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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

पाश्चात्य देशों का अनुसरण कितना उचित?


WITH BEST WISHES OF NEW YEAR 2012 TO ALL MY FRIENDS, NEARS, DEARS
हमारे देश का युवा वर्ग पश्चिमी देशों की चमक दमक से इतना अधिक प्रभावित है,की उसे वहां की प्रत्येक जीवन चर्या को अपनाना ही विकास का,उन्नति का द्योतक लगने लगा है.उन देशों का खान पान,रहन सहन,फैशन को बिना उचित अनुचित का विचार किये ही अपना लेना,अपना उद्देश्य बना लिया है.उन देशों का अनुसरण करना ही आधुनिकता की निशानी माना जाने लगा है. उन देशों के खान पान,रहन सहन आदि को ,उन देशों की प्राकृतिक स्तिथि ,सामाजिक संरचना,इतिहास के बारे में जाने बिना,अपनाते जाना भारतीय परिवेश के लिए घातक सिद्ध हो रहा है.
पश्चिमी देशों की जलवायु हाड़ कंपा देने वाली ठंडी होने के कारण रम व्हिस्की अर्थात अल्कोहलिक पदार्थों का सेवन करना वहां के निवासियों की आवश्यकता है,यह कोई शौक या फैशन नहीं है,परन्तु जब भारत जैसे गर्म देशों में आधुनिकता के नाम पर शराब का सेवन किया जाता है तो शारीरिक एवं आर्थिक दृष्टि से हानि कारक है,क्योंकि शराब हमारे देश में मजबूरी नहीं बल्कि शौक है, फैशन है,आधुनिक दिखने का ढकोसला है
इसी प्रकार पश्चिमी देश जिन्हें विकसित देश भी माना जाता है,उनकी सामाजिक संरचना हमारे देश से बिलकुल भिन्न है.वहां पर हमारे देश की भांति अपनी संतान को उसकी पढाई लिखी,उसके रोजगार ,उसके शादी -विवाह तक अपना सहयोग देते है,जिसके कारण उसका बच्चा करीब पच्चीस वर्ष तक माता पिता एवं परिवार का प्यार दुलार प्राप्त करता है.युवा बालक भावनात्मक रूप से अपने माता पिता से अधिक सम्बद्ध रहता है, जबकि पश्चिमी देशों में अनेक बार युवाओं को यह भी पता नहीं होता की उसकी माता कौन है और उसका पिता कौन है?उसकी माँ ने अपने जीवन में कितनी शादियाँ की थीं, और बाप ने कितनी बार मां बदली थीं.दूसरी बात माता पिता अपने बच्चे की जिम्मेवारी सिर्फ दस बारह वर्ष तक ही उठाते हैं, तत्पश्चात
बच्चा या तो स्वयं अपना खर्च उठता है या फिर सरकारी योगदान से उसका भरण पोषण होता है पढाई लिखाई करता है, होटल आदि में पढाई लिखाई की व्यवस्था होती है. अतः वहां पर संतान का माता पिता के प्रति ,या माता-पिता का बच्चे के प्रति संवेदनात्मक रिश्ता समाप्त प्रायः हो जाता है यदि भारतीय युवा भी पश्चिमी देशों की नक़ल कर अपने बुजुर्गों की उपेक्षा करता है तो यह न तो उसके स्वयं के लिए जिसे कल बुजुर्गों की श्रेणी में भी आना है,और न ही वर्तमान बुजुर्गों के हित में है,क्योंकि विकसित देशों की सरकारें इतनी सक्षम हैं की वे अपने देश के सभी बुजुर्गों का भरण पोषण राजकोष से कर सकती हैं.जबकि हमारे देश की सरकार अपेक्षाकृत गरीब है, जो देश की विशाल जनसँख्या के कारण, सबका खर्च वहनकर पाने में सक्षम नहीं है. अतः उसे परिवार पर निर्भर रहना भारतीय सन्दर्भ में मजबूरी है.
पश्चिमी देशों के इतिहास पर नजर डालें तो हम देखते हैं,इन देशों ने सैकड़ों वर्षों तक एशियाई देशों को अपना गुलाम बनाय रखा है.अतः उन्होंने एशियाई देशों की धन सम्पदा को लूट खसोट कर अपने देशों को संपन्न कर लिया और आज विकसित देशों की श्रेणी में आ गए, अर्थात उनका जीवन संघर्ष लगभग समाप्त हो चुका है.जबकि भारत जैसे एशियाई देश अपने विकास के लिए संघर्ष रत हैं, गुलामी ने उन्हें उपलब्ध संसाधनों का अपने विकास के लिए उपयोग नहीं करने दिया. यही कारण है, ,की अपार प्राकृतिक सम्पदा के होते हुए भी की हमारे देश की सरकार इतनी सक्षम नहीं हैं कि अपने देश के सभी नागरिको की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ती अपने खजाने से कर पाये.
पश्चिमी देशों की कठोर जलवायु के कारण वहां की जनसँख्या एशियाई देशों के मुकाबले कम ही रहती है. सिमित जनसँख्या के कारण भी उन देशों की सरकारें अपने सभी नागरिकों का ध्यान रख पाने में सक्षम रहती हैं.हमारे देश की विस्फोटक जनसँख्या भी देश के शीघ्र विकास में रोड़ा बनती है.यद्यपि युवा श्रमशक्ति की यदि सदुपयोग हो तो विकास शीघ्रता से किया जा सकता है. अतः हमें पश्चिमी देशों की नक़ल करते समय उन दशों की स्तिथि,एवं उनकी सामाजिक संरचना का भी आंकलन करना आवश्यक है.
उनकी सभ्यता में इंसानियत एवं आत्मीयता का सर्वथा अभाव है,सिर्फ सम्पन्नता ही देखने को मिलती है,जबकि हमरे देश में प्यार,मान सम्मान,मानवीयता आज भी बाकी है,जिसका मूल्य सिर्फ यहाँ का निवासी ही समझ सकता है.संपन्न देशो के नागरिक अपनी मानसिक शांति प्राप्त करने के लिए भारत आते हैं.जो उनकी मानसिक स्तिथि का द्योतक है.

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सत्य शील अग्रवाल

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

तंत्र मंत्र के रूप में अपराध

आए दिन समाचार पत्रों में पढने को मिलता है ,बस्ती का कोई बालक कई दिनों से लापता है,किसी बालक की बलि चढ़ा दी गयी है,अथवा तंत्र मन्त्र की आड में व्यभिचार किया गया.उपरोक्त सभी अपराध तांत्रिकों द्वारा आयोजित किये गए होते हैं,अथवा उनके द्वारा प्रोत्साहित किये जाने का परिणाम होते हैं. इस प्रकार के कारनामों,अपराधों के लिए जितना हमारा शासन, प्रशासन एवं देश का लचीला कानून दोषी है उससे भी अधिक हमारे समाज की गली सड़ी मानसिकता,दकियानूसी सोच जिम्मेदार है
पिछड़े क्षेत्रों,,देहाती क्षेत्रों विशेष कर जहाँ शिक्षा का प्रचार प्रसार सिमित अवस्था में है,परिवार में किसी मानसिक रोगी का उपचार कराना हो ,किसी विपदा का निवारण करना हो ,किसी लम्बी बीमारी का इलाज न हो पा रहा हो ,व्यापार में घाटा हो रहा हो इत्यादि सभी कष्टों का इलाज तांत्रिकों के यहाँ ढूंढा जाता है.इनका अन्धविश्वास ही तांत्रिकों को प्रोत्साहित करता है,और अपराधों का जन्म होता है,जो हमारे समाज के लिए कोढ़ साबित हो रहे हैं.
कुछ तांत्रिक किसी महिला को पुत्र प्राप्ति के लिए किसी अन्य महिला के पुत्र को बलि चढाने के लिए उकसाते हैं,जो हत्या के अपराध के रूप में सामने आता है,किसी बालक पर भूत का साया बता कर उसे रोग मुक्त करने के लिए झाड़ फूंक का विकल्प सुझाते हैं,और सभी परिजनों के सामने अनेक प्रकार के अत्याचार करते हैं यथा कभी उन पर आग से सुर्ख लाल सलाखें दागी जाती हैं.कभी छोटे छोटे बच्चों को सिर्फ चेहरे को छोड़ कर समस्त शरीर को जमीन में गाड दिया जाता है,और कभी कभी मरीज को काँटों पर चलने को मजबूर किया जाता है.अनेक बार मानसिक रूप से पीड़ित महिला को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है.उपरोक्त सभी कर्म कंडों में कहीं न कहीं परिजनों की सहमती रहती है और उनकी उपस्थिति में ही मरीज अथवा पीड़ित व्यक्ति चीखता चिल्लाता है परन्तु परिजन अन्धविश्वास के वशीभूत हो कर अपने प्रिय को तड़पता देखते रहते हैं,कडुवे घूँट पीते रहते हैं.कितना दर्दनाक मंजर होता है,जब कोई तांत्रिक सबके सामने उनके प्रियजन को आघात करता है और सब मूक दर्शक बन कर देखते रहते हैं. .
तंत्र मन्त्र,भूत प्रेत ,पड़िया पंडित,तांत्रिकों पर विश्वास करना हमारे तथाकथित विकसित एवं सभ्य समाज पर कलंक है. वर्तमान समय में सभी रोगों की उन्नत चिकत्सा सुविधाओं के होते हुए भी जनता का अवैज्ञानिक उपचारों की तरफ भागना गुलामी का प्रतीक हैं.हमारे देश में धार्मिक कर्म कंडों के लिए मिली स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए तांत्रिक अपनी दुकानदारी चलाते हैं और अपराधों,व्यभिचारों को बढ़ावा देते हैं. जब कोई बड़ा अपराध होता है तो स्थानीय प्रशासन तांत्रिकों की पकड़ धकड़ करता है,उसके बाद फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है.अतः तांत्रिकों का वर्चस्व समाप्त करने के लिए जहाँ जनता को जागरूक होना आवश्यक है वहीँ प्रशासन को सभी तंत्र मन्त्र के कर्म कांडों को प्रतिबंधित कर सख्ती से पेश आना चाहिए..

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सत्य शील अग्रवाल

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

महिलाओं को दायित्व भी समान रूप से सौंपे जाएँ

यदि महिलाओं को समानता की बातें की जाती हैं,आन्दोलन चलाये जाते हैं,तो बेटियों एवं महिलाओं को परिवार के बेटे के समान दायित्वों का भार भी समान रूप से दिया जाना चाहिए. अन्यथा भाई बहन के रिश्तों में खटास आनी स्वाभाविक है, आपसी द्वेष भाव बढ़ने की पूरी सम्भावना है. महिलाओं के आन्दोलन को भी सफल और सार्थक मुकाम नहीं मिल पायेगा. यहाँ पर कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं जो महिलाओं के समानता के अधिकार को बेमाने कर रहे हैं.

#बेटियों को माता या पिता का अंतिम संस्कार की इजाजत, आज भी समाज नहीं देता यहाँ तक यदि मृतक के कोई पुत्र नहीं है तो भी बेटी को अंतिम संस्कार नहीं करने दिया जाता.क्यों? क्योंकि वह एक लड़की है ,एक महिला है.

#सरकारी कानूनों के अनुसार माता पिता की जायदाद पर बेटे और बेटियों को बराबर अधिकार मिला हुआ है,परन्तु माता पिता के भरण पोषण, सेवा सुश्रुसा की जिम्मेदारी,कानूनी या सामाजिक रूप से बेटी और दामाद की क्यों नहीं है?
#आज भी माता पिता,दादी बाबा के पैर छूने का अधिकार सिर्फ बेटे एवं पोते का होता है, बेटी और नातिन को क्यों नहीं?क्या वे उनकी संतान नहीं?यदि हम दकियानूसी एवं पारंपरिक सोच में फंसे रहेंगे तो महिला को समानता का अधिक्र कैसे उपलब्ध होगा?

#भावनात्मक रूप से बेटियों को मां से अधिक लगाव होता है. यही कारण है है जिस घर में बेटियां होती हैं,मां की आयु कम से कम दस वर्ष बढ़ जाती है.क्योंकि विवाह होने तक वे मां को उसके गृह कार्यों में काफी योगदान करती हैं.फिर भी बेटी के पैदा होने पर सबसे अधिक आत्मग्लानी का शिकार मां ही होती है जैसे उसने कोई अपराध किया हो. मां को एक महिला होने के नाते एक महिला का स्वागत नहीं करना चाहिए?बेटी के पैदा होने पर समाज के सामने सबसे पहले उसे ही खड़े होना चाहिए.समाज से उसके लिए संघर्ष करना चाहिए.

#महिलाओं को अपने दायित्व को समझते हुए दुनिया में निरंतर हो रहे बदलावों को समझने की इच्छा भी रखनी चाहिए यह सिर्फ पुरुषों तक ही क्यों सिमित रहे.वैसे भी जब तक महिलाये अनजान एवं नादान बनी रहेंगी शोषण भी होता ही रहेगा.

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शनिवार, 3 दिसंबर 2011

राज्यों का विभाजन क्यों ?

हाल ही में उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने आनन फानन में प्रदेश को चार राज्यों में विभाजित करने सम्बन्धी विधेयक को विधानसभा में पास कराकर सनसनी फैला दी.राज्यों के विभाजन की प्रासंगिकता को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बन गया है. छोटे राज्यों के पक्षकार क्षेत्र के विकास के लिए विभाजन को आवश्यक मानते हैं उनके अनुसार छोटे राज्यों के होने से राज्य के प्रत्येक क्षेत्र पर नियंत्रण अधिक प्रभावी रहता है,और क्षेत्र का विकास तीव्रता से हो सकता है. जबकि विरोध में खड़े लोगों का मानना है की छोटे छोटे राज्य बनाने से प्रशासनिक खर्चे बढ़ने का बोझ जनता पर पड़ता है. छोटे राज्यों को बढ़ावा देने से जनता में क्षेत्र वाद की भावना को बढ़ावा मिलता है. जो देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बनता है.
यह तो सभी जानते हैं, चुनावों से ठीक पहले इस प्रकार से अचानक विभाजन का विधेयक पास कराकर ,गेंद केंद्र के पाले में डालना महज मायावती का चुनावी स्टंट है.अन्यथा पिछले पांच वर्षों से ऐसी योजना क्यों नहीं बनायीं गयी.पश्चिमी उत्तर प्रदेश वासियों की राज्य विभाजन की मांग कोई नयी नहीं है.अब सभी पार्टियों की राजनैतिक मजबूरी बन गयी है की वे मायावती के प्रस्ताव का विरोध करें.उसके अवगुण गिनाएं. जबकि वास्तविकता कुछ और ही है. देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण उत्तर प्रदेश की जनता के साथ न्याय नहीं हो पाया. प्रदेश का समुचित विकास नहीं हो सका, प्रशासनिक अक्षमता के कारण प्रदेश को देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में गिना जाता है. प्रदेश को जातिगत राजनीति ने जकड रखा है,अतः विकास को कभी भी महत्वपूर्ण नहीं माना गया.
छोटे राज्यों के पक्षकारों का विचार अधिक वजन दार लगता है क्योंकि यह तो निश्चित है छोटे राज्य होने पर शासन की पकड़ मजबूत हो जाती है,उच्च प्रशासनिक अफसरों के लिए नियंत्रण करना आसान होता है. गत कुछ वर्षों पूर्व नए उभरे राज्य हरियाणा,उत्तराखंड जैसे राज्य विकास का पर्याय बन गए हैं जिससे साबित होता है छोटे राज्य अपेक्षाकृत अधिक तेजी से विकास कर सकते हैं. छोटे राज्यों का विरोध करने वालों की दलील प्रशासनिक खर्चों की बढ़ोतरी,जनता को मिलने वाले न्याय,एवं तीव्र विकास के आगे बेमाने हैं. अच्छी गुणवत्ता के शासन के लिए जनता अतिरिक्त खर्च का बोझ सहन कर लेगी. साथ ही छोटे राज्यों की मांग करना कोई देशद्रोह नहीं है,जिसको हेय दृष्टि से देखा जाय. प्रत्येक व्यक्ति को अपने क्षेत्र के विकास की मांग करने का पूर्ण अधिकार है.
स्वतंत्रता के पश्चात् जब राज्यों का गठन किया गया था तो विभाजन का मुख्य आधार भाषा को रखा गया. परन्तु बड़े राज्यों की विकास में अनेक बाधाएं आयी. और क्षेत्रीय जनता की मांग को स्वीकार कर अनेक बार नए राज्यों का गठन किया गया. परन्तु अब पिछड़े और बड़े राज्यों का विभाजन किया जाना प्रासंगिक हो चुका है,वही विकास के लिए पहली सीढ़ी बन सकता है.सभी राज्यों का पुनर्गठन किया जाय तो देश के सभी क्षेत्रों का विकास समान तौर पर हो सकेगा.
परन्तु यह तथ्य भी कम रोचक नहीं है आखिर देश को कितने राज्यों में विभाजित करना होगा. इस प्रकार के विभाजन की मांग कब तक न्याय संगत होंगी. अतः इस विवाद को निपटने के लिए देश व्यापी कुछ नियम बनाय जाने चाहिए. जिसके अंतर्गत देश के प्रत्येक राज्य के गठन से पूर्व न्यूनतम एवं अधिकतम क्षेत्रफल की सीमा तय करनी होगी,इसी प्रकार प्रत्येक राज्य के लिए पूरे देश की आबादी के प्रतिशत के आधार पर निम्नतम एवं अधिकतम जनसँख्या की सीमा निश्चित करनी होगी. इस प्रकार की सीमाएं बांधकर इस विवाद को हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है. परन्तु इन नियमो को बनाने एवं लागू करने के सभी राजनैतिक पार्टियों को वोट की राजनीति से हटकर दृढ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा.
सत्य शील अग्रवाल