिकार समझते हैं.
क्या आवश्यक रूप से सुधार किये जा सकते हैं.
पुलिस विभाग प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता  है,परन्तु देश के सभी राज्यों में पुलिस की कार्यशैली एक जैसी ही है.अतः देश व्यापी परिवर्तन की आवशयकता है जिसे केंद्र सरकार अपने दिशा निर्देशों द्वारा राज्यों को कानूनों में परिवर्तन कर पुलिस विभाग के व्यव्हार को संतुलित करने की सलाह दे सकती है.
१,पुलिस को दिए गए व्यापक अधिकारो को सीमित किया जाय,तथा प्रत्येक पुलिस कर्मी को  जनता के प्रति सद्भाव पूर्ण व्यव्हार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाय.
२,जाँच का अधिकार पुलिस के पास बहुत ही सीमित रूप में दिया जाय अपराध की गहराई में जाने के लिए अलग से जाँच सेल बनाय जाय. जो ख़ुफ़िया तौर पर जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करे और अपराध की तह तक पहुँच कर केस को हल करे.जो किसी अत्याचार का सहारा न लेकर अपने ख़ुफ़िया जाँच के द्वारा मामले की गहराई तक पहुंचे.
३,पुलिस कर्मियों की मनोस्थिति का अध्ययन किया जाना चाहिए और उनके कल्याण के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए ताकि वे अपनी बीमार मानसिकता को मुलजिमों पर अत्याचार कर के अपना गुस्सा न उतारें. और सभी तथाकथित अपराधियों के साथ इंसानियत के साथ पेश आयें.
३,पुलिस की कार्य शैली और अपराधों की संख्या घटाने के लिए न्याय प्रणाली को सुधारना अत्यंत आवशयक है. शीघ्र न्याय दिलाने के लिए अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाय, तो अदालतों पर असहनीय भार को कम किया जा सकता है और न्याय मिलने में शीघ्रता आ सकती है .अदालतों को भी शीघ्र केस निपटाने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाएँ तो जजों को त्वरित न्याय देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है.
4,अदालतों की कार्य शैली सामन्तवादी कार्य शैली है जो अंग्रेजों की गुलामी की याद दिलाती है,कार्यशैली भी परम्परागत चली आ रही है जिसे समाप्त करना चाहिए और  आवश्यक सुधार किये जाने चाहिए ताकि किसी भी नागरिक को दोषी सिद्ध होने तक पर्याप्त सम्मान मिलता रहे जो लोकतान्त्रिक देश में किसी भी नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है.अदालत की कार्यशैली के कारण  भी पुलिस आम नागरिक से सभ्य व्यव्हार नहीं करती और एक आम नागरिक को अदालत का डर दिखा कर उसका शोषण करती है.
५,पता नहीं मैं यहाँ पर सही हूँ या नहीं मेरे विचार से अदालत का सम्मान किया जाना चाहिए परन्तु एक जज का नहीं, जो स्वयं एक न्यायिक सेवक है और जनता का सेवक है. उसे भी सभी सेवा शर्तों का इमानदारी से पालन करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए और व्यक्तिगत रूप से किसी भी न्यायाधीश की कार्य शैली पर भी मीडिया को आलोचना करने का अधिकार मिलना चाहिए.अदालत का असम्मान(अवमानना) सिर्फ अदालत के आदेश न मानने तक सीमित होना चाहिए.(SA-163C)
     

    वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर आधारित पुस्तक “जीवन संध्या”  अब ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है.अतः सभी पाठकों से अनुरोध है www.jeevansandhya.wordpress.com पर विजिट करें और अपने मित्रों सम्बन्धियों बुजुर्गों को पढने के लिए प्रेरित करें और इस विषय पर अपने विचार एवं सुझाव भी भेजें.  

मेरा   इमेल पता है ----satyasheel129@gmail.com


शनिवार, 4 जुलाई 2015

भारतीय महिला आज भी कितनी मजबूर




·         जरा सोचिये पुरुष यदि अमानुषिक कार्य करे तो भी सम्मानीय व्यक्ति जैसे सामाजिक नेता, पंडित, पुरोहित इत्यदि बना रहता है,परन्तु यदि स्त्री का कोई कार्य संदेह के घेरे में जाये तो उसको निकम्मी ,पतित जैसे अलंकारों से विभूषित कर अपमानित किया जाता है।
·         आज भी ऐसे लालची माता पिता विद्यमान हैं जो अपनी बेटी को जानवरों की भांति किसी बूढ़े, अपंग ,अथवा अयोग्य वर से विवाह कर देते हैं, अथवा बेच देते हैं।
·         पुरुष के विधुर होने पर उसको दोबारा विवाह रचाने में कोई आपत्ति नहीं होती ,परन्तु नारी के विधवा होने पर आज भी पिछड़े इलाकों में लट्ठ के बल पर ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाता है।
·         शादी के पश्चात् सिर्फ नारी को ही अपना सरनेम बदलने को मजबूर किया जाता है।
·         सिर्फ महिला को ही श्रृंगार करने की मजबूरी क्यों? श्रृंगार के नाम पर कान छिदवाना, नाक बिंधवाना नारी के लिए ही आवश्यक क्यों? कुंडल,टोप्स, पायल, चूडियाँ, बिछुए सुहाग की निशानी हैं अथवा पुरुष की गुलामी का प्रतीक?
·         आज भी नारी का आभूषण प्रेम क्या गुलामी मानसिकता की निशानी नहीं है?शादी शुदा नारी की पहचान सिंदूर एवं बिछुए जैसे प्रतीक चिन्ह होते हैं,परन्तु पुरुष के शादी शुदा होने की पहचान क्या है ? जो यह बता सके की वह भी एक खूंटे से बन्ध चुका है, अर्थात विवाहित है।
·         सिर्फ महिला ही विवाह के पश्चात् 'कुमारी' से ' श्रीमती ' हो जाती है पुरुष 'श्री' ही रहता है .