वैसे तो प्राचीन कल से ही दुनिया भर में महिलाओ को पुरुषों की अपेक्षा निम्न स्थान दिया जाता रहा है,परन्तु शिक्षा और ओद्योगिक विकास के साथ साथ विकसित देशो में महिलाओ के प्रति सोच में परिवर्तन आया और नारी समाज को पुरुष के बराबर मान सम्मान और न्याय प्राप्त होने लगा.उन्हें पूरी स्वतंत्रता स्व्चंद्ता सुरक्षा एवं बराबरी के अधिकार प्राप्त हैं.कोई भी सामाजिक नियम महिलाओ और पुरुषो में भेद भाव नहीं करता.
हमारे देश में स्तिथि अभी भी प्रथक है,यद्यपि कानूनी रूप से महिला एवं पुरुषो को समान
अधिकार मिल गए हैं. परन्तु सामाजिक ताने बाने में आज भी नारी का स्थान दोयम दर्जे का है.हमारा समाज अपनी परम्पराओ को ताड़ने को तय्यार नहीं है.जो कुछ बदलाव आ भी रहा है उसकी गति बहुत धीमी है.शिक्षित पुरुष भी अपने स्वार्थ के कारण अपनी सोच को बदलने में रूचि नहीं लेता, उसे अपनी प्राथमिकता को छोड़ना आत्मघाती प्रतीत होता है.यही कारण है की महिला आरक्षण विधेयक कोई पार्टी पास नहीं कर पाई.आज भी मां बाप अपनी पुत्री का कन्यादान कर संतोष अनुभव करते हैं.जो इस बात क अहसास दिलाता है की विवाह दो प्राणियों का मिलन नहीं है,अथवा साथ साथ रहने का वादा नहीं है, एक दूसरे का पूरक बनने का संकल्प नहीं है,बल्कि लड़की का संरक्षक बदलना मात्र है.क्योकि लड़की का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है.उसको एक रखवाला चाहिय .
उसकी अपनी कोई भावना इच्छा कोई मायने नहीं रखती . उसे जिस खूंटे बांध दिया जाय उसकी सेवा करना ही उसकी नियति बन जाती है.विवाह पश्चात् वरपक्ष द्वारा भी कहा जाता है की आपकी बेटी अब हमारी जिम्मेदारी हो गयी. आपके अधिकार समाप्त हो गए.अब मां बाप को अपनी बेटी को अपने दुःख दर्द में शामिल करने के लिय वर पक्ष से याचना करनी पड़ती है. उनकी इच्छा होगी तो अग्ग्या मिलेगी वर्ना बेटी खून के आसूँ पीकर ससुराल वालों की सेवा करती रहेगी.
इसी प्रकार पति अपनी पत्नी से अपेक्षा करता है की वह उसके माता पिता की सेवा में कोई कसर न छोड़े, परन्तु स्वयं उसके माता पिता (सास ससुर) से अभद्र व्यव्हार भी करे तो चलेगा, अर्थात पत्नी को अपने माता पिता का अपमान भी बर्दाश्त करना पड़ता है. यानि लड़के के माता पिता सर्वोपरि है और लड़की के माता पिता दोयम दर्जे के हैं क्योकि उन्होंने लड़की को जन्म दिया था.आखिर यह दोगला व्योव्हार क्यों? क्या आज भी समाज नारी को दोयम दर्जा ही देना चाहता है .माता पिता लड़के के हों या लड़की के बराबर का सम्मान मिलना चाहिय. यही कारण है की परिवार में पुत्री होने पर परिजन निराश होते है,और लड़का होने पर उत्साहित. जब तक लड़का लड़की को संतान समझ कर समान व्यव्हार समाज नहीं देगा नारी उथान संभव नहीं है.
अतीत में नारी के प्रति अन्याय, अत्याचार के गवाह सती प्रथा, विधवा विवाह निषेध,बाल विवाह,पर्दा प्रथा जैसी प्रथाओं का अंत होने बावजूद नारी शोषण आज भी जारी है.दहेज़ हत्यायं,बलात्कार, घरेलु हिंसा आज भी नित्य समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बन रही है.
महिला आयोग द्वारा किये जा रहे प्रयास एवं कानूनी योगदान प्रभावकारी साबित नहीं हो पाए है.आज भी समाज में नारी को भोगया समझने की मानसिकता से मुक्ति नहीं मिल पाई है. प्रत्येक नारी को स्वयं शिक्षित, आत्म निर्भर हो कर, अपने अधिकार पुरुष से छिनने होंगे. दुर्व्यवहार बलात्कार जैसे घिनोने अपराधों से लड़ने के लिए अपने अंदर शक्ति उत्पन्न कर,जैसे कराते आदि सीख कर, डटकर मुकाबला करना होगा, तब ही नारी को उचित सम्मान मिल सकेगा.
1 टिप्पणी:
आज लडकिया हर क्षेत्र में टॉप कर रही हैं. .उनमे लड़कियों ने लडको को पीछे छोड़ दिया हैं.मानव समाज की रचना तभी संभव हैं ,जब महिला और पुरुष हो .सिर्फ पुरुषो से ही इस विशव की कल्पना नहीं की जा सकती हैं. और इसे कन्या भ्रूण हत्या करने वाले भी भली भांति जानते हैं .हमारे धार्मिक ग्रंथो में महिला को देवी की संज्ञा दी गयी हैं .दरअसल हमारे समाज में पित्रसत्ता रही हैं जिसमे लडको को ही सारे अधिकार दिए गए हैं. लडकियों के लिए शर्त ही शर्त हैं. मसलन वह दाह संस्कार स्थल पर नहीं जा सकती हैं ,वह मृत व्यक्ति को आग नहीं दे सकती हैं .वगैरह -वगैरह.
I THINK YOUR WORDS HAVE WEIGHT .ACHCHI RACHANA
AMIT KUMAR GUPTA
HAJIPUR VAISHALI
BIHAR
www.amitkrgupta.jagranjunction.com
एक टिप्पणी भेजें