Powered By Blogger

बुधवार, 14 सितंबर 2016

क्या हिंदी देश की सर्वमान्य भाषा बन पायेगी?

 सैंकड़ो  वर्ष पूर्व जब अंग्रेजों  ने हमारे देश पर शासन स्थापित कर लिया , तो उन्हें शासकीय कामकाज के लिए  क्लर्क तथा अन्य छोटे स्टाफ की आवश्यकता थी,जो अंग्रेजी में कार्य कर उन्हें सरकारी कामकाज में  मदद कर सकें। उन दिनों देश में शिक्षा का प्रचार प्रसार बहुत कम था. अतः उन्होंने अपनी  स्वार्थपूर्ती  के लिए अनेक स्कूलों  की स्थापना की. जिसमें सिर्फ अंग्रेजी की पढाई पर विशेष ध्यान दिया गया. स्थानीय भाषाओँ एवं हिंदी या अन्य विषयों की पढाई  पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. अतः जन मानस में शिक्षित होने का अर्थ हो गया,जो अंग्रेजी का ज्ञाता हो,अंग्रेजी धारा प्रवाह  बोल सकता हो वही व्यक्ति शिक्षित है.यदि कोई व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जनता, तो उसका अन्य विषयों में ज्ञान होना, महत्वहीन हो गया, यही मानसिकता आजादी के करीब सत्तर वर्ष  पश्चात् आज भी बनी हुई है.
वैश्विकरण के वर्तमान युग में हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का, अंतर्राष्ट्रीय  भाषा  होने के कारण दबदबा बढ़ता जा रहा है, यह एक कडवा सच है की आज यदि विश्व स्तर पर अपने अस्तित्व को बनाये रखना है और विकास  की दौड़ में शामिल होना है ,तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा  अंग्रेजी  से विरक्त होकर आगे बढ़ना संभव नहीं है. देश  में  स्थापित  अनेक  विदेशी  कम्पनियों  में  रोजगार  पाने  के  लिए   अंग्रेजी पढना समझना आवश्यक हो गया है,साथ ही दुनिया के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखना जरूरी है.परन्तु  अंग्रेजी  के  साथ  साथ  हिंदी  के  महत्त्व   को  भी  नहीं  नाकारा  जा  सकता .राष्ट्र  भाषा  के  रूप  में  हिंदी  के  विकास  के  बिना  दुनिया  में  देश  की  पहचान  नहीं  बन  सकती  .राष्ट्रभाषा हिंदी  ही  देश  को  एक  सूत्र  में   बांधने   का  कार्य  कर  सकती  है.
असली समस्या जब आती है जब हम अपने अंग्रेजी  प्रेम के लिए अपनी मात्र भाषा या राष्ट्र भाषा की उपेक्षा  करने लगते हैं.यहाँ  तक की अहिन्दी भाषियों द्वारा ही नहीं बल्कि हिंदी भाषियों द्वारा भी हिंदी को एवं  हिंदी में वार्तालाप करने वालों को हिकारत की दृष्टि से देखते हैं ,उन्हें पिछड़ा हुआ या अशिक्षित समझते है.सभी सरकारी विभागों जैसे पुलिस विभाग,बैंक,बिजली दफ्तर,आर टी ओ इत्यादि में अंग्रेजी बोलने वाले को विशेष प्रमुखता  दी जाती है,जबकि हिंदी में बात करने वाले को लो प्रोफाइल का मान कर उपेक्षित  व्यव्हार किया जाता है.यह व्यव्हार हमारी गुलामी मानसिकता को दर्शाता  है. जो  अपने देश के साथ अन्याय है,अपनी राष्ट्र भाषा का अपमान है. क्या हिंदी भाषी व्यक्ति विद्वान् नहीं हो सकता? क्या सभी अंग्रेजी के जानकार बुद्धिमान  होते हैं.?सिर्फ  भाषा  ज्ञान   को  किसी  व्यक्ति  की   विद्वता  का  परिचायक  नहीं   माना   जा   सकता. अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करना गलत नहीं है परन्तु हिंदी को नकारना शर्म की बात है.
अपने  देश  की  भाषा  हिंदी  को  राष्ट्र  भाषा  का  स्थान  देने  से  ,उसको  अपनाने  से  सभी  देशवासियों  को  आपस  में  व्यापार  करना  भ्रमण  करना  और  रोजगार  करना  सहज  हो  जाता  है  साथ  ही    हिंदी भाषा  का ज्ञान उन्हें भारतीय होने का गौरव प्रदान करता है  और   उनकी  जीवनचर्या  को सुविधाजनक बनाता  है.यदि कोई भारतवासी अपने ही देश के नागरिक से संपर्क करने के लिए विदेशी भाषाओँ का सहारा लेता है,तो यह राष्ट्रिय अपमान है शर्म की बात है. अतः हिंदी में बोलने,लिखने समझने की योग्यता प्रत्येक भारतवासी के लिए   गौरव की बात भी है.
आज भी हम अंग्रेजी को पढने और समझने को क्यों मजबूर हैं, इसका भी एक  कारण है ,उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है,मान लीजिये हम किसी बड़े  कारोबारी,व्यापारी या दूकानदार से व्यव्हार करते है (जिसे हम एक विकसित देश की भांति मान सकते हैं)तो हम उसकी समस्त शर्तों को सहर्ष स्वीकार कर लेते है,जैसे उसके द्वारा लगाये गए समस्त सरकारी टेक्स,अतिरक्त चार्ज के तौर पर जोड़े गए पैकिंग,हैंडलिंग डिलीवरी चार्ज को स्वीकार कर लेते हैं,यहाँ तक की जब किसी बड़े रेस्टोरेंट का  मालिक, ग्राहक को अपना सामान देने से पूर्व कीमत देकर टोकन लेने के लिए आग्रह करता है, तो हम टोकन लेने के लिए पंक्ति में लग जाते है,मेरे कहने का तात्पर्य  है की हम उसकी समस्त शर्तो को मान लेते है,उसकी शर्तों पर ही उससे लेनदेन करते है,परन्तु जब हम किस छोटे कारोबारी या दुकानदार( अल्प विकसित या विकास शील देश की भांति) के पास जाते है तो वहां पर उसे हमारी सारी  शर्ते माननी पड़ती हैं,अर्थात वह हमारी सुविधा के अनुसार व्यापार  करने को मजबूर होता है.वहां पर हमारी शर्तें प्राथमिक हो जाती हैं.
इसी प्रकार जब हमारा देश पूर्ण विकसित हो जायेगा तो विदेशी व्यापारी  स्वयं हमारी भाषा हिंदी में व्यापार करने को मजबूर होंगे।फिर सभी देश हमारी शर्तों पर हमसे व्यापार करने को मजबूर होंगे. हमें अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा पढने  की मजबूरी नहीं होगी।  तत्पश्चात हिंदी भाषा सर्वमान्य ,राष्ट्रव्यापी भाषा बन जाएगी।प्रत्येक भारत वासी के लिए हिंदी का अध्ययन करना उसके लिए आजीविका का साधन होगा और  उसके लिए गौरव का विषय होगा।परन्तु देश के विकसित होने तक  हमें  अपनी  राष्ट्र  भाषा  हिंदी  को  अपनाना,  सीखना,  समझना  होगा,उसे पूर्ण सम्मान देना होगा.तब  ही  हम  अपने  लक्ष्य  को  प्राप्त  कर  पाएंगे.

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

कन्या भ्रूण हत्या के वास्तविक कारण

       आजकल मीडिया सोशल हो, इलेक्ट्रॉनिक हो या फिर प्रिंट मीडिया सभी में भ्रूण हत्या को लेकर बहुत ही शोर शराबा होता रहता है. महिला, पुरुष के गिरते अनुपात को लेकर भयावह तस्वीर नजर आती है,जो वास्तव में विचारणीय भी है.  यह सर्वविदित है वर्तमान में देश में एक हजार पुरुषों के सापेक्ष महिलाओं की संख्या मात्र 914 है. अल्ट्रा साउंड की नयी तकनीक ने इस समस्या को और भी बढ़ा दिया है.जिसके माध्यम से माता पिता बच्चे के लिंग की पहचान कर पाते  हैं और अपनी इच्छा के विरुद्ध लिंग वाले बच्चे को विकसित होने से रोक देते हैं. यद्यपि देश में गर्भस्थ शिशु के लिंगपरीक्षण  और कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध कड़ा कानून बनाया गया है.फिर भी एक अनुमान के अनुसार देश में प्रतिवर्ष छः लाख बेटियों की गर्भ में मौत दे दी जाती है.

       मोदी सरकार भी कन्या भ्रूण हत्या और बेटियों के प्रति समाज में होने वाले भेदभाव को लेकर गंभीर है. इसी कारण बेटी बचाओं बेटी बढाओ का अभियान चला रही है.जिसके माध्यम से भ्रूण हत्या के अपराध से जनता को जागरूक किया जा सके और परिवार में बेटियों को बेटों के बराबर का हक़ मिले, उसे पढ़ने के और अपने जीवन में उन्नति के पर्याप्त अवसर मिल सकें. परन्तु इस समस्या के पीछे मनोवैज्ञानिक कारणों को कभी भी समझने का प्रयास नहीं किया गया. इसी कारण व्यापक प्रचार प्रसार के बावजूद  महिला और पुरुष अनुपात निरंतर घटता जा रहा है.जिससे स्पष्ट होता  है की चोरी छुपे भ्रूण हत्या अभी भी जारी है.समाज की इसी विचार धारा के कारण अवैध कार्य करने वाले डाक्टरों की चांदी हो रही है.आखिर क्यों कोई माता पिता जोखिम लेकर भी कन्या के जन्म को रोकने का उपाय कर रहे हैं.  
      गिरते लैंगिक अनुपात से चिंतित होना संवेदन शील समाज के लिए स्वाभाविक है,और भविष्य में सामाजिक संतुलन के लिए खतरनाक भी है.परन्तु इस समस्या की जड़ में जाना भी आवश्यक है,आखिर वो कौन से कारण हैं जिसकी वजह से माता पिता और परिवार बेटियों के जन्म को रोकने के लिए अपराध करने को मजबूर हैं और अपने बच्चे को ही दुनिया में आने से रोक देते हैं.आईये चंद सामाजिक विसंगतियों पर प्रकाश डालते हैं,
दहेज़ समस्या;
     इस समस्या का सबसे प्रमुख कारण है, दहेज विरोधी अनेक कानून होने के बावजूद दहेज़ के दानव से समाज मुक्त नहीं हो पा रहा है.बल्कि दिन प्रतिदिन इसकी मांग बढती जा रही है.दहेज़ लेना और देना गैर कानूनी होने के कारण एक तरफ तो कालेधन का उपयोग बढ़ता है और दूसरी और बेटियों के प्रति अभिभावकों का नकारात्मक व्यव्हार बढ़ता है.और परिवार में  बेटी को एक बोझ और एक जिम्मेदारी के रूप में देखता है.यदि बेटी पढ़ लिखकर योग्य बन गयी है और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हो गयी हैं, फिर भी माता पिता के लिए उसकी शादी के लिए दहेज़ की व्यवस्था करने को मजबूर होना पड़ता है.मान लीजिये कुछ परिवार दहेज़ के विरोध में खड़े होकर गंभीर हो जाते हैं और बिना दहेज़ की शादी करने का आव्हान करते हैं, फिर भी विवाह की पूरी रस्म को निभाने के लिए आयोजन अर्थात मंडप,भोजन इत्यादि का सारा खर्च तो बेटी वाले के जिम्मे ही रहता है. उसको रोकने के लिए कोई कानून भी नहीं है. बेटी वाले की हैसियत है या नहीं सारा खर्च तो उसे ही वहन करना पड़ता है.अर्थात बाप को अपनी बेटी को ब्याहने के लिए बड़े खर्च से होकर गुजरना ही होगा.आखिर उसका क्या अपराध है यदि उसके घर में बेटी ने जन्म लिया.समाज के इस व्यव्हार से बेटी को एक बोझ माना जाता है और उसके आगमन को रोकने के प्रयास किये जाते हैं.
महिला का समाज में स्थान
                     सदियों से हमारे समाज में महिलाओं को दोयम दर्जा दिया गया है और पुरुष वर्ग को हमेशा वरीयता दी गयी है. परिवार में बेटे और बेटी के प्रति व्यव्हार में भेद भाव  किया जाता है. जो खान पान और शिक्षा इत्यादि की सुविधाएँ बेटे को दी जाती हैं बेटी को पराया धन कह कर उसे उन सुविधाओं से वंचित रखा जाता है.उसे अपने जन्मदाता परिवार द्वारा ही पालन पोषण में उपेक्षित किया जाता है.बेटे को परिवार का चिराग माना जाता है उसे वंश को आगे बढाने वाला माना जाता है. अतः उसकी सभी इच्छाएं भावनाएं पूरी करना परिवार अपना कर्तव्य मानता है जबकि बेटी के मामले में वह इतना उत्साहित नहीं रहता.अतः बेटी   के साथ भेदभाव उसके जन्मदाता परिवार से ही प्रारंभ होना हो जाता है, जो परिवार अपनी बेटी के साथ न्याय नहीं करता वह परिवार अन्य परिवार से बहू के रूप में आने वाली किसी की बेटी से न्याय संगत व्यव्हार कैसे कर पायेगा?
बेटी  के परिवार को निम्न दृष्टि से देखने की प्रवृति
यद्यपि सभी परिवारों में बेटा और बेटियां होती है, फिर भी  अक्सर देखा जाता है जब कोई बेटी का बाप या भाई(अभिभावक) अपनी बेटी का रिश्ता(प्रस्ताव) लेकर किसी बेटे के बाप के घर जाता है तो उसे बड़ी ही विचित्र द्रष्टि से देखा जाता है जैसे कोई व्यक्ति अजायब घर से निकल कर आ गया हो. कुछ की निगाह,बेटी की योग्यताओं पर कम अभिभावक की जेब के वजन पर अधिक रहती है.विवाह के पश्चात् भी बेटे के ससुराल वालों के साथ सम्मानजनक व्यव्हार नहीं किया जाता कभी कभी तो बहू को उसके परिवार वालों को लेकर अपमानित किया जाता है.यह व्यव्हार निन्दनिये है.यदि परिवार में बेटी ने जन्म लिया है या कोई बेटी वाला है तो वह कोई अपराधी नहीं है, जिससे दोयम दरजे के नागरिकों जैसा समझा जाय.यदि परिवार अपने बेटे और बेटी के परिवार के साथ एक जैसा व्यवहार करने लगे तो परिवार में बेटी के साथ भेदभाव वाला व्यव्हार ख़त्म हो जायेगा और बेटी के आगमन पर खुशिया आने लगेंगी. अंततः कन्या भ्रूण हत्या पर स्वयं लगाम लग जाएगी.
बेटी के अधिकारों का अभाव
                       हमारे समाज की विडंबना है की बेटी को अपने परिवार में ही  अधिकारों का भी अभाव रहता है. उसके हर व्यव्हार को बेटे से अलग रख कर देखा जाता है,
उदाहरण के तौर पर,
®    बेटी को उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा जाता है,बेटी तो पराया धन है उसे अधिक पढाने से क्या लाभ?
®    बेटी को पुत्र के समान माता पिता के चरण स्पर्श करना पाप माना जाता है, अर्थात बेटी को अपने माता पिता के चरण स्पर्श की अनुमति नहीं है. वह भी तो संतान ही है.
®    परिवार के बहुत सारे संस्कारों में पुत्र का योगदान आवश्यक होता है, पुत्री को ये अधिकार नहीं होते यहाँ तक की यदि परिवार में कोई बेटा नहीं है तो भी बेटी को माता या पिता के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देने का अधिकार नहीं है.उसके द्वारा किये जाने वाले कृत्य को पाप माना जाता है.यह मान्यता बेटे की चाहना बढाती है.
®    बेटी को परिवार की जायदाद में हिस्सेदारी से वंचित रखा जाता है, यद्यपि अब कानून में दोनों को परिवार की जायदाद पर समान अधिकार दिए गए हैं परन्तु समाज अभी भी मूलतः स्वीकार नहीं करता.
®    बेटी को माता पिता की सेवा करने से वंचित रखा जाता है या बेटी का कोई कर्तव्य नहीं माना जाता,जब की वह भी अपने माता पिता की सेवा करने की उतनी ही हक़दार है, जितना  की बेटा. हमारे देश का कानून भी सिर्फ बेटे पर ही परिवार की जिम्मेदारी सौंपता है, जबकि अधिकार बेटी को बेटों के समान वितरित करता है,आखिर क्यों?
®    सामाजिक मान्यता है की बेटी के माता पिता उसके ससुराल के यहाँ कुछ भी नहीं खा पी सकते अर्थात कुछ भी ग्रहण करना,या बेटी की कमाई ग्रहण करना वर्जित(पाप) माना जाता है,आवश्यकता इस धारणा को बदलने की,तभी तो बेटी अपने परिवार में सम्मान पा सकेगी,या परिवार के लिए महत्वपूर्ण बन सकेगी.
®    यदि किसी परिवार में बेटा नहीं है और बूढ़े माता पिता के लिए बेटी की कमाई खाना वर्जित है.ऐसी स्थिति में माता पिता को अपना भविष्य(बुढ़ापा) अंधकारमय नजर आता है, अतः बेटे को लेकर उनका महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक ही है.यदि सामाजिक मान्यताओं और सोच में परिवर्तन आ जाय तो बेटियों की उपेक्षा अपने आप समाप्त हो जाएगी         
बेटी के कर्त्तव्य और अधिकार दोनों ही बेटे के समान होने चाहिए. बेटी के माध्यम से दामाद सभी अधिकारों की मांग करता देखा जा सकता है. परन्तु अपने ससुराल वालों के साथ सहयोगात्मक  व्यव्हार मुश्किल से ही देखने को मिलता है उसके अपने सास ससुर या अन्य ससुराल के परिजनों के प्रति कोई  कर्तव्य नियत नहीं गए हैं.जब उस परिवार की धन दौलत पर वह अपना अधिकार मानता  है तो उसे कर्तव्य भी गिनाये जाने चाहिए.जैसे उसके माता पिता हैं ऐसे ही पत्नी का माता पिता भी सम्माननीय होने चाहिए.सिर्फ अधिकार प्राप्त होने के कारण vahवह ससुराल वालों के प्रति उपेक्षित व्यव्हार करता है.और माता पिता के लिए बेटी का अस्तित्व उपेक्षित रहता है.

    अक्सर यह माना जाता है की भ्रूण हत्या का मुख्य कारण देश में व्याप्त अशिक्षा है या गरीबी है.यह मान्यता गलत है क्योंकि गरीब देशों में अमीर देशों से अधिक बेटियों की संख्या है, और देश के शिक्षित राज्यों में  कन्या भ्रूण हत्या के मामले अधिक होते हैं, यही कारण है अधिक शिक्षित राज्यों में लिंगानुपात बिगड़ा हुआ है, जबकि पिछड़े और अशिक्षित बहुल राज्यों में अपेक्षाकृत लिंगानुपात अधिक संतुलित है. अतः भ्रूण हत्या का मुख्य कारण सामाजिक मान्यताएं,परंपरागत मान्यताएं और हमारी अविकसित सोच का परिणाम है.(SA-193D)

लेखक के नवीनतम लेखों को WWW.JARASOCHIYE.COM पर भी पढ़ सकते हैं.