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सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

जीवन में सकारात्मक रहने के उपाय

      एक ऐसी छोटी सी बात जिसने मेरे विचार श्रृंखला को सुधारने  और सकारात्मक बनाने में बहुत मदद की है.मुझे पूरी उम्मीद है कि ये आपके लिए भी उतना ही लाभदायक होगा.  ऐसा मैं इसलिए भी कह पा रहा हूँ कि क्योंकि इसे समझना  बहुत ही आसान  है.और इसे जीवन में लागू करना भीआसान है.हमारा दिमाग विचारों का निर्माण करने वाली एक फैक्ट्री है.इसमें हर समय कोई न कोई विचार पैदा होता रहता है और इस काम को करने के लिए हमारे पास दो बड़े आज्ञाकारी सेवक होते है. और ये अपना  काम करने में पूर्णतया सक्षम हैं.
     इनमे एक सेवक का नाम है श्रीमान विजय और दुसरे सेवक का नाम है श्रीमान पराजय.श्रीमान विजय का कार्य होता है आपके आदेश मिलते ही सकारात्मक विचारों का निर्माण करना और दुसरे का काम है आपका आदेश मिलते ही नकारात्मक विचारों का निर्माण करना.और ये दोनों सेवक आपके आदेश के तुरंत बाद अपने कार्य पर लग जाते हैं.
      श्रीमान विजय आपको बताने का विशेषग्य है की आप किस प्रकार सफल हो सकते हैं.जबकि श्रीमान पराजय यह बताने में पारंगत है की आप क्यों असफल हो सकते है?
      जब आप सोचने लगते है की मेरा जीवन क्यों अच्छा है तो श्रीमान विजय आपके लिए अच्छे अच्छे विचार उत्पन्न करने लगते है.जो आपके जीवन से ही निकल कर आते है.जैसे की मेरे पा एक अच्छा परिवार है,मुझे चाहने वाले अनेक अच्छे लोग मौजूद हैं. मैं आर्थिक रूप से सक्षम हूँ ताकि अपना जीवन खोशी से बिता सकूं.और जो मैं चाहता हूँ कर पा रहा हूँ इत्यादि.
     और यदि आप सोचते हैं की मेरा जीवन अच्छा क्यों नहीं है तो श्रीमान पराजय आपकी बात को सही साबित करने के लिए विचार श्रृंखला उत्पन्न करने में व्यस्त हो जाते हैं.और आपके समक्ष नकारात्मक विचारों का जखीरा लाकर खड़ा कर देते हैं.जैसे की मैंने अपने जीवन में कुछ विशेष उपलब्धि प्राप्त नहीं कर सका.मेरा कार्य अर्थात नौकरी कारोबार मेर्री योग्यता के अनुरूप नहीं है या नहीं रही.मेरे साथ जीवन में हमेशा बुरा  ही होता है.इत्यादि
      ये दोनों सेवक जी जान से आपकी बात का समर्थन करते हैं.अब यह आपके ऊपर निर्भर करता है की आप किसे काम पर लगाते है?यह पर यह बात ध्यान देने योग्य है जिसे आप अधिक काम पर लगायेंगे वह नित्य ताकतवर होता जायेगा और धीरे धीरे आपके विचारों की फैक्ट्री पर पूर्णतया कब्ज़ा जमा लेगा और दूसे सेवक को कमजोर कर देगा उसे निकम्मा कर देगा.अब यह आप पर निर्भर है की किसे आप अधिक काम  पर लगाना चाहते हैं किसे अपने  विचारों का साम्राज्य सौंपना चाहते है.
      यदि अपने जीवन को सुखी देखना चाहते हैं तो श्रीमान विजय को ही काम पर लगाईये.यदि श्रीमान पराजय को अधिक कार्य मिलने लगता है तो तुरंत श्रीमान विजय को बुला कर सकारात्मक विचार पैदा करने के लिए कहिये.और अपने विचारों को सकारात्मक बनाईये.और जीवन में खुशहाली उत्पन्न कीजिये.
      उदहारण के तौर पर यदि किसी प्रिय व्यक्ति से संबंधों को लेकर आपका  मूड ख़राब है तो तुरंत सोचना शुरू  कीजिये की मुझे चाहने वाले कितने अच्छे अच्छे लोग है? बस शेष काम श्रीमान विजय कर देंगे वह आपको जीवन के सुखद अनुभवों को गिनाने लगते है और आप पाएंगे  की अच्छे विचार मन में आते ही आपके प्रिय व्यक्ति से सम्बन्धों में सुधार आने  लगता है.आपके अच्छे विचारों के कारण आपका प्रिय व्यक्ति भी आपके लिए सहज हो जायेगा.
      कभी भी जब आपके मन में नकारात्मक विचार हावी होने लगें तुरंत उसके विरुद्ध एक अच्छे विचार पर गौर करिए और विचारों का रुख बदल डालिए.आपकी बहुत सारी समस्याएं तुरंत हल हो जाएँगी. 



 (वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर आधारित पुस्तक “जीवन संध्या”  अब ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है.अतः सभी पाठकों से अनुरोध है www.jeevansandhya.wordpress.com पर विजिट करें और अपने मित्रों सम्बन्धियों बुजुर्गों को पढने के लिए प्रेरित करें और इस विषय पर अपने विचार एवं सुझाव भी भेजें. )  
मेरा   इमेल पता है ----satyasheel129@gmail.com   








 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

नोट बंदी मोदी जी का साहसिक कदम

{वर्तमान आर्थिक क्रांति के समय करंसी की कमी का कारण, रिजर्व बेंक की अपनी सीमायें है. रिजर्व बैंक एक सीमा तक ही नोट छापने की शक्ति रखता है. अतः जैसे जैसे जनता की पुरानी करंसी रिजर्व बेंक के पास पहुंचेगी उसे नोट छापने की शक्ति मिलती रहेगी और देश में करंसी की तरलता सामान्य होती जाएगी. अतः यह बात भी आम जनता को समझनी होगी की उनकी वर्तमान परेशानी का कारण योजनाकार नहीं हैं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अंतर्गत रिजर्व बैंक की सीमित शक्तियां हैं,और किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को विश्वस्निये बनाये रखने के लिए आवश्यक भी है, अन्यथा भारतीय रूपए की विश्वसनीयता घट जाएगी और देश की साख पर बट्टा लगेगा.अतः देश की जनता के लिए कठिन परीक्षा की घडी है.}
           गत आठ नवंबर 2016 को भारत सरकार द्वारा पांच सौ और हजार के नोट बंद कर देना, मोदी सरकार का बहुत ही बड़ा और साहसिक कदम है. इस मिशन को जिस प्रकार से योजना बद्ध तरीके से संपन्न किया गया वह अत्यंत सराहनीय कार्य है. मोदी जी की पूरी टीम बधाई की पात्र है, जिसने  इस योजना को पूर्णतयः गोपनीय रखते हुए राष्ट्र हित में कार्य किया.  जो न सिर्फ काला धन रखने वालों पर अंकुश लगायेगा बल्कि नकली मुद्रा छापने वालों,नशीली दवाओं का व्यापार करने वालो एवं आतंकी या अपराधिक  गतिविधियाँ करने वालों की नकेल कसने में सहायक सिद्ध होगा. अवैध(तस्करी इत्यादि) व्यापार करने वालों और हवाला कारोबारियों को भी हतोत्साहित करेगा.
         इस प्रकार के कदम आजादी के पश्चात् आने वाली सभी सरकारें उठा सकती थीं परन्तु राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव में संभव नहीं हो सका. यहाँ पर यह कहना असंगत  होगा की पहले कोई भी प्रधान मंत्री इस कदम को उठाना नहीं चाहता था. परन्तु इतना बड़ा कदम उठाने से पूर्व सभी सहयोगियों की सहमति आवश्यक होती है.यदि अधिकतर सहयोगी स्वयं भ्रष्ट हों और काले धन के मालिक हों तो वे अपनी सहमति देकर अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी कैसे मार सकते थे. अतः किसी भी सरकार के लिए संभव न हो सका की वह काले धन के विरुद्ध कदम उठा सके. जिस प्रकार से मोदी जी ने इस कार्य को गोपनीय रखते हुए अंजाम दिया वह उनकी साफ़ सुथरी एवं राष्ट्र भक्त टीम के कारण ही संभव हो पाया, और उससे सिद्ध होता है मोदी टीम कितनी ईमानदार और राष्ट्र को समर्पित टीम है,जिसने मोदी जी के पावन उद्देश्य को सफल बनाने में दिन रात जुट कर कार्य किया. यह कदम कोई जादुई चिराग नहीं था जिसे कभी भी सोचा तुरंत लागू कर दिया. यह कार्य अनेक महीनों या वर्षों तक योजनाबद्ध तरीके से किया गया कठिन परिश्रम का ही परिणाम है. हो सकता है गत वर्ष भारी संख्या में बैंक  अकाउंट खुलवाना भी इसी योजना का हिस्सा रही हो. जिसके अंतर्गत अभूतपूर्व रिकोर्ड करोड़ों की संख्या में अकाउंट खोले गए और देश के गरीब से गरीब व्यक्ति को अकाउंट खोलने के लिए प्रेरित किया गया.
         मोदी जी की इस आर्थिक क्रांति से देश को प्रत्येक मोर्चे पर आगे बढ़ने में सहायता मिलेगी देश से भ्रष्टाचार को मिटाने में मदद मिलेगी, देश को आतंक वाद से छुटकारा दिलाने में सहयोग प्राप्त होगा,सीमा पर बढ़ते जा रहे तनाव को घटाने में मदद मिलेगी, देश की युवा पीढ़ी को नशे की लत का शिकार बनाने वाले और नकली नोट छाप कर देश की अर्थव्यवस्था को  नेस्तनाबूद करने के इरादे रखने वाले देश के दुश्मनों की हरकतों पर लगाम लग सकेगी.सभी पार्टियों के नेता चुनाव के समय चुनाव जीतने और जनता को भ्रमित करने के लिए भारी मात्रा में काले धन का प्रयोग करते आ रहे हैं, अब उनके लिए ऐसा कर पाना असंभव हो जायेगा. विश्व में देश का सम्मान बढेगा, देश विकसित देशों के श्रेणी में शामिल होने के लिए तैयार हो सकेगा.
देश की जनता भी बधाई की पात्र
          मोदी जी के मिशन को कामयाब बनाने के लिए जिस प्रकार से जनता का सहयोग एवं समर्थन मिला  वह अभूतपूर्व है. छोटे से छोटा व्यक्ति भी मोदी जी के इस कदम से खुश है, और वह देश हित में वर्तमान असुविधा को झेलने के लिए प्रतिबद्ध है. आज मोदी जी के इस कदम से गरीब खुश है तो भ्रष्ट अमीर परेशान है, दुखी है. आम जनता यह समझती है मोदी जी के इस कदम से देश और समाज के विकास को गति मिलेगी,गरीबों की समस्याओं पर अंकुश लग सकेगा. उन्हें गरीबी, बेरोजगारी, अभावों की जिंदगी से निजात मिलेगी.अब देश की जनता को समझ आने लगा है, की सकारात्मक राजनीति और नकारात्मक राजनीति में क्या अंतर है. आजादी के पश्चात् जितने भी नेता आये सबने वायदे बढ चढ कर किये, परन्तु सत्ता प्राप्त करने के पश्चात् उनके  व्यवहार और कार्य ने जनता को निराश ही किया,उनकी नकारात्मक राजनीति ने देश का विकास कम, अपना और अपने परिवार का  विकास अधिक किया और विदेशों में जाकर अपनी तिजोरियां भरते चले गए. इस प्रकार नेताओं ने देश की जनता को येन केन प्रकारेण ठगने का प्रयास किया. दिल्ली में भ्रष्टाचार,अनाचार अत्याचार,अपराध,अन्याय के विरुद्ध लडाई करने का वादा करके आये, अरविन्द केजरीवाल की अप्रत्याशित जीत और मुख्य मंत्री बनने  के पश्चात् उनकी  कार्यशैली नवीनतम उदाहरण है. केजरीवाल की आप पार्टी के आधे से अधिक विधायक अपराधिक, अनैतिक कार्यों के लिए जिम्मेदार पाए गए. आज दिल्ली की जनता फिर से एक बार अपने को ठगा महसूस कर रही है.मोदी जी रूप में पहली बार देश को एक सकारात्मक  राजनीति करने वाला नेता मिला है.जिससे देश की जनता गद गद है,और विपक्षी दलों  के नेता सदमे में हैं.
एक बार मोदी जी ने स्वयं कहा है की समाज में एक नेता की छवि सर्वाधिक बदनाम रही  है,और मैं भी इसी बिरादरी का हिस्सा हूँ.
आर्थिक क्रांति के कदम से आम जनता हलकान;-
        मोदी जी  के क्रांतिकारी कदम से आम जनता के लिए अनेक प्रकार की परेशानियाँ उत्पन्न की है,यद्यपि आम जनता इन सब परेशानियों का डट कर सामना करने को तैयार है.परन्तु आम जन के समक्ष जिस प्रकार से समस्याएँ आ रही है शायद इन समस्याओं का आंकलन योजनाकारों ने भी नहीं किया होगा.करंसी की कमी ने सभी को हिला कर रख दिया है.
  1. विशेष तौर पर व्यापारी छोटा हो या बड़ा उसका व्यापार कुछ समय के लिए लगभग ख़त्म हो चुका है. उसकी साख दाव पर लग चुकी है. आज उसका माल नकदी के अभाव में उधार में जा रहा है. अतः उसे नया माल खरीदने के लिए धन का अभाव हो गया है और दुकान,गोदाम,शो रूम में वैराइटी बनाये रखना असंभव हो रहा है, उसकी बिक्री 10% तक रह गयी है.अनेक सर्राफों ने अपने शोरूम कुछ समय के लिए बंद रखना ठीक समझा है.
  2. जिनके परिवार में शादी तय हो चुकी है उनके लिए यह अप्रत्याशित घटना, अनेक समस्याएं लेकर आयी है,उनके लिए एन वक्त पर सारी व्यवस्था करना लगभग असम्भव हो गया है. यद्यपि सरकार ने शादी के घर वालों की सुविधा के लिए अलग से स्थानीय प्रशासन द्वारा  प्रमाणित कराने के पश्चात् पांच लाख रूपए तक निकालने की व्यवस्था की है.परन्तु अभी यह जानकारी बहुत कम लोगों को है और सरकार द्वारा कुछ देर से की गयी व्यवस्था है.
  3. जो खाताधारक बीमार हैं,वृद्ध हैं,या दिव्यांग हैं,और पंक्ति में लगने की क्षमता नहीं रखते उनके लिए यह आर्थिक क्रांति मुसीबत बन कर आयी है. अनेक लोगों के घरों में भोज्य पदार्थों का अभाव हो गया है, बीमार व्यक्ति के लिए दवा  खरीदना एक पहेली बन चुका है. यद्यपि मेडिकल स्टोर को पहले तीन दिन तक छूट दी गयी थी की वे पुरानी करंसी ले सकेंगे, जिसे बाद में फिर से तीन दिन के लिए बढ़ा दिया गया परन्तु जानकारी के अभाव में जनता परेशान रही.
  4. जो लोग भ्रमण पर निकले हैं उनके लिए अपने निवास तक लौटना परेशानी का सबब बन गया है, क्योंकि सभी भुगतान डेबिट कार्ड से करने के बावजूद,गंतव्य स्थान तक पहुँचने के लिए, किराया भाडा अदा करने के लिए, नकदी का होना आवश्यक है.
करंसी की कमी का कारण
         करंसी की कमी का कारण, रिजर्व बेंक की अपनी सीमायें है. रिजर्व बैंक एक सीमा तक ही नोट छापने की शक्ति रखता है. अतः जैसे जैसे जनता की पुरानी करंसी रिजर्व बेंक के पास पहुंचेगी उसे नोट छापने की शक्ति मिलती रहेगी और देश में करंसी की तरलता सामान्य होती जाएगी. अतः यह बात भी आम जनता को समझनी होगी की उनकी वर्तमान परेशानी का कारण योजनाकार नहीं हैं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अंतर्गत रिजर्व बैंक की सीमित शक्तियां हैं,और किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को विश्वस्निये बनाये रखने के लिए आवश्यक भी है, अन्यथा भारतीय रूपए की विश्वसनीयता घट जाएगी और देश की साख पर बट्टा लगेगा.अतः देश की जनता के लिए कठिन परीक्षा की घडी है.
जरा सोचिये.
यहाँ पर यह सोचना भी आवश्यक है की देश हित में उठाये गए कदम से जनता को होने वाली परेशानियां  क्या
1,उससे भी अधिक है, जब देश किसी युद्ध की स्थिति से गुजरता है,या गुजर सकता है और आजकल तो परमाणु हमले का खतरा भी बना रहता है.
२,उससे भी अधिक है,जब देश के काले धन से पलने वाले आतंकियों द्वारा आम जनता हमले का शिकार होती है, और मुम्बई जैसे हमलों में सैंकड़ो निर्दोष लोगो की जाने चली जाती है.
3उससे भी अधिक है,जब चंद षड्यंत्रकारी अपराधी नकली नोट छाप के देश की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दें और हमें एक ब्रेड ख़रीदने के लिए भी थैले भर कर नोट ले जाने पड़े और हमें ब्रेड उपलब्ध न हो पाए.अर्थात हमारे रूपए की कीमत लगभग शून्य हो जाय.
४, उससे भी भयंकर है,जब नशे के व्यापारी अपनी कमाई के लिए हमारे बच्चों,हमारे युवाओं को ड्रग्स के नशे में धकेल कर उनका और उनके परिवार का जीवन अँधेरे में धकेल दें.
,उससे भी अधिक कष्टकारी है जब अवैध धन से खरीदे गए हथियारों से सीमा पर हमारे जवान शहीद होते रहें, ये जवान भी हमारे समाज का ही अंग हैं, हमारे अपने ही हैं.
उपरोक्त समस्त बातों पर ध्यान दिया जाय तो जनता की वर्तमान आर्थिक क्रांति से होने वाली कुछ समय की परेशानियां बहुत कम दिखाई देने लगेंगी. देश हित और समाज कल्याण के लिए सरकार का सहयोग करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है. जो लोग परेशान हैं उनकी सहायता कर उन्हें समस्या से निकालना प्रत्येक सक्षम व्यक्ति के लिए पुन्य का कार्य होगा. (SA-199D)

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

क्यों न मनाएं शालीनता से दिवाली?

  {मनोरंजन के  नाम पर भारी  आतिशबाजी कर अपनी गाढ़ी कमाई को नष्ट तो करते ही हैं, साथ ही अपने जीवन और स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ करते हैं. आतिश बाजी  से  होने वाली दुर्घटनाओं के कारण  ही हर दीवाली पर अनेक लोगों की आँखों की ज्योति हमेशा के लिए चली जाती है या आग की लपटों में जल कर भयंकर कष्ट झेलने को मजबूर हो जाते हैं.यदि आग ने विकराल रूप धारण कर लिया तो घर बार दुकान इत्यादि को भारी नुकसान उठाना पड़ता है.}

       धर्मों के उद्भव काल में इंसान के मनोरंजन के साधन सीमित होते थे। अतः धर्माधिकारियों ने इंसान को कार्य की निरंतरता और कार्य की एकरूपता की ऊब से मुक्ति दिलाकर प्रसन्नता के क्षण उपलब्ध कराये, ताकि मानव अपने समाज में सामूहिक रूप से परिजनों और मित्र गणों के साथ कुछ समय सुखद पलों के रूप में बिता सके। त्यौहारों, उत्सवों के रूप में मनाकर  मानव गतिविधि को एक तरफ तो अपने इष्टदेव की ओर आकृष्ट किया गया  (पूजा-अर्चना-नमाज,प्रेयर आदि) तो दूसरी ओर अनेक पकवानों का प्रावधान कर, मेल-जोल की परम्परा देकर मानव जीवन में उत्साह का संचार किया गया। जिसने आमजन में फिर से कार्य करने की क्षमता वृद्धि की और मानसिक प्रसन्नता से जीने की लालसा बढ़ी। अनेक धार्मिक मेलों का आयोजन कर बच्चों, बड़ों का विभिन्न क्रियाकलापों द्वारा मनोरंजन किया गया। पहले त्यौहार आने की खुशी मानव को सुखद अनुभूति कराती है तो बाद में त्यौहारों से जुड़ी यादें उसे कार्यकाल के दौरान भी उत्साहित करती रहती हैं। साथ ही अपने इष्ट देव से सम्बद्ध होने का अवसर भी मिलता है।
      विश्व में विद्यमान प्रत्येक धर्म में पर्व मनाये जाते हैं, जैसे हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से दिवाली, होली, रक्षाबन्धन आदि, मुस्लिम धर्म में ईद-उल-फितर, ईद-उल-जुहा, ईसाई धर्म में मुख्यतः त्यौहार क्रिसमस, सिख धर्म में गुरु पूरब, लोहड़ी, बैसाखी इत्यादि इनके  अतिरिक्त हमारे देश में कुछ क्षेत्रीय त्यौहार भी मनाये जाते हैं जैसे महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी, बंगाल में दुर्गा पूजा, केरल में ओणम, तमिलनाडू में पोंगल,  असम में बीहू आदि त्यौहारों की लम्बी लिस्ट है. तात्पर्य यह है अलग-अलग देशों,अलग अलग क्षेत्रों  में, विद्यमान अलग-अलग धर्म एवं मान्यताओं के अनुसार,समय समय पर सदियो से विभिन्न त्यौहार मनाये जाते रहे हैं।
       हिन्दुओं के त्योहारों में दीपावली के त्यौहार का महत्त्व सर्वाधिक होता है,इस त्यौहार के माह को ही उत्सव माह माना जाता है.इस त्यौहार पर जनता का उत्साह अद्वितीय होता है, यही कारण है मात्र इस त्यौहार के कारण ही अनेक उद्योगों में अपने उत्पादन बढाने के लिए महीनों पूर्व तैय्यारी प्रारंभ कर दी जाती हैं. इस अवसर पर अनेक कंपनियां ग्राहकों को लुभाने के लिए नयी नयी स्कीम लाती हैं.इस त्यौहार पर प्रत्येक हिन्दू नागरिक अपनी क्षमता के अनुसार अपने घरों,दुकानों,वाणिज्य प्रतिष्ठानों को साफ़ सुथरा करता है,रंग रोगन कराता है और फिर सजाता है और नयी नयी वस्तुओं की खरीदारी कर अपने परिवार की खुशियों में वृद्धि करता है. यदि इस पर्व को शुचिता का पर्व कहा जाय तो गलत न होगा. सभी लोग अपने संगी साथियों परिजनों को उपहार  देकर उन्हें अपनी प्रसन्नता में शामिल करते हैं.व्यापारी अपने ग्राहकों को अनेक उपहार देकर अपने व्यापार को नयी ऊँचाइयाँ प्रदान करने का प्रयास करते हैं.
       दीपावली के दिन लक्ष्मी की पूजा के अतिरिक्त अनेक प्रकार के मिष्ठान एवं पकवानों का उपभोग कर पर्व का आनंद लिया जाता है, साथ ही अनेक प्रकार की आतिशबाजी कर मनोरंजन किया जाता है और रौशनी से पूरे घर को सजाया जाता है, जो प्रत्येक व्यक्ति के उत्साह को दोगुना कर देता है.यद्यपि आतिशबाजी अर्थात पटाखों का उपयोग करना वर्तमान परिस्थितियों में अप्रासंगिक है.जहाँ हम बढती आबादी घटते जंगलों और कारखानों,वाहनों  द्वारा किया जा रहे प्रदूषण से नित्य प्रति अनेक रोगों को आमंत्रित कर रहे हैं,और अनेक प्राकृतिक आपदाओं को झेल रहे हैं,ऐसे वातावरण में मनोरंजन के  नाम पर भारी  आतिशबाजी कर अपनी गाढ़ी कमाई को नष्ट तो करते ही हैं, साथ ही अपने जीवन और स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ करते हैं. आतिश बाजी  से  होने वाली दुर्घटनाओं के कारण  ही हर दीवाली पर अनेक लोगों की आँखों की ज्योति हमेशा के लिए चली जाती है या आग की लपटों में जल कर भयंकर कष्ट झेलने को मजबूर हो जाते हैं.यदि आग ने विकराल रूप धारण कर लिया तो घर बार दुकान इत्यादि को भारी नुकसान उठाना पड़ता है. आतिशबाजी के कारण ही दीपावली के दिन इतना अधिक प्रदूषण हो जाता है की इन्सान के लिए साँस लेना भी दुष्कर हो जाता है,शोर शराबे से ध्वनी प्रदूषण अपनी सभी सीमायें पार कर लेता है. क्या ही अच्छा हो यदि हम इस ख़ुशी के अवसर पर,इस वर्ष अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए पटाखों के उपयोग पर लगाम लगायें, सीमित करें,एक निश्चित समय तक ही इनका आनंद लें, देर रात तक आतिशबाजी करना बच्चों, बूढों और रोगियों के लिए कष्टदायक हो जाता है. संयमित आतिशबाजी से बचे हुए धन को कही अधिक उपयोगी कार्यों पर लगायें या फिर किसी गरीब परिवार का भला करें,उसके घर को रोशन करें.उसके घर को दीवाली की खुशियों से भर दें. इस प्रकार से त्यौहार का आनंद और अधिक बढ़ जायेगा.इस त्यौहार पर एक और विसंगति है कुछ लोग इस पावन पर्व पर जुआ खेलने को महत्वपूर्ण मानते हैं,यह तो निश्चित है जुआ खेलने वाले सभी लोग जीत नहीं सकते. अतः जुआ खेलने वाले अनेक लोग दिवाली पर अपना दिवाला निश्चित कर लेते है और जीवन भर अभिशाप झेलते हैं.इसी प्रकार नशे की वस्तुओं का प्रयोग भी त्यौहार की गरिमा को कम करता है. ख़ुशी का त्यौहार सुखद यादें छोड़ कर जाए यही हमारा मकसद होना चाहिए अतः जुआ जैसी बुराई से दूर रह संभावित विनाश से बच सकते हैं. अतः त्यौहार की खुशिया मनाये,स्वयं सुरक्षित रहें अपने परिवार और समाज की सुरक्षा का भी ध्यान रखें,सीमा में रह कर किया गया खर्च आपको शेष माह को खुशहाल रखेगा.      
     आज के वातावरण में (उन्नतिशील समाज) जब अनेकों मनोरंजन के साधन विकसित हो चुके हैं, नये नये खान-पान मानव जीवन में जुड़ गये हैं। उनकी हर समय सुलभता बढ़ गयी है। सामूहिक भावना का अभाव हो गया है, मनुष्य आत्म केन्द्रित होता जा रहा है। अतः त्यौहारों का महत्व अप्रासंगिक होता जा रहा है। क्योंकि यदि आज आपके पास धन है तो रोज दीवाली मना सकते है पूरे वर्ष सभी वस्तुएं और सुवधाएँ उपलब्ध हैं.फिर कोई त्यौहार की प्रतीक्षा क्यों करे. वर्तमान में त्यौहारों में उत्साह में निरंतर हो रही कमी इस बात का प्रमाण है। अब त्यौहार मनाना प्रतीकात्मक अधिक होता जा रहा है.(SA-179C)

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

अन्याय का शिकार भारतीय किसान

   गत बीस वर्षों में करीब सवा तीन लाख किसानों ने देश के विभिन्न हिस्सों में आत्महत्या की है, जिनमे मुख्यतः उ.प्र., हरियाणा, म.प्र., पंजाब, महाराष्ट्र राज्यों में अधिकतर आत्महत्या की घटनाएँ हुई हैं. अक्सर बेमौसम वर्षा ,ओला वृष्टि,सूखा के कारण किसानों की फसल चौपट होती रहती है और किसानों के जीवन को प्रभावित करती रहती हैं. सबसे आश्चर्य जनक बात यह है की अनेक पिछड़े राज्यों को छोड़ भी दिया जाय तो भी पंजाब जैसे समृद्ध और सर्वाधिक उपजाऊ भूमि के प्रदेश में भी किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं.जहाँ 2000 से 2010 तक कुल पांच हजार किसानों  ने आत्महत्या की है. आत्महत्या करने वाले पीड़ित किसानों से भटिंडा, संगरूर, मनसा,जैसे जिले विशेष रूप से प्रभावित हैं. अन्य गरीब अविकसित,या अपेक्षाकृत कम विकसित प्रदेशों की स्थिति कितनी भयावह होगी इसे सहज ही समझा जा सकता है. विडंबना यह है की एक ओर अन्नदाता आत्महत्या करने को मजबूर हो रहा है अर्थात उसके पास अपने परिवार का पेट भरने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं है तो दूसरी और प्रति वर्ष हजारों करोड़ रूपए का खाद्यान्न सरकारी गोदामों में सड़ कर नष्ट हो जाता है. खाद्यान्न के रख रखाव और वितरण व्यवस्था में लापरवाही के कारण आज भी देश में बीस करोड़ से अधिक लोगों को दो समय का भोजन सिर्फ सपनों में ही उपलब्ध है अर्थात उन्हें भूखे रहना पड़ता है.  
  हमारे देश की विडंबना है की आजादी के सात दशक पश्चात् भी किसानो की समस्याओं का वास्तविक समाधान नहीं निकाला जा सका, ताकि उन्हें अपनी पैदावार का भरपूर लाभ मिल सके.और वह अपने को अन्नदाता बताकर शान से समृद्ध जीवन जी सके. देश को आजादी मिलने के पश्चात् देश की सत्ता पर अनेक राजनैतिक दलों की सरकारें सत्तासीन होती रही,परन्तु किसानों की समस्याओं को गभीरता से न तो समझा गया और न ही उनके जीवन को आसान बनाने के सार्थक  प्रयास किये गए. यद्यपि ऐसा नहीं है की किसानों के हित में कुछ नहीं किया गया ,किसानों और खेती बाड़ी को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक प्रकार की सरकारी छूट प्रदान की गयी जैसे बिजली,पानी, खाद, बीज, कीटनाशक सभी खेती सम्बंधित आवश्यकताओं को रियायती मूल्यों पर उपलब्ध करायी गयीं, कृषि सम्बन्धी सभी उपकरणों को भी विशेष छूट के अंतर्गत रखा गया और तो और एक अकेला खेती बाड़ी ही ऐसा  क्षेत्र है जिससे होने वाली आय को आय कर मुक्त रखा गया, समय समय पर किसानों के कर्ज भी माफ़ किये गए. परन्तु जो भी कदम  किसानों के हित में उठाये गए सभी उपाय अल्पकालिक लाभकारी बन कर रह गए और समय के बदलाव के साथ सभी उपाय नाकाफी सिद्ध हुए.
      जब देश को आजादी प्राप्त हुई थी देश की जी.डी.पी.में कृषि का योगदान 55% था जो वर्तमान में घटकर मात्र 15% ही रह गया है जबकि आबादी बढ़ने के कारण कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या 24 करोड़ से बढ़कर 72 करोड़ हो गयी,और खेती की जमीन बंटती गयी. अतः कृषि उत्पादकता में अप्रत्याशित बढ़ोतरी के बावजूद कृषि पर निर्भर रहने वाले लोगों की प्रति व्यक्ति आय घट गयी. बढती बेरोजगारी और अशिक्षा या अल्प शिक्षा के कारण किसानों के पास अन्य कोई रोजगार करने या नौकरी करने की योग्यता भी नहीं है. अतः उन्हें कृषि पर निर्भर रहना उनकी मजबूरी बन जाती है.छोटे किसान के लिए अपनी आजीविका चला पाना कठिन होता जा रहा है.
       कोई भी व्यक्ति यों ही अपनी जीवन लीला को समाप्त नहीं कर देता.कोई न कोई असाधारण मजबूरी ही उसे इस घ्रणित कार्य करने को प्रेरित करती है,जिसे गंभीरता से समझना होगा आखिर वे कौन से कारण बन रहे हैं जो पंजाब जैसे समृद्ध राज्य के किसानों को आत्महत्या करने को मजबूर कर रहा है. सिर्फ फसल ख़राब होने पर ही किसान व्यथित नहीं होता, यदि फसल की बम्पर पैदावार होती है तो भी किसान को लागत मूल्य मिलना संभव नहीं हो पाता, उसे मजबूरी वश अपनी कठिन परिश्रम से उगाई फसल को कौडी के दाम में बेचना पड़ता है. और लाभ व्यापारी या बिचौलिया उठाते हैं. किसानों को अपनी लागत मूल्य के अनुसार उचित कीमत नहीं मिल पाती, जिसके कारण उनकी आर्थिक स्थिति नहीं सुधर पाती और अक्सर घर के विशेष कार्यों जैसे शादी विवाह, बीमारी, मकान की मरम्मत या अन्य कोई मांगलिक कार्यों के लिए खर्चे करने के लिए कर्ज  का सहारा लेने को मजबूर होना पड़ता है.और किसान के लिए यह कर्ज एवं ब्याज चुकाना उसकी जिन्दगी भर के लिए नियति बन जाती है,और परिवार में उधार की अर्थव्यवस्था चलती रहती है.परन्तु स्थिति जब ख़राब होती है जब मौसम की मार के कारण अथवा किसी अन्य कारण से फसल ख़राब हो जाती है.उसके लिए कर्ज की नियमित किश्त चुकाना असम्भव हो जाता है, यदि दुर्भाग्य वश अगले वर्ष भी फसल ख़राब हो जाती है तो कर्ज दार को आश्वस्त करना भी मुशिकल हो जाता है और उसके अत्याचार शुरू हो जाते हैं.यही तनाव असहनीय होने पर किसान को आत्महत्या की मजबूरी तक ले जाता है.
किसान की फसल का विश्लेषण  
  हमारे देश में हर वर्ष सरकार को प्रति वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना होता है जिस मूल्य पर वह किसानों से खरीद करती है और किसानों को समर्थन मूल्य से नीचे जाकर अपनी पैदावार को नहीं बेचना पड़ता. सरकार द्वारा यह उपाय किसान को व्यापारियों के शोषण से बचाने के लिए किया जाता है. परन्तु सरकार द्वारा निश्चित किया गया समर्थन मूल्य ही किसानों की दयनीय स्थिति के लिए जिम्मेदार भी है. सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य ही वर्तमान में प्रचलित मूल्यों के अनुरूप नहीं होते और किसान के साथ न्याय नहीं हो पाता.
      यहाँ पर गेहू का उदाहरण लेकर समझने  का प्रयास करते हैं,1970 में  गेहूं का समर्थन मूल्य 76/-प्रति क्विंटल था और 2015 के समर्थन मूल्य की बात करें तो, 1976 के समर्थन मूल्य का करीब उन्नीस गुना यानि 1450/ प्रति क्विंटल था.  जो बढती महंगाई और बढ़ते लागत मूल्य के अनुसार बिलकुल भी न्याय संगत नहीं बैठता सरकारी क्षेत्र में इस दौरान आम वेतन वृद्धि कम से कम 120 से 150 गुना तक बढ़ाये गए हैं जबकि स्कूल शिक्षक का वेतन तो 280 से 320 गुना तक बढाया गया है. सातवें वेतन योग के अनुसार एक सरकारी चपरासी का वेतन 18000/प्रति माह निर्धारित किया गया है कृषि लागत और मूल्य आयोग के अनुसार(C.A.C.P.) Commission for Agricultural Costs and Pricesगेहूं और चावल पैदावार से किसान को तीन हजार रूपए प्रति हेक्टर की आय होती है जो कम(पांच हेक्टर से कम ) रकबे वाले किसानों के लिए,पंद्रह हजार रूपए की आय वह भी छः माह में किसान के जीवन यापन करने के लिए अप्रयाप्त है,इस प्रकार से उन्हें अपनी मजदूरी भी नसीब नहीं होती.यदि उनकी मजदूरी दस  हजार प्रति माह भी मान ली जाये (यद्यपि सरकारी चपरासी की मासिक आय अट्ठारह माह निर्धारित की गयी है) तो उसे अपनी फसल पर कुल आमदनी साठ हजार होनी चाहिए. जबकि किसान के लिए तो उक्त आमदनी भी संभव नही होती, यदि फसल पर मौसम की मार पड़ जाय. फसल ख़राब हो जाने के पश्चात् छोटे रकबे वाले,एक या दो फसल पर निर्भर किसान के लिए कर्ज चुकाना तो असंभव ही होता है. उत्पादकता की नजर से देखा जाय तो  भारतीय किसान की उत्पादकता अमेरिकी किसान से भी अधिक है, फिर भी भारतीय किसान आत्महत्या कर रहा है.जो यह सिद्ध  करता है की किसान को उसकी पैदावार पर उसके परिश्रम का उचित प्रतिफल नहीं मिल पाता.
     किसानों के साथ सिर्फ अनाज की पैदावार के साथ ही नहीं होता प्याज,आलू,टमाटर,की बम्पर पैदावार और बम्पर खपत वाली फसलों के साथ भी यही हश्र होता है. यदि फसल ख़राब होती  है तो मुनाफा  बिचौलिया खाता है,यदि पैदावार अधिक होती है तो किसान को लागत मूल्य भी नहीं मिलता उसे कौड़ी के दाम फसल को बेचना पड़ता है . प्याज की फसल का उदहारण लिया जाय तो एक एकड़ रकबे में प्याज की खेती के लिए करीब चार किलो बीज की आवश्यकता होती है इस बीज का दाम इस समय 2500/प्रति किलो है अर्थात प्रति एकड़ बीज का खर्च 10000/ और चार माह किसान का श्रम, के अतिरिक्त,सिंचाई,जुताई,बुआई,रसायन इत्यादि मिला कर लगत छः रूपए किलो बैठती है. जिसका थोक भाव आठ से दस रूपए प्रति किलो मिलता है. परन्तु यदि पैदावार बम्पर मात्रा में हो जाय तो किसान को लागत मिल पाना मुश्किल हो जाता है कभी कभी तो लगता है, किसान  को फसल बर्वाद होना इतना कष्टदायक नहीं होता जितना  बम्पर पैदावार होने पर जब उसे लागत मूल्य से भी नीचे अपनी पैदावार को बेचना पड़ता है.
    आजादी के सात दशक पश्चात् यह विदित हो चुका है प्रत्येक सरकार सिर्फ सरकारी कर्मचारियों की हितैषी है.शायद सरकारी कर्मियों के  देश व्यापी प्रभावी संगठनों के दबाव में सरकार को अप्रत्याशित वेतन वृद्धि को मजबूर होना पड़ता है. या  यह कहें की  हमारे देश की राजनैतिक संरचना इस प्रकार की है की जहाँ सरकारी कर्मचारियों के लिए ही सोचा जाता है, देश के अन्य कारोबारी जैसे छोटे दुकानदार,छोटे उद्यमी,छोटे किसान,या स्वयम्भू व्यवसायी के लिए कभी भी कोई कारगर योजना नहीं बनायीं जाती. जबकि सरकारी राजकोष को भरने में इन सबका ही मुख्य योगदान होता है. जब तक वे कारोबार करते हैं लाभ कमाते हैं तो सरकार अनेक प्रकार के टेक्स उनसे बसूलती है परन्तु जब ये विपदा में होते हैं तो सरकार के पास इनके भोजन की व्यवस्था करने के लिए कोई योजना नहीं होती जबकि सरकारी सेवा ने निवृत कर्मचारियों को पेंशन के नाम पर सभी सुख सुविधाएँ जुटा दी जाती है, उन्हें चिकित्सा की विशेष सुविधा अलग से प्राप्त होती है.क्या सरकार का कर्तव्य अपने कर्मचारियों तक ही सीमित है.देश में स्व कारोबरी देश का नागरिक नहीं है या सरकार की जिम्मेदारी उसके कर्मचारियों तक ही सीमित है.जनता से बसूले गए टेक्स पर जनता के सभी वर्गों का सामान रूप से हक़ बनता है. आज देश में हजारो किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं क्यों? क्या वे किसान है यही उनकी त्रुटी है जो किसान अपने अथाह श्रम से जनता का पेट भरता है, वही किसान आत्महत्या करने को मजबूर होता है. क्या यही देश की स्वतंत्रता की वास्तविकता है. 
कुछ संभावित उपाय
1.किसानों को अधिक से अधिक शिक्षित करने के उपाय किये जाएँ ताकि वे अपनी फसल उगाने में नयी से नयी तकनीक को इस्तेमाल कर सकें और आवश्यकतानुसार किसी अन्य कार्य या नौकरी का विकल्प भी खोज सकें.
2,कृषि से मिलते जुलते अन्य कार्यों की ओर उन्मुख किया जाय जैसे मुर्गी पालन,मछली पालन,दुग्ध उत्पादन या कृषि उपकरणों के रखरखाव के लिए वर्कशॉप, कृषि उपकरणों का उत्पादन इत्यादि.
3,दो, चार या अधिक गाँव के किसान एक ग्रुप बनाकर स्वयं अपने उत्पाद को सीधे उपभोक्ता को बेचने की व्यवस्था करें ताकि बिचौलियों से बचा जाय और कृषि उत्पादों का अधिक मूल्य मिल सके.
4,किसानों को अपने उत्पाद को खाद्य प्रसंस्करण द्वारा संरक्षित करें और अपने उत्पाद का अधिक लाभ प्राप्त कर सकें जैसे टमाटर उत्पादक यदि स्वयम  टोमेटो सौस या प्यूरी बनाये तो उन्हें और उनके साथी किसानों को फसल का अधिक मूल्य मिल सकता है. आलू के चिप्स बनाने के प्लांट अपने गाँव में ही लगाये. जैसे गन्ने से गुड प्रत्येक गाँव में ही बनता है.और किसान के लिए विकल्प खुला होता है की वह गन्ना मिलों को दे या गुड उत्पादक इकाइयों को.
5, मनरेगा (MNREGA MEANS "Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act") जैसी सरकारी योजनायें भी कारगर हो सकती हैं यदि उसमे व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त कर दिया जाय.इस योजना में पारदर्शिता लायी जाय.

       आज स्थिति यह हो गयी है जो वर्ग संगठित है अपनी आवाज को जोरदार ढंग से बुलंद कर सकता है,धनवान है ,बलशाली है या प्रभाव शाली है उसकी ही सुनवाई होती है उसके लिए ही सरकार अपनी नीतियाँ बनाती आई है.परिणाम स्वरूप एक गरीब किसान हो या छोटा व्यापारी या छोटा उद्यमी अथवा अन्य कोई कारोबारी वह सिर्फ सरकार के खजाने को भरने के लिए पैदा हुआ है सुविधा के नाम पर उसे आत्महत्या ही मिलती है. कारोबारी हो या किसान वे अपने कार्यकाल के दौरान होने वाले घाटे के समय उसकी जीविका की कोई व्यवस्था नहीं हो पाती, कार्यकाल के पश्चात् तो पेंशन के लिए सोचना तो उनके लिए दिवास्वप्न के समान है.(SA-198E)  

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

हमारी पाक रणनीति की विसंगतियां

यों तो भारत-पाक विभाजन के बाद से ही पाकिस्तान ने कभी भी अपना दुश्मनी पूर्ण रवैय्या नहीं छोड़ा. गत सत्तर वर्षों में उसने सभी प्रपंच कर हमारे देश के समक्ष चुनौतियां प्रस्तुत की. यद्यपि भारत ने अनेक बार उसे भयानक रूप से हार का मुहं देखने को विवश किया.1965 की इंडो-पाक युद्ध में पाक सेना के दांत खट्टे किये और उसके बहुत बड़े इलाके पर भारत ने कब्ज़ा जमा लिया. यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे भारत को अपना जीता इलाका पाक को लौटना पड़ा.परन्तु पाकिस्तान को उसकी औकात बताने के लिए यह युद्ध एक उदहारण था. तत्पश्चात 1971 में पाकिस्तान अपने क्रियाकलापों के कारण  दो देशों अर्थात पाक और बंगला देश(पूर्वी पाकिस्तान) में विभक्त हो गया. उस घटना के दौरान भी पाक सेना को भारत के सैन्य बलों से टकराना पड़ा और शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा, जब उसके नब्बे हजार से अधिक सैनिकों  को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर होना पड़ा. और यह समय भारत के इतिहास का गौरव बन गया. देश वासियों को लगा था पाकिस्तान से मिलने वाला तनाव समाप्त हो जायेगा,परन्तु जिस देश के डी एन ए में नफरत ही लिखी हो उसे समय समय पर सबक सिखाते रहना आवश्यक होता है.तत्पश्चात भी पाकिस्तान छद्म युद्ध कर(आतंक वाद के सहारे) हमारे को को अस्थिर करने का प्रयास  करता रहा है.देश को 1999 में एक बार फिर कारगिल युद्ध का सामना करना पड़ा और विदेशी सेनाओ को खदेड़ना पड़ा.  ऐसे कुटिल प्रवृति वाले  पडोसी देश से  शांति वार्ता करना या उससे उदार व्यव्हार करना किसी भी तरह से तर्कसंगत नहीं माना  जा सकता. इसी कारण हमारे देश की पाक रणनीति में व्याप्त उदारता कदापि उचित नहीं लगती
 कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं---
1.        भारत सरकार ने पाकिस्तान को “सर्वाधिक अनुग्रहीत राष्ट्र” अर्थात ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ का दर्जा दे रखा है,आखिर क्यों? जो देश आतंक वाद का निर्यात कर समय समय पर  हमें जख्म देता रहता है,अपने आतंकी हमलों द्वारा बेगुनाह देश वासियों  का खून बहाता रहता है,कश्मीर को आतंकवाद का पर्याय बनके रखा है वहां का जनजीवन अस्तव्यस्त कर दिया है वहां की अर्थव्यवस्था को प्रगति की रह में रोड़ा साबित हो रहा है.ऐसे पडोसी देश को ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है 
2.        जो पडोसी देश दुश्मनी की सभी हदे पार कर चुका हो और निरंतर नापाक हरकतें करता रहता हो उससे    व्यापारिक या राजनैतिक सम्बन्ध कायम कैसे और क्यों रखे जा सकते है? ऐसा देश किसी प्रकार से राजनयिक सम्बन्ध रखने योग्य नहीं हो सकता. उससे सभी प्रकार के राजनैतिक संबंधों का विच्छेद कर लेना चाहिए.और व्यापारिक संबंधों को विराम लगा देना चाहिए.
3.        भारत सरकार ने दोनों देशो के बीच सद्भावना रेल और बस यात्रा की अनुमति दे रखी है क्या यह उचित मानी जा सकती है? जिस देश से हर समय आतंकी खतरा बना रहता हो उस देश से आवागमन जारी रखना अपनी सुरक्षा को खतरे में डालने जैसा ही है. आतंकीयों  के प्रवेश की संभावनाएं भी प्रबल होती हैं.
4.         1960 में किये गए पाकिस्तान से सिन्धु नदी का जल के बटवारे  से सम्बंधित समझौता भी कायम रखना कितना उचित है? 1960 के पश्चात् अनेकों युद्ध इस देश के साथ लड़े गए,फिर भी हमारा देश समझौते का पालन करता रहा और पाकिस्तान की धरती की प्यास बुझाता रहा आखिर क्यों? कहते है युद्ध में सब कुछ जायज है, अतः हमें भी कड़ा कदम उठाते हुए सिन्धु नदी के पानी को रोक देना चाहिए था. पाकिस्तान बहुत शीघ्र ही अपनी हरकतों से बाज आ सकता था. हो सकता है हमारे देश के इस कदम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ विरोध का सामना करना पड़ता परन्तु अपने देश में सुख शांति बनाये रखने के लिए कुछ देशों की नाराजगी भी सहन की जा सकती है. मजेदार बात यह भी है की समझौते के अनुसार भी भारत ने अपने हक़ का सदुपयोग नहीं किया. यदि अपने हिस्से के जल का भी उचित उपयोग किया गया होता तो भी पाकिस्तान के लिए कष्टदायक साबित होता और पाकिस्तान की खेतीबारी प्रभावित होती.   
5.        कश्मीरी अलगाववादी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी जो हुर्रिअत कांफ्रेंस का नेता है,और यासीन मालिक जो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का चेयरमेन है [Chairman of Jammu Kashmir Liberation Front (J.K.L.F.)]. जैसे अनेक अलगाव वादी नेताओं की सुरक्षा पर भारत सरकार करोड़ों रूपए करती है.गत माह बी.जे.पी.सांसद अजात शत्रु ने सदन में दावा किया की भारत सरकार ने गत पांच वर्षों में 560 करोड़ रूपए अलगाव वादियों की सुरक्षा और आवागमन पर खर्च किये परन्तु क्यों?  देश के विरुद्ध प्रचार करने वाले, या शत्रु देश से हाथ मिलाने वाले नेताओं  की सुरक्षा पर भारत सरकार द्वारा करोड़ों रूपए खर्च् करना कितना तर्कसंगत है?

उपरोक्त सभी उदहारण सिद्ध करते है हमारे देश की सरकारे पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की समस्या को लेकर कितनी गंभीर रही हैं? और पाकिस्तान भारत की उदारता का शत्रुता से उत्तर देता रहा है.अब समय आ गया है की पाकिस्तान को उसकी औकात बताई जाय.(SA-197B)



बुधवार, 14 सितंबर 2016

क्या हिंदी देश की सर्वमान्य भाषा बन पायेगी?

 सैंकड़ो  वर्ष पूर्व जब अंग्रेजों  ने हमारे देश पर शासन स्थापित कर लिया , तो उन्हें शासकीय कामकाज के लिए  क्लर्क तथा अन्य छोटे स्टाफ की आवश्यकता थी,जो अंग्रेजी में कार्य कर उन्हें सरकारी कामकाज में  मदद कर सकें। उन दिनों देश में शिक्षा का प्रचार प्रसार बहुत कम था. अतः उन्होंने अपनी  स्वार्थपूर्ती  के लिए अनेक स्कूलों  की स्थापना की. जिसमें सिर्फ अंग्रेजी की पढाई पर विशेष ध्यान दिया गया. स्थानीय भाषाओँ एवं हिंदी या अन्य विषयों की पढाई  पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. अतः जन मानस में शिक्षित होने का अर्थ हो गया,जो अंग्रेजी का ज्ञाता हो,अंग्रेजी धारा प्रवाह  बोल सकता हो वही व्यक्ति शिक्षित है.यदि कोई व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जनता, तो उसका अन्य विषयों में ज्ञान होना, महत्वहीन हो गया, यही मानसिकता आजादी के करीब सत्तर वर्ष  पश्चात् आज भी बनी हुई है.
वैश्विकरण के वर्तमान युग में हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का, अंतर्राष्ट्रीय  भाषा  होने के कारण दबदबा बढ़ता जा रहा है, यह एक कडवा सच है की आज यदि विश्व स्तर पर अपने अस्तित्व को बनाये रखना है और विकास  की दौड़ में शामिल होना है ,तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा  अंग्रेजी  से विरक्त होकर आगे बढ़ना संभव नहीं है. देश  में  स्थापित  अनेक  विदेशी  कम्पनियों  में  रोजगार  पाने  के  लिए   अंग्रेजी पढना समझना आवश्यक हो गया है,साथ ही दुनिया के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखना जरूरी है.परन्तु  अंग्रेजी  के  साथ  साथ  हिंदी  के  महत्त्व   को  भी  नहीं  नाकारा  जा  सकता .राष्ट्र  भाषा  के  रूप  में  हिंदी  के  विकास  के  बिना  दुनिया  में  देश  की  पहचान  नहीं  बन  सकती  .राष्ट्रभाषा हिंदी  ही  देश  को  एक  सूत्र  में   बांधने   का  कार्य  कर  सकती  है.
असली समस्या जब आती है जब हम अपने अंग्रेजी  प्रेम के लिए अपनी मात्र भाषा या राष्ट्र भाषा की उपेक्षा  करने लगते हैं.यहाँ  तक की अहिन्दी भाषियों द्वारा ही नहीं बल्कि हिंदी भाषियों द्वारा भी हिंदी को एवं  हिंदी में वार्तालाप करने वालों को हिकारत की दृष्टि से देखते हैं ,उन्हें पिछड़ा हुआ या अशिक्षित समझते है.सभी सरकारी विभागों जैसे पुलिस विभाग,बैंक,बिजली दफ्तर,आर टी ओ इत्यादि में अंग्रेजी बोलने वाले को विशेष प्रमुखता  दी जाती है,जबकि हिंदी में बात करने वाले को लो प्रोफाइल का मान कर उपेक्षित  व्यव्हार किया जाता है.यह व्यव्हार हमारी गुलामी मानसिकता को दर्शाता  है. जो  अपने देश के साथ अन्याय है,अपनी राष्ट्र भाषा का अपमान है. क्या हिंदी भाषी व्यक्ति विद्वान् नहीं हो सकता? क्या सभी अंग्रेजी के जानकार बुद्धिमान  होते हैं.?सिर्फ  भाषा  ज्ञान   को  किसी  व्यक्ति  की   विद्वता  का  परिचायक  नहीं   माना   जा   सकता. अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करना गलत नहीं है परन्तु हिंदी को नकारना शर्म की बात है.
अपने  देश  की  भाषा  हिंदी  को  राष्ट्र  भाषा  का  स्थान  देने  से  ,उसको  अपनाने  से  सभी  देशवासियों  को  आपस  में  व्यापार  करना  भ्रमण  करना  और  रोजगार  करना  सहज  हो  जाता  है  साथ  ही    हिंदी भाषा  का ज्ञान उन्हें भारतीय होने का गौरव प्रदान करता है  और   उनकी  जीवनचर्या  को सुविधाजनक बनाता  है.यदि कोई भारतवासी अपने ही देश के नागरिक से संपर्क करने के लिए विदेशी भाषाओँ का सहारा लेता है,तो यह राष्ट्रिय अपमान है शर्म की बात है. अतः हिंदी में बोलने,लिखने समझने की योग्यता प्रत्येक भारतवासी के लिए   गौरव की बात भी है.
आज भी हम अंग्रेजी को पढने और समझने को क्यों मजबूर हैं, इसका भी एक  कारण है ,उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है,मान लीजिये हम किसी बड़े  कारोबारी,व्यापारी या दूकानदार से व्यव्हार करते है (जिसे हम एक विकसित देश की भांति मान सकते हैं)तो हम उसकी समस्त शर्तों को सहर्ष स्वीकार कर लेते है,जैसे उसके द्वारा लगाये गए समस्त सरकारी टेक्स,अतिरक्त चार्ज के तौर पर जोड़े गए पैकिंग,हैंडलिंग डिलीवरी चार्ज को स्वीकार कर लेते हैं,यहाँ तक की जब किसी बड़े रेस्टोरेंट का  मालिक, ग्राहक को अपना सामान देने से पूर्व कीमत देकर टोकन लेने के लिए आग्रह करता है, तो हम टोकन लेने के लिए पंक्ति में लग जाते है,मेरे कहने का तात्पर्य  है की हम उसकी समस्त शर्तो को मान लेते है,उसकी शर्तों पर ही उससे लेनदेन करते है,परन्तु जब हम किस छोटे कारोबारी या दुकानदार( अल्प विकसित या विकास शील देश की भांति) के पास जाते है तो वहां पर उसे हमारी सारी  शर्ते माननी पड़ती हैं,अर्थात वह हमारी सुविधा के अनुसार व्यापार  करने को मजबूर होता है.वहां पर हमारी शर्तें प्राथमिक हो जाती हैं.
इसी प्रकार जब हमारा देश पूर्ण विकसित हो जायेगा तो विदेशी व्यापारी  स्वयं हमारी भाषा हिंदी में व्यापार करने को मजबूर होंगे।फिर सभी देश हमारी शर्तों पर हमसे व्यापार करने को मजबूर होंगे. हमें अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा पढने  की मजबूरी नहीं होगी।  तत्पश्चात हिंदी भाषा सर्वमान्य ,राष्ट्रव्यापी भाषा बन जाएगी।प्रत्येक भारत वासी के लिए हिंदी का अध्ययन करना उसके लिए आजीविका का साधन होगा और  उसके लिए गौरव का विषय होगा।परन्तु देश के विकसित होने तक  हमें  अपनी  राष्ट्र  भाषा  हिंदी  को  अपनाना,  सीखना,  समझना  होगा,उसे पूर्ण सम्मान देना होगा.तब  ही  हम  अपने  लक्ष्य  को  प्राप्त  कर  पाएंगे.

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

कन्या भ्रूण हत्या के वास्तविक कारण

       आजकल मीडिया सोशल हो, इलेक्ट्रॉनिक हो या फिर प्रिंट मीडिया सभी में भ्रूण हत्या को लेकर बहुत ही शोर शराबा होता रहता है. महिला, पुरुष के गिरते अनुपात को लेकर भयावह तस्वीर नजर आती है,जो वास्तव में विचारणीय भी है.  यह सर्वविदित है वर्तमान में देश में एक हजार पुरुषों के सापेक्ष महिलाओं की संख्या मात्र 914 है. अल्ट्रा साउंड की नयी तकनीक ने इस समस्या को और भी बढ़ा दिया है.जिसके माध्यम से माता पिता बच्चे के लिंग की पहचान कर पाते  हैं और अपनी इच्छा के विरुद्ध लिंग वाले बच्चे को विकसित होने से रोक देते हैं. यद्यपि देश में गर्भस्थ शिशु के लिंगपरीक्षण  और कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध कड़ा कानून बनाया गया है.फिर भी एक अनुमान के अनुसार देश में प्रतिवर्ष छः लाख बेटियों की गर्भ में मौत दे दी जाती है.

       मोदी सरकार भी कन्या भ्रूण हत्या और बेटियों के प्रति समाज में होने वाले भेदभाव को लेकर गंभीर है. इसी कारण बेटी बचाओं बेटी बढाओ का अभियान चला रही है.जिसके माध्यम से भ्रूण हत्या के अपराध से जनता को जागरूक किया जा सके और परिवार में बेटियों को बेटों के बराबर का हक़ मिले, उसे पढ़ने के और अपने जीवन में उन्नति के पर्याप्त अवसर मिल सकें. परन्तु इस समस्या के पीछे मनोवैज्ञानिक कारणों को कभी भी समझने का प्रयास नहीं किया गया. इसी कारण व्यापक प्रचार प्रसार के बावजूद  महिला और पुरुष अनुपात निरंतर घटता जा रहा है.जिससे स्पष्ट होता  है की चोरी छुपे भ्रूण हत्या अभी भी जारी है.समाज की इसी विचार धारा के कारण अवैध कार्य करने वाले डाक्टरों की चांदी हो रही है.आखिर क्यों कोई माता पिता जोखिम लेकर भी कन्या के जन्म को रोकने का उपाय कर रहे हैं.  
      गिरते लैंगिक अनुपात से चिंतित होना संवेदन शील समाज के लिए स्वाभाविक है,और भविष्य में सामाजिक संतुलन के लिए खतरनाक भी है.परन्तु इस समस्या की जड़ में जाना भी आवश्यक है,आखिर वो कौन से कारण हैं जिसकी वजह से माता पिता और परिवार बेटियों के जन्म को रोकने के लिए अपराध करने को मजबूर हैं और अपने बच्चे को ही दुनिया में आने से रोक देते हैं.आईये चंद सामाजिक विसंगतियों पर प्रकाश डालते हैं,
दहेज़ समस्या;
     इस समस्या का सबसे प्रमुख कारण है, दहेज विरोधी अनेक कानून होने के बावजूद दहेज़ के दानव से समाज मुक्त नहीं हो पा रहा है.बल्कि दिन प्रतिदिन इसकी मांग बढती जा रही है.दहेज़ लेना और देना गैर कानूनी होने के कारण एक तरफ तो कालेधन का उपयोग बढ़ता है और दूसरी और बेटियों के प्रति अभिभावकों का नकारात्मक व्यव्हार बढ़ता है.और परिवार में  बेटी को एक बोझ और एक जिम्मेदारी के रूप में देखता है.यदि बेटी पढ़ लिखकर योग्य बन गयी है और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हो गयी हैं, फिर भी माता पिता के लिए उसकी शादी के लिए दहेज़ की व्यवस्था करने को मजबूर होना पड़ता है.मान लीजिये कुछ परिवार दहेज़ के विरोध में खड़े होकर गंभीर हो जाते हैं और बिना दहेज़ की शादी करने का आव्हान करते हैं, फिर भी विवाह की पूरी रस्म को निभाने के लिए आयोजन अर्थात मंडप,भोजन इत्यादि का सारा खर्च तो बेटी वाले के जिम्मे ही रहता है. उसको रोकने के लिए कोई कानून भी नहीं है. बेटी वाले की हैसियत है या नहीं सारा खर्च तो उसे ही वहन करना पड़ता है.अर्थात बाप को अपनी बेटी को ब्याहने के लिए बड़े खर्च से होकर गुजरना ही होगा.आखिर उसका क्या अपराध है यदि उसके घर में बेटी ने जन्म लिया.समाज के इस व्यव्हार से बेटी को एक बोझ माना जाता है और उसके आगमन को रोकने के प्रयास किये जाते हैं.
महिला का समाज में स्थान
                     सदियों से हमारे समाज में महिलाओं को दोयम दर्जा दिया गया है और पुरुष वर्ग को हमेशा वरीयता दी गयी है. परिवार में बेटे और बेटी के प्रति व्यव्हार में भेद भाव  किया जाता है. जो खान पान और शिक्षा इत्यादि की सुविधाएँ बेटे को दी जाती हैं बेटी को पराया धन कह कर उसे उन सुविधाओं से वंचित रखा जाता है.उसे अपने जन्मदाता परिवार द्वारा ही पालन पोषण में उपेक्षित किया जाता है.बेटे को परिवार का चिराग माना जाता है उसे वंश को आगे बढाने वाला माना जाता है. अतः उसकी सभी इच्छाएं भावनाएं पूरी करना परिवार अपना कर्तव्य मानता है जबकि बेटी के मामले में वह इतना उत्साहित नहीं रहता.अतः बेटी   के साथ भेदभाव उसके जन्मदाता परिवार से ही प्रारंभ होना हो जाता है, जो परिवार अपनी बेटी के साथ न्याय नहीं करता वह परिवार अन्य परिवार से बहू के रूप में आने वाली किसी की बेटी से न्याय संगत व्यव्हार कैसे कर पायेगा?
बेटी  के परिवार को निम्न दृष्टि से देखने की प्रवृति
यद्यपि सभी परिवारों में बेटा और बेटियां होती है, फिर भी  अक्सर देखा जाता है जब कोई बेटी का बाप या भाई(अभिभावक) अपनी बेटी का रिश्ता(प्रस्ताव) लेकर किसी बेटे के बाप के घर जाता है तो उसे बड़ी ही विचित्र द्रष्टि से देखा जाता है जैसे कोई व्यक्ति अजायब घर से निकल कर आ गया हो. कुछ की निगाह,बेटी की योग्यताओं पर कम अभिभावक की जेब के वजन पर अधिक रहती है.विवाह के पश्चात् भी बेटे के ससुराल वालों के साथ सम्मानजनक व्यव्हार नहीं किया जाता कभी कभी तो बहू को उसके परिवार वालों को लेकर अपमानित किया जाता है.यह व्यव्हार निन्दनिये है.यदि परिवार में बेटी ने जन्म लिया है या कोई बेटी वाला है तो वह कोई अपराधी नहीं है, जिससे दोयम दरजे के नागरिकों जैसा समझा जाय.यदि परिवार अपने बेटे और बेटी के परिवार के साथ एक जैसा व्यवहार करने लगे तो परिवार में बेटी के साथ भेदभाव वाला व्यव्हार ख़त्म हो जायेगा और बेटी के आगमन पर खुशिया आने लगेंगी. अंततः कन्या भ्रूण हत्या पर स्वयं लगाम लग जाएगी.
बेटी के अधिकारों का अभाव
                       हमारे समाज की विडंबना है की बेटी को अपने परिवार में ही  अधिकारों का भी अभाव रहता है. उसके हर व्यव्हार को बेटे से अलग रख कर देखा जाता है,
उदाहरण के तौर पर,
®    बेटी को उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा जाता है,बेटी तो पराया धन है उसे अधिक पढाने से क्या लाभ?
®    बेटी को पुत्र के समान माता पिता के चरण स्पर्श करना पाप माना जाता है, अर्थात बेटी को अपने माता पिता के चरण स्पर्श की अनुमति नहीं है. वह भी तो संतान ही है.
®    परिवार के बहुत सारे संस्कारों में पुत्र का योगदान आवश्यक होता है, पुत्री को ये अधिकार नहीं होते यहाँ तक की यदि परिवार में कोई बेटा नहीं है तो भी बेटी को माता या पिता के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देने का अधिकार नहीं है.उसके द्वारा किये जाने वाले कृत्य को पाप माना जाता है.यह मान्यता बेटे की चाहना बढाती है.
®    बेटी को परिवार की जायदाद में हिस्सेदारी से वंचित रखा जाता है, यद्यपि अब कानून में दोनों को परिवार की जायदाद पर समान अधिकार दिए गए हैं परन्तु समाज अभी भी मूलतः स्वीकार नहीं करता.
®    बेटी को माता पिता की सेवा करने से वंचित रखा जाता है या बेटी का कोई कर्तव्य नहीं माना जाता,जब की वह भी अपने माता पिता की सेवा करने की उतनी ही हक़दार है, जितना  की बेटा. हमारे देश का कानून भी सिर्फ बेटे पर ही परिवार की जिम्मेदारी सौंपता है, जबकि अधिकार बेटी को बेटों के समान वितरित करता है,आखिर क्यों?
®    सामाजिक मान्यता है की बेटी के माता पिता उसके ससुराल के यहाँ कुछ भी नहीं खा पी सकते अर्थात कुछ भी ग्रहण करना,या बेटी की कमाई ग्रहण करना वर्जित(पाप) माना जाता है,आवश्यकता इस धारणा को बदलने की,तभी तो बेटी अपने परिवार में सम्मान पा सकेगी,या परिवार के लिए महत्वपूर्ण बन सकेगी.
®    यदि किसी परिवार में बेटा नहीं है और बूढ़े माता पिता के लिए बेटी की कमाई खाना वर्जित है.ऐसी स्थिति में माता पिता को अपना भविष्य(बुढ़ापा) अंधकारमय नजर आता है, अतः बेटे को लेकर उनका महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक ही है.यदि सामाजिक मान्यताओं और सोच में परिवर्तन आ जाय तो बेटियों की उपेक्षा अपने आप समाप्त हो जाएगी         
बेटी के कर्त्तव्य और अधिकार दोनों ही बेटे के समान होने चाहिए. बेटी के माध्यम से दामाद सभी अधिकारों की मांग करता देखा जा सकता है. परन्तु अपने ससुराल वालों के साथ सहयोगात्मक  व्यव्हार मुश्किल से ही देखने को मिलता है उसके अपने सास ससुर या अन्य ससुराल के परिजनों के प्रति कोई  कर्तव्य नियत नहीं गए हैं.जब उस परिवार की धन दौलत पर वह अपना अधिकार मानता  है तो उसे कर्तव्य भी गिनाये जाने चाहिए.जैसे उसके माता पिता हैं ऐसे ही पत्नी का माता पिता भी सम्माननीय होने चाहिए.सिर्फ अधिकार प्राप्त होने के कारण vahवह ससुराल वालों के प्रति उपेक्षित व्यव्हार करता है.और माता पिता के लिए बेटी का अस्तित्व उपेक्षित रहता है.

    अक्सर यह माना जाता है की भ्रूण हत्या का मुख्य कारण देश में व्याप्त अशिक्षा है या गरीबी है.यह मान्यता गलत है क्योंकि गरीब देशों में अमीर देशों से अधिक बेटियों की संख्या है, और देश के शिक्षित राज्यों में  कन्या भ्रूण हत्या के मामले अधिक होते हैं, यही कारण है अधिक शिक्षित राज्यों में लिंगानुपात बिगड़ा हुआ है, जबकि पिछड़े और अशिक्षित बहुल राज्यों में अपेक्षाकृत लिंगानुपात अधिक संतुलित है. अतः भ्रूण हत्या का मुख्य कारण सामाजिक मान्यताएं,परंपरागत मान्यताएं और हमारी अविकसित सोच का परिणाम है.(SA-193D)

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