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सभी में भ्रूण हत्या को लेकर बहुत ही शोर शराबा होता रहता है. महिला, पुरुष के
गिरते अनुपात को लेकर भयावह तस्वीर नजर आती है,जो वास्तव में विचारणीय भी है. यह सर्वविदित
है वर्तमान में देश में एक हजार पुरुषों के सापेक्ष महिलाओं की संख्या मात्र 914
है. अल्ट्रा साउंड की नयी तकनीक ने इस समस्या को और भी बढ़ा दिया है.जिसके माध्यम
से माता पिता बच्चे के लिंग की पहचान कर पाते
हैं और अपनी इच्छा के विरुद्ध लिंग वाले बच्चे को विकसित होने से रोक देते
हैं. यद्यपि देश में गर्भस्थ शिशु के लिंगपरीक्षण और कन्या भ्रूण हत्या के
विरुद्ध कड़ा कानून बनाया गया है.फिर भी एक अनुमान के अनुसार देश में प्रतिवर्ष छः
लाख बेटियों की गर्भ में मौत दे दी जाती है.
मोदी सरकार भी कन्या भ्रूण हत्या और
बेटियों के प्रति समाज में होने वाले भेदभाव को लेकर गंभीर है. इसी कारण “बेटी बचाओं
बेटी बढाओ” का अभियान चला
रही है.जिसके माध्यम से भ्रूण हत्या के अपराध से जनता को जागरूक किया जा सके और
परिवार में बेटियों को बेटों के बराबर का हक़ मिले, उसे पढ़ने के और अपने जीवन में
उन्नति के पर्याप्त अवसर मिल सकें. परन्तु इस समस्या के पीछे मनोवैज्ञानिक कारणों को
कभी भी समझने का प्रयास नहीं किया गया. इसी कारण व्यापक प्रचार प्रसार के बावजूद महिला और पुरुष अनुपात निरंतर घटता जा रहा है.जिससे
स्पष्ट होता है की चोरी छुपे भ्रूण हत्या
अभी भी जारी है.समाज की इसी विचार धारा के कारण अवैध कार्य करने वाले डाक्टरों की
चांदी हो रही है.आखिर क्यों कोई माता पिता जोखिम लेकर भी कन्या के जन्म को रोकने
का उपाय कर रहे हैं.
गिरते लैंगिक अनुपात से चिंतित होना संवेदन
शील समाज के लिए स्वाभाविक है,और भविष्य में सामाजिक संतुलन के लिए खतरनाक भी है.परन्तु
इस समस्या की जड़ में जाना भी आवश्यक है,आखिर वो कौन से कारण हैं जिसकी वजह से माता
पिता और परिवार बेटियों के जन्म को रोकने के लिए अपराध करने को मजबूर हैं और अपने
बच्चे को ही दुनिया में आने से रोक देते हैं.आईये चंद सामाजिक विसंगतियों पर
प्रकाश डालते हैं,
दहेज़ समस्या;
इस समस्या का सबसे प्रमुख कारण है, दहेज विरोधी अनेक कानून होने के बावजूद
दहेज़ के दानव से समाज मुक्त नहीं हो पा रहा है.बल्कि दिन प्रतिदिन इसकी मांग बढती
जा रही है.दहेज़ लेना और देना गैर कानूनी होने के कारण एक तरफ तो कालेधन का उपयोग
बढ़ता है और दूसरी और बेटियों के प्रति अभिभावकों का नकारात्मक व्यव्हार बढ़ता है.और
परिवार में बेटी को एक बोझ और एक जिम्मेदारी
के रूप में देखता है.यदि बेटी पढ़ लिखकर योग्य बन गयी है और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर
भी हो गयी हैं, फिर भी माता पिता के लिए उसकी शादी के लिए दहेज़ की व्यवस्था करने
को मजबूर होना पड़ता है.मान लीजिये कुछ परिवार दहेज़ के विरोध में खड़े होकर गंभीर हो
जाते हैं और बिना दहेज़ की शादी करने का आव्हान करते हैं, फिर भी विवाह की पूरी रस्म
को निभाने के लिए आयोजन अर्थात मंडप,भोजन इत्यादि का सारा खर्च तो बेटी वाले के
जिम्मे ही रहता है. उसको रोकने के लिए कोई कानून भी नहीं है. बेटी वाले की हैसियत
है या नहीं सारा खर्च तो उसे ही वहन करना पड़ता है.अर्थात बाप को अपनी बेटी को
ब्याहने के लिए बड़े खर्च से होकर गुजरना ही होगा.आखिर उसका क्या अपराध है यदि उसके
घर में बेटी ने जन्म लिया.समाज के इस व्यव्हार से बेटी को एक बोझ माना जाता है और
उसके आगमन को रोकने के प्रयास किये जाते हैं.
महिला का समाज में स्थान
सदियों से हमारे समाज में
महिलाओं को दोयम दर्जा दिया गया है और पुरुष वर्ग को हमेशा वरीयता दी गयी है. परिवार
में बेटे और बेटी के प्रति व्यव्हार में भेद भाव
किया जाता है. जो खान पान और शिक्षा इत्यादि की सुविधाएँ बेटे को दी जाती
हैं बेटी को पराया धन कह कर उसे उन सुविधाओं से वंचित रखा जाता है.उसे अपने
जन्मदाता परिवार द्वारा ही पालन पोषण में उपेक्षित किया जाता है.बेटे को परिवार का
चिराग माना जाता है उसे वंश को आगे बढाने वाला माना जाता है. अतः उसकी सभी इच्छाएं
भावनाएं पूरी करना परिवार अपना कर्तव्य मानता है जबकि बेटी के मामले में वह इतना
उत्साहित नहीं रहता.अतः बेटी के साथ
भेदभाव उसके जन्मदाता परिवार से ही प्रारंभ होना हो जाता है, जो परिवार अपनी बेटी
के साथ न्याय नहीं करता वह परिवार अन्य परिवार से बहू के रूप में आने वाली किसी की
बेटी से न्याय संगत व्यव्हार कैसे कर पायेगा?
बेटी के परिवार को निम्न
दृष्टि से देखने की प्रवृति
यद्यपि सभी परिवारों में बेटा और
बेटियां होती है, फिर भी अक्सर देखा जाता
है जब कोई बेटी का बाप या भाई(अभिभावक) अपनी बेटी का रिश्ता(प्रस्ताव) लेकर किसी
बेटे के बाप के घर जाता है तो उसे बड़ी ही विचित्र द्रष्टि से देखा जाता है जैसे
कोई व्यक्ति अजायब घर से निकल कर आ गया हो. कुछ की निगाह,बेटी की योग्यताओं पर कम अभिभावक की जेब के वजन पर अधिक
रहती है.विवाह के पश्चात् भी बेटे के ससुराल वालों के साथ सम्मानजनक व्यव्हार नहीं
किया जाता कभी कभी तो बहू को उसके परिवार वालों को लेकर अपमानित किया जाता है.यह
व्यव्हार निन्दनिये है.यदि परिवार में बेटी ने जन्म लिया है या कोई बेटी वाला है
तो वह कोई अपराधी नहीं है, जिससे दोयम दरजे के नागरिकों जैसा समझा जाय.यदि परिवार
अपने बेटे और बेटी के परिवार के साथ एक जैसा व्यवहार करने लगे तो परिवार में बेटी
के साथ भेदभाव वाला व्यव्हार ख़त्म हो जायेगा और बेटी के आगमन पर खुशिया आने
लगेंगी. अंततः कन्या भ्रूण हत्या पर स्वयं लगाम लग जाएगी.
बेटी के अधिकारों का अभाव
हमारे समाज की विडंबना है
की बेटी को अपने परिवार में ही अधिकारों
का भी अभाव रहता है. उसके हर व्यव्हार को बेटे से अलग रख कर देखा जाता है,
उदाहरण के तौर पर,
®
बेटी को उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा
जाता है,बेटी तो पराया धन है उसे अधिक पढाने से क्या लाभ?
®
बेटी को पुत्र के समान माता पिता के चरण स्पर्श
करना पाप माना जाता है, अर्थात बेटी को अपने माता पिता के चरण स्पर्श की अनुमति
नहीं है. वह भी तो संतान ही है.
®
परिवार के बहुत सारे संस्कारों में पुत्र का
योगदान आवश्यक होता है, पुत्री को ये अधिकार नहीं होते यहाँ तक की यदि परिवार में
कोई बेटा नहीं है तो भी बेटी को माता या पिता के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देने का
अधिकार नहीं है.उसके द्वारा किये जाने वाले कृत्य को पाप माना जाता है.यह मान्यता
बेटे की चाहना बढाती है.
®
बेटी को परिवार की जायदाद में हिस्सेदारी से वंचित
रखा जाता है, यद्यपि अब कानून में दोनों को परिवार की जायदाद पर समान अधिकार दिए
गए हैं परन्तु समाज अभी भी मूलतः स्वीकार नहीं करता.
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बेटी को माता पिता की सेवा करने से वंचित रखा
जाता है या बेटी का कोई कर्तव्य नहीं माना जाता,जब की वह भी अपने माता पिता की
सेवा करने की उतनी ही हक़दार है, जितना की
बेटा. हमारे देश का कानून भी सिर्फ बेटे पर ही परिवार की जिम्मेदारी सौंपता है,
जबकि अधिकार बेटी को बेटों के समान वितरित करता है,आखिर क्यों?
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सामाजिक मान्यता है की बेटी के माता पिता उसके
ससुराल के यहाँ कुछ भी नहीं खा पी सकते अर्थात कुछ भी ग्रहण करना,या बेटी की कमाई
ग्रहण करना वर्जित(पाप) माना जाता है,आवश्यकता इस धारणा को बदलने की,तभी तो बेटी अपने
परिवार में सम्मान पा सकेगी,या परिवार के लिए महत्वपूर्ण बन सकेगी.
®
यदि किसी परिवार में बेटा नहीं है और बूढ़े माता
पिता के लिए बेटी की कमाई खाना वर्जित है.ऐसी स्थिति में माता पिता को अपना
भविष्य(बुढ़ापा) अंधकारमय नजर आता है, अतः बेटे को लेकर उनका महत्वाकांक्षी होना
स्वाभाविक ही है.यदि सामाजिक मान्यताओं और सोच में परिवर्तन आ जाय तो बेटियों की
उपेक्षा अपने आप समाप्त हो जाएगी
बेटी के कर्त्तव्य और अधिकार दोनों ही
बेटे के समान होने चाहिए. बेटी के माध्यम से दामाद सभी अधिकारों की मांग करता देखा
जा सकता है. परन्तु अपने ससुराल वालों के साथ सहयोगात्मक व्यव्हार मुश्किल से ही देखने को मिलता है उसके
अपने सास ससुर या अन्य ससुराल के परिजनों के प्रति कोई कर्तव्य नियत नहीं गए हैं.जब उस परिवार की धन
दौलत पर वह अपना अधिकार मानता है तो उसे
कर्तव्य भी गिनाये जाने चाहिए.जैसे उसके माता पिता हैं ऐसे ही पत्नी का माता पिता
भी सम्माननीय होने चाहिए.सिर्फ अधिकार प्राप्त होने के कारण vahवह ससुराल वालों के
प्रति उपेक्षित व्यव्हार करता है.और माता पिता के लिए बेटी का अस्तित्व उपेक्षित
रहता है.
अक्सर यह माना जाता है की भ्रूण हत्या का मुख्य कारण देश में व्याप्त
अशिक्षा है या गरीबी है.यह मान्यता गलत है क्योंकि गरीब देशों में अमीर देशों से
अधिक बेटियों की संख्या है, और देश के शिक्षित राज्यों में कन्या भ्रूण हत्या के मामले अधिक होते हैं, यही
कारण है अधिक शिक्षित राज्यों में लिंगानुपात बिगड़ा हुआ है, जबकि पिछड़े और
अशिक्षित बहुल राज्यों में अपेक्षाकृत लिंगानुपात अधिक संतुलित है. अतः भ्रूण
हत्या का मुख्य कारण सामाजिक मान्यताएं,परंपरागत मान्यताएं और हमारी अविकसित सोच
का परिणाम है.(SA-193D)
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