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शनिवार, 15 सितंबर 2012

संस्कार और नयी पीढ़ी

         अक्सर हम संस्कार की बातें करते रहते हैं ,और नयी पीढ़ी को संस्कारहीन बताते हुए कोसते रहते हैं |परन्तु क्या वास्तव में हमने कभी संस्कार को सही अर्थों में समझने का प्रयास किया है ?शायद नहीं | संस्कार शब्द छोटा होते भी अपने में बहुत कुछ समाये हुए है |इस का अर्थ काफी गंभीर और विस्तृत है |इसी शब्द का विश्लेषण करने का प्रयास यहाँ किया गया है | संस्कार का मुख्य अर्थ है ,हम क्या खाते हैं ,क्या पहनते हैं ,क्या सोचते हैं ,क्या देखते हैं ,हम क्या और कैसे व्यव्हार करते हैं |परन्तु हम अक्सर धार्मिक संस्कारों को ही संस्कार मानते हैं .जबकि वास्तविकता यह है की प्राचीन समय में जब शिक्षा का विकास नहीं हुआ था ,प्रचार और प्रसार का कोई अन्य माध्यम नहीं था ,जनता तक अपने सन्देश को पहुँचाने का एक मात्र माध्यम धर्म ही था |अतः धर्म के माध्यम से ही जनता को सभी संदेशों का आदान प्रदान होता था , जिससे समाज को व्यवस्थित रखने का प्रयास किया जाता था |आज इसी कारण प्रत्येक धार्मिक कर्म कांड को ही संस्कार का नाम दिया जाता है और सिर्फ उन्हें ही संस्कार के नाम से जानते हैं .यही कारण है ,जब हमारी नयी पीढ़ी विकसित देशों की नक़ल कर बदलने का प्रयास करती है तो हम पाश्चात्य देशों का अपनी संस्कृति पर हमला मानते हैं | परिवर्तन आना मानव जीवन की स्वाभाविक क्रिया है और उन्नति एवं विकास का द्युओतक भी |यदि संस्कृति के नाम पर हम परम्पराओं को ही गले लगाये बैठे रहेंगे तो विश्व में सर्वाधिक पिछड़े देश के रूप में जाने जायेंगे.
              क्या संस्कृति के नाम पर विकास को अवरुद्ध कर देना उचित होगा ? क्या संकृति को अपनाने का मकसद अपने समाज को जड़ बना देना समाज के लिए लाभकारी होगा ? यदि हम परम्पराओं का हवाला देते हुए नयी पीढ़ी के प्रत्येक क्रियाकलाप पर अंकुश लगते रहेंगे तो नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से दूरी बना लेगी |उसका पुरानी पीढ़ी में विश्वास कम हो जायेगा ,वह उसको अपना विरोधी समझने लगेगी .अतः यदि नयी पीढ़ी को सही राह दिखानी है ,उन्हें उन्नति के रास्ते पर प्रशस्त करना है, तो उन्हें विश्वास में लेना भी आवश्यक है .अतः नए परिवर्तनों को सिरे से ख़ारिज करने के स्थान पर गुण दोष के आधार पर अपना समर्थन देना अधिक सार्थक होगा |
          अतः परिवर्तन के विरुद्ध अपने फरमान सुनाने से अधिक अच्छा है उन्हें नैतिक मूल्यों के आधार पर नए बदलावों को अपनाने के लिए प्रेरित किया जाये.( इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा बदलाव पृकृति का नियम है परिवर्तन तो आते ही रहेंगे और किसी के रोकना से रुकने वाले भी नहीं हैं)आपके इस व्यव्हार से नयी पीढ़ी का आप पर विश्वास बनेगा ,उनकी उन्नति में बाधा भी नहीं आयेगी .दुनिया में प्रतिस्पर्द्धा में अपने को स्थापित कर पाएंगे .परिवार में आपका सम्मान बना रहेगा .साथ ही नयी पीढ़ी को भटकने से भी बचा पाएंगे
     अंत में भूतपूर्व भारतीय क्रिकेट कोच ग्रेग चैपल के वक्तव्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है ,उनके शब्दों में “भारत में इस तरह की संस्कृति है की वहां कोई अपना सर उठा कर बात नहीं कर सकता ,यदि कोई ऐसा करे तो उसे तुरंत नीचा दिखा दिया जाता है ,इसलिए वे अपना सर नीचा करके रखना ही सीखते हैं ,और नेतृत्व क्षमता विकसित नहीं कर पाते ,जिम्मेदारी लेने की आदत नहीं बना पाते ” सोचने की बात यह है की आखिर विदेशी ने हमारे लिए ऐसी टिप्पड़ी क्यों की और हम नयी पीढ़ी को कहाँ ले जाना चाहते हैं ?क्या प्रत्येक बात पर दखल देना .या अपने सिद्धांतों पर चलने के लिए मजबूर करना उचित होगा? क्या नयी पीढ़ी के हित में होगा ?क्या यह उचित होगा की परंपरागत संस्कारों की रक्षा में, हमारी संतान एवं हमारा देश विश्व व्यापी प्रतिस्पर्द्धा में सबसे पीछे खड़ा रहे? 

रविवार, 9 सितंबर 2012

मीडिया अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभा रहा है ?

       
मेरे नवीनतम लेख अब वेबसाइट WWW.JARASOCHIYE.COM पर भी उपलब्ध हैं,साईट पर आपका स्वागत है.
 हमारे देश के संविधान में मीडिया को लोकतंत्र के चार मुख्य स्तम्भ में से एक माना गया है .अतः मीडिया की समाज के प्रति देश के प्रति बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी होती है .यह ऐसा मा ध्यम है जो आम जनता की आवाज को बुलंद करता है .जो जनता की आवाज को शासन स्तर तक पहुँचाने की क्षमता रखता है .यह माध्यम जनता के हर दुःख दर्द का साथी बन सकता है .लोकतंत्र के शेष सभी स्तंभों अर्थात विधायिका ,न्यायपालिका ,व् कार्यपालिका के सभी क्रियाकलापों पर नजर रख कर उन्हें भटकने से रोक सकता है ,उन्हें सही राह पकड़ने को प्रेरित कर सकता है .साथ ही उनके असंगत कारनामो को जनता के समक्ष उजागर कर जनता को सावधान कर सकता है . हमारे देश में मीडिया को विचार अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता संविधान प्रदत्त है .ताकि वह अपने कार्यों को बिना हिचके .बे रोक टोक कर सके .परन्तु क्या मीडिया उसे मिली आजादी को पूरी जिम्मेदारी से जनहित के लिए निभा पा रही है ?क्या वह अपने कार्य कलापों में पूर्णतया इमानदार है ?क्या देश में व्याप्त बेपनाह भ्रष्टाचार के लिए वह भी कहीं न कहीं जिम्मेदार नहीं है ?क्या मीडिया स्वयं भी भ्रष्ट नहीं हो गया है ?क्या मीडिया जनता के दुःख दर्द पर कम , अपनी कमाई ,अपनी टी .आर .पी . के लिए अधिक चिंतित नहीं रहता ?इन्ही सब विषयों पर विचार विमर्श इस लेख के माध्यम से करने का प्रयास किया गया है .यहाँ मुख्य बात उल्लेखनीय है आज भी सारा मीडिया गैर जिम्मेदार नहीं है ,स्वच्छ ,इमानदार पत्रकार आज भी मौजूद हैं जो देश को सही दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं ,जनता की भलाई के लिए अपनी जान भी जोखिम में डाल देते हैं ,और कुर्बान भी हो जाते हैं ,ऐसे जांबाज पत्रकारों को मैं सेल्यूट करता हूँ .और उम्मीद करता हूँ जो मीडिया कर्मी अपने कर्तव्यों से भटक गए हैं अपनी जिम्मेदारियों को समझने का प्रयास करेंगे .
 मीडिया के लिया विज्ञापन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ;
 यह एक कटु सत्य है , आज के प्रतिस्पर्द्धा के युग में मीडिया प्रिंट का हो या इलेक्ट्रोनिक उसको अपने समस्त खर्चों को पूरा करने के लिए विज्ञपनों पर निर्भर रहना पड़ता है .परन्तु क्या कमाई के लिए दर्शकों एवं पाठकों के हितों तथा रुचियों को नजरंदाज कर देना उचित है ? .प्रत्येक चैनल , चाहे वह पेड़ हो या अनपेड हो ,कार्यक्रम ,या ख़बरें कम विज्ञापन अधिक समय तक प्रसारित किये जाते हैं .कभी कभी तो दर्शक यह भी भूल जाता है की वह क्या कार्यक्रम देख रहा था ,अर्थात किस विषय पर आधारित समाचार देख रहा था .कभी कभी तो कार्यक्रम पांच मिनट का होता है तो विज्ञापन भी पांच मिनट या उससे भी अधिक होता है .कार्यक्रम के कुल समय के 25%से अधिक विज्ञापन दिखाना दर्शकों के साथ अन्याय है ,ठीक इसी प्रकार प्रिंट मीडिया में देखने को मिलता है जब समाचार पत्र में ख़बरें कम विज्ञापन अधिक होते हैं .कभी कभी तो पूरा प्रष्ट ही विज्ञापन की भेंट चढ़ जाता है , कभी कभी तो विज्ञापन खबर के रूप में ही प्रकाशित किया जाता है .पाठक विज्ञापन को खबर समझ कर पढता है जो पाठकों के साथ धोखा है
  पेड न्यूज़ का चलन ;
आज अनेक चैनलों एवं समाचार पत्र ,पत्रिकाओं में छापने वाली ख़बरों की कीमत वसूल की जाती है .इस प्रकार खबर का वास्तविकता से नाता टूट जाता है .कुबेर पति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए धन बल का प्रयोग कर आम जनता को धोखा देते हैं और मीडिया अपनी जिम्मेदारी से हटते हुए कुबेर पतियों के कठपुतली बन जाते हैं .दूसरे शब्दों में मीडिया वह खबर दिखता है जो धनवान दिखाना चाहता है ,इस प्रकार से एक साधारण व्यक्ति के साथ अन्याय होता है ,उसके हित में आवश्यक खबर के लिए मीडिया में स्थान नहीं मिल पाता.आम जनता की आवाज का एक मात्र मध्यम मीडिया ही होता है परन्तु उसकी आवाज दब कर रह जाती है
  नकारात्मक ख़बरें ही सुर्खियाँ बनती हैं
 यह हमारे देश वासियों का दुर्भाग्य ही है ,जब हम सवेरे उठ कर अख़बार के समाचारों पर नजर दौड़ते हैं तो पढने को मिलता है की बीते दिन में दो , चार या अधिक हत्या हो गयीं ,कुछ स्थानों पर लूटमार हुई या डकैती पड़ी ,चेन खिंची .चोरी हुईं ,धोखा धडी हुई,अनेक लोग सड़क दुर्घटनों के शिकार हो गए,तो कुछ लोग आतंकवादियों के हमलों के शिकार हो गए ,कुछ अन्य प्रकार के हिंसा के अपराध हुए , और नजर आते हैं नित नए सरकारी विभागों में खुलते घोटाले .मुख्य प्रष्ट पर इस प्रकार के समाचारों को पढ़कर या चैनल की हेड लाइन के रूप में देख कर पूरे दिन के लिए मन उदास हो जाता है, मूड ख़राब हो जाता है ,पाठक अवसाद ग्रस्त हो जाता है उसका कार्य करने का उत्साह ठंडा पड़ जाता है .क्या इस प्रकार के नकारत्मक समाचारों को अतिरंजित कर , मुख्य प्रष्ट या मुख्य समाचार बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत कर,मीडिया जनता को हतोत्साहित करने का कार्य नहीं कर रहा? जो देश की उत्पादकता को प्रभावित भी करता है ? क्या पूरे देश में सब कुछ गलत ही हो रहा है ,क्या अपराध ही मुख्य ख़बरों का आधार हैं ,क्या देश में समाज सेवियों,स्वयंसेवी संस्थाओं और उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों का अकाल पड़ गया है .परन्तु समाज सेवी व्यक्तियों एवं संस्थाओं के सुखद कार्यों को जनता तक पहुँचाने का समय मीडिया के पास नहीं है .शायद उसकी सोच बन गयी है की गुंडा गर्दी ,हिंसा ,बलात्कार की ख़बरें उनकी टी .आर .पी . बढाती हैं . दर्शकों और पाठकों को आकर्षित करती हैं .यही कारण है किसी भी कार्य की आलोचना करना , नकारात्मक ख़बरों को परोसना मीडिया का एक मात्र उद्देश्य बन गया है . यदि मीडिया अच्छे कार्य करने वालों की ख़बरों को मुख्य रूप से प्रकाशित करे तो आम जनता में सकारात्मक कार्य करने को प्रोत्साहित किया जा सकता है .एक सकारात्मक सोच का वातावरण देश और जनता के लिए सुखद और स्वास्थ्यप्रद हो सकता है .और अपराधियों के हौंसले पस्त किये जा सकते हैं ,देश को अराजकता के माहौल से मुक्ति मिल सकती है .इस प्रकार से देश के विकास में मीडिया अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है जो उसका परम कर्तव्य भी है.
  भड़काऊ ख़बरों की अधिकता :
 हमारे देश का मीडिया अपनी दर्शक संख्या बढ़ने के लिए ख़बरों को मिर्च मसाला लगा कर प्रस्तुत करता है ,ताकि देखने या पढने वाले को उत्सुकता पैदा हो और मीडिया से अधिक से अधिक पाठक वर्ग जुड़े .इसीलिए बलात्कार,धोखाधडी ,लूटमार की घटनाओं को विशेष आकर्षण के साथ प्रस्तुत किया जाता है.यदि पीड़ित कोई दलित वर्ग से है तो जनता को उकसाने के लिए विशेष तौर पर उसकी जाति का उल्लेख किया जाता है ,शायद दलित वर्ग होने से पीड़ा कुछ अधिक बढ़ जाती है .मकसद होता है खबर को प्रभावशाली कैसे बनाया जाय .यदि किन्ही दो पक्षों में कोई झगड़ा हो जाता है ,तो उनकी जाति या धर्म का विशेष तौर पर उल्लेख होता है ,अब यदि उससे शहर का या देश का माहौल ख़राब होता है तो मीडिया को कोई फर्क नहीं पड़ता . क्या मीडिया को सिर्फ पाठकों की संख्या ,समाज में अराजकता की कीमत पर ,बढ़ाना उचित है ?क्या समाज में शांति व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी सिर्फ प्रशासन की ही होती है ,मीडिया को सिर्फ आलोचना करने का ही हक़ है ?
  समाज को विकृत करने वाले धारावाहिक
जबसे टी वी ने हमारे समाज में अपनी पकड़ बनायीं है,लगभग सभी चैनल दिन -रात (चौबीस घंटे ) प्रसारण करने लगे हैं .सभी में आपसी होड़ लगी है दर्शकों को अपनी ओर खींचने की.अतः दर्शकों को बांधे रखने के लिए धारवाहिकों का चलन बढा और गृहणियों ,बुजुर्गों , एवं घर पर ही रहने वाले लोगों के लिए धारवाहिक उनके जीवन के अंग बन गए .यदि मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए समाज को स्वस्थ्य मनोरंजन प्रस्तुत करता तो समाज में व्याप्त विकृतियों ,कुरीतियों ,ढकोसलों से मुक्त किया जा सकता है .परन्तु चंद चैनलों को छोड़ कर अधिकतर चैनल का भड़काऊ ,षड्यंत्रकारी ,उत्तेजक एवं इर्ष्या पैदा करने वाले धारवाहिक प्रसारित करना उनका शगल बन गया है .इस प्रकार के धारावाहिकों में , नायक -नायिका का कोई चरित्र नहीं होता , कोई नैतिक मूल्य नहीं होता ,ये धारावाहिक, हिंसा , बलात्कार , अवैध सम्बन्ध ,धोखेबाजी से भरपूर होते हैं .क्या ज्ञान वर्द्धक ,स्वस्थ्य मनोरंजन देने वाले या हास्यप्रद धारवाहिक को देखने के लिए दर्शक नहीं मिलेंगे?फिर क्यों समाज को विकृत करने का प्रयास किया जा रहा है ?
  आडम्बर,ढोंग को बढ़ावा देते हैं ?;
 इक्कीसवी सदी के वैज्ञानिक युग में अनेक चैनल दर्शकों को सदियों से चली आ रही रूढ़ियों , ढोंग एवं आडम्बर की विचारधारा से युक्त सामग्री प्रस्तुत करते हैं .कुछ चैनल और समाचार पत्र नित्य रूप से ज्योतिष आधारित भविष्य वाणी जनता के सामने रखते हैं ,तो कहीं पर टेरो कार्ड की चर्चा होती है ,कहीं पर पंडित जी स्वयं आकर अपने अनर्गल उपायों से दर्शकों के भाग्य बदलने का दावा करते हैं ,किसी चैनल पर कोई बाबा टी .वी . दर्शकों पर कृपा बरसाते हुए देखे जाते हैं,चैनल संचालकों को तो सिर्फ आमदनी से मतलब है.जनता में भाग्यवाद को बढ़ावा मिले या ,निश्कर्मन्यता बढे इस बात से चैनल संचालकों का क्या लेना देना ? सारी गलती जनता की है जो ऐसे कार्यक्रम देखती है .क्या मीडिया द्वारा दिखाई जाने वाली दकियानूसी बातों से समाज का भला हो सकता है ? प्रिंट मीडिया भी अपने व्यव्हार में पाक साफ नहीं है ,भविष्यफल दिखाना उनकी भी मजबूरी बनी हुई है .उनके विज्ञापन धोकेबजों के लिए जनता को लूटने का माध्यम बनते हैं.अनेक नीम हाकिम ,अनियमित फायनेंसर ,सर्वे कम्पनिया ,या घटिया उत्पाद बेचने वाले , समाचार पत्रों के विज्ञापनों द्वारा जनता तक पहुँचते हैं और जनता को लूटते हैं .क्या समाचार पत्रों को अपनी कठोर नियमावली बना कर विज्ञापन स्वीकार करने की जिम्मेदारी नहीं निभानी चाहिए ?.ताकि जनता भ्रमित न हो और ठगने से बच सके ?
  सूचनाओं का प्रसारण सूचना से सम्बंधित व्यक्ति के प्रोफाइल पर आधारित ;
 अक्सर देखने को मिलता है कोई भी घटना या दुर्घटना किसी बड़े नेता .व्यापारी उद्योगपति ,कुबेर पति के साथ घटित होती है तो मीडिया की खबर बनती है .उसे विशेष स्थान मिलता है , प्रत्येक समाचार पत्र ,प्रत्येक चैनल के लिए मुख्य खबर होती है .परन्तु जब कोई आम आदमी या गरीब आदमी पीड़ित होता है तो कोई उसकी आवाज को उठाने वाला नहीं होता .यदि किसी कारण वह खबर बनती भी है तो उसको नाम मात्र की कवरेज या स्थान प्राप्त होता है.जिससे स्पष्ट है की मीडिया में भी धन बल ,और बहु बल का बोलबाला बना रहता है .पूरा मीडिया सत्तासीन नेताओं और धनवानों का भौंपू बन कर रह गया है.क्या साधारण व्यक्ति के दुःख दर्द के प्रति मीडिया की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती ?
  मीडिया को आलोचना सहन नहीं ;
 क्योंकि मीडिया स्वयं प्रचार प्रसार का माध्यम है ,अतः कोई भी मीडिया स्वयं मीडिया के विरुद्ध छापने को तैयार नहीं होता ,उसके विरुद्ध प्रसारण करने को स्वीकृति नहीं देता .और मीडिया पर कटाक्ष करने वाले लेखों ,या टिप्पड़ियों को स्थान नहीं मिलता . यही कारण है मीडिया की कमी से ,उसके अन्दर व्याप्त अनियमितताओं से ,जनता अनभिग्य बनी रहती है.और ठीक भी है कोई स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगा?
  विज्ञापनों के लालच में अवैध पंजीकरण ;
 आज प्रत्येक शहर ,प्रत्येक देहाती क्षेत्र में सैंकड़ों अवैध समाचार पत्रों ,पत्रिकाओं ने पंजीकरण कराया होता है .अवैध से तात्पर्य है जिनका वास्विकता में कोई अस्तित्व नहीं होता सिर्फ सरकारी खातों में पंजीकृत होते है ताकि उन्हें सरकारी कागज का कोटा मिलता रहे संपादक के रूप में विशेष दर्जा मिलता रहे और सरकारी विभाग में अपना हस्तक्षेप बना रहे, उन्हें ब्लेकमेल करने का अवसर प्राप्त होता रहे.अर्थात अवैध पंजीकरण से अवैध कमाई,जो स्वयं जिम्मेदार मीडिया के लिए अभिशाप है.क्या मीडिया के संगठनों को ऐसे अवैध पंजीकरणों के विरुद्ध प्रयास नहीं करने चाहिए ?
  पीत पत्रकारिता ;
कभी पत्रकार अपने स्वार्थ में ,कभी प्रबंधकों के दबाब में आकर पीत पत्रकारिता करते देखे जा सकते हैं ,सरकरी कर्मचारियों की भांति भ्रष्ट उद्योगपतियों ,भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों से धन वसूल कर उनके असंगत , अव्यवहारिक , भ्रष्ट आचरणों को अपने मीडिया द्वारा सहयोग करते हैं .इस प्रकार के आचरण जहाँ मीडिया की गरिमा को घटाते हैं दूसरी ओर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी से विमुख होते हैं ,आम आदमी से अन्याय करते हैं .क्या भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए जिम्मेदार मीडिया को यह आचरण शोभा देता है ?
  समाधान ;
 मीडिया को सुधारने के लिए एक मात्र उपाय सरकारी नियंत्रण हो सकता है,जो मीडिया की आजादी पर कुठाराघात होगा ,वैसे भी देश की लगभग भ्रष्ट हो चुकी सरकारी मशीनरी द्वारा नियंत्रण,का अर्थ है. भ्रष्टाचार को खुली छूट देना .यह कदम न तो जनता के हित में होगा और ना ही देश के हित में और न स्वयं मीडिया की विश्वसनीयता के लिए हितकारी होगा .आज सही अर्थों में देश में लोकतंत्र के अस्तित्व का आधार मीडिया ही है.अतः मीडिया को स्वयं आत्म शुद्धि करने के उपाय करने होंगे . उसे स्वयं संगठित होकर मजबूत संगठनों का निर्माण करना होगा और अपनी कार्य शैली के लिए नियमावली बनाना होगी,स्व निर्मित ठोस कानून बनाने होंगे . ताकि उन नियमों का पालन करते हुए अपने क्षेत्र में व्याप्त कचरे को साफ किया जा सके . मीडिया को स्वयं ही विश्वसनीय एवं देश और जनता के लिए जिम्मेदार बनना होगा .सरकारी अंकुश लगाना देश का दुर्भाग्य होगा,लोकतंत्र का अपमान होगा
 . 
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रविवार, 2 सितंबर 2012

सोशल मिडिया पर अंकुश कितना उचित?


  सोशल मिडिया पर अंकुश कितना उचित?
    

        एक समय था जब लोगों तक अपनी बात पहुँचाने का माध्यम समाचार पत्र या पत्रिका हुआ करते थे. जब सरकार द्वारा जनता तक अपना सन्देश पहुँचाने के लिए डंका या नगाडा बजा कर गली गली अपने आदेशों, संदेशों  या चेतावनी को प्रचारित किया जाता था.उसके पश्चात रेडियो ने यह स्थान ले लिया जो जनता को नियंत्रित करने अर्थात सरकार को शासन-व्यवस्था चलाने में सहायक बने. जब टी.वी.और फिल्मों का दौर आया तो प्रचार प्रसार का माध्यम और भी प्रभावकारी हो गया. परन्तु कंप्यूटर की खोज ने तो विचार क्रांति पैदा कर दी और पूरी दुनिया एक मंच पर एकत्र हो गयी. इलेक्ट्रोनिक मीडिया और सोशल मीडिया ने जनता को सरकार की हर गतिविधी की जानकारी उपलब्ध करनी शुरू कर दी. अन्ना और बाबा रामदेव के आन्दोलन को प्रचारित करने और जनता को आन्दोलन से जोड़ने में इलेक्ट्रोनिक और सोशल मिडिया की मुख्य भूमिका रही. पिछले वर्ष अनेक अफ़्रीकी और खड़ी के देशों की क्रांति का श्रेय भी इन्ही नवसृजित माध्यमों को ही जाता है. इसी प्रकार असम में हुई जातीय हिंसा की आग को मुंबई हैदराबाद या बंगलौर तक पहुँचाने में सोशल मिडिया का ही कारनामा दिखा. हमारे देश की सरकार तो पहले से ही जो जनता में भ्रष्टाचार के लिए फजीहत की शिकार होने के कारण सोशल मिडिया को मानती है.उसे अपना दुश्मन मानकर इस पर नियंत्रण करने के मूड में थी. वर्तमान घटना ने उसे एक बहाना दे दिया,अपने मिडिया पर नियंत्रण के प्रस्ताव को उचित मानने का , सोशल मिडिया के नकेल कसने का , अपने विरोधियों को चित्त करने का. उसकी पहले से ही मंशा रही है सभी प्रचार माध्यम सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार के पक्ष में ही अपनी बात जनता के समक्ष रखे अर्थात सभी माध्यम स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का जरिया न होकर सरकरी भोंपू बन जाएँ और सत्तारूढ़ पार्टी के नेता अपने हितों की साधने के लिए घोटाले करते रहें और उसकी सत्ता पर पकड़  भी बनी रहे. इस प्रकार  लोकतंत्र के सबसे सशक्त स्तंभ को अपनी मुट्ठी में कर ले,और जनता को लूटने के अवसर उसे मिलते रहें,चुनावों में उसकी जीत सुनिश्चित होती रहे.
  कोई भी नयी वैज्ञानिक खोज होती है तो उसके लाभ आम आदमी को मिलते है तो यही खोजे और तकनीकें अपने साथ कुछ नुकसान भी लेकर आती हैं.परन्तु उसके नुकसान से घबरा कर उन खोजों से मानवता को वंचित नहीं कर दिया जाता. विकास के रास्ते बंद नहीं कर दिए जाते बल्कि उसमे व्याप्त खामियों को दूर करने के प्रयास किये जाते हैं,समाधान खोजे जाते हैं, जिससे उस नयी खोज से मानवता के नुकसान को रोका जा सके.और उसके लाभ मानव जाति  को उपलब्ध हो सकें.
   बिजली का अन्वेषण होने के पश्चात अनेक लोग उसके झटके के शिकार हुए,अनेकों को जान से हाथ धोना पड़ा, तो अनेक लोग घायल हुए.परन्तु क्या बिजली का उपयोग बंद कर दिया गया? बल्कि जनता को उसको उपयोग करते समय सावधानियां बरतने के लिए शिक्षित किया गया.और आज विशाल के कारखानों का अस्तित्व बिजली पर ही निर्भर है.
  सड़क पर अनेक कार, बस, ट्रक और अन्य वाहन आये और सड़क दुर्घटनाओ ने नित लोगों के जान से हाथ धोना पड़ा,और आज भी अनेकों सड़क हादसे होते रहते हैं. तो क्या सडक बंद कर दी गयीं.यदि आवागमन को बाधित कर दिया जाये तो मानव विकास एक दम रुक जायेगा.अतः आवागमन को बाधित न कर,सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के उपाय खोजे गए,और आज भी शोध  जारी है.
  इसी प्रकार से वायुयान हो या अंतरिक्ष यान अन्य अनेक नए अविष्कार सभी अनेक प्रकार की सुविधाओं के साथ साथ समस्याओं और खतरों  को भी लेकर आये, परन्तु सब समस्याओं के समाधान भी खोजे गए और मानव हित में उनका उपयोग किया गया.और आज मानव विकास का माध्यम बने.
   ठीक इसी प्रकार से लोकतंत्र में जनता की अभिव्यक्ति की आजादी को किसी  भी प्रकार से रोक देना उचित नहीं माना जा सकता.तो क्या सोशल मिडिया से होने वाले नुकसान को आंख मूँद कर बैठे देखा जा सकता है? इस विषय पर कुछ प्रश्न विचारणीय हैं
क्या अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ है
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१,कोई भी किसी को गाली देने,व्यक्तिगत आक्षेप लगाने या उसका अपमान करने को स्वतन्त्र है.
२,प्रेस,या इलेक्ट्रोनिक मिडिया,सोशल मिडिया की आजादी का लाभ जनता में वैमनस्यता फैलाने के लिए किया जाय.
३,कोई विदेशी ताकत हमारे देश की एकता ,अखंडता,और सुरक्षा के साथ खिलवाड करे.
४,कोई भी व्यक्ति या समुदाय जनता में धार्मिक विद्वेष या जातीय नफरत,अफवाह फ़ैलाने को स्वतन्त्र हो जाय.देश की एकता अखंडता और सार्वभौमिकता पर चोट करता रहे

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   परन्तु क्या  देश और समाज की सुरक्षा के नाम पर, जनता को व्यवस्थित करने के नाम पर सोशल मिडिया पर अंकुश लगाने की स्वीकृति दे दी जाय?

१,क्या सोशल मिडिया के दुरूपयोग को रोकने के लिए, इस पर लगाम लगाने के लिए, सरकार को सम्पूर्ण अधिकार देना उचित होगा?
२.क्या सोशल साइट्स के विरुद्ध बनाये गए नियम, सरकार को निरंकुश नहीं बना देंगे ?
३,क्या अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाकर देश में लोकतंत्र बाकी रह जायेगा.१९७५ की आपात स्थिति सरकार द्वारा प्रेस की आजादी पर लगाम लगा देने के कारण ही बनी थी.
४, सोशल मिडिया एक साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए अपनी आवाज,अपनी मांग,अपने मान व्याप्त क्रोध को सरकार और दुनिया तक पहुँचाने का एक मात्र माध्यम है.लोकतांत्रिक देश में आम आदमी के मुहं पर ताला लगा देना उचित होगा.क्या उसकी अभिव्यक्ति की आजादी छीन लेने से आम आदमी कुंठाग्रस्त नहीं हो जायेगा.क्योंकि प्रेस और अन्य इलेक्ट्रोनिक मीडिया के द्वारा आम आदमी नहीं जुड सकता 

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तो क्या हों समाधान?;

       तो फिर क्या समाधान हो,ताकि सरकार की निरंकुशता भी जनता को न सहनी पड़े और देश और समाज की सुरक्षा भी बनी रहे.
१ ,सरकार प्रत्येक आपत्ति जनक सामग्री की व्यख्या स्पष्ट करे और उनको लागू करने के लिए आवश्यक नियम बनाये.नियम और कानून पूर्णतयः पारदर्शी हों ताकि कोई भी सत्तानशीं व्यक्ति या अधिकारी उन्हें अपने हितों के अनुसार परिभाषित न कर सके, अपने  व्यक्तिगत द्वेष के लिए,या अपने हितों को साधने के लिए उन नियमों का उपयोग न कर सके.
२ ,प्रत्येक सोशल साईट चलाने वाले को जिम्मेदारी सौंपी जाये की वह अपने साइट्स पर आने वाली सामग्री की  निरंतर समीक्षा करे और आपत्ति जनक सामग्री को तुरंत हटाये तथा आपति जनक सामग्री डालने वाले पर अपना शिकंजा कसे.
३,कोई भी ऐसा सोफ्टवेयर विकसित  किया  जाय जो स्वतः सरकार द्वारा परिभाषित  आपतिजनक सामग्री को हटा दे अथवा चेतावनी दे दे.
४,जनता को उसकी जिम्मेदारी के प्रति जागरूक किया जाय और बताया जाए किस प्रकार की आपतिजनक सामग्री उसे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा जा सकती है.
५.एक निगरानी समिति बनायी जाये, जो सरकार द्वारा निश्चित की गयी आपत्ति जनक सामग्री की निरंतर समीक्षा कर सके और उसे प्रकाशित  करने वालो पर अंकुश लगा सके,उन्हें दण्डित करने के लिए आवश्यक उपाए कर सके.


    उपरोक्त उपायों को करने के लिए सत्ताधारी नेताओं की दृढ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है .तत्पश्चात असम जैसी घटनाओं की पुनरावृति को जा सकता है.और देश को विदेशी चालों से सुरक्षित किया जा सकता है 
                 सत्य शील अग्रवाल,