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रविवार, 24 जून 2012

कितना फितरती है इन्सान

<अपने स्वार्थपूर्ति अथवा तथाकथित आत्मसम्मान की संतुष्टि के लिए , हम एक दुसरे का शोषण करते हैं ,रौब ज़माते हैं और अपनी शर्तें मनवाते हैं .इस प्रकार का व्यव्हार कर हम कौन सी सभ्यता और आधुनिकता का परिचय दे रहे हैं ?’जियो और जीने दो ’की धारणा को भूल गए हैं .इन्सान अपने भौतिक विकास को देख कर अभिभूत है .,परन्तु इसी भौतिक विकास ने समाज को नैतिक पतन की खाई में धकेल दिया है .यह कटु सत्य है बिना सामाजिक उत्थान के , बिना नैतिक मूल्यों के ,बिना इंसानियत का परचम लहराए सारी भौतिक उपलब्धियां औचित्यहीन हो जाती हैं . मानव विकास का मुख्य एवं मूल उद्देश्य मानव जीवन को सुविधा जनक एवं शांति दायक बनाना होता है .सामाजिक अशांति ,अत्याचार ,व्यभिचार ,के रहते मानव जाति सुखी नहीं हो सकती .बिना मानसिक शांति के सारी सुख सुविधाएँ अर्थहीन हो जाती हैं . आज प्रत्येक घर परिवार प्रतिद्वंद्विता एवं युद्ध का अखाडा बनता जा रहा है ,जहाँ अन्याय की पूजा हो रही है .पति पत्नी पर रौब गांठता है ,मर्दानगी दिखता है ,उससे अनेक कार्य बलपूर्वक करवाने का प्रयास करता है ,मौका मिलने पर अपमान करता है .परन्तु यदि किसी परिवार में पति शांति और न्याय का समर्थक है ,सबका सम्मान करने में विश्वास करता है ,तो पत्नी हावी होने लगती है ,बात बात पर ताने मारना एवं पति को लज्जित करने में अपनी शान समझने लगती है .शिक्षा के क्षेत्र में या कार्य क्षेत्र में अधिक सफल भाई बहन अपने से कम सफल या असफल ,कम शिक्षित भाई या बहन की उपेक्षा करने लगता है .उनका अपमान करने लगता है ,मजबूरी में फंसने पर उनका शोषण भी करता है .इसी प्रकार यदि परिवार का मुखिया तानाशाही प्रवृत्ति का है तो सभी परिजनों को अपनी उँगलियों पर नाचने का प्रयास करता है .परन्तु इसके विपरीत यदि मुखिया शांत पृकृति तथा न्याय प्रिय है तो परिवार का बेटा आर्थिक सक्षम होते ही अपने पिता को लज्जित करने से संकोंच नहीं करता ,और सभी परिजनों को अपने प्रभाव में लेना चाहता है . अपनी इच्छानुसार परिवार को चलाना चाहता है , अर्थात अपनी इच्छाएं पूरे परिवार के सदस्यों पर थोपना चाहता है आईये अब परिवार से निकाल कर गली मोहल्लों में झांक कर देखते हैं .यहाँ पर कुछ दबंग लोग पूरे समाज को मोहल्ले को अपने रौब में रखने की कोशिश में लगें हैं .ऐसे दबंग लोग अपनी गुंडई के बल पर अपने स्वार्थों की पूर्ती करते देखे जा सकते हैं .ये लोग पूरे समाज के लोगों का शोषण करने में लगे रहते हैं .यदि एक बाहुबली किसी कारण वश शांत हो जाता है तो कोई अन्य बाहुबली उसका स्थान ले लेता है .ऐसे दबंग लोग और उनका गिरोह पूरे समाज के लिए सिरदर्द बना रहता है. और तो और सभी देश अपने बर्चस्व के लिए एक दुसरे देश को अपनी धौंस में रखना चाहते हैं किसी पडोसी देश को उन्नति करते हुए नहीं देख सकते . जब कुछ बस नहीं चलता तो छापामार की लडाई शुरू कर दी जाती है जिसे आतंकवाद के रूप में जाना जाता है .और आज पूरा विश्व इस समस्या से प्रभावित है .प्रत्येक देश उन्नत से उन्नत हथियारों से लेस हो कर विश्व को धमका कर रखने को प्रयास रत है .अमेरिका जैसे देश तो पूरी दुनिया को अपने इशारों पर नाचना चाहता है बल्कि नाचता भी है.
  एक और अन्य वीभत्स रूप भी हमारे समाज में मौजूद है . आजादी के पश्चात् हजारों वर्षों से दबे कुचले अर्थात , दलितों को देश की मुख्य धारा में लाने के लिए ,उनके उत्थान के लिए संविधान में अनेकों कानूनी अधिकार प्रदान किये गए , आरक्षण की व्यवस्था कर शिक्षा एवं रोजगार के अवसर दिए गए ताकि आजाद देश में सम्मान पूर्वक जीने के अवसर मिल संकें . परन्तु आज वे दलित लोग ही समाज उच्च वर्ग पर अत्याचार करने लगे हैं . कानून भंग करने को उत्सुक रहते हैं और अपनी मनमानी करते हैं कानून द्वारा मिले संरक्षण का दुरूपयोग करते हैं.अपने मोहल्लों में स्थित व्यापारियों ,व्यवसायियों , कारोबारियों को अपने शोषण का शिकार बनाते रहते हैं .उनके प्रतिष्ठानों में चोरी ,कर आग लगा कर या रंगदारी वसूल कर उनको परेशान करते हैं ,उनकी आजीविका पर हमला करते हैं .क्या समाज ने ,स्वतंत्र भारत के कानून ने उन्हें शोषण मुक्त इसलिए किया था की अब वे अन्य लोगों का शोषण करने लगें ? और देखिये ,पिछले पचास वर्षों में नारी उत्थान के लिए कानून बना कर उनके कल्याण के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया ,ताकि नारी वर्ग जो हजारों वर्षों से प्रताड़ित ,अपमानित ,शोषित जीवन जी रहा था ,उसे मुक्ति मिल सके .उसे पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हो सकें ,वह सम्मान पूर्वक जी सके .परन्तु नारी ने उसके पक्ष में बने कानूनों को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ती करना शुरू कर दिया .अब वह पति एवं ससुराल पक्ष को शोषित करने लगी . आज वह आत्महत्या की धमकी देकर अपनी असंगत बातों को भी मनवाने का प्रयास करती है .किसी विवाहिता की असामयिक मौत हो जाने पर उसके मैके वाले दहेज़ हत्या के झूंठे आरोप लगाकर पूरे ससुराल पक्ष को जेल जाने को मजबूर कर देते हैं ,जिसके लिए जमानत भी कम से कम छः माह पश्चात् होती है .अक्सर पति को तो छः माह पश्चात् भी जमानत नहीं मिल पाती .और बाद में अदालत द्वारा केस झूंठा साबित होता है.मजबूरन आज ‘पति परिवार कल्याण संस्थानों’ के गठन होने लगे हैं .आज तो महिलाएं नारियां इतनी दबंग हो गयी हैं , की अपनी तुच्छ स्वार्थ पूर्ती के लिए अपने परिजन या ससुराल पक्ष के व्यक्तियों की हत्या भी कर देती हैं .कहने का आशय है उन्होंने भी अपराध की दुनिया में कदम रख दिया है, हजारों वर्षों से घर की दहलीज न लांघने वाली नारी अत्याचार का दामन थमने लगी है ,क्या उन्हें यही सब कुछ करने के लिए कानूनी संरक्षण दिया गया है. उपरोक्त विश्लेषण संकेत दे रहे हैं की इन्सान ने कितनी भी प्रगति कर ली हो उसकी मानसिकता में अभी भी शोषण, तानाशाही ,अन्याय करने की भावना पाषाण युग के समान बर्बर ही है. यही कारण है आज के उच्च विकसित समाज में हर क्षेत्र हर स्तर पर अन्याय व्याप्त है .जब एक व्यक्ति को ,एक समुदाय को शोषण मुक्त किया जाता है वही वर्ग या समुदाय नए शोषक के रूप में उभरने लगता है ,समाज का तिरस्कार करने लगता है .अतः हम सभी को आत्म मंथन कर इस प्रकार की बुराईयों से उबरना होगा तब हम एक शोषण मुक्त ,सभ्य समाज का निर्माण कर सकेंगे .विकास का सार्थक लाभ पूरे समाज को मिल सकेगा,जो मानव विकास का वास्तविक उद्देश्य है .

बुधवार, 13 जून 2012

खरीदारी की समझदारी

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हमारी सभी भौतिक आवश्यकताएं हमारे अथवा हमारे प्रियजनों द्वारा अर्जित धन से पूरी होती हैं .धन का अर्जन करना कोई आसान कार्य नहीं होता .सतत परिश्रम द्वारा ही हम अपनी एवं अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करते हैं .अब यदि परिश्रम से कमाए धन को व्यय करने में भी संयम एवं समझदारी से काम लें तो शायद अपने धन का अधिक सदुपयोग कर सकते हैं .समान खर्चे में अधिक सेवाएं और अधिक वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं .प्रस्तुत लेख में विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है की ,खर्च करते समय क्या रणनीति अपनाई जाय ताकि हमें अपने धन का अधिक से अधिक मूल्य प्राप्त हो सके .और अपनी या अपने परिजन की गाढ़ी कमाई को बेकार जाने से रोक सकें .

समाज में आए स्तर के अनुसार तीन भागों में विभाजित किया गया है उन्हें अपनी खरीदारी के निर्णय अपनी आए सीमा के अंतर्गत लेने पड़ते हैं ,चतुर्थ वर्ग में खरीदार की आए नहीं बल्कि उसका आवश्यकतानुसार निर्णय महत्वपूर्ण होता है .
प्रथम भाग ;- इस श्रेणी में उच्चतम आए वर्ग के उपभोक्ताओं को रखा गया है . यह वर्ग खरीदारी करते समय सिर्फ उच्चतम क्वालिटी को ध्यान में रख कर खरीदारी करता है ,अर्थात अपनी पसंद और उच्च गुणवत्ता खरीदारी का उद्देश्य होता है .वस्तु या सेवा की उच्चतम कीमत उन्हें वस्तु की उच्च क्वालिटी का आभास कराती है .
द्वितीय वर्ग ;-इस वर्ग में हमने मध्यम आए वर्ग के उपभोक्ताओं को रखा है .इस वर्ग के व्यक्ति खरीदारी करते समय वस्तु या सेवाओं की गुणवत्ता और मूल्य दोनों का समान रूप से विश्लेषण कर ही अपना निर्णय लेते हैं .हर पहलु से जाँच परख करने के कारण अपने धन का सदुपयोग कर पाने में सर्वाधिक सफल रहते हैं .
तृतीय वर्ग ; -अल्प आए वर्ग अथवा निम्न आए वर्ग खरीदारी करते समय सिर्फ वस्तु की कीमत पर ध्यान देते हैं .इस वर्ग के लोग सिर्फ कम से कम खर्च में अधिक से अधिक वस्तु प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं .इसी कारण निम्न गुणवत्ता की वस्तु खरीद लेना महंगा भी पड़ जाता है क्योंकि निम्नतम गुणवत्ता की वस्तुएं कम टिकाऊ होती हैं , और उन वस्तुओं में बहुत बड़ा भाग प्रयोग करने लायक ही नहीं होता .
चतुर्थ वर्ग ;-इस वर्ग के अंतर्गत की खरीदारी अथवा व्यय सभी आए वर्ग के व्यक्तियों द्वारा करनी पड़ती है .यह खरीदारी परिस्थितियों की विवशता के कारण करनी पड़ती है अनेक बार मान सम्मान अथवा शारीरिक -मानसिक रुग्णता में मजबूरी वश करनी होती है ,और बाजार मूल्य से कहीं अधिक खर्च कर अपनी आवश्यकता पूर्ण करनी पड़ती है ,कभी कभी अपनी आर्थिक सामर्थ्य से भी अधिक व्यय करना पड़ता है .वस्तु की कीमत से अधिक उसकी आवश्यकता पर ध्यान देना होता है .जैसे बीमारी की आकस्मिकता ,किसी प्रिय बच्चे की जिद पूर्ण करने की मजबूरी ,किसी आगंतुक या अतिथि के साथ खरीद करते समय ,कुछ दुर्लभ परिस्थितियों में जैसे देर रात के समय आटो न मिलने की स्थिति , दुर्घटना हो जाने पर अपने प्रियजन की जन बचाने की स्थिति में ,किसी शुभ अवसर पर अपनी चिर प्रतीक्षित अभिलाषा पूर्ण करने की स्थिति ,यात्रा के समय आने वाले अनेक दुर्लभ पलों में इत्यादि .
कैसे हो समझदारी से खरीदारी ;-
प्रथम वर्ग ;इस वर्ग के पास धन की कोई सीमा नहीं होती अतः उनकी खरीदारी का लक्ष्य सिर्फ उच्चतम क्वालिटी या अपनी पसंद होता है .उच्चतम मूल्य की वस्तु खरीदना उन्हें गौरव प्रदान करता है . उनकी इसी सोच का व्यापारी ,दुकानदार या सेवा प्रदाता लाभ उठाते हैं .वे क्वालिटी में 10% प्रतिशत की बढ़ोतरी कर कीमत दो गुनी या उससे भी अधिक कर देते हैं .इस वर्ग के सौभाग्यशाली उपभोक्ता यदि अपनी समझदारी से कीमत एवं गुणवत्ता का ध्यान कर अपनी खरीदारी करें तो कुछ पैसा व्यापारी की जेब में जाने से रोककर अपने अधीनस्थ गरीब व्यक्ति का जीवन स्तर सुधारने का प्रयास कर सकते हैं .या फिर किसी अनाथ व्यक्ति के भरण पोषण की जिम्मेदारी निभाकर सामाजिक प्रतिष्ठा बढा सकते हैं और आत्मसंतोष का सुख प्राप्त कर सकते हैं .
द्वितीय वर्ग ;-इस वर्ग के अंतर्गत आने वाले खरीदार काफी समझदारी से अपनी सीमित आए को खर्च करते हैं ,ताकि अपनी आए और व्यय में संतुलन बनाये रख सकें साथ ही वस्तु भी गुणवत्ता वाली प्राप्त कर सकें .कभी कभी गुणवत्ता की जानकारी के अभाव में नुकसान उठाना पड़ता है .उदाहरण के तौर पर मार्केट में आलू 14/ kilo और 10/ kilo दो भाव में उपलब्ध है ,यदि 10/ kilo आलू लेने पर उसमें 300gram आलू ख़राब निकाल जाता है अर्थात सिर्फ 700gram आलू उपयोग में आ पाता है और आलू सस्ता खरीदना महंगा पड़ता है .उसकी छंटाई में श्रम एवं समय अलग से व्यय करना पड़ा .इसी प्रकार कोई कपडा खरीद कर अनेक वर्षों तक चलता है परन्तु अधिक दिन पहनने के कारण उससे मन खीजने लगता है ,महंगा होने के कारण शीघ्र बदलना भी संभव नहीं होता ,यदि कम टिकाऊ परन्तु सस्ता कपडा लिया जाय तो उसी कीमत में दो या तीन जोड़ी कपडे खरीदना संभव होगा और नित्य बदल बदल कर कपडे पहनना संभव हो सकेगा
इसी प्रकार फेशन बदलने के कारण महंगा कपडा खरीदना नुकसानदेह सिद्ध हो सकता है .
तिर्तीय वर्ग ;इस वर्ग में आने वाले खरीदार आर्थिक रूप से अत्यंत सीमित दाएरे में रहकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती करते हैं .अतः वे गुणवत्ता पर अधिक ध्यान नहीं देते .उन्हें सिर्फ सस्ते संसाधन जुटा लेने की तमन्ना रहती है . वस्तु की मात्रा भी कम से कम खरीदनी पड़ती है ,ताकि कम खर्च से सभी आवश्यक वस्तुएं खरीद सकें .कम मात्रा में वस्तु खरीदने से उन्हें अपेक्षाकृत अधिक कीमत चुकानी पड़ती है
और उन्हें आर्थिक हानि उठानी पड़ती है .सस्ती वस्तु अनेक बार इतनी घटिया क्वालिटी की होती है उसे बार बार खरीदना पड़ता है ,या क्वालिटी ख़राब होने के कारण कम उपयोगी हो पाता है .जैसे कम मूल्य वाला दूध मिलावटी हो सकता है ,सब्जियों में गली सड़ी अधिक मात्रा में हो सकती हैं .अतः खरीदारी करते समय सिर्फ मूल्य देख कर लेना महंगा पड़ जाता है .अपने धन का पूरा मूल्य वसूल हो सके यह देखना भी आवश्यक है .ताकि आपकी परिश्रम से अर्जित की गयी आए का भरपूर सदुपयोग हो सके यदि आवश्यक हो तो किसी अनुभवी मित्र से सलाह लेना उचित हो सकता है .सीमित आए होने के बावजूद यदि प्रत्येक वस्तु को मासिक खपत के आधार पर लेने की आदत डालें तो तो बड़ी मात्रा में वस्तु लेने के कारण सस्ती पड़ सकेगी .इस कार्य के लिए एक एक कर वस्तुओं का संग्रह करने की योजना बनाये. धीरे धीरे आपके मासिक खर्च का चक्र बन जायेगा और आपके अपने बजट में ही अतिरिक्त वस्तुएं खरीद पाने का लाभ उठा सकेंगे.
चतुर्थ वर्ग ;इस वर्ग के अंतर्गत खरीदारी करने में अत्यधिक समझदारी का परिचय देना होता है . क्योंकि निर्णय लेने के लिए अधिक समय नहीं होता अतः आवश्यक वस्तु या सेवा प्राप्त करने के लिए अपने बजट से अधिक खर्च करना पड़ता है .यह जानते हुए की अमुक वस्तु या सेवा महँगी होने के साथ साथ अपनी क्षमता से अधिक है फिर भी समय की जटिलता को देखते हुए ,कठिन परिस्थितियों के कारण अपनी सीमायें तोड़ कर व्यय करने को विवश होना पड़ता है .ऐसे दुर्लभ अवसरों पर कीमतों का विश्लेषण करना या उचित अनुचित देखना ठीक नहीं होता ,मध्यम आए वर्ग एवं अल्प आए वर्ग के लिए संतुलित निर्णय लेना समझदारी होगी
उपरोक्त विश्लेषण से निष्कर्ष निकलता है की प्रत्येक वर्ग के खरीदार को समय की नजाकत ,कीमत ,परिमाण एवं गुणवत्ता में संतुलन बना कर खरीदारी करनी चाहिए ,क्योंकि समझदारी से की गयी खरीदरी आपकी अपरोक्ष रूप से आए बढा देती है आपका धन अधिक मूल्यवान साबित होता है

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कुछ महत्वपूर्ण बातें;
१,अपने परिवार की कुल आये में से कम से कम १०% प्रति माह बचाना भी आवश्यक है ताकि आकस्मिक आने वाले खर्चो से निबटा जा सके ,जैसे बीमारी या अन्य कोई आकस्मिक खर्च.जो व्यक्ति अपने बजट में बचत को महत्त्व देते है उन्हें जीवन में आर्थिक कठिनाईयों का सामना करने में कम कष्ट होते हैं.
२,हमारे घर का बजट कितना भी बड़ा न हो, घर के बजट अर्थात अपनी आर्थिक सामर्थ्य एवं प्रत्येक खर्चे की वरीयता निश्चित कर खरीदारी करना समझदारी का कदम है.किसी वस्तु या सुविधा पर खर्च करना अधिक आवश्यक है और किस पर नहीं. साथ ही, किस वस्तु पर हम कितना व्यय करने की क्षमता रखते है,इसका विश्लेषण करना भी आवश्यक होता है.
३,अपने घर के बजट का एक अंश, दान के लिए भी रखना उचित होगा,यह अंश दो से पांच प्रतिशत तक अपनी इच्छा के आधार पर रखा जा सकता है. परन्तु दान किसी सुपात्र यानि ऐसे व्यक्ति को दिया जाय जिसे वास्तव में उसकी अपनी मूल आवश्कताओं की पूर्ती के लिए आवश्यक हो.

रविवार, 10 जून 2012

हमारे समाज में तर्कहीन मान्यताएं ---पार्ट -३


  पुनर्जन्म  की   मान्यता ;
punarjanm ki dastan 

सिर्फ  हमारे  देश  में  ही  नहीं  विश्व  भर  के  अनेकों  देशों  में  पुनर्जन्म  की  धारणा  चली  आ  रही  है .जबकि  चिकित्सा  विज्ञानं  के  शोधों  में  मानव  उत्पत्ति  के  लिए  जिम्मेदार  कारकों  का  पता  लगाया  जा  चुका  है  .शोधों  के  अनुसार  पुरुष  के   जननांग  से  उत्सर्जित  असंख्य   (करोड़ों  में ) शुक्राणुओं  में  कोई  एक  शुक्राणु  निषेचित  हो  कर  ही  मानव  का  उद्भव  होता  है  .यह  कैसे  संभव  है  करोड़ों  शुक्राणुओं  में  से  पुनर्जन्म  लेने  वाला  शुक्राणु  हि  निषेचित  होगा ?पुनर्जन्म  की  धारणा  को पुष्ट  करने  के  लिए   समय  समय  पर  अनेक  घटनाओ  का  विवरण  दिया  जाता  है  ,जिनका  तर्क  संगत  उत्तर  अभी    विज्ञानं  ढूंढ  नहीं  पाया  है  ,परन्तु  इसका  यह  अर्थ  नहीं  है  की  पुनर्जन्म  की  धारणा  को  सत्य  मान  लिया  जाय .
   कुछ  मान्यताओं  के  अनुसार  व्यक्ति  मारने  के  पश्चात्  आत्मा  के  रूप  में  अपना  अस्तित्व  बनाये  रखता   है  जिसे  विज्ञानं  नकार   चुका  है  .चिकत्सा  विज्ञानं  के  अनुसार  व्यक्ति  की  मृत्यु  के  पश्चात्  उसका   अस्तित्व  पूर्णतयः  ख़त्म  हो  जाता  है .
    पुनर्जन्म  की  घटनाएँ  एक  ही  भाषा  वाले  समाज  के  अंतर्गत  घटती  हैं ?हिंदी  बोलने  वाला  व्यक्ति  तमिल  भाषी  या  रूसी  भाषी  परिवार  में  जन्म   क्यों  नहीं  लेता .?ब्रिटेन   में  मारने  वाला  इन्सान  भारत  में  क्यों  नहीं  जन्म  लेता ? जो  स्वयम  सिद्ध  करता  है  पुनर्जन्म  की   धारणा  या  इसमें  विश्वास  तर्कहीन  एवं  कपोलकल्पित  है .
श्राद्धों  का  आयोजन ;
shraddh ka ayojan 
                                                हिन्दू  धर्म  में  भाद्रपद   माह  में  पंद्रह  दिन  श्राद्धों  के  रूप  में  मनाये  जाते  हैं . जिसे  अपने  पूर्वजों  की  मृत्यु  तिथि  के  अनुसार  आयोजित  किया  जाता  है  .मान्यता  अनुसार  यह  पर्व  अपने  पूर्वजों  की  दिवंगत  आत्मा  की  शांती  तथा  उनकी  वंदना  का  प्रतीक  है .परंपरा   के  अनुसार  श्राद्ध  के  दिन   अपने  पूर्वजों  को   याद  करते  हुए  उनकी  पसंदीदा  खान  पान  की  वस्तुएं  और  वस्त्र  पंडितों  को  दान  करते  हैं .धारणा  है  की  उनकी  पसंद  की   वस्तुएं  पंडितों  को  खिलने  से  वे  वस्तुएं  पुरखों  तक  पहुँच  जाती  हैं .और  उनकी  आत्मा  तृप्त  होती  है .
     आज  के  भौतिक  वादी  युग  में  अक्सर  देखा  गया  है  ,घर  में  मौजूद  जीवित  रहते  बुजुर्गों  की  पसंद - नापसंद  एवं  उनका  मान  सम्मान  करना  युवा  पीढ़ी  भूलती  जा   रही  है . और  कभी  कभी  तो  उन्हें  बीते  वर्ष  का  केलेंडर  मान  कर  उनकी  मौत  की  प्रतीक्षा  करते  देखा  जाता  है .परन्तु  मरणोपरांत  समाज  में  अपनी  प्रतिष्ठा  बनाये  रखने  के  लिए  तथाकथित  सजल  नेत्रों  से  श्रद्धा  पूर्वक  याद  करने  की  परंपरा  निभाई  जाती  है .इस  प्रकार  श्राद्ध  का  आयोजन  श्रद्धा  कम  ढोंग  प्रपंच  अधिक  प्रतीत  होता  है .जीते  जी  उन्हें  संतुष्ट  नहीं  कर  सके  तो  मननोपरांत  श्राद्ध  का  ढोंग  करने  का  क्या  औचित्य  है ? यदि  उनके  जीवन  कल  में  ही  उन्हें  श्रद्धा  भाव  तथा  सम्मान  दे  पायें  तो  इनका  वृद्ध  जीवन  सहज  हो  सकता  है . संतान  के  लिए  यही  सबसे  बड़ा  श्राद्ध   है .
        जो  व्यक्ति  अपने  पूर्वजों  के  प्रति  श्रद्धा  नत  है  तो  श्राद्ध  के  दिन  गरीबों  को  दान  देकर  उनका  स्मरण  किया  जा  सकता  है .इस  प्रकार  से  श्राद्ध  मानना  एक  अच्छी  और  सार्थक  परंपरा  हो  सकती  है .
गंगा -यमुना  में  स्नान  करना  मुक्ति  दायक   माना  जाता  है ;
river bath

        यों  तो  प्रत्येक  नदी  में  स्नान  को  महत्वपूर्ण  माना  गया  है ,परन्तु  गंगा  और  यमुना  में  स्नान  को  सभी  पापों  से  मुक्ति  के  साधन  माना  गया  है . गंगा  जल  के  महत्त्व  को  तो  वैज्ञानिकों  ने  भी  स्वीकार  किया  है .परन्तु  जिस  प्रकार  कल  कारखानों  का  कचरा  एवं  नालों  का  गन्दा  पानी  गंगा  में  डाला  जाता  है ,गंगा  जल  आज  पूर्णतयः  प्रदूषित  हो  चुका  है .इसी  प्रकार  से  यमुना  नदी  भी  गंदे  नाले  में  परिवर्तित  हो  चुकी  है  और  वर्तमान   में  इन  नदियों  में  नहा   कर  मुक्ति  की  आकांक्षा   करना   बिलकुल  अप्रासंगिक  हो  गया  है  चिकत्सा  शास्त्रियों  के  अनुसार  आज  इन  नदियों  में  नहाना  तो  दूर  छूना  भी  हानिकारक  हो  चुका  है .अतः  उसमें  नहाकर  मुक्ति  की  कल्पना  करना  कितना  तर्कसंगत  है ?
                 यदि  इन  नदियों  में  स्नान  कर  स्वास्थ्य  लाभ  लेना  है  तो  पहले  उन्हें  प्रदूषण  मुक्त  करना  होगा  .जब  नदियाँ  स्वयं  अभिशप्त  हो  चुकी  हैं  तो  किसी  को  मुक्ति  का  कारण  कैसे  बन  सकती  हैं .इस  प्राचीन  धरोहर  को  मानव  के  लिए  हितकारी  बनाने  के  लिए,  नदियों  को  प्रदूषण  मुक्त  करने  के  लिए  एक  आन्दोलन  करना  होगा .तत्पश्चात  ही  उपरोक्त  मान्यता  सार्थक  बन  सकती  है .
    

शनिवार, 2 जून 2012

हमारे समाज में तर्कहीन मान्यताएं -2

कन्यादान 


  हिन्दू पद्धति से विवाह की रस्मों के दौरान फेरों से पूर्व एक रस्म होती है,जिसे कन्यादान का नाम दिया जाता है .जिसका भावार्थ है, माता-पिता अपनी बेटी को उसके ससुराल वालों को दान कर देता है.क्या बेटी कोई वस्तु है या पालतू जानवर है जिसे बाप ,दान कर देता है ?क्या एक लड़की का वजूद एक हाड़ मांस के पुतले के रूप में ही है ? उसकी अपनी कोई भावना ,कोई इच्छा ,कोई चाहत नहीं होती ? वह स्वतंत्र रूप से अपने भविष्य के फैसले लेने की कोई अधिकारी नहीं है? इसी कारण उसे एक खूंटे से हटा कर किसी और खूंटे से बांधने की रस्म निभाई जाती है ,उसका मालिक बदल दिया जाता है .यही कारण है एक लड़की विवाहित होने तक पिता की धरोहर होती है उसके नियंत्रण में रहती है ,विवाह के पश्चात् पति और ससुराल वालों के नियंत्रण में आ जाती है,अंत में पुत्र के अधिकार क्षेत्र में आना पड़ता है . कन्यादान अप्रत्यक्ष रूप से शोषण का संकेत है,महिला समाज का अपमान है जो आज भी निर्बाध रूप से चल रहा है .सारे महिला संगठन भी चुप पड़े हैं क्यों ?
 भाग्य के भरोसे जीना ;

 धार्मिक व्यक्ति अक्सर भाग्यवादी बन जाते हैं,क्योंकि उनकी मान्यता है कोई अदृश्य शक्ति पूरे विश्व को संचालित कर रही है,उसकी बिना इच्छा के दुनिया में पत्ता भी नहीं हिल सकता .मानव जीवन में सुख दुःख एवं उपलब्धियां सब कुछ पहले से निर्धारित है .इन्सान सिर्फ एक कठपुतली है.जो भाग्य में लिखा है उतना ही उसे मिलेगा ,उसे अधिक कुछ नहीं .दूसरे अर्थों में जब सब कुछ निर्धारित है तो मनुष्य को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है.परन्तु सोचने की आवश्यकता यह है , क्या भाग्य के भरोसे रहकर खेतों में अनाज उगाया जा सकता है ? क्या फेक्टरियों में बिना श्रम के उत्पादन संभव है ?क्या देश पर हमला करने वाले दुश्मन को बिना संघर्ष के भाग्य का भरोसे हाथ पर हाथ रख कर भगाना संभव है ?क्या वर्तमान विकास का स्वरूप भाग्य के भरोसे ही संभव हो पाया है ? बिना कुछ किये हुए कुछ भी संभव नहीं है तो भाग्य पर निर्भर रह कर निष्क्रिय हो जाना कितना उचित है?

 भूत प्रेत में विश्वास ;

  जहाँ सुख होता वहां दुःख भी होता है , जहाँ दिन होता है तो रात भी होती है अर्थात जहाँ सकारात्मकता होती है वहां नकारात्मकता भी होती है .जब मानव ने अदृश्य शक्ति की कल्पना , पालनहार , जन्मदाता ,दुःख हरता के रूप में ईश्वर की , तो एक संघारक ,पीड़ादायक ,डरावनी शक्ति के रूप में भूत प्रेत की कल्पना भी मन में विकसित हुई .इस प्रकार से दो प्रकार की शक्तियों की कल्पना हुई ,जिसमे एक शक्ति लाभकारी थी ,प्यार करने वाली थी (ईश्वर ) तो दूसरी दुष्टात्मा सभी मानव के विरुद्ध कार्य करने वाली शक्ति यानि भूत प्रेत .मानव सभ्यता के प्रारंभिक काल में ऐसी कल्पना का विकास कोई अस्वाभाविक भी नहीं था .इस प्रकार से मानव के सभी कष्टों का कारण भूत प्रेत को माना गया. मान्यता के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अकाल मृत्यु या आकस्मिक दुर्घटना में मर जाता है तो आयु से पूर्व मौत हो जाने के कारण उसे मुक्ति नहीं मिलती और उसकी भटकती आत्मा जब तब परिजनों को परेशान करती रहती है.जब तक उसके उद्देश्य अथवा उसकी अधूरी रह गयी इच्छाएं पूर्ण नहीं हो जाती ,उसकी मुक्ति नहीं होती . यदि परिवार में कोई मानसिक रोगी होता है ,अचानक गंभीर रूप से बीमार हो जाता है ,परिवार में कोई दुर्घटना का शिकार हो जाता है, तो उसे भूत या प्रेत का शिकार मान लिया जाता है और उसका इलाज किसी तांत्रिक से कराया जाता है.जो अत्यंत अतार्किक ,क्रूर ,एवं कष्टदायक होता है.जो आधुनिक चिकित्सा विज्ञानं पर एक तमाचे के समान है.क्या वास्तव में तांत्रिक की झाड़ फूंक मरीज को ठीक करने में सफल है ?तांत्रिक इलाज नितांत धोखेबाजी और आडम्बर बाजी का प्रतीक है .जहाँ तक मृत व्यक्ति की आत्मा का प्रश्न है,जिस व्यक्ति के शरीर का अंत ही हो गया उसमे सोचने समझने की शक्ति तथा इच्छाओं की पूर्ती की अभिलाषा काल्पनिक एवं तर्कहीन मानसिकता है .यह भी कहा जा सकता है कुछ धूर्त किस्म के लोग अपनी दुकानदारी चलाने के लिए तंत्र मन्त्र के जल में भोली भली जनता को फुसलाते है और अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं .ये लोग कुतर्क करके जनता को भयभीत करते है.अशिक्षित जनता इनके भ्रमजाल में फंस जाती है. प्रत्येक जागरूक नागरिक को तंत्र -मन्त्र ,भूत -प्रेत के अन्धविश्वास में पड़ने से बचना चाहिए ,और अपने परिवार तथा परिजनों को रूढ़ीवाद से मुक्ति दिलानी चाहिए.किसी भी रोग,मानसिक रोग का इलाज चिकित्सा विज्ञानं के पास उपलब्ध है,अतः उचित दिशा का चयन करना ही पूरे समाज के हित में है .

शुक्रवार, 1 जून 2012

हमारे समाज में तर्कहीन मान्यताएं(FIRST)

हमारे समाज में अनेकों प्रकार की सामाजिक और धार्मिक मान्यताएं भरी पड़ी हैं .जिनमे से कुछ मान्यताएं बहुत ही लाभप्रद हैं परन्तु अनेक मान्यताएं या तो वर्तमान समय के अनुसार अप्रासंगिक हो चुकी हैं या पूर्णतयः अवैज्ञानिक एवं तर्कहीन हैं .आवश्यकता है प्रत्येक मान्यता को तर्क की कसौटी पर कसने की ,उनकी सत्यता की परख करने की .जो मान्यताएं बेबुनियाद हैं जिनसे किसी को लाभ नहीं होता बल्कि उसके कारण हमारा धन और समय बिना कारण व्यय होता है कभी कभी नुकसान भी उठाना पड़ता है ,ऐसी मान्यताओं को अपनाने या ढोने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है .इस लेख द्वारा कुछ उदाहरनो से तर्कहीन मान्यताओं पर विचार किया गया है .प्रत्येक जागरूक व्यक्ति को किसी भी मान्यता को अपनाने से पूर्व उसको तर्क शक्ति के आधार पर विश्लेषण करना चाहिए .इस प्रकार से हम अपना अमूल्य समय और अपनी गाढ़ी कमाई को बचा सकते हैं .समाज से दकियानूसी ,आडम्बर युक्त धारणाओं से मुक्त हो कर एक उन्नत समाज का निर्माण कर सकते हैं
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. बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ माना जाता है ;
अक्सर लोगों की धारणा है ,यदि किसी कार्य के लिए जाते समय बिल्ली रास्ता काट दे तो अशुभ संकेत होता है .कार्य बिगड़ जाने की आशंका होती है .अतः ऐसे समय अपनी यात्रा को स्थगित कर कुछ समय पश्चात् प्रारंभ करनी चाहिए ,इस प्रकार से अशुभ होने की शंका से बचा जा सकता है . मेरा अपना अनुभव है ,मैंने अनेकों बार बिल्ली के रास्ता काटने के बावजूद यात्रा करने पर भी कोई व्यवधान नहीं पाया ,और न कोई अशुभ समाचार मिला .अब तक ज्ञात इतिहास में अथवा किसी पौराणिक ग्रन्थ में इस आशंका को समर्थन नहीं मिला है .कोई वैज्ञानिक तर्क इस आशंका की पुष्टि नहीं करता ,फिर निर्मूल आशंका से भय क्यों ? मन में आशंका पल कर हम अपने लक्ष्य प्राप्ति से वंचित रह सकते हैं ,देर से पहुँचने पर ट्रेन छूट सकती है ,एयर फ्लाईट मिस हो सकती है .शायद इस देरी से नोकरी पाने का अवसर हाथ से चला जाय ,किस महत्त्व पूर्ण कार्य की सफलता संदिग्ध हो जाय .अतः अपनी यात्रा को बिल्ली के रास्ता काटने के कारण स्थगित करना भारी पड़ सकता है

 किसी कार्य को करने के प्रारंभ में छींक होना अशुभ माना जाता है ;
ऐसी मान्यता है , यदि कोई शुभ कार्य को निकालने वाला है और कोई छींक दे तो उसे अशुभ संकेत माना जाता है ,किसी संकट की आशंका व्यक्त की जाती है या जिस कार्य के लिए निकलने वाले हैं उसमें सफल होने की सम्भावना धूमिल हो जाती है . छींक से किसी कार्य के होने या न होने से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता . छींक आना एक शरीरिक प्रतिक्रिया है या नजला जुकाम भी एक कारण हो सकता है जिस पर छींकने वाले का कोई नियंत्रण नहीं होता ताकि वह उसे कुछ समय के लिए टाल सके .अतः इस घटना को अशुभ मान लेना औचित्य हीन है .इस पर विश्वास कर कार्य में विलम्ब से कार्य में हानि हो सकती है न की छींकने से . छींक पर विश्वास करने वाले या इसे अशुभ मानने वाले को तनाव युक्त कर उसके शुभ कार्य को ,उसके सुनहरे पलों को प्रभावित कर सकता है .छीकने वाले को अपना दुश्मन मान लेना उसे हिकारत की निगाह से देखना किसी भी प्रकार से तर्कसंगत नहीं है .अतः बिना सोचे परम्पराओं की लकीर पीटते जाना आधुनिक समाज के लिए अभिशाप है


 अखंड रामायण एवं देवी जागरण अपने इष्ट देव को खुश करने का माध्यम ;
रामायण का अखंड पाठ करते समय तुलसी दस द्वारा रचित राम चरित मानस के अनवरत काव्यपाठ का प्रचालन है .जिसमें करीब चौबीस घंटे का समय लगता है .इतनी शीघ्रता से काव्यपाठ करने पर शायद ही कोई उस काव्य का भावार्थ समझ पता हो .जिस काव्य पाठ को पाठक या श्रोता समझ ही नहीं पता हो उसे धार्मिक या नैतिक लाभ कैसे संभव हो सकता है ?देवी के जागरण में सम्पूर्ण रात्रि को देवी के भजनों द्वारा उसकी आराधना में समर्पित कर दिया जाता है .और पूरे मोहल्ले को जबरन पूरी भजन सुना सुना कर जगाया जाता है ,क्या देवी की उपासना अपने तक सीमित करते हुए की जाय तो देवी रुष्ट हो जाती हैं ?और अब तो भजन भी फ़िल्मी धुनों पर आधारित होते हैं ताकि फिल्मों में रूचि रखने वालों को भी फ़िल्मी आनंद का आभास होता रहे और जनता का मनोरंजन भी होता रहे .क्या पूरी रात काली करके ही देवी प्रसन्न होती हैं ?