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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

सेरोगेसी का व्यापार

            सेरोगेसी का व्यापार आज वैज्ञानिक शोधों ने संभव बना दिया है की जो दंपत्ति शारीरिक अक्षमता के चलते बच्चा प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें कृत्रिम विधि से किसी अन्य महिला को गर्भस्थ करा कर बच्चे का सुख प्राप्त हो सकता है.उन्हें किसी अन्य महिला को गर्भस्थ करने और प्रेगनेंसी के दौरान होने वाले खर्च सहित, उसकी फीस चुकानी होती है.इस प्रकार से प्राप्त बच्चे को किराये की कोख या सेरोगेट मदर की सेवाएं लेने का नाम लिया जाता है.इस प्रकार निःसंतान दंपत्ति के लिए संतान प्राप्त करना संभव हो गया है,और जो धनवान महिलाएं प्रसूति के दौरान होने वाली तकलीफों से बचना चाहती हैं,उनके लिए पैसे के बल पर बिना कष्ट के बच्चा प्राप्त करने का जरिया मिल गया है.
        आज पूरे विश्व में यह व्यापार जोरों से चल रहा है.विश्व के विकसित देशों के दंपत्ति गरीब एशियाई देशों की महिलाओं की सेवाएं ले रहे हैं.कारण,भारत जैसे गरीब देश में मात्र सात हजार डालर किराये की कोख प्राप्त हो जाती जिसके लिए उन्हें अपने देश में पच्चीस हजार डॉलर खर्च करने पड़ते हैं.इस आकर्षण के कारण उपलब्ध आंकड़ो के अनुसार इस फलते फूलते कारोबार से अपने देश को सन २०१२ में २.३ बिलियन डालर की विदेशी मुद्रा प्राप्त होने का अनुमान है.जो भारतीय मुद्रा के अनुसार बारह हजार करोड़ रूपए से भी अधिक रकम बैठती है.उपरोक्त आंकड़े तो सिर्फ एक जानकारी देने मात्र के लिए हैं.ये कोई सेरोगेसी को लाभप्रद साबित करने के लिए नहीं हैं. क्या विदेशी मुद्रा कमाने के नाम पर एक गरीब महिला की मजबूरी का लाभ उठा कर किराये की कोख के व्यापार को उचित माना जा सकता है? क्या कोख किराये पर लेना और बच्चे को किसी अन्य दंपत्ति द्वारा ले जाना महिला का भावनात्मक शोषण नहीं है?तर्क में यह बात भी कही जा सकती है की जब दोनों पक्ष राजी हैं तो किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए.और कानून भी इसके लिए कोई इंकार नहीं करता.इसका उत्तर तो एक भुक्तभोगी महिला ही दे सकती है जब उसे अपने बच्चे को किसी अन्य को सौंपने का समय आता है और भविष्य में भी अपने बच्चे की कोई जानकारी मिल पाने की कोई सम्भावना नहीं होती.अर्थात पैसे के माध्यम से उसके मातृत्व को दांव पर लगाया जाता है.शायद चिकित्सा जगत की उन्नति ने महिलाओं के शोषण का एक नया जरिया खोल दिया.
        यदि हम सिर्फ सेरोगेसी स्वीकार करने वाली महिला की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए सोचते हैं ,तो कुछ हद तक यह उनके जीवन में एक उजाला लेकर आने वाला माध्यम लगता है, जो उन्हें भूखो मरने से निजात दिलाता है .परन्तु जब मानवीय पहलू से सोचा जाये तो यह उसका धन के लिए किया जाने वाला शारीरिक शोषण ही लगता है .अर्थात सेरोगेट मदर बनने वाली महिला की आर्थिक स्थिति ही इस प्रकार के कार्य को स्वीकार करने की मजबूरी है .स्पष्ट है यदि देश में कोई निर्धनता के स्तर से नीचे जीवन यापन करने वाला न हो तो, शायद ही कोई महिला सेरोगेसी को स्वीकार करेगी.जिससे निष्कर्ष निकलता है समस्या सेरोगेसी के चलन में नहीं है बल्कि समस्या हमारे देश या अन्य एशियाई देशो की दरिद्रता में निहित है .सबसे दर्दनाक पहलू जब होता जब वह सेरोगेट मदर बनी महिला अपने बच्चे को अनुबंधित दंपत्ति को सौंपती है .जब तक उसे सभी सुविधाएँ मिलती हैं तो उसे आभास भी नहीं होता की उसने क्या अनुबंध किया है , क्योंकि उसकी दरिद्रता उसे मातृत्व प्रेम के बारे में सोचने ही नहीं देती .वायदे के अनुसार जब उससे उसका बच्चा अलग होता है,यह जानते हुए भी की उसका बच्चा उसे अपने पास रहने से अधिक सुखी जीवन जीएगा ,तब भी उसे जो दर्द होता वह अकल्पनीय है.यदि दुर्भाग्यवश उसका बच्चा मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग पैदा हुआ,और खरीदार दम्पती ने बच्चे को लेने से इंकार कर दिया तो,उसके लिए जीवन भर त्रासदी का रूप ले लेता है.
          यद्यपि हमारे देश में इस समस्या को भयावह बनने से रोकने,और महिलाओं के स्वास्थ्य को ध्यान रखते हुए ,कुछ उपाए  भारत सरकार द्वारा किये गए हैं.२००२ में सेरोगेसी के सन्दर्भ में बने कानून के अनुसार किराये पर कोख की सेवा देने वाली महिला की उम्र कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए.साथ ही किराये पर देने की संख्या को अधिकतम पांच बार तक सीमित किया गया है.अनुबंध में विदेशी खरीदार को बच्चे को अपने देश की नागरिकता दिलाने का आश्वासन भी देना होता है.परन्तु यह कानून सेरोगेसी को रोकने के लिए नहीं है,बल्कि सेरोगेसी की अनुमति देकर, नारी  शोषण को ही   निमंत्रण देता है.
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शनिवार, 24 नवंबर 2012

प्रतिशोध की भावना का कारण----शोषण?


   शोषण और प्रतिशोध की भावना का चोली दामन का साथ है.अक्सर देखने में आता है की प्रत्येक सामाजिक शोषण के पीछे व्यक्तिगत दुश्मनी कम परंपरागत शोषण की भावना अधिक काम करती है. यदि प्रत्येक इंसान अपने स्तर पर ही बदले की भावना का सुख त्याग दे, तो अवश्य ही इंसान समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों,आडंबरों से मुक्त हो सकता है.कुछ ज्वलंत उदहारण प्रस्तुत हैं;
१,मेरी सास स्वयं कोई कार्य करना पसंद नहीं करती थी.वह तो सिर्फ बैठे बैठे मुझे आदेश देती थीमुझ से दिन भर कार्य करवाती थी,मुझ पर अनेक बंदिशें थोपती रहती थी. बात बात पर ताने मारकर मुझे आहत करती रहती थी.मेरे पति को मेरे विरुद्ध भडकाती रहती थी.आज मैं सास बन गयी हूँ,अब मेरा नंबर है,सास का रौब ज़माने का ,तो फिर क्यों न करूं अपनी बहु के साथ? अब यदि मैं सुधारवादी बन जाऊं तो क्या भड़ास निकलने के लिए किसी और जन्म की प्रतीक्षा करूं? यह तो सबका समय आता है, अपनी सास का बदला लेने का. मैं अपनी सास से नहीं उलझ सकती थी.अतः सास के द्वारा किये गए अत्याचारों का बदला लेने का समय आ गया है.

२, मेरे  बहनोई मुझे हर समय नीचा दिखने का प्रयास करता रहता था,वह मेरे से दोयम दर्जे का व्यव्हार करता था.जैसे मैं कोई उसका रिश्तेदार नहीं बल्कि नौकर चाकर हूँ.मैं अपने बहनोई के दामादपने से काफी आहत रहता था, अनेक बार रोते हुए बहन के घर से लौटता था.मेरी शादी में मेरी बहन को भी नहीं भेजा .मेरी शादी के समय बहन बहनोई की अनुपस्थिति सभी घर वालों को नागवार गुजर रही थी.अब मेरी भी शादी हो गयी है मेरे भी दो साले हैं,अब मैं भी एक परिवार का दामाद हो गया हूँ.अब आयेगा मजा चुन चुन का बदले लूँगा.अपने सालों को दिन में तारे न दिखा दिए तो मेरा  भी नाम -----नहीं

३,मेरे पिता तानाशाह पृकृति के रहे हैं.बात बात पर गुस्सा करना,रौब ग़ालिब करना और मुझे बार बार हडकाते रहना उन्हें बहुत भाता है.उनके इस असंगत व्यव्हार से मैं बचपन से आहत रहा हूँ.उनके व्यव्हार के विरुद्ध बोलने की मुझमे हिम्मत नहीं थी.अतः मन मसोस कर ,कडुवे घूँट पीकर रह जाता था.अब मेरा बेटा बड़ा होने लग रहा है.अब तो मेरा रौब चलेगा.अब मैं बोलूँगा और वह सुनेगा.अब मैं उसका बाप हूँ.यही तो समाज का नियम है.

४,जब मैंने मेडिकल कालेज के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया और कालेज जाना प्रारंभ किया.तो कालेज के सीनियर छात्रों ने मेरे साथ कालेज परिसर और होटल में अनेक बार दुर्व्यवहार किया  रेगिंग के नाम पर अनेक प्रकार से परेशान हैरान करते थे.उन्होंने कभी मुझे मुर्गा बना दिया,तो  कभी कीचड में दौड़ने को मजबूर किया,कभी कार्टून बना कर लड़कियों के समक्ष अपमानित किया.कालेज में प्रवेश के पश्चात तीन माह आतंक के साये में कटे.मेरे लिए आतंकी शिविर बन गया था मेरा होस्टल प्रवास.मेरे एक साथी ने तो अमानवीय अत्याचारों से क्षुब्द हो कर आत्महत्या कर ली थी.आज मैं द्वितीय वर्ष का छात्र हो गया हूँ,और मेरे जूनियर कालेज आने वाले हैं,अब मैं भी दिखा दूंगा मैंने क्या क्या सहा था? पिछले वर्ष बल्कि उससे भी अधिक  रुलाउंगा अपने जूनियरों को.मेरे दुःख भरे दिन गए, अब तो बलि का बकरा बनेगा आने वाला नया बैच.जहाँ तक सरकारी कानूनों की बात है अब वह कैसे रोक लेगा जब मैं जुनियर था तब कानून कहाँ था? जब कहाँ थे शासन, प्रशासन?

५, आज जब मैं आफिस पहुंचा तो देखा बॉस का मूड खराब है,उन्होंने मुझे बिना किसी कारण डाटा-धमकाया.शायद अपने घर की किसी परेशानी से दुखी होने के कारण उन्होंने मेरा पूरा दिन खराब कर दिया.मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा था. फिर मैंने भी अपनी भड़ास अपने स्टाफ़ पर निकाल दी,मैंने भी अपने सभी जूनियर स्टाफ को बारी बारी हडका दिया,इस प्रकार से अपने बॉस का बदला अपने स्टाफ से लिया.

६,किसी परिवार में किसी व्यक्ति की हत्या हो जाती है तो बदले में हत्यारे के परिवार के किसी भी सदस्य की हत्या करके मन में उठ रही  प्रतिशोध की ज्वाला को शांत किया जाता है, और यह सिलसिला अंतहीन समय तक जारी रहता है.दोनों परिवार की दुश्मनी परमपरागत दुश्मनी का रूप ले लेती है. इस प्रकार अनेक अपराधों का कारण भी प्रतिशोध होता है.

   शायद उपरोक्त उदाहरणों को पढकर  मेरे विचारों से आप भी सहमत होंगे, की समाज में अत्याचार,दुर्व्यवहार मुख्यतः प्रतिक्रियाओं का न रुकने वाला सिलसिला होता है.यदि मानव हित में हम नियम बना लें की यदि कोई व्यव्हार हमें नापसंद है,तो वह व्यव्हार किसी के साथ न दोहराएँ.तो वास्तव में समाज में अत्याचारों अनाचारों और शोषण का ग्राफ बहुत नीचे आ सकता है.हम तनाव मुक्त शांति युक्त जीवन जी सकते हैं.(SA-73C)
   सत्य शील अग्रवाल, शास्त्री नगर मेरठ 

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

संवेदन हीन होता हमारा समाज

           मानव सभ्यता अपने उद्भव काल के पश्चात् उन्नति के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयी है .उसकी विकास की गति भी तीव्रतम हो गयी है .आज मानव द्वारा किये जाने वाले श्रम -साध्य कार्य मशीनों से कराया जाना संभव हो गया है .दूसरी तरफ उसके मानसिक कार्यों को अधिक तीव्रता से करने के लिए कम्पूटर आ चुका है .विकास के इस उच्च पड़ाव पर जहाँ मानव को अनेक सुख सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं .तो अनेको समस्याओं को भी बल मिला है .जैसे बढती बेरोजगारी ,घटते रोजगार के अवसर ,बढती भौतिकवादी मानसिकता ,गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ,प्रत्येक स्तर पर बढ़ रहे प्रदूषण के कारण व्याधियों का बढ़ता ग्राफ ,अमीर गरीब के मध्य बढती खाई ,साथ ही समाज में निरंतर बढ़ रही मानवता के प्रति सम्वेदनहीनता . विकास की भागम भाग में मनाविये संवेदनाएं ,भावनाए विलुप्त होती जा रही हैं ,जो एक भयानक और भावी कष्टकारी जीवन की ओर संकेत कर रही है .यदि मानव समाज से सहानुभूति ,संवेदनाएं ,भावनाए निकाल दी जाएँ तो मानव समाज और अन्य वन्य जीवों में कोई अंतर नहीं रह जायेगा .आज मानव स्वयं एक रोबोट की भांति होता जा रहा है . जिसमे कार्य करने की तो अदभुत क्षमता होती है ,परन्तु भावनाओं से उसका कोई लेना देना नहीं होता .अतः मानव सभ्यता को बचाने के लिए मनाविये संवेदनहीनता के कारणों पर चिंतन करना आवश्यक हो गया है .कहीं ऐसा न हो भौतिक उन्नति करते करते हम सामजिक पतन को न्योता दे दें .जो हमारी भौतिक उपलब्धियों को निरर्थक कर दे . मानव समाज में बढ़ रही संवेदन हीनता के कारणों को समझने का प्रयास इस लेख के मध्यम से किया जा रहा है .---------
 वर्तमान में इन्सान इतना व्यस्त हो गया है यदि यात्रा करते समय ट्रेन ,बस या किसी अन्य वाहन से कोई दुर्घटनाग्रस्त दिखाई देता है तो उस घायल व्यक्ति या व्यक्तियों को आवश्यक सहायता देने या चिकित्सालय तक ले जाने का समय हमारे पास नहीं होता .अनेको बार दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की समय पर इलाज न मिल पाने के कारण मौत हो जाती है .जो हमारी संवेदन हीनता का प्रतीक है .
      अपने स्वार्थ के कारण (आर्थिक स्वार्थ )समाज के साथ साथ अपने परिजनों के प्रति भी संवेदन हीन होते जा रहे हैं .प्रथम श्रेणी के रिश्तो अर्थात भाई भाई ,भाई बहन ,पिता पुत्र में भी अपनापन समाप्त होता जा रहा है .वह अपने जीवन स्तर के आधार पर ही रिश्तेदारों या परिजनों से सम्बन्ध रखना चाहता है .इस प्रकार से परिवारों में बिखराव आ रहा है . इस दुनिया में व्यक्ति अकेला होता जा रहा है , और मानसिक रूप से असुरक्षित हो गया है .क्योंकि प्रत्येक ख़ुशी भी बिना परिजनों के अधूरी होती है .और दुःख में परिजनों से ही मानसिक शक्ति प्राप्त होती है .शायद भौतिक सुखों की प्राप्ति पर ध्यान केन्द्रित करते करते हम मानसिक असंतोष को न्योता दे रहे हैं .
      समाज की प्रथम इकाई परिवार में पति और पत्नी परिवार रुपी गाड़ी के दो पहिये होते हैं .यदि दोनों पहिये आपस में सामंजस्य बना कर नहीं चल सकते , तो परिवार के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है .परन्तु आज उनमे भी मानसिक लगाव का अभाव हो रहा है .उनमे आपसी संबंधों में स्वार्थ और दौलत का नशा झलकने लगा है .अतः तलाक की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही है .पत्नी को गंभीर बीमारी से ग्रस्त पा कर पति कही और घर बसा लेता है ,या पति की विपन्नता से तंग आ कर पत्नी धनवान प्रेमी के साथ भागने में नहीं हिचकिचाती
      .आज छोटे छोटे स्वार्थ के टकराव तलाक के कारण बन रहे हैं .जो कभी सिर्फ पाश्चात्य देशों में ही होता था .दूरदर्शन के धारावाहिकों में प्रदर्शित होने वाले , व्यभिचार और सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना कहीं न कहीं हमारे समाज की वर्तमान स्थिति को परिलक्षित करते हैं .यह तो निश्चित है पारिवारिक सुख शांति के अभाव में सभी भौतिक उपलब्धियां महत्वहीन हैं .
           विकास के इस दौर में आ रही सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण प्रत्येक व्यक्ति के मन में इर्ष्या ने जन्म ले लिया भाई हो या बहन या कोई अन्य सम्बन्धी , मित्र ,पडोसी या जानकार, इर्ष्या के अनेक कारण हो सकते हैं ,जैसे रहन सहन या जीवन शैली में भारी अंतर ,पारिवारिक स्थिति में अंतर यानि किसी के पुत्र के रूप में संतान अधिक या कम होने का ,शिक्षा स्तर या पद में अंतर ,इत्यादि अर्थात इर्ष्या का कारण कोई भी,किसी भी प्रकार की आपसी तुलना हो सकती है.अब यदि कोई परिचित,रिश्तेदार या मित्र किसी बीमारी से ग्रस्त हो जाता है , दुर्घटना का शिकार हो जाता है ,अथवा किसी मुसीबत में फंस जाता है तो हम उससे सहानुभूति कम इर्श्या वश खुश अधिक होते हैं,.कभी कभी तो सोचते हैं अच्छा हुआ इसके साथ तो ऐसा ही होना चाहिए था,बड़ा घमंड था या बहुत अकड़ता फिरता था.जब इस प्रकार की मानसिकता हो गयी हो तो अपनापन का का अहसास कैसे हो पायेगा ? सबके मन में प्रतिद्वंद्विता और इर्ष्या ने घर बना लिया हैऔर सिर्फ अपनी उन्नति के लिए स्वार्थी हो चुके हैं. अपने आर्थिक हितों के लिए अपने प्रियतम व्यक्ति से भी दूर रहने में कोई झिझक नहीं रह गयी है.और अपने प्रिय व्यक्ति भी अपने अपने दुखों से कम उसके सुखों से दुखी अधिक होते हैं. परिवार और समाज का सुख समाप्त होता जा रहा है.इस प्रकार इर्ष्या ने हमें संवेदनहीन और रूखा बना दिया है .
       सम्वेदनहीनता के कारण मानव द्वारा मानव का ही शोषण किया जा रहा है , जैसे बाल मजदूरी द्वारा , महिला के साथ दुर्व्यवहार ,उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग का शोषण ,पुत्र के पिता का उसकी पत्नी के पिता का शोषण ,(बेटे के बाप द्वारा बेटी के बाप का शोषण )धर्म के नाम पर आतंक द्वारा मानव जाति का शोषण इत्यादि ,घटते जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं . नए से नए हथियारों के उत्पादन कर बड़े बड़े भंडार बनाये जा रहे हैं . एक देश दूसरे देश का शोषण करने के उपाए ढूंढता है ,हथियारों के बल पर अपने स्वार्थ सिद्ध करता है ,उन्नति और विकास के नाम पर मानव अपनी कब्र स्वयं खोद रहा है .
          हमारे देश के सन्दर्भ में ;
 विकसित देशों की तर्ज पर हमारे देश के लोग भी सम्वेदनहीन होते जा रहे हैं ,स्वयं को तटस्थ (reserve)करते जा रहे हैं
        क्या हमारे देश की शासन व्यवस्था विकसित देशों की भांति कर्तव्य परायण है ?जहाँ पर प्रत्येक दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की जिम्मेदारी स्वयं प्रशासन सम्भालता है .उसको सही समय पर सही इलाज कराने को तत्पर रहता है.
          जहाँ पर कानून और न्याय की सेवाएं कम से कम समय में बिना किसी पक्षपात के उपलब्ध होती हैं .जहाँ आम आदमी कानून की अवहेलना करने या अपराध करने का साहस नहीं जुटा पता .
           जहाँ सरकारी हो या निजी अस्पताल मरीज के इलाज के लिए प्रशासन स्तर पर पूर्ण जिम्मेदारी उठाते हैं उसे तीमार दारों   की या सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती ,निजी अस्पताल मरीज के साथ लूटने की मंशा से बिल नहीं बनाते .
        क्योंकि हमारे नौकर शाही तंत्र भ्रष्ट है कोई भी व्यक्ति अपने कार्य के प्रति ईमानदार नहीं है हर क्षेत्र में दबाव या शक्ति प्रदर्शन आवश्यक होता है . यदि कोई व्यक्क्ति समाज से कट कर अपने धन संग्रह में लिप्त रहता है तो जहाँ विदेशों में उसको भले ही अपने लोगों की कमी न खले , परन्तु अपने देश के नागरिक के लिए अभिशाप बन जाता है .हम अभी ऐसे विकसित देश की व्यवस्था नहीं बना पाए हैं जहाँ व्यक्ति अपने आप में पूर्णतयःआत्मनिर्भर हो गया है ,उसकी संवेदनहीनता उसे अधिक परेशान नहीं करती . क्योंकि वह अपने कर्तव्यों को ठीक प्रकार से निर्वहन करता है . अतः हमारे देश के लिए संवेदन हीनता के व्यव्हार हमें शीघ्र ही ले डूबेगा .जहाँ व्यक्ति असुरक्षित हो उसे संगठित होकर रहना ही उसके हित में है. अतः इन्सान को विकास की आधुनिक भागदौड के साथ साथ भावनाओं और संवेदनाओं की रक्षा करने के उपाए भी करने होंगे तन मन धन से अपने संबंधो को सींचना होगा .सभी भौतिक उपलब्धियों का उद्देश्य मानव कल्याण और सुख शांती को बनाना होगा मानव जाति का भविष्य जब ही सुखद हो सकता है जब हम आत्मीयता ,मेल जोल , भाई चारा ,और संवेदनाओं को साथ लेकर चलें.(SA-G4-79)
 सत्य शील अग्रवाल,शास्त्री नगर मेरठ

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

कैसे बने मधुर सास-बहू सम्बन्ध

   किसी भी संयुक्त परिवार में सास एवं बहु अधिकतम समय एक दूसरे के साथ व्यतीत करती हैं,क्योंकि दोनों पर ही घर के कामकाज की जिम्मेदारी होती है. घर में अशांति का मुख्य कारण भी सास एवं बहू के कटु सम्बन्ध होते हैं. इनके मध्य विवादों के कारण अनेक परंपरागत प्रथाएं तो होती ही हैं,अनेकों बार घर की बुजुर्ग महिला यानि सास का अपरिपक्व व्यव्हार भी विवादों का कारण बनता है. सास का आत्मसम्मान उसे तनावयुक्त बना देता है.वह बहू के आगमन को अपने प्रतिद्वंद्वी के आगमन के रूप में देखती है, और उसके आगमन से उसे अपना बर्चस्व घटता हुआ दीखता है. इसी भय की प्रतिक्रिया स्वरूप सास अपनी बहु को नीचा दिखने के उपाय सोचती रहती है. अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए घर के सारे श्रम साध्य कार्य बहू को सौंप देती है, और अपने आदेशों का पालन करने के लिए दबाव बनाती है.अपना रौब ज़माने के लिए उस पर तानाकशी का सहारा लेती है, उसको अपने प्रभाव में बनाये रखने के लिए अपने बेटे के मन में उसके प्रति जहर भरती रहती है ताकि बहु उसकी कृपा पर निर्भर हो जाये, साथ ही बेटे के मन में अपनी माँ की अहमियत बनी रहे. ऐसे दोगले व्यव्हार के कारण बहु सास के प्रति बागी हो जाती है.और परिवार में तनाव बढ़ने लगता है.दूसरी तरफ दूसरे घर से आने वाली बहु भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही होती है.वह भी चाहती है की उसकी बातों का भी परिवार में महत्त्व हो,उसकी इच्छाओं की भी कद्र हो, परिवार के निर्णयों में उसका भी दखल हो.वह भी कहीं न कहीं अपना बर्चस्व बनाने की आकांक्षा रखती है.मुख्तया बर्चस्व की लड़ाई ही सास बहु के बीच टकराव पैदा करती है सास बहु के सम्बन्ध मधुर बने रहने के लिए सास के व्यव्हार में उदारता, धैर्यता,और त्याग का भाव होना आवश्यक है.अपने सभी प्रियजनों को माएके छोड़ कर आयी बहू को प्यार भरा व्यव्हार ही नए परिवार के साथ जोड़ सकता है, उसे अपनेपन का अहसास करा सकता है.और उसके मन में सम्मान और सहयोग की भावना उत्पन्न कर सकता है.बहु को सिर्फ काम करने वाली मशीन न समझ कर परिवार का सम्माननीय सदस्य माना जाये,उसके विचारों ,भावनाओं को महत्त्व दिया जाये,उससे परिवार के विशेष फैसलों में सलाह ली जाय,तो परिवार की सुख शांति बनी रह सकती है.यदि सास घर के सारे काम बहू को न सौंप कर स्वयं भी उसके हर कार्य में सहयोग करती रहे तो उसका स्वयं का स्वास्थ्य भी बना रहेगा और परिवार का वातावरण भी मधुर बना रहेगा. क्योंकि शरीर को स्वास्थ्य रखने के लिए इसे सक्रिय रखना आवश्यक है, निष्क्रिय शरीर जल्द बीमारियों का घर बन जाता है.तो फिर क्यों न काम काज में सक्रिय रह कर अपने शरीर को स्वस्थ्य रखा जाय और परिवार में मधुर वातावरण भी बना रहे.सास का शालीन,धैर्य व् उदारता पूर्ण व्यव्हार,और परिजनों के प्रति त्याग की भावना हो तो अवश्य ही परिवार में सुख और शांति का वास होगा.बहू को अपनी पुत्री के समान प्यार देकर ही सास अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकती है. सास को यह नहीं भूलना चाहिए की वह भी कभी बहू बन कर ही इस परिवार में आयी थी .जो बातें उसे बहु के रूप में अपनी सास की बुरी लगती थीं ,असहनीय लगती थीं,वे बातें अपनी बहू के साथ न दोहराय. कुछ बातें तुम्हारी भी ससुराल वालों ने सहन की होंगी अतः अब तुम्हारी बारी है अपना बड़प्पन दिखने की. छोटी छोटी गलतियों पर उसका अपमान न कर क्षमा करने की प्रवृति होनी चाहिए. जिस प्रकार सास की जिम्मेदारी बड़े होने के नाते बनती है, उसी प्रकार युवा,ऊर्जावान बहू को अपने ससुराल वालों का मन जीतने की आकांक्षा होनी चाहिए. उसे यह भली प्रकार से समझना चाहिए ससुराल में किसी परिजन से (बच्चो को छोड़ कर )उसका खून का रिश्ता नहीं होता, अतः सभी परिजनों के कामकाज में सहयोग देकर ,उनके साथ शालीनता का व्यव्हार कर.उन्हें प्यार और सम्मान देकर ही उनके मन में और परिवार में अपनी जगह बनायीं जा सकती है.पुत्र वधु का कर्तव्य है की वह अपने सास ससुर को माता पिता की भांति स्नेह और सम्मान दे, उनके प्रत्येक कार्य में सहयोग दे. यदि उनके व्यव्हार तानाशाह पूर्ण और अमानवीय नहीं है तो उन्हें पूजनीय मानना चाहिए. उन्हें स्नेह और सम्मान देकर वह अपने पति के दिल को जीत सकती है. एक पत्नी के लिए उसका प्यार उसका पति होता है अतः उसके(पति के) प्यारे यानि उसके माता पिता भी तो पत्नी के प्यारे ही हुए.
 यदि बहु अपने सास ससुर के साथ कुछ निम्न लिखित बातों को अपनाएं तो अवश्य ही वे सबके दिल जीतने में कामयाब हो सकती हैं.
 १,बुजुर्गों के जन्म दिन,विवाह वर्षगाँठ आदि पर उनकी पसंद के फूल अथवा उनकी प्रिय वस्तु भेंट करें जैसे उनके मन पसंद गानों की सी.डी या डी.वी डी.या फिर उनकी पसंदीदा कोई किताब आदि. ऐसे अवसरों पर उन्हें केंडिल डिनर पर ले जाएँ अथवा घर पर उनकी मन पसंद डिश तैयार करें. उनके चहरे पर आने वाली मुस्कान एवं संतोष आपको गौरवान्वित करेगी.और उनके दिलों में आपके लिए प्यार व् स्नेह बढ़ेगा.
 २,थोडा समय निकाल कर परिवार के बुजुर्गों के साथ बैठकर समय व्यतीत करें,उनकी भावनाओं को समझें उनकी शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं को सुनें, उनकी पुरानी यादों को शेयर करें. इस प्रकार से उनके मन का बोझ हल्का होगा. 
३,अपने बच्चों से अपने दादा दादी के साथ समय देने का आग्रह करें.बच्चों को उनके ज्ञान का लाभ मिलेगा, वहीँ बुजुर्ग को परिवार में अपना महत्त्व दिखाई देगा. साथ ही बच्चों की अटपटी हरकतों ,शरारतों से उनका मनोरंजन भी होगा .
 ४,अपने कार्यों एवं व्यव्हार द्वारा उनका दिल जीत कर उनके अनुभवों का लाभ उठा सकती है और परिवार को खुशियों से भर सकती हैं.कठिन परिस्थितियों में भी बुजुर्गों का अनुभव और उनकी सलाह सहायक सिद्ध हो सकते हैं. 
५,जब कभी बुजुर्ग तानाशाही और दखलंदाजी वाली प्रवृति रखते हैं तो विषेश संयम एवं धैर्य का परिचय देना होता है. ऐसे बुजुर्गों के साथ बहस न करें,किसी भी टकराव की स्थिति से बचें और जो भी संभव हो अधिकतम अपने कर्तव्यों का पालन करती रहें. मन को व्यथित करे बिना उनके स्वभाव को उसी प्रकार अपनाने का प्रयास कर अपना व्यक्तिगत पारिवारिक जीवन कलुषित होने से बचाएं. अवांछनीय सन्दर्भों में दूरी बनाने का प्रयास करें. 
जिस प्रकार से बहू के लिए कुछ व्यव्हार परिवार के लिए लाभप्रद हो सकते हैं उसी प्रकार सास के लिए कुछ व्यव्हार परिवार की शांति बनाये रख सकते हैं.जो निम्न प्रकार से हैं.
१, बहु की तानाकशी करने से बचें, कोई त्रुटी नजर आने पर उसे प्यार से समझाएं यदि वह आपकी सलाह को उपयुक्त नहीं मानती तो दोबारा उसे न दोहराएँ.
 २,पोती-पोतों को प्यार दें, उनकी परवरिश में यथा संभव बहू को सहयोग करें.
 ३,घर के कामकाज में अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग करें. अपनी उपस्थिति उनके लिए लाभदायक सिद्ध करें. 
४.बहू के माएके वालों का पूर्ण सम्मान करें,प्यार दें,समय समय पर बहू को माएके वालों से मिलने के अवसर प्रदान करें. उसके माएके वालों का अपमान कभी न करें.उनका अपमान का अर्थ है बहू के मन में अपने प्रति कडुवाहट पैदा करना,अपने प्रति सम्मान को कम करना.
५,बहू के माएके से यदि कोई उपहार आता है तो उसे नतमस्तक होकर अपनाएं,उसमें त्रुटियाँ निकाल कर बहू का अपमान न करें.
 उपरोक्त छोटी छोटी बातों का ध्यान रखा जाय तो परिवार का वातावरण सहज, सुखद, एवं शांतिपूर्ण बन सकता है.परिजनों में आपसी प्रेम एवं सहयोग बना रह सकता है.

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

निश्छल और पारदर्शी व्यक्तित्व का महत्त्व

निश्छल और पारदर्शी व्यक्तित्व का महत्त्व शिक्षा के प्रचार –प्रसार के साथ साथ इन्सान की तर्कशक्ति भी बढती जा रही है .जिसने इन्सान की उन्नति के अनेकों नए आयाम खोले हैं ,वहीँ पर बढती प्रतिस्पर्द्धा एवं बढ़ते भौतिकवाद ने उसे कपटी ,बेईमान ,स्वार्थी जैसे गुणों से अलंकृत भी किया है . आज सिद्धांतों पर आधारित जीवन जीने की चाह रखने वाला व्यक्ति भयाक्रांत रहता है . कहीं उसे इस अनैतिकता भरे समाज में हाशिये पर न धकेल दिया जाय . उसे लगता है आज एक व्यक्ति की उन्नति की राह उसकी शैक्षिक योग्यता से भी अधिक चतुर , चालक ,कपटी ,स्वार्थी जैसी योग्यता में निहित हो गयी है .अर्थात सिद्धांत वादी व्यक्तित्व योग्यता का मापदंड बनता जा रहा है . आज भी बुजुर्ग समाज में अनेक व्यक्ति ऐसे मौजूद हैं जिन्होंने अपना जीवन इमानदारी ,निष्कपट एवं पारदर्शिता के आधार पर व्यतीत किया है .शायद इसी कारण वे अपने जीवन में ऊंचाइयों को नहीं छू सके . शायद उनकी संतान उन्हें दुनिया में जीने के लिए योग्य भी करार दे ,क्योंकि उसके लिए सिद्धांतों के आधार पर जीना असंभव हो चुका है .या यह कहा जाय आज की बढती महत्वाकांक्षाओं के कारण सिद्धांतो पर डटे रहना बीते दिनों की बातें लगने लगी हैं . ऐसा नहीं है की सभी लोग सिद्धान्तहीन हो गए हैं ,या पहले सभी लोग सिद्धांतवादी होते थे .अंतर यह है की पहले सिद्धांतवादी अधिकतर लोग होते थे और सिद्धांत हीन कम लोग होते थे परन्तु आज सिद्धान्तहीन लोगों की बहुतायत हो गयी है और सिद्धांतवादी लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं . यह एक कडुवा सच है की इन्सान का और मानवता का विकास इमानदारी ,पारदर्शिता ,सच्चाई के बिना संभव नहीं है .हमारा समाज कितना भी अनैतिक हो जाय आदर्श और सिद्धांतों का महत्त्व काम नहीं हो सकता . सिद्धांत हमेशा ही प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे .बिना इमानदारी और सच्चाई के आज भी आम जीवन संभव नहीं है .क्योंकि प्रत्येक सिद्धान्तहीन व्यक्ति को भी कहीं न कहीं इमानदारी का साथ निभाना पड़ता है .इस सन्दर्भ को कुछ उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है . जैसे रिश्वत लेना एक सामाजिक अपराध है ,और गैरकानूनी भी है परन्तु हर रिश्वत खोर व्यक्ति या भ्रष्टाचारी जिससे रिश्वत का लाभ प्राप्त करता है उसके कार्य को इमानदारी से पूर्ण करता है यदि किसी कारण वह कार्य पूर्ण नहीं कर पता तो वह पूरी इमानदारी से रिश्वत की रकम को लौटा देता है .अर्थात रिश्वत प्रदाता के साथ बफदारी और ईमानदारी निभाता है .इसी प्रकार से कानून की निगाह में अवैध कार्य करने वाले व्यापारी अपने लेन देन में पूरी इमानदारी रखते हैं .एक डकैत जो पेशे से खूंखार और हिंसक होता है वह भी अपने कुछ सिद्धांतों का पालन करता है ,हर परिस्थिति में निभाता है .व्यापार ,या उद्योग चलाने वाला कितना भी दुष्ट या अपराधी क्यों न हो अपने ग्राहकों के लिए पूर्णतयः ईमानदार ,बफादार और पारदर्शी रहता है या रहने को मजबूर होता है .अन्यथा उसका कारोबार चल पाना संभव नहीं होता .उसे आम आदमी के समक्ष अपनी छवि को उज्जवल ही रखना होता है .क्योंकि गुंडागर्दी , बेइमानी और दुष्टता के बाल पर कोई भी कारोबार संभव नहीं है .नेता लोग कितने भी भ्रष्ट क्यों न हो जाएँ ,जनता के समक्ष उन्हें बेहद बफादार और ईमानदार होने का ढोंग ही करना पड़ता है .जनता से वोट प्राप्त करने के लिए ईमानदार दिखना आवश्यक है .बिना सड़क के नियमों ,कानूनों का इमानदारी से पालन किया , अपने को सड़क पर सुरक्षित रहा पाना संभव नहीं है . उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट है की सिद्धांतों के बिना कुछ भी संभव नहीं है .छल ,कपट ,बेइमानी क्षणिक लाभ तो दे सकते है परन्तु दीर्घावधि तक इसी व्यव्हार से जीवन चला पाना आसान नहीं होता .जो व्यापरी इमानदारी और उच्च आदर्शों के सहारे अपना व्यापार चलते हैं वे ही व्यापार में सर्वाधिक ऊंचाइयों पर पहुँच पाते हैं .जो नेता देश भक्ति और ईमानदारी ,पारदर्शिता को अपनाते हुए देश का नेत्रित्व करते हैं वे ही देश को उत्थान की ओर अग्रसर कर सकते हैं . वर्तमान समय में किसी भी हिंसक ,बेईमान ,धोखेबाज को अधिक साधन संपन्न देखा जा सकता है परन्तु वे हमेशा कानूनी भय ,या सामाजिक अपराध बोध से त्रस्त रहते हैं .मानसिक तनाव हमेश बना रहता है .जबकि निष्कपट ,इम्मंदर ,सच्चा व्यक्ति आत्म संतोष की पूँजी के साथ सुखी रहता है .यह भी कडुवा सत्य है वर्तमान परिस्थिति में किसी व्यक्ति को अपने सिद्धांतों पर अडिग रहा कर जीवन चलाना आसान नहीं होता ,उसका जीवन एक तपस्या बन जाता है .परन्तु जो आत्म संतोष उसे प्राप्त होता है वह सबसे बड़ा धन है . अतः निश्छल , ईमानदारी ,पारदर्शिता का महत्त्व कभी ख़त्म नहीं होने वाला.

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

विश्व में आर्थिक असमानता क्यों ?


पृथ्वी पर समय के साथ सिर्फ मानव ही ऐसा जीव है जो अपनी बुद्धि के बल पर विकास कर सका, और दुनिया के हर क्षेत्र पर अपना अधिपत्य जमा लिया. विकास यात्रा में वह लौह युग से चल कर जेट युग और फिर कंप्यूटर युग में प्रवेश कर गया.अफ़सोस यह है की आज भी अनेक देशों के करोडो लोग ऐसे हैं जिन्हें जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए साधन उपलब्ध नहीं हैं. कुछ लोगों को तो दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती, जबकि एक वर्ग ऐसा भी है जो आवश्यकताओं से अधिक साधनों से संपन्न है.इसी प्रकार विश्व में अनेक देश कहीं अधिक संपन्न है जो अपने नागरिकों की सभी आवश्यकताओं को पूरा कर पाने में सक्षम हैं.और कुछ देश बहुत गरीब हैं.जहाँ हर वर्ष भूख से अनेकों जानें चली जाती हैं.
उन देशों के प्रत्येक नागरिकों का जीवन स्तर एवं देश का बुनियादी ढांचा अन्य गरीब या अविकसित देशों के मुकाबले जमीन असमान के अंतर लिए हुए है.ये देश विकसित दशों की श्रेणी में आते हैं और अन्य देशों को गरीब मुल्क कहा जाता है.
आखिर विकसित देशों और अविकसित देशों में ऐसा क्या है जो इतना बड़ा अंत दिखाई देता है, क्यों कुछ देश पहले विकसित हो गए और अन्य देश अपने नागरिकों के लिय भोजन की व्यवस्था भी नहीं कर पाए . इतनी बड़ी खाई (असमानता) का कारण क्या है. क्या गरीब मुल्कों के पास प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है ?क्या गरीब मुल्कों के लोग महनत नहीं करना चाहते?क्या गरीब मुल्क में बुद्धिमान लोग पैदा नहीं होते. आखिर क्यों विकसित देशों के मुकाबले में विकसित नहीं हो पाए.क्या वे अनुसन्धान कर पाने में अक्षम हैं? क्या उन देशों की बढती आबादी देश को विकसित होने में रूकावट बन रही है? क्या उन देशों की जलवायु या प्राकृतिक वातावरण उन्हें पनपने नहीं देता?
उपरोक्त सभी प्रश्नों का उत्तर सिर्फ है. मानवीय विकास में असमानता क्यों? कारण है जो विकसित देश हैं वे या तो धनवानों द्वारा बसाये गए वे मुल्क हैं, जो स्थानीय जाति को नष्ट कर स्वयं काबिज हो गए, दूसरे वे देश हैं जिन्होंने सैंकड़ों वर्षों तक विश्व के अनेक देशो को गुलाम बनाकर रखा और उनकी धन दौलत से अपने देशों को मालामाल कर दिया अर्थात गुलाम देशों के वाशिंदों द्वारा की गयी कमाई ने इन देशों को आमिर बना दिया.वर्तमान सन्दर्भ में जब विश्व में लगभग सभी देश स्वतन्त्र हो गए हैं तो भी विकसित देश अनेक अड़ंगे लगा कर उनको विकसित होने से रोकते हैं या वे अपनी धन दौलत का रोब जमा कर कुछ विकास शील देशो को उभरने से रोकते रहते है, दो विकास शील देशों को आपस में लडवा कर अपना उल्लू सीशा करते हैं..अब कई देश, अपने दम पर विकास की ओर धीरे धीरे लौटने लगे हैं और अब ऐसा लगता है की विश्व में समानता परचम शीघ्र ही लहराएगा.परन्तु विश्व में असामनता का मुख्य कारण कुछ देशों द्वारा अपनाये जा रहे अमानवीय कार्य हैं.जो मानवता के अभिशाप बने हुए हैं.विकसित देशों को मानवता के दायरे में सोच कर पूरी मानव सभ्यता के कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए.

शनिवार, 15 सितंबर 2012

संस्कार और नयी पीढ़ी

         अक्सर हम संस्कार की बातें करते रहते हैं ,और नयी पीढ़ी को संस्कारहीन बताते हुए कोसते रहते हैं |परन्तु क्या वास्तव में हमने कभी संस्कार को सही अर्थों में समझने का प्रयास किया है ?शायद नहीं | संस्कार शब्द छोटा होते भी अपने में बहुत कुछ समाये हुए है |इस का अर्थ काफी गंभीर और विस्तृत है |इसी शब्द का विश्लेषण करने का प्रयास यहाँ किया गया है | संस्कार का मुख्य अर्थ है ,हम क्या खाते हैं ,क्या पहनते हैं ,क्या सोचते हैं ,क्या देखते हैं ,हम क्या और कैसे व्यव्हार करते हैं |परन्तु हम अक्सर धार्मिक संस्कारों को ही संस्कार मानते हैं .जबकि वास्तविकता यह है की प्राचीन समय में जब शिक्षा का विकास नहीं हुआ था ,प्रचार और प्रसार का कोई अन्य माध्यम नहीं था ,जनता तक अपने सन्देश को पहुँचाने का एक मात्र माध्यम धर्म ही था |अतः धर्म के माध्यम से ही जनता को सभी संदेशों का आदान प्रदान होता था , जिससे समाज को व्यवस्थित रखने का प्रयास किया जाता था |आज इसी कारण प्रत्येक धार्मिक कर्म कांड को ही संस्कार का नाम दिया जाता है और सिर्फ उन्हें ही संस्कार के नाम से जानते हैं .यही कारण है ,जब हमारी नयी पीढ़ी विकसित देशों की नक़ल कर बदलने का प्रयास करती है तो हम पाश्चात्य देशों का अपनी संस्कृति पर हमला मानते हैं | परिवर्तन आना मानव जीवन की स्वाभाविक क्रिया है और उन्नति एवं विकास का द्युओतक भी |यदि संस्कृति के नाम पर हम परम्पराओं को ही गले लगाये बैठे रहेंगे तो विश्व में सर्वाधिक पिछड़े देश के रूप में जाने जायेंगे.
              क्या संस्कृति के नाम पर विकास को अवरुद्ध कर देना उचित होगा ? क्या संकृति को अपनाने का मकसद अपने समाज को जड़ बना देना समाज के लिए लाभकारी होगा ? यदि हम परम्पराओं का हवाला देते हुए नयी पीढ़ी के प्रत्येक क्रियाकलाप पर अंकुश लगते रहेंगे तो नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से दूरी बना लेगी |उसका पुरानी पीढ़ी में विश्वास कम हो जायेगा ,वह उसको अपना विरोधी समझने लगेगी .अतः यदि नयी पीढ़ी को सही राह दिखानी है ,उन्हें उन्नति के रास्ते पर प्रशस्त करना है, तो उन्हें विश्वास में लेना भी आवश्यक है .अतः नए परिवर्तनों को सिरे से ख़ारिज करने के स्थान पर गुण दोष के आधार पर अपना समर्थन देना अधिक सार्थक होगा |
          अतः परिवर्तन के विरुद्ध अपने फरमान सुनाने से अधिक अच्छा है उन्हें नैतिक मूल्यों के आधार पर नए बदलावों को अपनाने के लिए प्रेरित किया जाये.( इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा बदलाव पृकृति का नियम है परिवर्तन तो आते ही रहेंगे और किसी के रोकना से रुकने वाले भी नहीं हैं)आपके इस व्यव्हार से नयी पीढ़ी का आप पर विश्वास बनेगा ,उनकी उन्नति में बाधा भी नहीं आयेगी .दुनिया में प्रतिस्पर्द्धा में अपने को स्थापित कर पाएंगे .परिवार में आपका सम्मान बना रहेगा .साथ ही नयी पीढ़ी को भटकने से भी बचा पाएंगे
     अंत में भूतपूर्व भारतीय क्रिकेट कोच ग्रेग चैपल के वक्तव्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है ,उनके शब्दों में “भारत में इस तरह की संस्कृति है की वहां कोई अपना सर उठा कर बात नहीं कर सकता ,यदि कोई ऐसा करे तो उसे तुरंत नीचा दिखा दिया जाता है ,इसलिए वे अपना सर नीचा करके रखना ही सीखते हैं ,और नेतृत्व क्षमता विकसित नहीं कर पाते ,जिम्मेदारी लेने की आदत नहीं बना पाते ” सोचने की बात यह है की आखिर विदेशी ने हमारे लिए ऐसी टिप्पड़ी क्यों की और हम नयी पीढ़ी को कहाँ ले जाना चाहते हैं ?क्या प्रत्येक बात पर दखल देना .या अपने सिद्धांतों पर चलने के लिए मजबूर करना उचित होगा? क्या नयी पीढ़ी के हित में होगा ?क्या यह उचित होगा की परंपरागत संस्कारों की रक्षा में, हमारी संतान एवं हमारा देश विश्व व्यापी प्रतिस्पर्द्धा में सबसे पीछे खड़ा रहे? 

रविवार, 9 सितंबर 2012

मीडिया अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभा रहा है ?

       
मेरे नवीनतम लेख अब वेबसाइट WWW.JARASOCHIYE.COM पर भी उपलब्ध हैं,साईट पर आपका स्वागत है.
 हमारे देश के संविधान में मीडिया को लोकतंत्र के चार मुख्य स्तम्भ में से एक माना गया है .अतः मीडिया की समाज के प्रति देश के प्रति बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी होती है .यह ऐसा मा ध्यम है जो आम जनता की आवाज को बुलंद करता है .जो जनता की आवाज को शासन स्तर तक पहुँचाने की क्षमता रखता है .यह माध्यम जनता के हर दुःख दर्द का साथी बन सकता है .लोकतंत्र के शेष सभी स्तंभों अर्थात विधायिका ,न्यायपालिका ,व् कार्यपालिका के सभी क्रियाकलापों पर नजर रख कर उन्हें भटकने से रोक सकता है ,उन्हें सही राह पकड़ने को प्रेरित कर सकता है .साथ ही उनके असंगत कारनामो को जनता के समक्ष उजागर कर जनता को सावधान कर सकता है . हमारे देश में मीडिया को विचार अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता संविधान प्रदत्त है .ताकि वह अपने कार्यों को बिना हिचके .बे रोक टोक कर सके .परन्तु क्या मीडिया उसे मिली आजादी को पूरी जिम्मेदारी से जनहित के लिए निभा पा रही है ?क्या वह अपने कार्य कलापों में पूर्णतया इमानदार है ?क्या देश में व्याप्त बेपनाह भ्रष्टाचार के लिए वह भी कहीं न कहीं जिम्मेदार नहीं है ?क्या मीडिया स्वयं भी भ्रष्ट नहीं हो गया है ?क्या मीडिया जनता के दुःख दर्द पर कम , अपनी कमाई ,अपनी टी .आर .पी . के लिए अधिक चिंतित नहीं रहता ?इन्ही सब विषयों पर विचार विमर्श इस लेख के माध्यम से करने का प्रयास किया गया है .यहाँ मुख्य बात उल्लेखनीय है आज भी सारा मीडिया गैर जिम्मेदार नहीं है ,स्वच्छ ,इमानदार पत्रकार आज भी मौजूद हैं जो देश को सही दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं ,जनता की भलाई के लिए अपनी जान भी जोखिम में डाल देते हैं ,और कुर्बान भी हो जाते हैं ,ऐसे जांबाज पत्रकारों को मैं सेल्यूट करता हूँ .और उम्मीद करता हूँ जो मीडिया कर्मी अपने कर्तव्यों से भटक गए हैं अपनी जिम्मेदारियों को समझने का प्रयास करेंगे .
 मीडिया के लिया विज्ञापन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ;
 यह एक कटु सत्य है , आज के प्रतिस्पर्द्धा के युग में मीडिया प्रिंट का हो या इलेक्ट्रोनिक उसको अपने समस्त खर्चों को पूरा करने के लिए विज्ञपनों पर निर्भर रहना पड़ता है .परन्तु क्या कमाई के लिए दर्शकों एवं पाठकों के हितों तथा रुचियों को नजरंदाज कर देना उचित है ? .प्रत्येक चैनल , चाहे वह पेड़ हो या अनपेड हो ,कार्यक्रम ,या ख़बरें कम विज्ञापन अधिक समय तक प्रसारित किये जाते हैं .कभी कभी तो दर्शक यह भी भूल जाता है की वह क्या कार्यक्रम देख रहा था ,अर्थात किस विषय पर आधारित समाचार देख रहा था .कभी कभी तो कार्यक्रम पांच मिनट का होता है तो विज्ञापन भी पांच मिनट या उससे भी अधिक होता है .कार्यक्रम के कुल समय के 25%से अधिक विज्ञापन दिखाना दर्शकों के साथ अन्याय है ,ठीक इसी प्रकार प्रिंट मीडिया में देखने को मिलता है जब समाचार पत्र में ख़बरें कम विज्ञापन अधिक होते हैं .कभी कभी तो पूरा प्रष्ट ही विज्ञापन की भेंट चढ़ जाता है , कभी कभी तो विज्ञापन खबर के रूप में ही प्रकाशित किया जाता है .पाठक विज्ञापन को खबर समझ कर पढता है जो पाठकों के साथ धोखा है
  पेड न्यूज़ का चलन ;
आज अनेक चैनलों एवं समाचार पत्र ,पत्रिकाओं में छापने वाली ख़बरों की कीमत वसूल की जाती है .इस प्रकार खबर का वास्तविकता से नाता टूट जाता है .कुबेर पति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए धन बल का प्रयोग कर आम जनता को धोखा देते हैं और मीडिया अपनी जिम्मेदारी से हटते हुए कुबेर पतियों के कठपुतली बन जाते हैं .दूसरे शब्दों में मीडिया वह खबर दिखता है जो धनवान दिखाना चाहता है ,इस प्रकार से एक साधारण व्यक्ति के साथ अन्याय होता है ,उसके हित में आवश्यक खबर के लिए मीडिया में स्थान नहीं मिल पाता.आम जनता की आवाज का एक मात्र मध्यम मीडिया ही होता है परन्तु उसकी आवाज दब कर रह जाती है
  नकारात्मक ख़बरें ही सुर्खियाँ बनती हैं
 यह हमारे देश वासियों का दुर्भाग्य ही है ,जब हम सवेरे उठ कर अख़बार के समाचारों पर नजर दौड़ते हैं तो पढने को मिलता है की बीते दिन में दो , चार या अधिक हत्या हो गयीं ,कुछ स्थानों पर लूटमार हुई या डकैती पड़ी ,चेन खिंची .चोरी हुईं ,धोखा धडी हुई,अनेक लोग सड़क दुर्घटनों के शिकार हो गए,तो कुछ लोग आतंकवादियों के हमलों के शिकार हो गए ,कुछ अन्य प्रकार के हिंसा के अपराध हुए , और नजर आते हैं नित नए सरकारी विभागों में खुलते घोटाले .मुख्य प्रष्ट पर इस प्रकार के समाचारों को पढ़कर या चैनल की हेड लाइन के रूप में देख कर पूरे दिन के लिए मन उदास हो जाता है, मूड ख़राब हो जाता है ,पाठक अवसाद ग्रस्त हो जाता है उसका कार्य करने का उत्साह ठंडा पड़ जाता है .क्या इस प्रकार के नकारत्मक समाचारों को अतिरंजित कर , मुख्य प्रष्ट या मुख्य समाचार बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत कर,मीडिया जनता को हतोत्साहित करने का कार्य नहीं कर रहा? जो देश की उत्पादकता को प्रभावित भी करता है ? क्या पूरे देश में सब कुछ गलत ही हो रहा है ,क्या अपराध ही मुख्य ख़बरों का आधार हैं ,क्या देश में समाज सेवियों,स्वयंसेवी संस्थाओं और उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों का अकाल पड़ गया है .परन्तु समाज सेवी व्यक्तियों एवं संस्थाओं के सुखद कार्यों को जनता तक पहुँचाने का समय मीडिया के पास नहीं है .शायद उसकी सोच बन गयी है की गुंडा गर्दी ,हिंसा ,बलात्कार की ख़बरें उनकी टी .आर .पी . बढाती हैं . दर्शकों और पाठकों को आकर्षित करती हैं .यही कारण है किसी भी कार्य की आलोचना करना , नकारात्मक ख़बरों को परोसना मीडिया का एक मात्र उद्देश्य बन गया है . यदि मीडिया अच्छे कार्य करने वालों की ख़बरों को मुख्य रूप से प्रकाशित करे तो आम जनता में सकारात्मक कार्य करने को प्रोत्साहित किया जा सकता है .एक सकारात्मक सोच का वातावरण देश और जनता के लिए सुखद और स्वास्थ्यप्रद हो सकता है .और अपराधियों के हौंसले पस्त किये जा सकते हैं ,देश को अराजकता के माहौल से मुक्ति मिल सकती है .इस प्रकार से देश के विकास में मीडिया अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है जो उसका परम कर्तव्य भी है.
  भड़काऊ ख़बरों की अधिकता :
 हमारे देश का मीडिया अपनी दर्शक संख्या बढ़ने के लिए ख़बरों को मिर्च मसाला लगा कर प्रस्तुत करता है ,ताकि देखने या पढने वाले को उत्सुकता पैदा हो और मीडिया से अधिक से अधिक पाठक वर्ग जुड़े .इसीलिए बलात्कार,धोखाधडी ,लूटमार की घटनाओं को विशेष आकर्षण के साथ प्रस्तुत किया जाता है.यदि पीड़ित कोई दलित वर्ग से है तो जनता को उकसाने के लिए विशेष तौर पर उसकी जाति का उल्लेख किया जाता है ,शायद दलित वर्ग होने से पीड़ा कुछ अधिक बढ़ जाती है .मकसद होता है खबर को प्रभावशाली कैसे बनाया जाय .यदि किन्ही दो पक्षों में कोई झगड़ा हो जाता है ,तो उनकी जाति या धर्म का विशेष तौर पर उल्लेख होता है ,अब यदि उससे शहर का या देश का माहौल ख़राब होता है तो मीडिया को कोई फर्क नहीं पड़ता . क्या मीडिया को सिर्फ पाठकों की संख्या ,समाज में अराजकता की कीमत पर ,बढ़ाना उचित है ?क्या समाज में शांति व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी सिर्फ प्रशासन की ही होती है ,मीडिया को सिर्फ आलोचना करने का ही हक़ है ?
  समाज को विकृत करने वाले धारावाहिक
जबसे टी वी ने हमारे समाज में अपनी पकड़ बनायीं है,लगभग सभी चैनल दिन -रात (चौबीस घंटे ) प्रसारण करने लगे हैं .सभी में आपसी होड़ लगी है दर्शकों को अपनी ओर खींचने की.अतः दर्शकों को बांधे रखने के लिए धारवाहिकों का चलन बढा और गृहणियों ,बुजुर्गों , एवं घर पर ही रहने वाले लोगों के लिए धारवाहिक उनके जीवन के अंग बन गए .यदि मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए समाज को स्वस्थ्य मनोरंजन प्रस्तुत करता तो समाज में व्याप्त विकृतियों ,कुरीतियों ,ढकोसलों से मुक्त किया जा सकता है .परन्तु चंद चैनलों को छोड़ कर अधिकतर चैनल का भड़काऊ ,षड्यंत्रकारी ,उत्तेजक एवं इर्ष्या पैदा करने वाले धारवाहिक प्रसारित करना उनका शगल बन गया है .इस प्रकार के धारावाहिकों में , नायक -नायिका का कोई चरित्र नहीं होता , कोई नैतिक मूल्य नहीं होता ,ये धारावाहिक, हिंसा , बलात्कार , अवैध सम्बन्ध ,धोखेबाजी से भरपूर होते हैं .क्या ज्ञान वर्द्धक ,स्वस्थ्य मनोरंजन देने वाले या हास्यप्रद धारवाहिक को देखने के लिए दर्शक नहीं मिलेंगे?फिर क्यों समाज को विकृत करने का प्रयास किया जा रहा है ?
  आडम्बर,ढोंग को बढ़ावा देते हैं ?;
 इक्कीसवी सदी के वैज्ञानिक युग में अनेक चैनल दर्शकों को सदियों से चली आ रही रूढ़ियों , ढोंग एवं आडम्बर की विचारधारा से युक्त सामग्री प्रस्तुत करते हैं .कुछ चैनल और समाचार पत्र नित्य रूप से ज्योतिष आधारित भविष्य वाणी जनता के सामने रखते हैं ,तो कहीं पर टेरो कार्ड की चर्चा होती है ,कहीं पर पंडित जी स्वयं आकर अपने अनर्गल उपायों से दर्शकों के भाग्य बदलने का दावा करते हैं ,किसी चैनल पर कोई बाबा टी .वी . दर्शकों पर कृपा बरसाते हुए देखे जाते हैं,चैनल संचालकों को तो सिर्फ आमदनी से मतलब है.जनता में भाग्यवाद को बढ़ावा मिले या ,निश्कर्मन्यता बढे इस बात से चैनल संचालकों का क्या लेना देना ? सारी गलती जनता की है जो ऐसे कार्यक्रम देखती है .क्या मीडिया द्वारा दिखाई जाने वाली दकियानूसी बातों से समाज का भला हो सकता है ? प्रिंट मीडिया भी अपने व्यव्हार में पाक साफ नहीं है ,भविष्यफल दिखाना उनकी भी मजबूरी बनी हुई है .उनके विज्ञापन धोकेबजों के लिए जनता को लूटने का माध्यम बनते हैं.अनेक नीम हाकिम ,अनियमित फायनेंसर ,सर्वे कम्पनिया ,या घटिया उत्पाद बेचने वाले , समाचार पत्रों के विज्ञापनों द्वारा जनता तक पहुँचते हैं और जनता को लूटते हैं .क्या समाचार पत्रों को अपनी कठोर नियमावली बना कर विज्ञापन स्वीकार करने की जिम्मेदारी नहीं निभानी चाहिए ?.ताकि जनता भ्रमित न हो और ठगने से बच सके ?
  सूचनाओं का प्रसारण सूचना से सम्बंधित व्यक्ति के प्रोफाइल पर आधारित ;
 अक्सर देखने को मिलता है कोई भी घटना या दुर्घटना किसी बड़े नेता .व्यापारी उद्योगपति ,कुबेर पति के साथ घटित होती है तो मीडिया की खबर बनती है .उसे विशेष स्थान मिलता है , प्रत्येक समाचार पत्र ,प्रत्येक चैनल के लिए मुख्य खबर होती है .परन्तु जब कोई आम आदमी या गरीब आदमी पीड़ित होता है तो कोई उसकी आवाज को उठाने वाला नहीं होता .यदि किसी कारण वह खबर बनती भी है तो उसको नाम मात्र की कवरेज या स्थान प्राप्त होता है.जिससे स्पष्ट है की मीडिया में भी धन बल ,और बहु बल का बोलबाला बना रहता है .पूरा मीडिया सत्तासीन नेताओं और धनवानों का भौंपू बन कर रह गया है.क्या साधारण व्यक्ति के दुःख दर्द के प्रति मीडिया की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती ?
  मीडिया को आलोचना सहन नहीं ;
 क्योंकि मीडिया स्वयं प्रचार प्रसार का माध्यम है ,अतः कोई भी मीडिया स्वयं मीडिया के विरुद्ध छापने को तैयार नहीं होता ,उसके विरुद्ध प्रसारण करने को स्वीकृति नहीं देता .और मीडिया पर कटाक्ष करने वाले लेखों ,या टिप्पड़ियों को स्थान नहीं मिलता . यही कारण है मीडिया की कमी से ,उसके अन्दर व्याप्त अनियमितताओं से ,जनता अनभिग्य बनी रहती है.और ठीक भी है कोई स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगा?
  विज्ञापनों के लालच में अवैध पंजीकरण ;
 आज प्रत्येक शहर ,प्रत्येक देहाती क्षेत्र में सैंकड़ों अवैध समाचार पत्रों ,पत्रिकाओं ने पंजीकरण कराया होता है .अवैध से तात्पर्य है जिनका वास्विकता में कोई अस्तित्व नहीं होता सिर्फ सरकारी खातों में पंजीकृत होते है ताकि उन्हें सरकारी कागज का कोटा मिलता रहे संपादक के रूप में विशेष दर्जा मिलता रहे और सरकारी विभाग में अपना हस्तक्षेप बना रहे, उन्हें ब्लेकमेल करने का अवसर प्राप्त होता रहे.अर्थात अवैध पंजीकरण से अवैध कमाई,जो स्वयं जिम्मेदार मीडिया के लिए अभिशाप है.क्या मीडिया के संगठनों को ऐसे अवैध पंजीकरणों के विरुद्ध प्रयास नहीं करने चाहिए ?
  पीत पत्रकारिता ;
कभी पत्रकार अपने स्वार्थ में ,कभी प्रबंधकों के दबाब में आकर पीत पत्रकारिता करते देखे जा सकते हैं ,सरकरी कर्मचारियों की भांति भ्रष्ट उद्योगपतियों ,भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों से धन वसूल कर उनके असंगत , अव्यवहारिक , भ्रष्ट आचरणों को अपने मीडिया द्वारा सहयोग करते हैं .इस प्रकार के आचरण जहाँ मीडिया की गरिमा को घटाते हैं दूसरी ओर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी से विमुख होते हैं ,आम आदमी से अन्याय करते हैं .क्या भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए जिम्मेदार मीडिया को यह आचरण शोभा देता है ?
  समाधान ;
 मीडिया को सुधारने के लिए एक मात्र उपाय सरकारी नियंत्रण हो सकता है,जो मीडिया की आजादी पर कुठाराघात होगा ,वैसे भी देश की लगभग भ्रष्ट हो चुकी सरकारी मशीनरी द्वारा नियंत्रण,का अर्थ है. भ्रष्टाचार को खुली छूट देना .यह कदम न तो जनता के हित में होगा और ना ही देश के हित में और न स्वयं मीडिया की विश्वसनीयता के लिए हितकारी होगा .आज सही अर्थों में देश में लोकतंत्र के अस्तित्व का आधार मीडिया ही है.अतः मीडिया को स्वयं आत्म शुद्धि करने के उपाय करने होंगे . उसे स्वयं संगठित होकर मजबूत संगठनों का निर्माण करना होगा और अपनी कार्य शैली के लिए नियमावली बनाना होगी,स्व निर्मित ठोस कानून बनाने होंगे . ताकि उन नियमों का पालन करते हुए अपने क्षेत्र में व्याप्त कचरे को साफ किया जा सके . मीडिया को स्वयं ही विश्वसनीय एवं देश और जनता के लिए जिम्मेदार बनना होगा .सरकारी अंकुश लगाना देश का दुर्भाग्य होगा,लोकतंत्र का अपमान होगा
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रविवार, 2 सितंबर 2012

सोशल मिडिया पर अंकुश कितना उचित?


  सोशल मिडिया पर अंकुश कितना उचित?
    

        एक समय था जब लोगों तक अपनी बात पहुँचाने का माध्यम समाचार पत्र या पत्रिका हुआ करते थे. जब सरकार द्वारा जनता तक अपना सन्देश पहुँचाने के लिए डंका या नगाडा बजा कर गली गली अपने आदेशों, संदेशों  या चेतावनी को प्रचारित किया जाता था.उसके पश्चात रेडियो ने यह स्थान ले लिया जो जनता को नियंत्रित करने अर्थात सरकार को शासन-व्यवस्था चलाने में सहायक बने. जब टी.वी.और फिल्मों का दौर आया तो प्रचार प्रसार का माध्यम और भी प्रभावकारी हो गया. परन्तु कंप्यूटर की खोज ने तो विचार क्रांति पैदा कर दी और पूरी दुनिया एक मंच पर एकत्र हो गयी. इलेक्ट्रोनिक मीडिया और सोशल मीडिया ने जनता को सरकार की हर गतिविधी की जानकारी उपलब्ध करनी शुरू कर दी. अन्ना और बाबा रामदेव के आन्दोलन को प्रचारित करने और जनता को आन्दोलन से जोड़ने में इलेक्ट्रोनिक और सोशल मिडिया की मुख्य भूमिका रही. पिछले वर्ष अनेक अफ़्रीकी और खड़ी के देशों की क्रांति का श्रेय भी इन्ही नवसृजित माध्यमों को ही जाता है. इसी प्रकार असम में हुई जातीय हिंसा की आग को मुंबई हैदराबाद या बंगलौर तक पहुँचाने में सोशल मिडिया का ही कारनामा दिखा. हमारे देश की सरकार तो पहले से ही जो जनता में भ्रष्टाचार के लिए फजीहत की शिकार होने के कारण सोशल मिडिया को मानती है.उसे अपना दुश्मन मानकर इस पर नियंत्रण करने के मूड में थी. वर्तमान घटना ने उसे एक बहाना दे दिया,अपने मिडिया पर नियंत्रण के प्रस्ताव को उचित मानने का , सोशल मिडिया के नकेल कसने का , अपने विरोधियों को चित्त करने का. उसकी पहले से ही मंशा रही है सभी प्रचार माध्यम सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार के पक्ष में ही अपनी बात जनता के समक्ष रखे अर्थात सभी माध्यम स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का जरिया न होकर सरकरी भोंपू बन जाएँ और सत्तारूढ़ पार्टी के नेता अपने हितों की साधने के लिए घोटाले करते रहें और उसकी सत्ता पर पकड़  भी बनी रहे. इस प्रकार  लोकतंत्र के सबसे सशक्त स्तंभ को अपनी मुट्ठी में कर ले,और जनता को लूटने के अवसर उसे मिलते रहें,चुनावों में उसकी जीत सुनिश्चित होती रहे.
  कोई भी नयी वैज्ञानिक खोज होती है तो उसके लाभ आम आदमी को मिलते है तो यही खोजे और तकनीकें अपने साथ कुछ नुकसान भी लेकर आती हैं.परन्तु उसके नुकसान से घबरा कर उन खोजों से मानवता को वंचित नहीं कर दिया जाता. विकास के रास्ते बंद नहीं कर दिए जाते बल्कि उसमे व्याप्त खामियों को दूर करने के प्रयास किये जाते हैं,समाधान खोजे जाते हैं, जिससे उस नयी खोज से मानवता के नुकसान को रोका जा सके.और उसके लाभ मानव जाति  को उपलब्ध हो सकें.
   बिजली का अन्वेषण होने के पश्चात अनेक लोग उसके झटके के शिकार हुए,अनेकों को जान से हाथ धोना पड़ा, तो अनेक लोग घायल हुए.परन्तु क्या बिजली का उपयोग बंद कर दिया गया? बल्कि जनता को उसको उपयोग करते समय सावधानियां बरतने के लिए शिक्षित किया गया.और आज विशाल के कारखानों का अस्तित्व बिजली पर ही निर्भर है.
  सड़क पर अनेक कार, बस, ट्रक और अन्य वाहन आये और सड़क दुर्घटनाओ ने नित लोगों के जान से हाथ धोना पड़ा,और आज भी अनेकों सड़क हादसे होते रहते हैं. तो क्या सडक बंद कर दी गयीं.यदि आवागमन को बाधित कर दिया जाये तो मानव विकास एक दम रुक जायेगा.अतः आवागमन को बाधित न कर,सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के उपाय खोजे गए,और आज भी शोध  जारी है.
  इसी प्रकार से वायुयान हो या अंतरिक्ष यान अन्य अनेक नए अविष्कार सभी अनेक प्रकार की सुविधाओं के साथ साथ समस्याओं और खतरों  को भी लेकर आये, परन्तु सब समस्याओं के समाधान भी खोजे गए और मानव हित में उनका उपयोग किया गया.और आज मानव विकास का माध्यम बने.
   ठीक इसी प्रकार से लोकतंत्र में जनता की अभिव्यक्ति की आजादी को किसी  भी प्रकार से रोक देना उचित नहीं माना जा सकता.तो क्या सोशल मिडिया से होने वाले नुकसान को आंख मूँद कर बैठे देखा जा सकता है? इस विषय पर कुछ प्रश्न विचारणीय हैं
क्या अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ है
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१,कोई भी किसी को गाली देने,व्यक्तिगत आक्षेप लगाने या उसका अपमान करने को स्वतन्त्र है.
२,प्रेस,या इलेक्ट्रोनिक मिडिया,सोशल मिडिया की आजादी का लाभ जनता में वैमनस्यता फैलाने के लिए किया जाय.
३,कोई विदेशी ताकत हमारे देश की एकता ,अखंडता,और सुरक्षा के साथ खिलवाड करे.
४,कोई भी व्यक्ति या समुदाय जनता में धार्मिक विद्वेष या जातीय नफरत,अफवाह फ़ैलाने को स्वतन्त्र हो जाय.देश की एकता अखंडता और सार्वभौमिकता पर चोट करता रहे

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   परन्तु क्या  देश और समाज की सुरक्षा के नाम पर, जनता को व्यवस्थित करने के नाम पर सोशल मिडिया पर अंकुश लगाने की स्वीकृति दे दी जाय?

१,क्या सोशल मिडिया के दुरूपयोग को रोकने के लिए, इस पर लगाम लगाने के लिए, सरकार को सम्पूर्ण अधिकार देना उचित होगा?
२.क्या सोशल साइट्स के विरुद्ध बनाये गए नियम, सरकार को निरंकुश नहीं बना देंगे ?
३,क्या अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाकर देश में लोकतंत्र बाकी रह जायेगा.१९७५ की आपात स्थिति सरकार द्वारा प्रेस की आजादी पर लगाम लगा देने के कारण ही बनी थी.
४, सोशल मिडिया एक साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए अपनी आवाज,अपनी मांग,अपने मान व्याप्त क्रोध को सरकार और दुनिया तक पहुँचाने का एक मात्र माध्यम है.लोकतांत्रिक देश में आम आदमी के मुहं पर ताला लगा देना उचित होगा.क्या उसकी अभिव्यक्ति की आजादी छीन लेने से आम आदमी कुंठाग्रस्त नहीं हो जायेगा.क्योंकि प्रेस और अन्य इलेक्ट्रोनिक मीडिया के द्वारा आम आदमी नहीं जुड सकता 

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तो क्या हों समाधान?;

       तो फिर क्या समाधान हो,ताकि सरकार की निरंकुशता भी जनता को न सहनी पड़े और देश और समाज की सुरक्षा भी बनी रहे.
१ ,सरकार प्रत्येक आपत्ति जनक सामग्री की व्यख्या स्पष्ट करे और उनको लागू करने के लिए आवश्यक नियम बनाये.नियम और कानून पूर्णतयः पारदर्शी हों ताकि कोई भी सत्तानशीं व्यक्ति या अधिकारी उन्हें अपने हितों के अनुसार परिभाषित न कर सके, अपने  व्यक्तिगत द्वेष के लिए,या अपने हितों को साधने के लिए उन नियमों का उपयोग न कर सके.
२ ,प्रत्येक सोशल साईट चलाने वाले को जिम्मेदारी सौंपी जाये की वह अपने साइट्स पर आने वाली सामग्री की  निरंतर समीक्षा करे और आपत्ति जनक सामग्री को तुरंत हटाये तथा आपति जनक सामग्री डालने वाले पर अपना शिकंजा कसे.
३,कोई भी ऐसा सोफ्टवेयर विकसित  किया  जाय जो स्वतः सरकार द्वारा परिभाषित  आपतिजनक सामग्री को हटा दे अथवा चेतावनी दे दे.
४,जनता को उसकी जिम्मेदारी के प्रति जागरूक किया जाय और बताया जाए किस प्रकार की आपतिजनक सामग्री उसे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा जा सकती है.
५.एक निगरानी समिति बनायी जाये, जो सरकार द्वारा निश्चित की गयी आपत्ति जनक सामग्री की निरंतर समीक्षा कर सके और उसे प्रकाशित  करने वालो पर अंकुश लगा सके,उन्हें दण्डित करने के लिए आवश्यक उपाए कर सके.


    उपरोक्त उपायों को करने के लिए सत्ताधारी नेताओं की दृढ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है .तत्पश्चात असम जैसी घटनाओं की पुनरावृति को जा सकता है.और देश को विदेशी चालों से सुरक्षित किया जा सकता है 
                 सत्य शील अग्रवाल,