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गुरुवार, 24 सितंबर 2015

सरकारी स्कूल बने सफ़ेद हाथी

यों तो हमारे देश में सभी सरकारी विभाग अपने आप में व्याप्त भ्रष्टाचार,निष्क्रियता,लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना कार्यों के लिए जाने जाते हैं.जिनमे पुलिस विभाग,परिवहन,विद्युत्,शिक्षा,एवं चिकित्सा विभाग सर्वाधिक बदनाम विभाग बन चुके हैं.परन्तु चिकित्सा एवं शिक्षा विभाग समाज के बहुत ही संवेदन शील पहलू से जुड़े होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं जिम्मेदार विभाग हैं,जहाँ एक विभाग पर मानवीय पहलू जुड़ा हुआ है, इन्सान की जिंदगी दांव पर लगी होती है, तो शिक्षा विभाग पर देश के भावी नागरिकों को दशा और दिशा के ज्ञान दिलाने का महत्वपूर्ण दायित्व है,जिसके ऊपर समाज के चरित्र के निर्माण और भविष्य निर्माण का भार होता है.आजादी के पश्चात् सत्तारूढ़ देश और प्रदेश की सभी दलों की सरकारों ने जनता को शिक्षित करने के लिए बेपनाह धन खर्च किया परन्तु नौकर शाही में व्याप्त भ्रष्टाचार और उदासीनता के कारण वांछित परिणाम नहीं मिल सके. मुख्य रूप से गुणवत्ता के सन्दर्भ में तो बहुत ही निराशा जनक परिणाम दिखाई दिए हैं.यही कारण है की कोई भी समृद्ध व्यक्ति अपने बच्चो को सरकारी विद्यालयों में पढाना उनके भविष्य के लिए उचित नहीं मानता और निजी स्कूलों में धन व्यय करके अपने बच्चे को शिक्षा दिलाता है. गत दिनों में इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश सराहनीय है, अपने आदेश में माननीय न्यायालय ने कहा है की सभी सरकारी कर्मचारियों को अपने बच्चो को सिर्फ और सिर्फ सरकारी स्कूलों में ही पढाना होगा अन्यथा उन्हें आर्थिक दंड देना होगा.एक सरकारी कर्मी होते हुए सरकारी स्कूलों से परहेज क्यों? अक्सर देखने में आया है की स्वयं सरकारी स्कूल के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाते है.क्योंकि वे जानते हैं की वे अपने स्कूलों में बच्चो को किस प्रकार से शिक्षित कर रहे हैं. इस आदेश पर अमल होने के बाद ही सरकारी स्कूलों में सुधार आने की सम्भावना बन सकती है.जब बड़े बड़े अधिकारीयों एवं स्वयं अध्यापकों के बच्चे इस सरकारी स्कूलों में पढेंगे तो उन्हें स्वयं अपने बच्चों के भविष्य का ध्यान रखते हुए,सरकारी शिक्षा संस्थानों को सुविधा संपन्न करने में रूचि लेंगे,और शिक्षा विभाग पर शिक्षा में गुणवत्ता लाने के लिए दबाव बनायेंगे और भ्रष्टाचार एवं निश्र्क्रियता पर अंकुश लगाने के सार्थक प्रयास करेंगे. आज प्रत्येक सरकारी स्कूल के शिक्षक को समाज के प्रचलित वेतन मानों से अनेक गुना वेतन दिया जाता है.प्राथमिक शिक्षा के अध्यापक को निजी स्कूलों में आम तौर पर दस हजार वेतन दिया जा रहा है, जिसे अध्यापक संतुष्ट होकर अपनाने को तैयार रहता है, और पूरे परिश्रम से बच्चो को शिक्षित करने का कार्य करता है.निजी विद्यालयों में अध्यापकों की निष्क्रिता को सहन नहीं किया जाता अतः गुणवत्ता बने रहने की सम्भावना अधिक होती है. निजी स्कूलों में तो ऐसे अनेक स्कूल भी है जो अपने अध्यापक को मात्र ढाई से चार हजार तक वेतन देते हैं,बेरोजगार शिक्षित व्यक्तियों को मजबूरन इसी वेतन मान पर कार्य करना पड़ता है जबकि उनके पास कोई भविष्य की सुरक्षा का आश्वासन भी नहीं होता.साथ ही अपने कार्यों को पूरी तत्परता से ईमानदारी से निभाना होता है. वहीँ सरकारी प्राथमिक शिक्षक को पच्चीस से तीस हजार वेतन दिया जाता है.फिर भी अध्यापक पढ़ाने में कोई रूचि नहीं रखता. जहाँ तक सरकारी स्कूलों में सुविधाओं का प्रश्न है तो यहाँ सुविधाओं के नाम पर बहुत कुछ नहीं है,कही फर्नीचर का अभाव है, तो कही जर्जर इमारत में बच्चे पढाई करने को मजबूर हैं.अधिकतर विद्यालयों में शौचालय या मूत्रालय नहीं है, यदि हैं तो उचित देख भाल के अभाव में स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं. पीने के लिए पानी की उचित व्यवस्था नहीं है. लगता है सिर्फ सरकारी योजनाओं को कागजो पर दिखाने के लिए सब प्रपंच हो रहा हो.जहाँ पर प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव हो तो शिक्षा की गुणवत्ता के लिए सोचना तो अप्रासंगिक हो जाता है. यही कारण है,की इन स्कूलों से निकले बच्चे निचले स्तर के कार्य कर पाने योग्य ही बन पाते हैं.वर्तमान प्रतिस्पर्द्धा के दौर में वे कही भी नहीं ठहर पाते इस प्रकार जनता के टैक्स से पोषित सरकारी स्कूलों में व्यय किया हुआ धन व्यर्थ में चला जाता है,और सरकारी धन का लाभ कुछ निष्क्रिय लोग उठाते है या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है. यद्यपि सभी सरकारी स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं है, परन्तु दूर दराज गावों के स्कूलों में नियुक्त शिक्षक मात्र हाजिरी लगा कर अपना वेतन प्राप्त करते है.अनेक शिक्षक तो उपस्थिति भी लगाने की आवश्यकता नहीं समझते,सब सेटिंग कर लेते हैं.जब कोई निरिक्षण होता है तो वहां मोजूद साथी अध्यापक उसकी छुट्टी का प्रार्थना पत्र लगा देते है. कुछ स्मार्ट शिक्षक न्यूनतम वेतन अर्थात तीन चार हजार रूपए में गाँव के ही किसी व्यक्ति को नियुक्त कर देते है जो उसके स्थान पर शिक्षा देने का कार्य करता है और शेष वेतन स्वयं घर बैठे कमाते है हाँ कुछ भेंट ऊपर के अधिकारीयों तक पहुंचानी पड़ती है.जहाँ तक पढने और पढ़ाने का सवाल है यहाँ न तो पढने वाले की पढाई में रूचि होती है न ही पढ़ने वाले की कोई रूचि पढाने में है.शिक्षा के अभाव में गावों में शिक्षा की उपयोगिता को महत्व नहीं दिया जाता. अतः माता पिता को बच्चे को पढाने में कोई रूचि नहीं होती.कुछ बच्चे दोपहर के भोजन के लोभ में स्कूल अवश्य जाते है परन्तु उनकी पढाई में रूचि कम बल्कि दोपहर के भोजन में रूचि अधिक होती है जो उनकी दरिद्रता की मजबूरी है.जब पढ़ाने वाले और पढने वाले दोनों को कोई रूचि नहीं है तो स्कूलों का अस्तित्व ही निरर्थक हो जाता है.और जनता के टैक्स से दिया जा रहा शिक्षकों को वेतन अनुपयोगी खर्चे में चला जाता है.अंततः सरकारी विद्यालय सफ़ेद हाथी साबित हो रहे हैं.(SA-172C)

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

पुलिस थर्ड डिग्री यातनाएं क्यों देती है?

          
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हमारे देश में पुलिस की कस्टडी में मुलजिमों की मौत हो जाना एक आम बात है.आखिर क्या कारण है की न्याय की गिरफ्त में आने वाले व्यक्ति, सरकारी संरक्षण में किसी नागरिक की मौत हो जाती है.या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है.यह देश या प्रदेश की सरकार के लिए शर्मनाक बात है उसकी शासन व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता है हम सभी जानते हैं अक्सर सुनने में आता है की अमुक थाने में किसी व्यक्ति की मौत हो गयी.अर्थात पुलिस द्वारा दी गयी यातनाओं के कारण संदेहग्रस्त व्यक्ति की मौत हो जाती है.आखिर पुलिस इतनी बुरी तरह से किसी भी नागरिक को पीटती क्यों है क्या उसे अधिकार प्राप्त है की वह किसी भी व्यक्ति को संदेह के घेरे में लेकर उस पर यातनाये करे,जुल्म ढाए?क्या पुलिस का यह व्यव्हार देश विदेशी राज की याद नहीं दिला देता.क्या पुलिस की कार्य शैली आज भी सामंतवादी बनी हुई है?क्या पुलिस विभाग का काम जनता में दहशत फैलाना है?क्या पुलिस का अस्तित्व जनता पर सरकार की सत्ता बनाये रखने के लिए है या जनता की सेवा के लिए है, उसे अपराधी तत्वों से सुरक्षा दिलाने के लिए है.थर्ड डिग्री की यातनाओं के कारण ही अक्सर अनेक बेगुनाहों की मौत हो जाती है. क्यों यातनाएं देती है पुलिस; हमारे देश में पुलिस की जिम्मेदारी है की वह किसी भी अपराधिक गतिविधि की जाँच करे और अपराध की तह तक जाकर असली गुनाहगार तक पहुंचे और अदालत के समक्ष प्रस्तुत करे.जिसके शीघ्र से शीघ्र क्रियान्वयन के लिए उसे जनता का दबाव और शासन का दबाव निरंतर झेलना पड़ता है.जिसके कारण पुलिस का व्यव्हार कठोर हो जाता है वह अपने अधिकारीयों को खुश करने या संतुष्ट करने के लिए जनता पर जुल्म ढहाती है.उसके इस व्यव्हार के लिए मुख्य कारण निम्न हैं; १,पुलिस पर शासन अर्थात शासन में बैठे राजनेताओं का अनुचित दबाव झेलना पड़ता है जो कभी कभी जाँच को अपनी इच्छनुसार करने के लिए पुलिस पर असंगत दबाव बनाते हैं उसके कार्यों में अवैध रूप से दखलंदाजी करते हैं और उसे कानून के अनुसार कार्य करने से रोकते रहते है. २,किसी भी अपराध की वास्तविकता पता लगाने के लिए पुलिस अपना श्रम बचाने के लिए संदेह ग्रस्त व्यक्ति को थर्ड डिग्री की यातनाएं देकर जल्दी से जल्दी अपनी जाँच पूरी करना चाहती है,परिणाम स्वरूप अनेक बार निरपराध व्यक्ति पुलिस मार से घबराकर जुल्म को क़ुबूल करने को मजबूर हो जाता है,जो बाद में अदालत में ख़ारिज हो जाता है.अतः पुलिस जाँच को शीघ्र पूरी करने के लिए शोर्ट कट अपनाते हुए सदेह के घेरे में आये व्यक्ति पर जुल्म करती है. ३,किसी भी केस की जाँच के दाएरे में आने वाले किसी भी व्यक्ति पर पुलिस अपने डंडे का डर दिखा पर अपनी आमदनी पक्की करती है,बेगुनाह की खाल का सौदा करती है.यही कारण है की एक आम व्यक्ति थाने जाने से भी घबराता है, जिससे अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं. ४,थानेदार अपने बड़े अफसरों को खुश करने के लिए केस को जल्द से जल्द हल करने के प्रयास में,कागजी खाना पूर्ती के लिए निरपराध व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करता है.और उसे अपराधी के रूप में प्रस्तुत कर देता है.इस प्रकार उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है. ५,पुलिस विभाग में कार्यरत पुलिस कर्मी अत्यधिक कार्य के दबाव के कारण मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाते है, परिणाम स्वरूप अपना गुस्सा हवालात में बंद मुलजिमों पर कहर बरपा कर उतारते हैं. ६,पुलिस की कार्यशैली और सोच अभी भी विदेशी दासता जैसी बनी हुई है वे(पुलिस कर्मी) अपने को जनता का सेवक नहीं मानते बल्कि अपने को सरकारी हुकूमत के कारिंदे मानते हैं और मानते हैं की आम जनता पर रौब ग़ालिब करना.उसके साथ गली गलौच करना या किसी को भी थर्ड डिग्री की यातना देना अपना विशेष अधिकार समझते हैं. क्या आवश्यक रूप से सुधार किये जा सकते हैं. पुलिस विभाग प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है,परन्तु देश के सभी राज्यों में पुलिस की कार्यशैली एक जैसी ही है.अतः देश व्यापी परिवर्तन की आवशयकता है जिसे केंद्र सरकार अपने दिशा निर्देशों द्वारा राज्यों को कानूनों में परिवर्तन कर पुलिस विभाग के व्यव्हार को संतुलित करने की सलाह दे सकती है. १,पुलिस को दिए गए व्यापक अधिकारो को सीमित किया जाय,तथा प्रत्येक पुलिस कर्मी को जनता के प्रति सद्भाव पूर्ण व्यव्हार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाय. २,जाँच का अधिकार पुलिस के पास बहुत ही सीमित रूप में दिया जाय अपराध की गहराई में जाने के लिए अलग से जाँच सेल बनाय जाय. जो ख़ुफ़िया तौर पर जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करे और अपराध की तह तक पहुँच कर केस को हल करे.जो किसी अत्याचार का सहारा न लेकर अपने ख़ुफ़िया जाँच के द्वारा मामले की गहराई तक पहुंचे. ३,पुलिस कर्मियों की मनोस्थिति का अध्ययन किया जाना चाहिए और उनके कल्याण के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए ताकि वे अपनी बीमार मानसिकता को मुलजिमों पर अत्याचार कर के अपना गुस्सा न उतारें. और सभी तथाकथित अपराधियों के साथ इंसानियत के साथ पेश आयें. ३,पुलिस की कार्य शैली और अपराधों की संख्या घटाने के लिए न्याय प्रणाली को सुधारना अत्यंत आवशयक है. शीघ्र न्याय दिलाने के लिए अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाय, तो अदालतों पर असहनीय भार को कम किया जा सकता है और न्याय मिलने में शीघ्रता आ सकती है .अदालतों को भी शीघ्र केस निपटाने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाएँ तो जजों को त्वरित न्याय देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है. 4,अदालतों की कार्य शैली सामन्तवादी कार्य शैली है जो अंग्रेजों की गुलामी की याद दिलाती है,कार्यशैली भी परम्परागत चली आ रही है जिसे समाप्त करना चाहिए और आवश्यक सुधार किये जाने चाहिए ताकि किसी भी नागरिक को दोषी सिद्ध होने तक पर्याप्त सम्मान मिलता रहे जो लोकतान्त्रिक देश में किसी भी नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है.अदालत की कार्यशैली के कारण भी पुलिस आम नागरिक से सभ्य व्यव्हार नहीं करती और एक आम नागरिक को अदालत का डर दिखा कर उसका शोषण करती है. ५,पता नहीं मैं यहाँ पर सही हूँ या नहीं मेरे विचार से अदालत का सम्मान किया जाना चाहिए परन्तु एक जज का नहीं, जो स्वयं एक न्यायिक सेवक है और जनता का सेवक है. उसे भी सभी सेवा शर्तों का इमानदारी से पालन करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए और व्यक्तिगत रूप से किसी भी न्यायाधीश की कार्य शैली पर भी मीडिया को आलोचना करने का अधिकार मिलना चाहिए.अदालत का असम्मान(अवमानना) सिर्फ अदालत के आदेश न मानने तक सीमित होना चाहिए.(SA-163C)<script src="https://www.gstatic.com/xads/publisher_badge/contributor_badge.js" data-width="88" data-height="31" data-theme="light" data-pub-name="Your Site Name" data-pub-id="ca-pub-00000000000"></script>

रविवार, 6 सितंबर 2015

द्वेत वाद और अद्वेत वाद

               स्रष्टि के जन्म के साथ ही अनेक जीव जंतुओं की उत्पत्ति हुयी,इन्ही जीवो में मानव भी दुनिया  में आया, जो शेष सभी जीवों से श्रेष्ठ था. जिसके पास सोचने समझने के लिए दिमाग था और वह उसके निरंतर विकास करने की क्षमता रखता था,परिणाम स्वरूप सभी जीव जैसे वे उत्पत्ति के समय थे उसी अवस्था में आज भी रहते हैं.उनकी जीवन  शैली आज भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में है. परन्तु मानव ने अपने मस्तिष्क का सदुपयोग करते हुए,पहले सभी जीव जंतुओं  को अपने नियंत्रण में कर लिया और पूरी दुनिया में इन्सान का एक छत्र राज्य हो गया तत्पश्चात मानव जाति के लिए अनेक प्रकार की सुख सुविधाएं विक्सित करने का सिल सिला प्रारंभ किया जो आज तक निरंतर जारी है.आज विकास की गति तीव्र से तीव्रतम होती जा रही है.इन्सान में  दिमाग होने के कारण, उसे स्रष्टि की उत्पत्ति के बारे में जानने की उत्सुकता हुई और अपने मन में उत्पन्न अनेक पर्श्नों के उत्तर ढूँढने का प्रयास किया. जब जब उसे अपने प्रश्नों का उचित उत्तर नहीं मिला, तो उसे एक अलौकिक शक्ति की कल्पना करने को विवश होना, पड़ा. इसी उधेड़ बुन में कभी उसने एक ऐसी शक्ति की कल्पना की जो पूरी दुनिया की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार है, वही स्रष्टि की पालन हार और संहारक भी है.और अपने  साथ होने वाले किसी भी कष्ट दायक स्थिति के लिए उसे ही जिम्मेदार माना गया. यह बात अलग है की दुनिया में इस तथाकथित काल्पनिक शक्ति को अनेक प्रथक प्रथक नामों से जाना गया और पूजा गया,जिसने अनेक पंथों और धर्मों को जन्म दिया.
           जब हम इस स्रष्टि के कर्ता धर्ता किसी (स्वयं के अतिरिक्त)अन्य जीव या किसी शक्ति को मानते हैं तो इसे द्वेतवाद माना जाता है अर्थात इस मान्यता के अंतर्गत विश्व के संचालन के लिए अपने से प्रथक किसी अन्य शक्ति के प्रभाव को मानने लगते हैं, उसकी पूजा करते है ताकि उसके प्रकोप से हम बच सकें और अपने सुनहरे भविष्य की कामना कर सकें, जीवन की उलझनों का निवारण पा सकें. विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति इसी मान्यता का परिणाम है.जब हम सिर्फ विश्वास के आधार पर किसी धर्म का अनुसरण करते हैं, उसको ही द्वेतवाद की संज्ञा दी जाती है,अर्थात किसी भी परिस्थिति के लिए अपने से प्रथक किसी अन्य शक्ति को जिम्मेदार मानना.अपने इष्ट देव की पूजा अर्चना कर हम अपने मन की शांति को ढूंढते हैं. हमारा  उस अलौकिक शक्ति पर विश्वास हमें कठिन परिस्थिति में भी हिम्मत बंधे रखता है,हमारा मानसिक संतुलन बना रहता है.यही मानसिक संतुलन हमें कठिन परिस्थितियों से बाहर निकल पाने में मदद करता है.
       अद्वेत वाद एक प्रथक मान्यता का नाम है, इसके अंतर्गत दुनिया में हर स्थिति के लिए स्वयं(मानव) को जिम्मेदार माना जाता है.इसमें इन्सान स्वयं को ही सब कुछ मानता है अर्थात वह स्वयं सभी सुख दुःख के लिए जिम्मेदार है.वह अहमो-ब्रह्मास्मि के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है.वह स्वयं को भगवान् का स्वरूप मानता है या तथाकथित ईश्वर का अंश मानता है.वह किसी की पूजा अर्चना का समर्थन नहीं करता,वह सारी खुशिया अपने अन्दर ही ढूँढने का प्रयास करता है.दुनिया को वैभवपूर्ण और शांति संपन्न बनाने के लिए अपने प्रयासों पर पूर्ण भरोसा करता है.किसी भी विकट स्थिति के लिए स्वयं को जिम्मवार मानता है और उसका समाधान भी अपने प्रयासों से ढूंढ लेने का विश्वास करता है.वह मन की शांति के लिए योग और आत्म चिंतन को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता है.