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गुरुवार, 28 जुलाई 2011

समलैंगिक संबंधों को दंडनीय अपराध घोषित करना उचित नहीं.

हमारे देश की सामाजिक एवं धार्मिक परम्पराओं के आधार पर समलैंगिक सम्बन्धों को मान्यता मिल पाना मुश्किल है.वैज्ञानिक तर्कों के अनुसार समलैंगिक सम्बन्ध अप्राकृतिक यौन क्रिया के अंतर्गत आते है. अतः समलैंगिक यौन क्रियाओं में लिप्त व्यक्तियों को मनोविकार ग्रस्त कहा जाय तो गलत न होगा. जिन्हें प्राकृतिक यौन संबंधों से भी अधिक समलैंगिक सम्बन्ध अधिक प्रसन्नता देते हैं.
जहाँ तक कानूनी दंड के प्रावधान का प्रश्न है,किसी भी अपराधिक गतिविधि के लिए कानूनी हस्तक्षेप आवश्यक होता है, परन्तु सामाजिक संबंधों को लेकर बनाय गए कानून बिना सामाजिक सहयोग के प्रभावहीन हो जाते हैं दहेज़ प्रथा के विरुद्ध बनाय गए कानून,किस प्रकार अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा पाए ,सर्व विदित है. कारण है सामाजिक जागरूकता का अभाव. परन्तु तुच्छ स्वार्थ वाले व्यक्ति अपना बदला लेने की नियत से दहेज़ कानूनों का दुरूपयोग अवश्य करने लगे.जिस दिन सामाजिक चेतना आ जाएगी दहेज़ प्रथा स्वतः ही समाप्त हो जाएगी.जिस दिन समाज दहेज़ को नकारने लगेगा किसी कानून के बिना भी दहेज़ का उन्मूलन संभव हो जायेगा.
समलैंगिक सम्बन्धों को लेकर सामाजिक मान्यता न होने के बावजूद सामाजिक नियंत्रण द्वारा रोक पाना संभव भी नहीं है. क्या समाज प्रत्येक पुरुष को पुरुष से संपर्क बनाने से रोक पायेगा,स्त्री को स्त्री से मिलने से पर पाबन्दी लगा सकेगा क्या ऐसी कोई बंदिश तर्क संगत है.या किसी भी सम्बन्ध को संशय के दायरे में रखना उचित होगा.
विषम लिंगी संबंधों को लेकर अनेक सामाजिक नियंत्रण होने के बावजूद बलात्कार या अवैध सम्बन्ध जैसे अपराध नित्य प्रकाश में आते रहते हैं, समलिंगी व्यक्तियों को किस प्रकार से संपर्क बनाने से रोक सकेंगे,और जब संपर्क को नियंत्रित नहीं कर सकते तो समलिंगी संबंधों को कैसे नियंत्रित किया जा सकेगा.और जिस पर सामजिक नियंत्रण(गतिविधियों पर)ही संभव नहीं है ,कानूनी शिकंजा कितना कारगर हो सकेगा .कुछ लोग किसी पर भी बेबुनियाद आरोप लगाकर आपने तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करने में कामयाब होते रहेंगें .उनको कानून का दुरूपयोग करने का अवसर अवश्य मिलता रहेगा .
सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद समलैंगिक विवाह या समलैंगिक संबंधों को दंडनीय अपराध बना देना उचित प्रतीत नहीं होता. आपसी सहमती से कोई भी समलैगिक सम्बन्ध बनाय तो बनाय परन्तु जबरन संबंधों को बनाना पहले से ही दंडनीय अपराध है..अर्थात इस सन्दर्भ में अनेक कानून पहले से ही मौजूद हैं.इस असामाजिक कार्य को रोकने के लिए देश के शिक्षाविदों , बुद्धिजीवियों को युवा पीढ़ी को उचित मार्ग दर्शन कराने के प्रयास करने चाहिए.

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मंगलवार, 19 जुलाई 2011

विचार मंथन (भाग चार )

गाय हमारी माता है तो बिजार या बैल?
हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार गाय को माता के सामान पूज्यनीय माना गया है. और्वेदिक चिकत्सा में गाय का दूध, गाय का मूत्र, गाय का गोबर सभी वस्तुएं उपयोगी बताई गयी हैं. अर्थात मानव स्वास्थ्य के लिया लाभकारी हैं. परन्तु इसी गाय की नर संतान यानि बिजार या बैल को पूज्यनीय तो क्या सामान्य व्यव्हार भी नहीं दिया जाता .क्या उसके अवयव उपयोगी नहीं होते ,इसीलिय उसे नपुंसक बना कर खेतों में जोता जाता है उसको बधिया बना कर अपनी जिन्दगी सामान्य जीने का अधिकार भी नहीं दिया जाता .इससे तो यही सिद्ध होता है गाय की उपयोगिता के कारण ही उसे माता मान लिया गया और पूजा गया .इन्सान अपने स्वार्थ के लिए ही किसी को पूजनीय मान लेता है.
यह कैसा देवी रूप?
हमारे शास्त्रों में स्त्री को देवी के रूप में पूजनीय बताया गया है. प्रत्येक पूजा पाठ में स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी मानते हुए उसका उपस्थित होना अनिवार्य माना गया है. प्रत्येक सामूहिक शब्द में नारी को प्राथमिकता देते हुए उच्चारण किया जाता है, जैसे देवी देवता, माता पिता, सीता राम,राधा कृष्ण अर्थात नारी को उच्च सम्मान दिया गया है. परन्तु फिर भी हजारों वर्षों से नारी को दोयम दर्जे का व्यव्हार दिया गया है. उसे भोग्या समझ कर उसका शोषण, उसका अपमान किया जाता रहा है.परन्तु क्यों?धार्मिक होने का दावा करने वाले अपने व्यव्हार में इतने अधार्मिक क्यों?क्या इस प्रकार का व्यव्हार धर्म का अपमान नहीं? शास्त्रों का अपमान नहीं? अपने इष्ट देव का अपमान नहीं?. नारी जागरण के लिए अनेक आन्दोलन चलने के बावजूद, अनेक सरकारी कानून बन्ने के बावजूद महिला के साथ हिंसा,दुर्व्यवहार,दुराचार अपमान आज भी जारी है.
राम नाम सत्य है
प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिए राम के नाम को सत्य मानना उसके विश्वास का प्रतीक है. परन्तु साधारण बोल चाल में यदि कोई कह दे "राम नाम सत्य है"तो शायद कोई भी कुपित हो जाय , कहने वाले को कातर निगाह से देखेगा. क्योंकि "राम नाम सत्य है" का उच्चारण सिर्फ मृतक को श्मशान घाट तक ले जाने के लिए वैध माना गया है . अर्थात राम का नाम सिर्फ जब ही सत्य है जब कोई मर जाय अन्यथा राम का नाम सत्य नहीं होता, राम का नाम सत्य कहना, अशुभ होता है., कितनी विरोधाभासी मान्यता है हमारे समाज की ?.

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शनिवार, 9 जुलाई 2011

विचार मंथन (भाग ३)


धर्म मानव के लिए है. या मानव धर्म के लिए.
जिस प्रकार विश्व में धर्म के नाम पर युद्ध की स्तिथि बन गयी है, ऐसा लगता है, प्रत्येक धर्म पूरी मानवता को अपना गुलाम बना लेना चाहता है. शायद धर्माधिकारी धर्म के वास्तविक उद्देश्य को भूल गए हैं. धर्म का वास्तविक उद्देश्य मानवता की सेवा करना है, मानव को सभ्यता के दायरे में रखकर समाज में मिलजुलकर, शांति पूर्वक, जीवन व्यतीत करने का मौका उपलब्ध कराना है.
किसी भी व्यक्ति को जन्म से पूर्व धर्म चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती. उससे नहीं पूछा जाता की वह कौन से देश और कौन से धर्म के समाज मैं जन्म लेना चाहता है. परन्तु प्रत्येक धर्म अपने जातकों को उसके नियम और आस्थाओं को मानने के लिए बाध्य करता है. पर क्यों?उसे तर्क संगत तरीके से अपने धर्म की विशेषताओं से प्रभावित क्यों नहीं किया जाता?उसे अपनी इच्छा अनुसार धर्म चुनने क्यों नहीं दिया जाता ? प्रत्येक धर्म का अनुयायी अपने धर्म को श्रेष्ठ एवं अन्य धर्म को मिथ्या साबित करता है. जबकि सबका उद्देश्य उस अज्ञात शक्ति तक पहुंचना है, जिसे विश्व का निर्माता माना गया है.
आस्था को सिर्फ आस्था तक ही सिमित क्यों नहीं किया जा सकता. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आस्था या विश्वास को मानने का अधिकार क्यों नहीं है?उसे अपने तर्क के आधार पर किसी धर्म को मानने की छूट क्यों नहीं दी जाती ?
क्या मुझे वेद पुराण जैसे धर्म ग्रंथों की बातों पर इसलिए विश्वास करना चाहिय क्योंकि मैं हिन्दू परिवार में पैदा हुए हूँ?
क्या मुझे कुरान एवं उसकी आयतों में इसलिए आस्था रखनी चाहिए क्योंकि मेरे जन्म दाता मुस्लिम हैं? और मुझे सच्चा मुस्लमान साबित होना होगा?
मुझे बाइबिल के दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिय क्योंकि मैं ईसाई हूँ या ईसाई परिवार में जन्म लिया है ,और मेरे माता पिता ईसाई धर्म के अनुयायी हैं?
अधिकतर धर्माधिकारी तर्क की धारणा सामने आते ही आग बबूला हो जाते हैं, वे सहन नहीं कर पाते. मानवता की सच्ची सेवा ,धर्म को लागू करने में नहीं , इनसानियत को लागू करने में होनी चाहिए. वही विश्व कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर सकता है.



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गुरुवार, 7 जुलाई 2011

विचार मंथन (भाग दो )

p style="text-align: center">बच्चों के साथ व्यव्हार में संतुलन
बच्चे के विकास में अभिभावकों की मुख्य भूमिका होती है. अभिभावकों के असंगत दवाबों में पल बढ़ रहा बच्चा संकोची एवं दब्बू बन जाता है. तानाशाही व्यव्हार बच्चे को कुंठित करता है. इसी प्रकार गंभीर विषम परिस्थितियों में पलने बढ़ने वाले बच्चे क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं. दूसरी तरफ अधिक लाड़ प्यार में पलने वाला बच्चा जिद्दी,उद्दंडी,एवं दिशा हीन हो जाता है. अनुशासनात्मक सख्ती बच्चे में आत्मसम्मान का अभाव उत्पन्न करती है.और आत्म ग्लानी तक ले जा सकती है.अतः अभिभावकों के लिए आवश्यक है की बच्चों के पालन पोषण में उसे निर्मल,स्वतन्त्र,प्यार भरा एवं अनुशासन का संतुलन का वातावरण उपलब्ध कराएँ. ताकि आपका बच्चा योग्य एवं सम्मानीय नागरिक बन सके. (कम शब्दों में गंभीर विचार)

राजनैतिक पदों के लिए शैक्षिक योग्यता क्यों नहीं?
सरकारी पदों पर चपरासी से लेकर सचिव की भर्ती पर न्यूनतम अहर्ता नियत होती है.उस योग्यता के आधार पर ही नियुक्ति की जाती है. परन्तु विधायक, संसद यहाँ तक मंत्री और प्रधान मंत्री तक के लिय फॉर्म भरते समय न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता नहीं होती क्यों? जबकि किसी भी राजनैतिक पद पर रह कर जनता की सेवा करना कम महत्वपूर्ण कार्य नहीं है.एक मंत्री पूरे मंत्रालय को चलाता है जिसमे अनेको I .A .S .अधिकारी उसके अधीन कार्य करते हैं उन्हें नियंत्रित करने के लिय योग्यता क्यों आवश्यक नहीं?शायद इसी का परिणाम है की हमारे देश में लोकतंत्र के नाम पर लूटतंत्र विकसित हो गया है. लालची राजनेता जनता की परवाह किये बिना अफसरों के हाथों की कठपुतली बने रहते हैं.योग्य मंत्री मंत्रालय को जनता की उम्मीदों के अनुसार चला पाने में समर्थ हो सकता है और सरकारी तंत्र की कमजोरियों को पकड कर उन पर चोट कर सकता है.

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सोमवार, 4 जुलाई 2011

विचार मंथन (भाग एक)

कलाकारों की फीस जनता के साथ अन्याय
समाचार पत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार बड़े बड़े एक्टर, टीवी. चेन्नल पर एक एपिसोड में अपना किरदार निभाने के करोड़ों रूपए अपने पारिश्रमिक के रूप में वसूलते हैं. इसी प्रकार विज्ञापन के लिए भी लाखों में फीस वसूल करते है. जबकि एक उद्योगपति के लिए अरबों रूपए लगाकर,अनेकों जोखिम उठाने के पश्चात् भी पूरे वर्ष में एक करोड़ की कमाई कर पाना निश्चित नहीं होता.क्या इन एक्टरों का कार्य इतना कष्ट साध्य या दुर्लभ है जिसके लिए उन्हें इतनी बड़ी कीमत चुकाई जाती है.कार्पोरेट सेक्टर के पास जनता का पैसा होता है अतः उन्हें खर्च करने में कोई परेशानी नहीं होती. एक्टरों द्वारा जनता में अपनी पहचान बना लेने की इतनी बड़ी कीमत वसूलना जनता के साथ, देश के साथ अन्याय है. सरकार को चाहिए जो कलाकार एक करोड़ रूपए से अधिक वार्षिक आमदनी करते हैं उनसे पचास प्रतिशत तक आय कर वसूल किया जाय .
यह कैसा सर्वशिक्षा अभियान?
गुलामी की जंजीरों से मुक्ति मिलने के पश्चात् हमारे देश की विभिन्न सरकारों ने देश की समस्त जनता को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया. समय समय पर अनेक कानूनों द्वारा साक्षरता मंत्रालय ने विभिन्न स्तर पर साक्षरता अभियान चलाये, शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिय, मिड डे मील,छात्रवृति इत्यादि प्रलोभनों से अभियान को प्रभावी करने का प्रयास किया. फलस्वरूप शिक्षा का प्रचार प्रसार द्वारा साक्षरता दर बढ़ी.परन्तु सरकार ने आज भी सर्वशिक्षा एवं शिक्षा की गुणवत्ता के लिए प्रयास अधूरे ही किये हैं. विद्यालयों ,कालेजों का अभाव आज भी सर्व विदित है . निजी स्कूल, कालेजों की आयी बाढ़ और उनके द्वारा अभिभावकों का शोषण इस बात का प्रयाप्त सबूत है, स्कूल कालेजों की संख्या आज भी अपर्याप्त है. उच्च गुणवत्त के स्कूल तो सिर्फ निजी सेक्टर के पास ही हैं
उपरोक्त स्तिथि तो तब है जब चालीस प्रतिशत बच्चे आज भी पढने जाते ही नहीं. सिर्फ पंद्रह प्रतिशत बच्चे ही हाई स्कूल तक पहुँच पाते हैं और सात प्रतिशत किशोर ही स्नातक बन पाते हैं .उच्च शिक्षा पाने वाले युवकों का प्रतिशत तो और भी कम hoga