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मंगलवार, 31 मई 2011

आस्था और तर्क

विश्व के सभी धर्मों का अस्तित्व आस्था पर टिका होता है. आस्था सिर्फ अंधश्रद्धा का ही एक रूप है, जहाँ सारे तर्क अमान्य ठहरा दिए जाते हैं.यदि धर्म सिर्फ आस्था का प्रश्न न होकर तर्क का विषय होता ,अर्थात ईश्वरीय धारणा सिद्ध हो पाती तो पूरे विश्व में धर्म के नाम पर सैंकड़ो भिन्न भिन्न सम्प्रदायों का उदय नहीं होता. इतने महत्वपूर्ण विषय पर विचार भिन्नता नहीं होती.धार्मिक उपद्रव नहीं होते,विश्व में धर्म के नाम पर आतंकवाद नहीं पनपता. प्रत्येक धर्म अपनी आस्था, अपने धार्मिक विश्वास को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की जिद्दोजहद नहीं करता.
पृथ्वी गोल है सब जानते हैं,पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है विश्व मान्य तथ्य है,सौर मंडल में ग्रहों के अस्तित्व और संख्या के बारे में कोई मतभेद नहीं है.आर्कीमिडिज का सिद्धांत,गलीलियो के सिद्धांत से पूरा विश्व सहमत है अर्थात विभिन्न वैज्ञानिक सिद्धांत पूरे विश्व में मान्य हैं चाहे वह सिद्धांत दुनिया के किसी भी हिस्से में प्रतिपादित किया गया हो . फिर ईश्वर जैसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय के बारे में इतनी सारी धारणाएं, मान्यताएं क्यों?सबके धर्म ग्रन्थ प्रथक प्रथक क्यों? सभी के सिद्धांत,धारणाएं अलगअलग क्यों?सभी धर्म अपने धर्म ग्रन्थ,अपनी आस्था को ही सत्य एवं सर्वश्रेष्ठ एवं अन्य आस्थाओं को मिथ्या क्यों सिद्ध करना चाहते हैं?क्यों मुस्लिम धर्म न मानने वाला काफ़िर हो जाता है,हिन्दू धर्म का पालन न करने वाला नास्तिक कहलाता है?क्यों कोई भी संत,महात्मा तर्क वितर्क में असफल होने पर तर्क-करता की क्लास लेने पर उतारू हो जाता है?और उसे पहले तपस्या करने और ,विश्वास करने की घुट्टी पिलाता है, और फिर आकर तर्क वितर्क करने के लिय कहता है.
ईश्वर की आस्था के अनुसार ,ईश्वर की बिना इच्छा के पत्ता भी नहीं हिल सकता तो फिर संसार व्यापी अत्याचार,व्यभिचार, हिंसा, हत्या का तांडव क्यों? धार्मिक आस्था के अनुसार मनुष्य का जन्म बड़े भाग्य से मिलता है, वर्तमान में जनसँख्या विस्फित को क्या कहा जाय? शायद अब सभी जीव सौभाग्यशाली हो रहे हैं?
मनुष्य के वर्तमान दुखों का कारण पूर्वजन्मों के दुष्कर्मों का परिणाम बताया जाता है. जब इन्सान को पता ही नहीं की उसने पूर्व जन्म में क्या गलत किया था? तो फिर सजा कैसी. यह कैसी अदालत है जो मुलजिम को उसके अपराध की जानकारी दिए बिना ही सजा दे देती है? फिर दुष्कर्मी को मनुष्य योनी में जन्म कैसे मिल गया?
मनुष्य में विद्यमान आत्मा को परमात्मा का अंश माना जाता है तो फिर वह दुष्कर्मी कैसे हो गयी? परमात्मा के अंश को जीवन चक्र में फंसने के क्या मकसद हो सकता है?
इस प्रकार के अनगिनत प्रश्न हैं जो धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगते हैं . इस सौर मंडल, सौर गंगा के अस्तित्व, विश्व के अस्तित्व के प्रश्न पर अभी विज्ञानं किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका है, इसीलिए अलग अलग आस्थाएँ अपनी जड़ें जमाये बैठी हैं.
सभी धर्मों का मूल मकसद है दुनिया में सुख शांति, अहिंसा, सभ्यता एवं इंसानियत का परचम लहराना.अतः धर्म कोई भी अपनाया जाय परन्तु उसके असली मकसद यानि इंसानियत को अपनाये बिना धार्मिक होने का कोई लाभ नहीं है. फिर धर्म के लिए हिंसा का सहारा लेना धर्म की मूल धारणा से विचलित होना है.
मेरी पुस्तक "बागड़ी बाबा और इन्सनिअत का धर्म" पढेंगे तो अवश्य ही आप मेरी धारणा पर विश्वास करेंगे

गुरुवार, 26 मई 2011

क्यों बन जाता है समस्या हमारा बुढ़ापा

यूँ तो हमेशा ही यौवनावस्था से वृद्धावस्था के बीच आए परिवर्तन हमेशा ही बुढ़ापे में परेशानी का कारण बनते आए हैं। क्योँ की नए परिवर्तनों को हम स्वीकार नहीं कर पाते,या स्वीकार नहीं करना चाहते अथवा हमारी परवरिश नए परिवर्तनों को स्वीकार नहीं करने देती और हमारी समस्या का कारण बन जाती है । पृकृति का नियम है ,दुनिया में परिवर्तन तो होते रहने हैं अब वे चाहे भौतिक हों अथवा सामाजिक। नयी नयी खोजों के कारण भौतिक परिवर्तन आते है और मनुष्यों की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप मान्यताएं बदलती हैं। और फिर सामाजिक परिवेश में बदलाव आता है.हमारी मुख्य समस्या नए परिवेश में अपने को न ढल पाने के कारण बनती है। और हम नए ज़माने , नई पीढ़ी को भरपूर कोसते हैं उन्हें संस्कारहीन बता कर उनका अपमान करने से भी नहीं चूकते और अपनी परेशानिया बढ़ा लेते है ।
अतः अपने शेष जीवन को शांति पूर्वक बिताने के लिए नई पीढ़ी एवं नए परिवेश के साथ सामंजस्य बैठना आवश्यक है।
भारतीय बुजुर्ग की प्रमुख समस्याएँ ;
१.शरीरअशक्त हो जाना।
२.जीवन साथी से बिछुड़ जाने का गम अर्थात एकाकी पन।
३.धनाभाव के रहते गंभीर बीमारी का इलाज असंभव ।
४ .अनेको बार शरीर विकलांग हो जाना जैसे अंधापन,बहरापन,या हड्डियों की विकृति हो जाना अदि ।
५.अकेले रह रहे बुजुर्ग दम्पति की सुरक्षा की समस्या ।
६ .संतान सम्बन्धी समस्याओं से तनाव ग्रस्त हो जाना ।
७ .मौत का भय सताना ।
८ .नई पीढ़ी से सामंजस्य न बैठा पाना ।
९ .आधुनिक युग के परिवर्तनों को सहन न कर पाना।

शनिवार, 21 मई 2011

साधू और संत समाज

चमत्कारी बाबा और तांत्रिक अपनी वैज्ञानिक युक्तियों की जानकारी रखने के कारण अल्प शिक्षित या अशिक्षित व्यक्तियों को आसानी से प्रभावित कर लेते हैं और अपनी कमी का साधन बना लेते हैं. शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ ही जनता की अग्यनता दूर होती जाएगी और इनका प्रभुत्व भी ख़त्म हो जायेगा
वर्त्तमान में, साधू संतों की लम्बी फौज में अधिकांश ढोंगी एवं नाटकबाज सिद्ध हो रहे हैं,जो दुनिया को ,कुटिलता का आवरण ओढ़ कर ठग रहे हैं. नित्य हो रहे पर्दाफाश के कारण योग्य एवं समाजसेवी साधू संत भी संदेह के घेरे में आ रहे है.उनके लिए स्थिति असहज होती जा रही है.
भुत-प्रेत का अस्तित्व सिर्फ वहम है, हमारा मानसिक विकार है, जब हम मानसिक रूप से कमजोर होते हैं, उनका काल्पनिक अस्तित्व हमें परेशान करने लगता है.
अब समय आ गया है की , हम अपनी परम्पराओं, रीती रिवाजों, मान्यताओं का गहन विश्लेषण करें, और तार्किक कसौटी पर खरा उतरने पर ही उन्हें अपनाएं, उनको मान्यता दें. क्योंकि आज प्रत्येक व्यक्ति तर्कपूर्ण सोच पाने में सक्षम है.
यदि हम अपने व्यव्हार में शालीनता एवं इन्सनिअत ला सकें तो धर्म के अनुसरण की आवश्यकता नहीं है. सभी धर्मों की स्थापना इन्सान को समाज में मानवता के दायरे में रखने के लिय हुई है.
हम आज के भौतिक युग में सुविधाओं के सैलाब को तो शीघ्र अपना लेना चाहते हैं, परन्तु जीवन शैली में आ रहे परिवर्तन को हजम नहीं कर पाते.सामजिक परिवर्तनों को देख कर दुखी होते हैं .जब विकास के लाभ उठाने को तैयार है हैं तो कुछ अनैच्छिक परिवर्तनों को भी सहन करने की आदत डालनी चाहिए.

बुधवार, 18 मई 2011

कुछ अनसुलझे प्रश्न

[मेरे नवीनतम लेख अब वेबसाइट WWW.JARASOCHIYE.COM पर भी उपलब्ध हैं,साईट पर आपका स्वागत है.-----------FROM APRIL 2016]



* हम इस संसार में पैदा होते, बढ़ते हैं, जवान होते हैं. फिर वृद्ध हो जाते हैं, अंत में मौत को प्राप्त होते हैं उसके बाद सब कुछ ख़त्म. प्रत्येक जीव के साथ यही होता है, परन्तु क्यों? कोई जीव क्यों पैदा होता है और क्यों मर जाता है? यानि मिटटी से उत्पन्न हो कर मिटटी में ही मिल जाता है.

**प्रत्येक जीव पैदा होता है तो मौत भी निश्चित है. परन्तु कोई भी जीव कभी भी मरना नहीं चाहता. यह भी एक विडंबना है.

***प्रत्येक जीव सूक्ष्म रूप में उत्पन्न होकर स्वतः अपने निश्चित आकार तक विकसित होता है. क्यों और कैसे समझ परे है.

****प्रथ्वी पर मौजूद खनिज भंडार जैसे लोहा,सोना,चांदी,ताम्बा, खानों में कैसे आया और क्यों? कोई तर्क संगत उत्तर उपलब्ध नहीं है.

*****पूरे ब्रह्मांड में जीवधारियों के उपयुक्त वातावरण सिर्फ पृथ्वी पर ही मौजूद होना रहस्य का विषय है. मौसम का स्वतः संतुलन आवश्यकतानुसार गर्मी, सर्दी, बरसात सिर्फ पृथ्वी पर ही है

******ब्रह्माण्ड में मौजूद तमाम गृह-उपगृह कैसे अस्तित्व में आए, आज तक कोई नहीं बता पाया.

*******हमारे सभी धर्मों में ईश्वर की कल्पना की गयी है, परन्तु यह सोच पाने में सफलता नहीं मिल पाई की उस तथाकथित ईश्वरीय शक्ति का उद्भव कैसे हुआ और क्यों?


     {वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर आधारित पुस्तक “जीवन संध्या”  अब ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है.अतः सभी पाठकों से अनुरोध है www.jeevansandhya.wordpress.com पर विजिट करें और अपने मित्रों सम्बन्धियों बुजुर्गों को पढने के लिए प्रेरित करें और इस विषय पर अपने विचार एवं सुझाव भी भेजें.}
   

मेरा   इमेल पता है ----satyasheel129@gmail.com

सोमवार, 16 मई 2011

परिवार में पिता और पुत्र संबंधों का महत्त्व

एक ओर पिता जहाँ परिवार का अतीत का आर्थिक रीढ़ था ,तो बेटा, परिवार का आर्थिक आर्थिक आधार होता है.आर्थिक स्रोत के बिना परिवार का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है.अतः पिता .पुत्र के संबंधों में सामंजस्य होना अत्यंत आवश्यक है .जो पूरे परिवार के सदस्यों को प्रभावित करते हैं.इसलिए इनके संबंधों में मधुरता बनी रहना भी परिवार के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
कभी कभी पिता अपने पुत्र के व्यस्क हो जाने पर भी बच्चे की भांति व्यव्हार करता है.जैसे बात बात पर डांटना,उपदेश देना, और उसके प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करना इत्यादि। यदि पुत्र उनकी बातों से असहमति व्यक्त करता है, तो उनके अहम् को ठेस पहुँच जाती है.जिसे पिता को सहन नहीं होती .प्रतिक्रिया स्वरूप अपने पुत्र का अपमान करने नहीं चूकता.कहावत है,की जब बेटे के पैर में बाप का जूता फिट आने लगे तो उससे पुत्रवत नहीं मित्रवत व्यव्हार करना चाहिए। पिता इस उसूल को अपना ले तो निरर्थक विवाद से बच सकता है।
पिता को अपना बद्दप्पन दिखाते हुए पुत्र की कुछ गलत बातों को क्षमा करने की भी आदत बनानी चाहिए ।
और बेटे को अपने पिता का सम्मान करते हुए उसकी भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.पिता की बात से असहमत होने पर क्रोध न करते हुए विनम्रता पूर्वक से अपना पक्ष रखना चाहिय। अभद्रता, अशिष्टता एवं उपेक्षित व्यव्हार पुत्र के लिए अशोभनीय है.पुत्र को सोचना होगा आज उसके पिता बुजुर्ग के रूप में उसके समक्ष हैं तो कल वह भी अपनी संतान के समक्ष इसी अवस्था में होगा.पिता को दिया गया सम्मान भविष्य में संतान द्वारा प्रदर्शित होगा।
परिवार के सुखद भविष्य के लिए पिता पुत्र को अपने व्यव्हार में शालीनता लाना आवश्यक है।
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सोमवार, 9 मई 2011

परिवार नियोजन कुछ ऐसे भी

हमारे देश में बढती आबादी का बोझ देश के विकास में अवरोध उत्पन्न कर रहा है. विकसित देश के लिए शायद अधिक आबादी की समस्या से भी अधिक जनता की गरीबी की समस्या अधिक है.अक्सर गरीबों के यहाँ संतान अधिक होती है, जो आगे बढ़ कर अशिक्षित अवं गरीबों की संख्या बढ़ाते हैं और देश पर बोझ बनते जाते हैं. यदि इस वर्ग को परिवार नियोजन को इनकी समृद्धि के सन्देश के रूप में प्रेरित किया जाय तो आमिर और गरीब के बीच खाई को कम करने में सहायता मिल सकती है.
इस सन्दर्भ में कुछ सुझाव मेरे भी हैं जो निचे दिए जा रहे हैं.
**सरकार अनेक कार्यक्रम गरीब परिवारों एवं गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारों के लिए चलाती रहती है यदि जिस परिवार में एक विशेष दिनांक के पश्चात् परिवार में दो बच्चों से अधिक बच्चे जन्म लेते हैं तो उस परिवार की सभी सरकारी सुवधाएँ ख़त्म कर देनी चाहिए .
***सरकारी कर्मी के परिवार में दो से अधिक संतान होती है तो उसकी दो के अतिरिक्त संतान के लिए जुरमाना लगाया जाय या विभागीय दंडात्मक कार्यवाही की जाय
***किसी भी कौम को एक से अधिक औरत रखने की इजाजत न हो और इसका सख्ती से पालन किया जाय
***जिस गरीब परिवार में मात्र एक संतान हो उसे सरकार की ओर से अतिरिक्त लाभ दिए जाएँ
***बंगला देश से अथवा किसी अन्य देश से आये अवैध व्यक्तियों की पहचान कर देश बहार किया जाय.
***हमारे समाज में परिवार नियोजन को लेकर अनेक भ्रांतियां व्याप्त है, जैसे संतान इश्वर की देन है, या औलाद अल्लाह का वरदान है, परिवार नियोजन अपनाना इश्वर के विरुद्ध है. आदि आदि.इन भ्रांतियों को शिक्षा के द्वारा दूर किया जाना चाहिए.
*** निःसंतान दम्पतियों को कोई बच्चा गोद लेने के लिए प्रेरित किया जाय न की किराये की कोख का साधन

रविवार, 1 मई 2011

क्या हम देश के सभ्य नागरिक हैं.

#हमारी मिल बाँट कर खाने की प्रवृति ख़त्म होती जा रही है, चाहे वह व्यापार हो, नौकरी हो, या फिर नाते रिश्तेदार और भाई बंद. आज प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने लिए सोच रहा है, सिर्फ अपने लिए जी रहा है.
#दावतों, पार्टियों में बुफे पद्धति होने के बावजूद अपनी प्लेट में आवश्यकता से अधिक खाना ले लेते हैं और फिर बचाकर फेंक देते हैं, बेकार कर देते हैं.जबकि हमारे देश में ही नहीं दुनिया में करोड़ों लोगों को दोनों समय का भोजन नसीब नहीं होता.
#दुर्घटना वश पड़े घायल व्यक्ति को सिर्फ अपने को कानूनी फंदे से बचाय रखने के कारण सड़क पर छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं. मानवीय मूल्यों को भूल जाते हैं. हमारे देश के कानून एवं पुलिस के व्यव्हार का कमाल है जो आम नागरिक को खौफजदा किये रहता है और मानवीय कार्यों के लिए भी कटघरे में खड़ा कर अपमानित करता है,व्यथित करता है.
#हम अपने स्वार्थ, अपने आर्थिक हितों के लिए हरे भरे पेड़ों को काटने से तनिक भी नहीं हिचकिचाते और पर्यावरण असंतुलन के लिए चुनौती कर देते हैं.
#बिना कानूनी डंडे के हम अपने हित की बात समझने को तय्यार नहीं होते,चाहे वह कार में सीट बैल्ट बांधने की बात हो या फिर मादक पदार्थों के सेवन की,या फिर पब्लिक में खुलेआम धुम्रपान करने की.
# टेलेफोन से लम्बी वार्ता करना ही हमारी शान बन गयी है,जिससे एक तरफ तो आगंतुक कोलर के लिए समस्या बनती है तो दूसरी तरफ अतिरिक्त बिल देकर फिजूल खर्ची होती है. संक्षिप्त वार्ता से भी काम चलाया जा सकता है.
#हम सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिए कभी सड़क जाम कर देते हैं, तो कभी रेलवे ट्रेक पर बैठ कर धरना देते हैं और आम जन जीवन को अस्त व्यस्त करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते और तो और अनेकों बार अपने उग्र प्रदर्शनों द्वारा हिंसक वारदातों को अंजाम देते हैं,सरकारी एवं निजी संपत्ति को भरपूर नुकसान पहुंचाते हैं. अपनी मांगों को मनवाने के लिए अहिंसक एवं शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक तरीके भी अपनाये जा सकते हैं.
# त्योहारों को विकृत ढंग से मनाते हैं, जैसे दीवाली पर पटाखे अत्यधिक रूप में चलाना, होली पर होलिका दहन के अवसर पर अंधाधुंध लकड़ी फूंकना, दीवाली पर बिजली का दुरपयोग करना, होली पर हानिकारक रंगों का उपयोग करना, मादक पदार्थों का सेवन करना आदि. जिसके कारण अपने धन के दुरूपयोग के साथ साथ पर्यावरण प्रदूषण के भी हम जिम्मेदार बनते हैं.
#हम अपने बच्चों के साथ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन न करते हुए बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. हाल ही हुए सर्वे के अनुसार बड़े शहरों में पच्चीस प्रतिशत किशोर छात्राएं अपनी मर्यादाये तोड़ कर शारीरिक सम्बन्ध बना रहें हैं. टी वी एवं इंटरनेट के चलन एवं अभिभावकों की लापरवाही का नतीजा सामने है.