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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

मृत्यु भोज देना कितना उचित?

                  हिन्दू समाज में जब किसी परिजन की मौत हो जाती है,तो अनेक रस्में निभाई जाती हैं।उनमे सबसे आखिरी रस्म के तौर पर मृत्यु भोज देने की परंपरा निभाई जाती है।जिसके अंतर्गत गाँव या मौहल्ले के सभी लोगों को भोजन कराया जाता है।इस दिन तेरेह ब्राह्मणों को भोजन कराने के तत्पश्चात सभी (अड़ोसी, पडोसी, मित्र गण,रिश्तेदार) आमंत्रित अतिथियों को भोजन कराया जाता है। इस भोज में सभी को पूरी और अन्य व्यंजन परोसे जाते हैं।अब प्रश्न उठता है क्या परिवार में किसी प्रियजन की मृत्यु के पश्चात् इस प्रकार से भोज देना उचित है ?क्या यह हमारी संस्कृति का गौरव है की हम अपने ही परिजन की मौत को जश्न के रूप में मनाएं?अथवा उसके मौत के पश्चात् हुए गम को तेरह दिन बाद मृत्यु भोज देकर इतिश्री कर दें ? क्या परिजन की मृत्यु से हुई क्षति तेरेह दिनों के बाद पूर्ण हो जाती है, अथवा उसके बिछड़ने का गम समाप्त हो जाता है? क्या यह संभव है की उसके गम को चंद दिनों की सीमाओं में बांध दिया जाय और तत्पश्चात ख़ुशी का इजहार किया जाय। क्या यह एक संवेदन शील और अच्छी परंपरा है? हद तो जब हो जाती है जब एक गरीब व्यक्ति जिसके घर पर खाने को पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध नहीं है उसे मृतक की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज देने के लिए मजबूर किया जाता है और उसे किसी साहूकार से कर्ज लेकर मृतक के प्रति अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।और हमेशा के लिए कर्ज में डूब जाता है,सामाजिक या धार्मिक परम्परा निभाते निभाते गरीब और गरीब हो जाता है।कितना तर्कसंगत है यह मृत्यु भोज ?क्या तेरहवी के दिन धार्मिक परम्पराओं का निर्वहन सूक्ष्म रूप से नहीं किया जा सकता,जिसमे फिजूल खर्च को बचाते हुए सिर्फ शोक सभा का आयोजन हो।मृतक को याद किया जाय उसके द्वारा किये गए अच्छे कार्यों की समीक्षा की जाय।उसके न रहने से हुई क्षति का आंकलन किया जाय।सिर्फ दूर से आने वाले प्रशंसकों और रिश्तेदारों को साधारण भोजन की व्यवस्था की जाय।
                अत्यधिक खेद का विषय तो यह है की जब घर में कोई बुजुर्ग मरता है तो उसे ढोल नगाड़ों के साथ श्मशान घाट तक ले जाया जाता है,उसके पार्थिव शरीर को गुब्बारे,झंडियों,पताकाओं ,जैसी अनेक वस्तुओं से सजाया जाता है जिसे विमान का नाम दिया जाता है।और सब कुछ परमपराओं के नाम पर तत्परता से किया जाता है।मरने वाला बूढा हो या कोई जवान, था तो परिवार का एक सदस्य ही।अतः परिजन के बिछुड़ने पर जश्न का माहौल क्यों?इन परम्पराओं को निभाने वालों में कम पढ़े लिखे या पिछड़े वर्ग से ही नहीं होते, अच्छे परिवारों में और उच्च शिक्षित व्यक्ति भी शामिल होते हैं।क्या यह बिना सोचे समझे परम्पराओं को निभाते जाना,लकीर पीटते जाना नही है? क्या यह हमारे रिश्तों में संवेदनशीलता का परिचायक माना जा सकता है? क्या इन दकियानूसी कर्मों में फंसे रह कर हम विकास कर पाएंगे ,विश्व की चाल से चाल मिला पाएंगे?



     {वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर आधारित पुस्तक “जीवन संध्या”  अब ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है.अतः सभी पाठकों से अनुरोध है www.jeevansandhya.wordpress.com पर विजिट करें और अपने मित्रों सम्बन्धियों बुजुर्गों को पढने के लिए प्रेरित करें और इस विषय पर अपने विचार एवं सुझाव भी भेजें. }
मेरा   इमेल पता है ----satyasheel129@gmail.com
 


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रविवार, 21 जुलाई 2013

बुजुर्गो का नजरिया अपनी संतान के प्रति

      अक्सर देखा गया है की बुजुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नजरिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है.वे अपनी संतान को अपने अहसानों के लिए कर्जदार मानते हैं. उनकी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपनी संतान को बचपन से लेकर युवावस्था तक लालन पालन करने में अनेक प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ा,जिसके लिए उन्हें अपने खर्चे काट कर उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा, उनकी आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास किये. ताकि भविष्य में ये बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बने.जब आज वे स्वयं कमाई करने लगे हैं तो उन्हें सिर्फ हमारे लिए सोचना चाहिए, हमारी सेवा करनी चाहिए. कभी कभी तो बुजुर्ग लोग संतान को जड़ खरीद गुलाम के रूप में देखते हैं.

बुजुर्ग लोग दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा विरोधी व्यव्हार से क्षुब्ध रहते हैं.उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान को दोषी मानते हैं.वे उनकी तर्क पूर्ण बातों को बुजुर्गों का अपमान मानते हैं.वे युवा पीढ़ी की बदली जीवन शैली से व्यथित होते हैं.नयी जीवन शैली की आलोचना करते हैं.क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान तो करना चाहती है या करती है परन्तु चापलूसी के विरुद्ध है. परन्तु बुजुर्ग उनके बदल रहे व्यव्हार को अपने निरादर के रूप में देखते हैं. बुजुर्गो के अनुसार उनकी संतान को परंपरागत तरीके से अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए ,नित्य उनके पैर दबाने चाहियें उनकी तबियत बिगड़ने पर हमारी मिजाजपुर्सी को प्राथमिकता पर रखना चाहिए. उन्हें सब काम धंधे छोड़ कर उनकी सेवा में लग जाना चाहिए और यही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए. यही संतान का कर्तव्य होता है.उनके अनुसार संतान की व्यक्तिगत जिन्दगी, उसकी अपनी खुशियाँ, उसका अपना रोजगार, उसका अपना परिवार कोई मायेने नहीं रखता.और जब संतान उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो वे उन्हें अहसान फरामोश ठहराते हैं.
बुजुर्गो के अनुसार आज की नयी पीढ़ी अधिक स्वछन्द और अनुशासन हीन हो गयी है.वह पहनावे के नाम पर अर्ध नग्न कपडे पहनती है, उसके परिधान अश्लील हो गए हैं,देर से उठना, देर से सोना ,जंक फ़ूड खाना इत्यादि सब कुछ अप्राकृतिक हो गया है.ऐसे सभी जीवन शैली के बदलावों से पुरानी पीढ़ी खफा रहती है,आक्रोशित रहती है,और जब वे उन्हें बदल पाने में असफल रहते है तो कुंठा के शिकार होते हैं. परिवर्तन प्रकृति का नियम है इस पर किसी का बस नहीं चलता. प्रत्येक बदलाव से जहाँ कुछ सुविधाएँ जन्म लेती है तो कुछ बुराईयां (बुजुर्गो के अनुसार)भी पैदा होती हैं.और होने वाले परिवर्तनों को कोई नहीं रोक सकता.अतः नए बदलावों को स्वीकार कर ही नयी पीढ़ी से सामंजस्य बनाया जा सकता है यह स्वीकृति ही बुजुर्गो के हित में है.
कभी कभी घर के बुजुर्ग व्यक्ति अपनी संतान के मन में उनके लिए सम्मान को, अपनी मर्जी थोपने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन्हें भावनात्मक रूप से ब्लेक मेल करते हैं.इस प्रकार से यदि कोई बुजुर्ग अपने पुत्र या पुत्रवधू को अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाते हैं,जैसे उन्हें शहर से दूर कही रोजगार के लिए नहीं जाना है या विदेश नहीं जाना,(चाहे उन्हें मिला जॉब का आमंत्रण ठुकराना पड़े.) वर्ना वे उसे कभी माफ़ नहीं करेंगे ,या वे अनशन कर देंगे इत्यादि इत्यादि. इस प्रकार से वे अपनी संतान के भविष्य के साथ तो खिलवाड करते ही हैं, उनके मन में अपने लिए सम्मान भी कम कर देते हैं. और उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं. अतः प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने हित से अधिक संतान के हित के बारे में सोचें ताकि उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो या कम से कम हो.
अनेक परिवारों में देखा गया है की माँ ने अपना पूरा जीवन विधवा या परित्यक्ता होकर भी अनेक कष्ट उठा कर अपने परिवार का पालन पोषण किया होता है, या फिर पिता ने बिना पत्नी के अर्थात बच्चो की माँ के अभाव में अपने बच्चों को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर बड़ा किया होता है,परिवार में पिता की विधवा बहन रहती है जिसे पारिवारिक सुख नसीब नहीं हुआ ,ऐसे परिवारों में जब बच्चे बड़े होकर अपने जीवन साथी के साथ सुखी पारिवारिक जीवन बिताना शुरू करते हैं है तो घर के बड़ों को सहन नहीं होता वे असहज हो जाते हैं.और पुरानी बातों को याद कर परिवार के वातावरण को बोझिल बना देते हैं.कभी कभी तनाव पूर्ण स्थिति भी बन जाती है. क्योंकि वे अपने परिवार के नवयुवक को अपनी पत्नी के साथ हंसी मजाक करते देख खीज का अनुभव करते हैं.जो उनके व्यव्हार से भी स्पष्ट होता रहता है.परन्तु अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं से संतान को आहत करना कितना उचित है? अपनी खीज व्यक्त कर अथवा तनाव पूर्ण वातावरण दे कर किसका भला हो सकता है? ऐसा व्यव्हार शायद आपको नयी पीढ़ी से अलग थलग कर दे. इस सन्दर्भ में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आपके हित में होगा. बल्कि आपको खुश होना चाहिय की आप की मेहनत और तपस्या का ही तो फल है,जो आज आपके बच्चों के जीवन में खुशियाँ आ पायीं. बच्चों की खुशियाँ ,उनकी किलकारियां,आपकी ही महनत का परिणाम है. अतः उनके साथ खुश होना आपका सम्मान बढ़ाएगा .वैसे भी उनकी खुशियों के लिए ही तो आपने अपने जीवन साथी के न होते हुए भी अनेक कष्ट उठा कर उनको यहाँ तक ला पाए और बच्चे को अपने जीवन को हंसी खुशी जीने लायक बन पाए.अपने जीवन के दुखद क्षणों को भूलकर परिवार की खुशियों में अपना योगदान दें और वातावरण को प्रफुल्लित बनायें, उससे ही आपकी संतान के मन में आपके लिए श्रृद्धा भाव जागेगा. और हमेशा यही कामना करें की जैसा कष्टदायक जीवन अपने जिया है आपके बच्चों को उसकी परछाई भी न पड़े. उनके जीवन में दुनिया भर की खुशियाँ सदैव बनी रहें. वे समाज में सम्मान पूर्वक जियें और निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढते रहें. आपका अपने बच्चों के प्रति सकारात्मक नजरिया ही परिवार को प्रफुल्लित करेगा, और आपका शेष जीवन सुखद, शांति पूर्ण, एवं सम्मानजनक व्यतीत होगा.
- सत्य शील अग्रवाल, शास्त्री नगर मेरठ

बुधवार, 3 जुलाई 2013

अभिशप्त आस्था के केंद्र




        प्रतिवर्ष सैंकड़ो व्यक्ति अपने आस्था के केन्द्रों पर आने वाली विभिन्न प्रकार की विपदाओं के कारण मौत के शिकार होते हैं।आस्था के केन्द्रों से तात्पर्य , विभिन्न धार्मिक स्थानों से है अर्थात मंदिरों, मठों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, या फिर पवित्र नदियों के घाटों पर(कुम्भ मेले इत्यादि ) या अन्य स्थानों पर होने वाले धार्मिक आयोजनों से है।उत्तराखंड में गत दिनों में आयी विपदा को सिर्फ प्राकृतिक विपदा के रूप में नहीं देखा जा सकता।प्राकृतिक घटनाओं पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता परन्तु उचित सावधानियां और कुशल प्रबंधन से उन हादसों की तीव्रता को कम किया जा सकता है ,जान माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।

अक्सर देखा गया है धार्मिक स्थलों या धार्मिक आयोजनों में अप्रत्याशित भीड़ जुट जाती है जो संभावनाओं से कहीं अधिक हो जाती है और स्थानीय प्रशासन द्वारा किये गए सभी प्रबंध बौने साबित होते है अर्थात अपर्याप्त सिद्ध होते है। किसी भी दुर्घटना की स्थिति में शासन और प्रशासन की शिथिलता और संवेदनहीनता खुल कर सामने आती है, जो पीड़ितों की परेशानियों को और भी बढ़ा देती हैं।जो यह सिद्ध करती है की हमारी सरकारें जनता के जान माल के लिए कितनी फिक्रमंद हैं,शायद उनके कार्य शैली में आम व्यक्ति की जान की कोई कीमत नहीं है,हमारे राज नेता विप्पति में भी अपनी राजनीती से बाज नहीं आते।नौकरशाहों के लिए भी उनका जनता के दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो सिर्फ अपने आकाओं को खुश रखना ही उनकी नौकरी बचाए रखने के लिए काफी है।
सभी धार्मिक स्थलों पर या धार्मिक आयोजनों के समय स्थानीय प्रशासन यात्रियों ,आगंतुकों,श्रद्धालुओं से भारी प्रवेश शुल्क वसूल किया जाता है,फिर भी यात्रियों के जान माल की सुरक्षा और सुविधाओं का सदैव अभाव बना रहता है।सरकारी मशीनरी द्वारा उपलब्ध कराये गए साधन और सुविधाएँ हमेशा अपर्याप्त ही होते है।विपत्ति की स्थिति में तो जैसे प्रशासन की नींद बहुत देर से खुलती है, शायद जब खुलती है जब मीडिया में बहुत के शोर शराबा होने लगता है।अक्सर देखा गया है पीड़ित व्यक्ति अपने प्रयासों से ही विप्पत्ति से बहार आता है या फिर किसी हादसे का शिकार होकर अपनी जान गवां बैठता है।,सिर्फ कुछ निजी संगठनों का सहयोग ही मिल पाता है जिनके कार्य कर्ताओं में मानवता के प्रति स्नेह होता है और सेवा भाव झलकता है।निजी संगठनों की अपनी सीमायें होती है वे दुर्घटना को रोकने के उपाय नहीं कर सकते। किसी भी दुर्घटना की सम्भावना को रोकना शासन या प्रशासन द्वारा ही संभव है।उनकी जिम्मेदारी है की विकास कार्यों की योजना बनाते समय पर्यावरण की सुरक्षा का ध्यान रखे और पर्यटक एवं जनता के हितों का भी ध्यान रखा जाय।साथ ही स्थानीय व्यवस्था को इस प्रकार से निरापद बनाया जाय ताकि कोई भी अनहोनी की आशंका न रह जाय।जिसके लिए शासकों,योजना कारों में इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
जनता द्वारा उत्तराखंड की भयानक आपदा के सन्दर्भ में निम्न प्रश्न शासन से पूछना स्वाभाविक है;
***क्या उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा की भयानकता को कम करना संभव नहीं था?
***क्या धर्मिक आयोजनों एवं धार्मिक स्थलों का प्रबंधन और व्यवस्था आधुनिक तकनीक द्वारा संभव नहीं है?
****क्या धार्मिक स्वतंत्रता के रहते श्रद्धालुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन प्रशासन की नहीं है?या सिर्फ टैक्स वसूलना ही उसकी जिम्मेदारी है ताकि नेताओं की जेबें लबालब भरती रहें??
(जनता की जिम्मेदारी ;-क्या एक श्रद्धालु का समाज के प्रति कर्तव्य नहीं बनता की वह हर वर्ष चार धाम की यात्रा न कर, जीवन में सिर्फ एक बार यात्रा का प्रण ले,ताकि अन्य श्रद्धालुओं को सुविधा मिल सके,भीड़ कम हो सके जिससे दुर्घटना की सम्भावना घटती है।क्या उनके लिए धन और श्रद्धा से बढ़ कर सामाजिक दायित्व नहीं है?)
यदि कुछ निचे लिखे उपायों पर ईमानदारी से निर्वहन किया जाय तो शायद दुर्घटनाओं को कम किया जा सकता है और किसी विपत्ति के समय शीघ्रता से राहत कार्य किये जा सकते हैं।
,पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ यात्री काफी संख्या में पहुँचते हैं,विशेष तौर पर धर्मिक स्थलों जैसे उत्तर के चार धाम,कुंभ मेले,अन्य पर्यटन स्थल इत्यादि ,ऐसे स्थानों पर पहुँचने के लिए अनेक मार्ग होने चाहिए,जिसमे अनेक सड़कों के अतिरिक्त रोप वे ,एयर वेज़ इत्यादि। कम से कम दो रोप वे बने और एक ऐसा स्थान बने जहाँ हवाई जहाज को उतरने की सुविधा हो।
,पर्वतिये क्षेत्रों के विकास कार्यों की योजना बनाते समय पृकृति का दोहन करने के लिए पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के उपाय भी होने आवश्यक हैं,और यह सुनिश्चित किया जाय की प्राकृतिक आवेगों के सञ्चालन में कोई बाधा उत्पन्न न हो पाए।
(प्रकृति के दोहन से तात्पर्य है ऊर्जा आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए बांध का निर्माण,इंधन या लकड़ीअथवा खाद्य आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए पेड़ों,पौधों की कटाई,निर्माण कार्य के लिए जंगलों की सफाई,खनिज आवश्यकताओं के लिए खनन कार्य,जानवर के मांस,खाल,दन्त जैसी आवश्यकताओं के लिए वन्य जीवों का वध इत्यादि)
,धार्मिक स्थल,पर्यटन स्थल पहाड़ पर हो या मैदान में उनके प्रवेश पर पर्याप्त जाँच व्यवस्था हो,प्रत्येक आगंतुक का परिचय फोटो सहित पंजीकृत किया जाय(जो CCTV द्वारा भी संभव है) ताकि विपत्ति के समय उसकी पहचान और उसके परिजनों से संपर्क साधने में आसानी हो। साथ ही आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगा रहे।ऐसे सभी स्थलों पर(धार्मिक हो या अन्य ) जहाँ पर्यटक भारी संख्या में पहुचते हो,आपदा पर्बंधन की टीम पूरे साजो सामान के साथ उपस्थित रहे।
,प्रत्येक पर्यटक ,यात्री ,श्रद्धालु ,का पर्यटन स्थल पर प्रवेश करते ही उसका बीमा किया जाये ताकि उसे विपत्ति के समय आर्थिक सहायता मिलने में कोई संशय न रहे।तुरंत राहत मिल सके।
,यात्रियों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए प्रवेश के समय टोकन दिए जाएँ जिन्हें लौटते समय वापिस लिया जाय।और पर्यटन स्थल की क्षमता के अनुसार ही प्रवेश की इजाजत दी जाय।
उपरोक्त उपायों को अपनाये जाने से निश्चित ही किसी भी आपदा की आशंका और उसकी भयावहता पर नियंत्रण किया जा सकता है