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रविवार, 3 जुलाई 2016

वरिष्ठ नागरिक समाज कल्याण हेतु केंद्र सरकार से अपेक्षा








Jara-Sochiye

शुक्रवार, 20 मई 2016

जनसँख्या विस्फोट बना देश के विकास में अवरोधक



       [भारत का जनसँख्या घनत्व 2011 जनगणना के अनुसार 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर थी, जबकि चीन में 2015 की गणना के अनुसार में 142 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है.अर्थात हमारे देश में जनसँख्या घनत्व चीन को काफी पीछे छोड़ चुका है.]
 
               देश की सुरसा की भांति बढती आबादी ने स्वतंत्रता के पश्चात् देश की प्रगति में सर्वाधिक प्रभावित किया है. देश की सुरसा की भांति बढती जनसँख्या जो आजादी के समय मात्र चौतीस करोड़ पचास लाख थी, आज एक सौ इक्कीस करोड़ हो चुकी है. भारत का जनसँख्या घनत्व 2011 जनगणना के अनुसार 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर थी, जबकि चीन में 2015 की गणना के अनुसार में 142 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है.अर्थात हमारे देश में जनसँख्या घनत्व चीन को काफी पीछे छोड़ चुका है. बढती आबादी ने अडसठ वर्षों में हुई सारी प्रगति को प्रभाव हीन कर दिया है. देश में खाद्य उत्पादन जो 1950-51 में 50.83 मिलियन टन था 2013-14 में बढ़ कर 263 मिलियन टन तक पहुँच गया.इतना बड़ा उत्पादन इसलिए संभव  हो पाया क्योंकि कृषि भूमि क्षेत्रफल 1960 में 133 मिलियन हेक्टयर था 2010 में बढ़ कर 142 मिलियम हेक्टयर हो गया और प्रति हेक्टेयर उपज जो 1960 में 700 किलो प्रति हक्टेयर थी 2010 में वैज्ञानिक संसाधनों का अधिकतम प्रयोग करने के कारण बढ़ कर 1900 किलो प्रति हेक्टेयर हो गयी अर्थात उपलब्ध साधनों का अधिकतम उपयोग किये जाने के पश्चात् ही यह संभव हो पाया. अब  और अधिक वृद्धि होने की सम्भावना नहीं हो सकती. खाद्य उत्पादन में इतनी वृद्धि होने के बावजूद,आर्थिक असन्तुलन के कारण आज भी  देश की बहुत बड़ी जनसँख्या को एक समय का भोजन ही नसीब होता है.वर्तमान समय में देश में पर्याप्त खाद्य भण्डार होने के कारण, खाद्य तेलों के अतिरिक्त अन्य  खाद्य पदार्थ को विदेश से मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती. परन्तु यदि जनसँख्या वृद्धि नहीं रूकती है तो अवश्य ही हमें खाद्यान्न भी विदेशों से मंगा कर ही जनता का पेट भरना पड़ेगा. खाद्यान्न के अतिरिक्त अन्य सभी उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में आशातीत वृद्धि होने के बावजूद देश की सारी जनता के लिए सारी वस्तुएं,सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पायीं हैं. अतः गरीबी बढती जाती है दूसरी तरफ बढती आबादी ने बेरोजगारी के ग्राफ को कहीं अधिक किया है जिसके कारण भी गरीबी को बढ़ावा मिलता है,देश का विकास प्रभावित होता है
            अधिक आबादी के कारण सड़कों पर ट्रैफिक नित्य प्रति बढ़ रहा है जिसके कारण सड़कों पर जाम तो लगता ही है, प्रदूषण की मात्रा भी भयावह स्थति तक पहुँच जाती है.जिससे अनेक प्रकार की बीमारियों को निमंत्रण मिलता है इसका प्रभाव अधिक  आबादी वाले शहरों पर अधिक पड़ता है.अच्छे स्वास्थ्य के बिना विकास का कोई महत्व नहीं रह जाता.
           खाद्य पदार्थों की उत्पादन से अधिक मांग होने के कारण व्यापारियों को मिलावट जैसे घिनोने अपराधों के लिए प्रेरित करता है,जिससे जनता का स्वास्थ्य दावं पर लग जाता है.और अनेक बार तो मिलावट का शिकार  अकाल मृत्यु तक पहुच जाता है   
    प्रत्येक प्राकृतिक स्रोत की एक सीमा होती है यदि वह सीमा पार हो जाती है तो स्रोत समाप्त हो जाते हैं और अभाव का माहौल बनना निश्चित है,यही स्थिति आज अपने देश की बेतहाशा बढ़ चुकी आबादी का है जिसके कारण सभी प्राकृतिक स्रोत अपनी क्षमता खो चुके हैं.वनों की संख्या अपना वजूद खोते जा रहे हैं.आवास की समस्या हल करते करते और उद्योगों  के लिए जमीन उपलब्ध कराते कराते और अन्य विकास के लिए आवश्यक जमीन उपलब्ध कराने के कारण खेती के लिए जमीन ख़त्म होती जा रही है. जबकि बढती आबादी के लिए और अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता है और निरंतर बढती जा रही है.हमारे देश में आबादी  का घनत्व विश्व पटल पर सर्वाधिक हो चूका है.अतः बढती आबादी को रोकना किसी भी सरकार के लिए प्राथमिकता के रूप में लिया जाना नितांत आवश्यक है यदि अब भी आबादी इसी प्रकार बढती रही तो देश के लिए विकास करना तो दूर यथा स्थिति में रह पाना भी मुश्किल हो जायेगा.
       आजादी के पश्चात् सर्वप्रथम परिवार नियोजन के सम्बन्ध में इंदिरा सरकार द्वारा गंभीरता से प्रयास किये गए थे. प्रयास तो सही समय पर सही कदम था परन्तु उसको लागू किये जाने का तरीका गलत था, अतः एक अच्छा प्रयास फेल हो गया. क्योंकि परिवार नियोजन के लिए जनता को जागरूक कर उसे परिवार नियोजन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए था,अनेक प्रोत्साहन देकर इस कार्य के लिए जनता का समर्थन जुटाना चाहिए था. परन्तु इंदिरा सरकार ने देश पर आपातकाल थोप कर जबरन अपने इरादों को लागू करने का प्रयास किया,नौकर शाही के अत्याचारों के कारण जनता में रोष उत्पन्न हो गया,जनता के विरोध के कारण सरकार की नीतियों को पलीता लग गया और बाद में इंदिरा सरकार के पतन का कारण भी बना.इंदिरा गाँधी को भरी पराजय का मुहं देखना पड़ा. उसके बाद किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं हो पायी की वह परिवार नियोजन की योजना भी लागू कर सके.एक और सबसे बड़ा कारण यह भी है परिवार नियोजन का महत्त्व देश का जागृत हिदू तो समझता है, परन्तु अशिक्षित हिन्दू और मुसलमान परिवार नियोजन के महत्त्व को नहीं समझ रहा जिसके कारण मुस्लिम आबादी के बढ़ने की तीव्रता हिन्दुओं से कही अधिक हो गयी है. देश में मुस्लिम की आबादी तेजी से बढ़ना हिन्दुओं के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है, अतः कही न कही वे न चाहते हुए भी परिवार नियोजन को अपनाने से हिचकते दिखाई देने लगे हैं.कुल मिला कर देश के लिए सभी देश वासियों को सामान रूप से सोचना आवश्यक है.आपके बच्चों के जीवन की गुणवत्ता सीमित परिवार के रहते ही संभव है,और हम सभी का,देश का विकास संभव हो सकता है.आगे आने वाले समय की भयावहता से बचा जा सकता है.
    अतः बढती आबादी भी देश के विकास के लिए रोड़ा बन चुकी है राजनेताओं के लिए इस दिशा में कदम उठा पाना असंभव हो रहा है अतः यह समस्या देश के लिए घातक हो चुकी है.देश के विकास पर प्रश्नचिन्ह बन चुकी है.देश बढती जनसख्या के दुष्चक्र में फंस गया है.  http://jarasochiye.com/single.aspx?id=GP231671  

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रविवार, 6 मार्च 2016

व्यवसायी एवं व्यापारी को भी चाहिए आर्थिक सुरक्षा कवच (द्वितीय भाग)


       अनेकों बार करोड़ पति निजी व्यवसायी या व्यापारी, उद्योगपति विषम परिस्थितियों में दिवालिया की स्थिति तक पहुँच जाते हैं,उस समय उनके लिए अपने भरण पोषण के लिए आर्थिक व्यवस्था कर पाना असंभव हो जाता है,कोई भी उसकी सहायता के लिए सामने नहीं आता,सरकार से भी किसी प्रकार की मदद नहीं मिल पाती और वह  अपना शेष जीवन अभावों और अपमान के साथ जीने को मजबूर हो जाता है.जो व्यक्ति इस विपदा को सहन नहीं कर पाते वे,तनाव के कारण अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं,और कभी कभी समय से पूर्व ही काल का ग्रास बन जाते हैं.
     अनेक बार निजी व्यवसायी किसी दुर्घटना का शिकार हो जाता है वह अपंग हो जाता है,या किसी गंभीर बीमारी के शिकार हो जाता है और महीनो तक सामान्य स्थिति में नहीं आ पाता ताकि वह अपने कारोबार या व्यवसाय को संभाल सके, यदि उसके पास कोई अपना अन्य विकल्प भी नहीं है.ऐसे व्यक्ति के लिए स्वयम का और परिवार का भरण पोषण करना असंभव हो जाता है.
      जब व्यापारी ,उद्योगपति अथवा व्यवसायी वृद्ध अवस्था में पहुँच जाता है तो सभी के पास विकल्प(उत्तराधिकारी) मौजूद नही होते,ऐसी स्थिति में उसे अपना कारोबार समेटना पड़ता है अथवा कर्मियों के सहारे काम चलाना पड़ता है, जो उसे कष्टदायक स्थिति तक ले सकता है और आर्थिक संकट से जूझने को मजबूर कर देता है, उनका जीवन भर का मान सम्मान धूमिल हो जाता है.वे अपने जीवन के निम्नतम स्तर पर जीवन बसर करने को मजबूर हो जाते है.यह भी आवशयक नहीं है की प्रत्येक कारोबारी के पास इतनी धनराशी हो जिसके ब्याज से वह अपने शेष जीवन व्यतीत कर सके. निरंतर बढती महंगाई बड़ी से बड़ी जमा पूँजी को महत्वहीन कर देती है.
  अनेक कारोबारियों के सामने जब विकट स्थिति हो जाती है, जब उसका कारोबार तो बहुत अच्छा होता है परन्तु वृद्धावस्था में उसकी संतान उसके कारोबार में मददगार नहीं होती, वह अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य पर पहुँच चुकी  होती है,कुछ युवा विदेश में जाकर बस जाते हैं.अतः कारोबार को समेटना उसकी मजबूरी हो जाती है.यह भी आवश्यक नहीं है सबकी संताने अपने परिवार की जिम्मेदारी को समझते हों.और परिवार को यथा संभव योगदान देते हों.
     कुछ पेशेवर कारोबारी ऐसे होते है जो अपने कारोबार को सीधे सीधे अपनी संतान को नहीं सौंप सकते और संतान उसके समान योग्यता प्राप्त नहीं कर पाती,जैसे डॉक्टर,इंजिनियर,वकील इत्यादि.और वह पारंपरिक व्यवसाय से हट कर किसी अन्य व्यवसाय में भी इतने सफल नहीं हो पाते,जिससे वह अपने वृद्ध माता पिता को आर्थिक योगदान कर सके.ऐसी स्थिति में कारोबारी के लिए अपना  शेष जीवन सम्मान सहित निकलना असंभव हो जाता है.
      सभी माता पिता इतने भाग्यशाली नहीं होते जब उनके पुत्र या पुत्री मेंधावी,परिश्रमी,बफादार,चरित्रवान और जिम्मेदार हों. गलत रास्तों पर निकल चुकी संतान के माता पिता के लिए तो अपने द्वारा कमाए धन की रक्षा कर पाना भी मुश्किल हो जाता है और भविष्य पूर्णतयः अंधकार मय दिखाई देने लगता है.जब संतान अपना भरण पोषण के योग्य भी नहीं हो पाती तो माता पिता के लिए क्या कर सकेगी.
उपरोक्त कारोबारियों की समस्याओं के समाधान के लिए कुछ सुझाव नीचे प्रस्तुत हैं;

    व्यवसायी से प्राप्त सभी प्रकार के टेक्स के रूप में राजस्व को उसके खाते में दर्ज किया जाय और इस कुल जमा की राशी के अनुपात में उसे उसके आपात काल में कुछ सहायता देने का प्रावधान किया जाय,और वृद्धावस्था में जब तक उसके खाते में जमा कुल धनराशी के ब्याज के बराबर उसे पेंशन की सुविधा दी जाय,इस प्रकार से वह सुरक्षित जीवन जी सकेगा,साथ ही अपने कार्यकाल में अधिक से अधिक टेक्स देने का प्रयास करेगा ताकि उसका भविष्य सुरक्षित हो जाय. इस प्रकार से सरकार को अतिरिक्त राजस्व भी प्राप्त होने की सम्भावना बनेगी, आम कारोबारी कर अपवंचन की सोच छोड़ सकेगा.
     कुछ ऐसे छोटे कारोबारी,व्यापारी भी होते हैं जिन पर टेक्स अदा करने की जिम्मेदारी नहीं होती,वे सिर्फ(उत्तर प्रदेश) श्रम विभाग में पंजीकृत होते हैं, और प्रति वर्ष पंजीयन शुल्क देते हैं,ऐसे छोटे कारोबारी को उसके द्वारा दिए गए पंजीयन शुल्क में से कुछ अंश बीमा कम्पनी को देकर उनका बीमा कर दिया जाय,और बीमा धारी को आकस्मिक म्रत्यु पर मिलने वाले लाभ के अतिरिक्त बीमा पालिसी के परिक्पक्व होने पर बीमा राशी और बोनस बीमाधारी को न दे कर उसके साठ वर्ष की आयु पहुँचने तक राशी बीमा कम्पनी के पास बनी रहे.और उसे पर ब्याज की राशी को जोड़ती रहे. साठ की आयु होने पर उसकी कुल राशी पर उसे आजीवन ब्याज उपलब्ध कराया जाय. उसके मरणोपरांत उसके उत्तराधिकारी को शेष राशी दे दी जाय. इस प्रकार से उसका  शेष जीवन अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक हो सकेगा        
      जिनकी संतान उसके बुढ़ापे में उसकी पूरी जिम्मेदारी निभाती है,उनकी शारीरिक,मानसिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं को यथा शक्ति पूर्ण करती हैं. परन्तु माता पिता के लिए उस पर निर्भर रहना उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है और उसे अपना अस्तित्व परिवार पर बोझ का अहसास कराता है.जो कभी अपने कारोबार का बॉस था और परिवार उसकी अर्जित आय से चलता था परन्तु अंत में उसे निर्भर होने को मजबूर करता है.यदि संतान को उसकी अपने माता पिता के भरण पोषण के बदले में उसके द्वारा की जा रही आय में से घर के बुजुर्ग पर किये गए खर्च को आय कर मुक्त कर दिया जाय. ताकि परिवार  के बुजुर्ग अपने को किसी की दया का पात्र बनने का अहसास न हो सके.और संतान उत्साह के साथ उसे आर्थिक योगदान कर सके.
      वर्तमान में सभी बैंकों में वरिष्ठ नागरिको को उनकी मियादी जमा राशी पर आधा प्रतिशत ब्याज अतिरिक्त दिया जाता है.यदि यह अतिरिक्त ब्याज आधे से बढ़कर दो प्रतिशत कर दिया जाय तो बुजुर्गो को कुछ राहत मिल सकती है,परिवार के अन्य सदस्य भी उस बुजुर्ग के नाम से ऍफ़,डी कर अतिरिक्त ब्याज से बुजुर्ग की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकेंगे.बेंको द्वारा दिया गया अतिरिक्त ब्याज को केंद्र सरकार वहन  करे ताकि बेंकों के हितों को नुकसान न हो.
      व्यवसायी सरकारी विभाग में जहाँ भी पंजीकृत हो उसे चिकित्सा बीमा सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जाय ताकि उसे कार्यकारी दिवसों और वृद्धावस्था में चिकित्सा सम्बन्धी समस्या न आये.और खुश हाल जीवन जी सके,उसके बीमार होने पर सरकारी राजस्व की हानि भी तो होती है.
      जो कारोबारी साठ की आयु पार करने के बाद भी कार्य रत हैं उनके द्वारा अर्जित आय पर न्यूनतम स्लेब के अनुसार टैक्स लिया जाय,इस प्रकार  से उसका परिवार में मान सम्मान बढेगा.उसे संतान द्वारा अपदस्थ किये जाने की संभावना बहुत कम हो जाएगी,और उसे कार्य रत रहने के लिए परिजनों का विशेष सहयोग मिलेगा और उसका बुढ़ापा अच्छी देखभाल के साथ व्यतीत होगा.
   सभी व्यापारिक,एवं व्यासायिक संगठनों को इस विषय पर गंभीरता से सोचना चाहिए,जो कारोबारी दुर्भाग्य वश किसी अनहोनी का शिकार हो जाते हैं, वे भी आपके अपने हैं. अतः उनसे एकदम नाता तोड़ देना भी ठीक नहीं है और हादसे किसी के साथ भी हो सकते हैं.अतः संगठनों के अधिकारी निजी स्वार्थ और राजनीती से अलग सोचते हुए अपने समूह के सदस्यों के हितों को साधने के लिए वित्तमंत्रालय और श्रम मंत्रालयों से संपर्क बनाये और उनसे कारोबारी के हितों को मनवाने में दबाव बनायें.उन पर दबाव बनाने के लिए  व्यापक स्तर पर आंदोलनों  का सहारा लें  ताकि राजनैतिक पार्टियाँ अपने चुनवा घोषणा पत्र  में कारोबारियों के कल्याण की योजनायें पेश कर सकें और सत्ता में आने पर यथा संभव प्रयास कर सकें. निजी कारोबारी के उत्थान से ही देश का उत्थान संभव है.(SA-178C)




                   

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

भारतीय कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ

(घर में सम्मान पाने ,घरेलु हिंसा से बचने,एवं परिजनों के अपमान से बचने के लिए जब एक महिला आत्म निर्भर होने के लिए घर से बाहर निकलती है, तो उसे समाज और पुरुष सत्तात्मक सोच रखने वालों से सामना करना पड़ता है,अनेक लोगों की टीका टिप्पड़ियों,अर्थात तानाकशी, घूरती निगाहों से सामना करना पड़ता है.) 
 भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति सदियों से दयनीय रही है, उनका हर स्तर पर शोषण और अपमान होता रहा है. पुरुष प्रधान समाज होने के कारण सभी नियम, कायदे, कानून पुरुषों के हितों को ध्यान में रख कर बनाये जाते रहे. खेलने और शिक्षा ग्रहण करने की उम्र में बेटियों की शादी कर देना और फिर बाल्यावस्था में ही गर्भ धारण कर लेना, उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होता रहा है. महिला को सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन बना कर रखा गया (आज भी पिछड़े क्षेत्रों में यह परम्परा जारी है). परिणाम स्वरूप प्रत्येक महिला अपने जीवन में दस से बारह बच्चो की माँ बन जाती थी, इस प्रक्रिया के कारण उन्हें कभी स्वास्थ्य को ठीक करने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिलता था. अनेकों बार,कमजोर शरीर के रहते गर्भ धारण के दौरान अथवा प्रसव के दौरान उन्हें अपना जीवन भी गवाना पड़ता था, स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण जीवन अनेक बीमारियों के साथ व्यतीत करना पड़ता था. सदियों तक देश में विदेशी शासन होने के कारण उनकी समस्याओं की कही कोई सुनवाई भी नहीं की गयी, शिक्षा के अभाव में वे इसे ही अपना नसीब मान कर सहती रहती थी. इसके अतिरिक्त दहेज़ प्रथा जैसी कुरीतियों के कारण भी महिलाओं को कभी भी सम्मान से नहीं देखा गया. अक्सर परिवार में पुत्री के होने को ही अपने दुर्भाग्य की संज्ञा दी जाती रही है.बहू के मायके वालों के साथ अपमान जनक व्यव्हार आज भी जारी है.इसी कारण परिवार में लड़की के जन्म को टालने के लिए हर संभव प्रयास किये जाते रहे, जो आज कन्या भ्रूण हत्या के रूप में भयानक रूप ले चुका है. देश को आजादी मिलने के पश्चात् भारतीय संविधान ने महिलाओं के प्रति संवेदना दिखाते हुए, उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किये, और आजाद देश की सरकारों ने महिलाओं के हितों में समय समय पर अनेक कानून बनाये, शिक्षा के प्रचार प्रसार को महत्व दिया गया और बच्चियों को पढने के लिए प्रेरित किया गया इस प्रकार से जनजागरण होने के कारण महिलाओं ने अपने हक़ को पाने के लिए और पुरुषों द्वारा किये जा रहे अन्याय के विरुद्ध अनेक आन्दोलनो के माध्यम से अपनी आवाज बुलंद की,और समाज में पुरुषों के समान अधिकारों की मांग की. देश में महिला के हितों के लिए महिला आयोग का गठन किया गया, जो महिलाओं के प्रति होने वाले अन्याय के लिये संघर्ष करती है,उनके कल्याण के लिए शासन और प्रशासन से संपर्क कर महिलाओं की समस्याओं का समाधान कराती हैं. २०१२ में प्राप्त आंकड़ों के अनुसार कामकाजी महिलाओं की कुल भागीदारी मात्र २७% है. अर्थात इतना सब कुछ होने के बाद भी, आज भी महिलाओं की स्थिति में बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता है, अभी तो अधिकतर महिलाओं को यह आभास भी नहीं है की वे शोषण का शिकार हो रही हैं और स्वयं एक अन्य महिला का शोषण करने में पुरुष समाज को सहयोग कर रही है. महिलाओं को परिवार और समाज में अपना सम्मान पाने के लिए आर्थिक रूप से निर्भर होने की सलाह दी जाती है.यद्यपि प्राचीन काल से मजदूर वर्ग की महिलाये अनेक प्रकार के काम काज करती रही हैं,कुछ क्षेत्रों में जैसे घरों, सड़कों इत्यादि की साफ सफाई,कपडे धोना,नर्सिंग(दाई),सिलाई बुनाई,खेती बाड़ी सम्बन्धी कार्य इत्यादि में तो इनका एकाधिकार रहा है.अतिशिक्षित परिवारों,एवं उच्च शिक्षित परिवारों की महिलाएं पहले से ही उच्च पदों पर आसीन होकर कामकाज करती रही हैं. जहाँ तक उच्च शिक्षित परिवारों की महिलाओं की बात की जाय तो उन परिवारों में महिलाएं अपेक्षाकृत हमेशा से ही सम्मान प्राप्त रही हैं. परन्तु मजदूर वर्ग में शिक्षा के अभाव में रूढीवादी समाज के कारण आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी अपमानित होती रहती थीं और आज भी विशेष बदलाव नहीं हो पाया है. महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने,और शिक्षित होने के चलते मध्य वर्गीय परिवार की महिलाएं भी नौकरी, दुकानदारी अर्थात व्यापार, ब्यूटी पारलर,डॉक्टर जैसे व्यवसायों में पुरुषो के समान कार्यों को अंजाम देने लगी हैं.डॉक्टर,वकील,आई.टी.,सी.ए.पोलिस जैसे क्षेत्रों में आज महिलाओं की बहुत मांग है. परन्तु हमारे समाज का ढांचा कुछ इस प्रकार का है की महिला को कामकाजी होने के बाद भी नए प्रकार के संघर्ष से झूझना पड़ता है,अब उन्हें अपने कामकाज के साथ घर की जिम्मेदारी भी यथावत निभानी पड़ती है. उसके लिए उन्हें सवेरे जल्दी उठ कर अपने परिवार अर्थात बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों के लिए भोजन इत्यादि की व्यवस्था करनी होती है, बच्चों के सभी कार्यों को शीघ्र निबटाना पड़ता है,उसके पश्चात् संध्या समय लौटने के बाद गृह कार्यों में लगना होता है.क्योंकि परिवार के पुरुष आज भी घर के कार्यों की जिम्मेदारी सिर्फ घर की महिला की ही मानते हैं.कुछ पुरुष तो कुछ भी सहयोग करने को तैयार नहीं होते, यदि महिला उन पर दबाब बनाती है तो अक्सर पुरुषो को कहते सुना जाता है, की अपनी नौकरी अथवा कामकाज छोड़ कर घर के कार्यों को ठीक से निभाओं,महिला की जिम्मेदारी घर सँभालने की होती है. मजबूरन महिला दो पाटन के बीच पिस कर रह जाती है.जो महिलाये आर्थिक रूप से सक्षम होती है वे अवश्य घर के कार्यों को निबटाने के लिए, बच्चो के कार्यों में सहयोग के लिए आया और कुक की व्यवस्था कर लेती हैं, परन्तु गरीब एवं अल्प मध्य वर्गीय परिवारों की महिलाओं के लिए आज भी यह सब कुछ संभव नहीं है. महिला के लिए नियोक्ता भी सहज नहीं दीखता,क्योकि हमारे देश के कानून में महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी नियोक्त पर होती है, वह उससे देर रात तक कार्य नहीं ले सकता,उसे सवेतन मातृत्व अवकाश भी देना होता है, पुरुष कर्मियों के समान भारी कार्यों को उन्हें नहीं सौंप सकता, व्यासायिक कार्यालय से बाहर के कार्यों को भी उनसे कराना उनकी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए जोखिम पूर्ण होता है इत्यादि. परन्तु अनेक पदों पर जैसे यात्रियों को घर जैसा अनुभव देने के लिए एयर होस्टेस, महिला एक ममता की प्रतिमूर्ति होने के कारण अस्पतालों में नर्स, आगंतुकों, ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए बड़े बड़े वाणिज्यिक संस्थानों के स्वागत कक्ष में रिसेप्निष्ट, मार्केटिंग के लिए सेल्स गर्ल, छोटे छोटे ढाबो में ग्राहकों को घर के खाने जैसा स्वाद की कल्पना करने के लिए अधेड़ या बूढी महिला को नियुक्त करना,उनकी मजबूरी भी होती है.महिलाओं की ईमानदारी,बफादारी,कर्मठता के कारण भी महिलाओं की नियुक्ति करना नियोक्ता के हित में होता है. घर में सम्मान पाने ,घरेलु हिंसा से बचने,एवं परिजनों के अपमान से बचने के लिए जब एक महिला आत्म निर्भर होने के लिए घर से बाहर निकलती है, तो उसे समाज और पुरुष सत्तात्मक सोच रखने वालों से सामना करना पड़ता है,अनेक लोगों की टीका टिप्पड़ियों,अर्थात तानाकशी, घूरती निगाहों से सामना करना पड़ता है. उद्दंड व्यक्तियों की छेड़खानियों से बचने के लिए उपक्रम करने होते हैं,कभी कभी तो बलात्कार और प्रतिरोध स्वरूप हत्या का शिकार भी होना पड़ता है. जब वह अपने कार्य स्थल अर्थात ऑफिस,फेक्ट्री पर पहुँचती है तो उसे अपने सहयोगियों और बॉस की दुर्भावनाओं का शिकार होना पड़ता है. संध्या समय अपने कार्य स्थल से लौटते समय भी उसे अनेक अनहोनी घटनाओं की आशंका से ग्रस्त रहना पड़ता है.उसके मन में व्याप्त असुरक्षा की भावना आज भी उसकी उसके लिए जीवन को कष्ट दायक बनाये हुए है. पुलिस से भी उसे कोई सकारात्मक पहल की उम्मीद नहीं होती अनेक बार तो वह उनके दुर्व्यवहार का भी शिकार हो जाती है. महिलाओं को अपने वेतन के मामले में भी शोषण का शिकार होना पड़ता है, जब उन्हें पुरुषों के मुकाबले (गुप चुप तरीके से—गैर कानूनी होने के कारण) कम वेतन के लिए कार्य करना पड़ता है. पुरुष प्रधान समाज की सोच में अभी उल्लेखनीय परिवर्तन देखने को नहीं मिलता,साथ ही हमारी लचर न्याय व्यवस्था के कारण,यदि कोई महिला सरेआम किसी अत्याचार का शिकार होती है तो समाज के लोग उसका बचाव करने से भी डरते हैं. अतः उसे समाज और भीड़ से भी अपने पक्ष में माहौल मिलने की सम्भावना कम ही रहती है.यदि यह कहा जाय की जिस शोषण की स्थिति से निकलने के लिए वह घर की चार दिवारी से बाहर आई थी, उस मकसद में सफल होना अभी दूर ही दिखाई देता है.(SA-182D)
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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

चक्र व्यूह में फंसा भारतीय लोकतंत्र (अंतिम भाग)


चुनाव पद्धति में खामिया;
    गत दिनों बिहार में ऐसे घुर विरोधी दल महागठबंधन में शामिल हो गए जो कभी स्पष्ट रूप से एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे, सिर्फ इसलिए ताकि भा.ज पा सत्ता में न आ जाये.क्योंकि आज नेताओं के कोई सिद्धांत बाकी  नहीं रह गए हैं उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए. उनकी रणनीति कारगर साबित हुई और परस्पर विरोधी सिद्धांतों के दल (आर.जे.डी.और जे. डी.यू.) एक साथ सत्ता के भागी दार बन गए. यहाँ पर यह कहना भी अनुचित न होगा कही न कही हमारी चुनावी प्रक्रिया में खामिया भी है, जिसके कारण मात्र २५% प्रतिशत जनता के वोट प्राप्त कर कोई भी दल या उम्मीदवार सत्ता पर काबिज हो जाता है,कहने का तात्पर्य है की सत्ताधारी  दल जनता के बहुमत से जीता हुआ नहीं होता बल्कि जनता उसके विरोध में अधिक होती है. क्योंकि उसके मत विभिन्न दलों में बंटें हुए होते है और जिसे अधिक मत मिलता है वह जीत जाता है, न की कुल मतदाताओं के बहुमत से.इस प्रकार से अधिकतर चुनाव की जीत वास्तविक जनता की इच्छा को परिलक्षित नहीं कर पाती. यही वजह थी बिहार में एक हो गए तमाम विरोधी पार्टियों के गठबंधन को जीत प्राप्त हो गयी और सभी  दलों से अधिक मत पाने वाली भा.ज पा सत्ता से बाहर रह गयी.एक प्रकार से कहा जा सकता है हमारे देश में अभी सच्चे लोकतंत्र का अभाव रहा है जो जनता की वास्तविक भावनाओं को परिलक्षित कर सके और अधिकतर जीतने वाला प्रतिनिधि जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करता,चुनाव में आधे से अधिक मत उसके विरोध में पड़ते है अर्थात किसी अन्य  उम्मीदवार को मिले होते हैं.इस प्रकार आजादी के पश्चात् से अक्सर बहुमत में जनता का मत विरोध में पड़ने के बाद भी कांग्रेस के  उम्मीदवार जीतते रहे और कांग्रेस को सत्ता प्राप्त होती रही क्योंकि जनता के वोट अनेक दलों में बाँट कर महत्वहीन हो जाते रहे हैं. अतः हमारी चुनावी पद्धति में खामियों के कारण हमारी चुनी हुई सरकार जनता का वास्तव में प्रतिनिधित्व नहीं करती, और सरकार जन  भावना के अनुरूप कार्य नहीं करतीं. अतः यह भी आवश्यक है हमें अपनी चुनाव प्रक्रिया में इस प्रकार से बदलाव करें ताकि जीतने वाले उम्मीदवार को कुल मत दाताओं के आधे से अधिक मतदाताओं का समर्थन प्राप्त हो तब ही वह जीत का हक़दार बने.सही मायने में वही जनता का वास्तविक प्रतिनिधि होगा और जन आकाँक्षाओं के अनुरूप कार्य कर सकेगा,जन कल्याण की बात सोच सकेगा.
जनता की गाढ़ी कमाई की लूट;
   कुछ दिनों पूर्व ही  सातवे वेतन योग की रिपोर्ट आयी थी, जिसमें हर बार की भांति इस बार भी सरकारी कर्मचारियों को दिल खोलकर वेतन वृद्धि का तोहफा दिया गया है,साथ ही पेंशनर्स को भी भरपूर बिना कुछ किये घर बैठे भारी राशी उपलब्ध करायी जा रही है,नित्य नए नए फ़ॉर्मूले अपना कर उन्हें धन लाभ उपलब्ध कराया जा रहा है इस सबका बोझ सीधे सीधे जनता पर पड़ता है,उस पर अनाप शनाप टेक्स का बोझ डालकर वसूल किया जाता है और उससे वसूले गए टेक्स से प्राप्त राजस्व को अपने कर्मचारियों के वेतन पर खुलकर.असंगत तरीके से खर्च कर दिया जाता है. पेंशनर्स को पेंशन देने का अभिप्राय था उनका शेष जीवन का भरण पोषण, बिना कष्ट के चलता रहे,और यह तर्क संगत भी है, की सरकारी सेवा से निवृत कर्मचारियों के भरण पोषण की व्यवस्था की जाय.परन्तु पेंशन का अर्थ उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं तक सीमित होना चाहिए था,जनता से वसूले गए टेक्स से उनकी सभी इच्छाओं की व्यवस्था करना जनता के साथ अन्याय है.इसके अतिरिक्त सरकार की जिम्मेदारी जनता के अन्य वर्ग के प्रति भी है विशेष तौर से जो अपने कार्यकाल में  सरकारी खजाने को भरने में अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करते हैं,जैसे व्यापारी,व्यवसायी या निजी कारोबारी.उन्हें भी कभी कभी बुरे समय(व्यक्तिगत दुर्घटना,व्यावसायिक स्थल पर आगजनी,चोरी डकैती,हेरा फेरी,रंगदारी,अपहरण,संतान से बैर या उसका दुर्व्यवहार इत्यादि) का सामना करना पड़ता है जब उन्हें भरण पोषण करने लायक भी साधन नहीं होते. क्या सरकार के खजाने को भरने में सहयोग करने वालों को उनके बुरे समय में जीवन चलाने के लिए पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार नहीं है.इसी प्रकार आज भी करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो गरीबी रेखा से जीवन को जीने को मजबूर हैं,जिन्हें दो समय का भोजन भी उपलब्ध नहीं हो पाता,क्या सरकार का उनके प्रति कोई कर्तव्य नहीं बनता,ताकि वे भी इन्सान की जिन्दगी जी सकें.समाज वाद और समानता का अधिकार सिर्फ सरकारी कर्मियों तक ही सीमित है.क्या जनता से प्राप्त टेक्स को सरकारी कर्मचारियों में बाँटने का ही सरकार का कर्तव्य है? जनता द्वारा भारी मात्रा में  टैक्स देने के बाद भी विकास कार्य नहीं हो पाते, क्योंकि उसके  टेक्स से प्राप्त राजस्व का बहुत बड़ा भाग सरकारी कर्मियों के बेतहाशा बढे वेतन और पेंशन में चला जाता है और वर्तमान व्यवस्था के अनुसार आगे भी जाता रहेगा.
     यह बात मानी जा सकती है की सरकारी कर्मी को आम तौर में बाजार के वेतन मानों से अधिक वेतन दिया जाय ताकि उनमें जनहित के कार्य करने की इच्छा बनी रहे.परन्तु बाजार में प्रचलित वेतन मान से अनेक गुना वेतन देना, किसी भी प्रकार से देश के हित में नहीं माना जा सकता.एक आम स्कूल अध्यापक का वेतन वर्तमान जीवन शैली,और प्रचलित मूल्यों के अनुसार पंद्रह हजार आम तौर से स्वीकार्य है, जबकि बेरोजगारी के कारण आज भी तीन हजार से पांच हजार तक प्रति माह में अनेक युवा कार्य करने को तैयार रहते हैं और निजी स्कूलों में कार्यरत भी हैं. परन्तु सरकारी अध्यापकों को उसी श्रेणी में पैतीस से चालीस हजार मिलते हैं, जबकि वे कार्य के नाम पर सिर्फ उपस्थिति दर्ज करने में अपनी रूचि रखते हैं, सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों की प्रतिभा का आंकलन कर ज्ञात किया जा सकता है,की वे क्या पढ़ रहे हैं.सरकारी स्कूलों के कितने बच्चे वर्तमान प्रतिस्पर्द्धा को झेल पाते हैं. यही कारण है सरकारी अध्यापक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाना उचित मानते हैं.आखिर क्यों, ऐसे अध्यापको को इतना अधिक वेतन उपलब्ध कराया जाय,जो सिर्फ जनता के धन की बर्बादी है.
       इसी प्रकार से अन्य पदों पर विराजमान अन्य सरकारी कर्मियों के वेतन का भी यही हाल  है.एक अन्य उदाहरण के तौर पर एक साधारण क्लर्क जो पंद्रह हजार में उपलब्ध हो सकता है, सरकार उन्हें चालीस हजार से साठ हजार तक वेतन उपलब्ध कराती है और आगे भी नियमित बढ़त जारी रहती है. सरकारी इंजिनियर जो टेक्नीकल ज्ञान के लिए नियुक्त किये जाते हैं परन्तु उनकी रूचि सिर्फ टेंडर पास करने और माल खरीदने में ही रहती है, ताकि उनकी अतिरिक्त आमदनी की  सम्भावना हो सके. आधे से अधिक इंजिनियर तो तकनिकी ज्ञान  भूल भी चुके होते हैं और अपने अंतर्गत छोटे कर्मचारियों पर पूरी तरह से निर्भर रहते हैं, परन्तु उन्हें वेतनमान  निजी कम्पनी में कार्य करने वाले इंजिनियर से भी अधिक उपलब्ध कराया जाता है और उनका भविष्य भी पूर्णतया सुरक्षित होता है. आज बढ़ते वेतनमान और सेवा शर्तों के कारण सरकारी कर्मी काफी महंगा पड़ता है,इसीलिए सभी सरकारी विभाग अपने कार्यों को निजी संस्थाओं से कराना लाभप्रद मानते हैं और अपने अधिकतर कार्य निजी ठेकेदारों से कार्य करा रहे हैं.सरकारी विभागों में पदों की संख्या भी घटाई जा रही है,यह इस बात सबूत है की वे प्राप्त कर रहे वेतनमान के अनुरूप उत्पादक सिद्ध नहीं होते,और विभाग के लिए बोझ साबित हो रहे हैं.
     रेल मंत्री श्री सुरेश प्रभु ने एक सक्षात्कार में सी.एन.बी.सी.आवाज को बताया की सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के पश्चात् रेल मंत्रालय पर प्रतिवर्ष बत्तीस  हजार करोड़(32,000crore) रूपए का अतिरिक्त भार पड़ेगा. जिसे वहन करना रेल विभाग के लिए चुनौती बन जायेगा. क्योंकि रेल विभाग पहले से ही वित्तीय संकट से जूझ रहा है, साथ ही उस पर सुरक्षा एवं अनेक प्रकार के सुधारों की अपेक्षाओं को पूरा करने की चुनौती है. आगे से यात्री किराया बढ़ाना या माल भाडा बढ़ाना भी आसान नहीं होगा.
      असीमित वेतन वृद्धि का कारण वेतन आयोग है, जिसे हर दस वर्ष बाद वेतन पुनः निर्धारित करने के लिए नियुक्त किया जाता है और जिसके सदस्य सरकारी अधिकारी(नौकर शाह) ही होते हैं, अतः उनके  निर्णय तो सरकारी कर्मियों के पक्ष में होना स्वाभाविक है,अब जब उसकी सिफारिशों को सरकार द्वारा  पास करने की बात आती  है, तो सरकार में बैठे नेताओं की मजबूरी है की उन्हें जिनसे कार्य कराना है उनकी मांगों को माना जाय अन्यथा उनसे वैध और अवैध कार्य कैसे कराये जा सकेंगे और फिर उनकी कौन सा जेब से कुछ खर्च हो रहा है जनता का पैसा है खर्च होने दो. राजनेताओं पर वेतन आयोग की बातें मानने का एक कारण यह भी है की उन्हें विभिन्न सरकारी कर्मचारी संगठनों के आंदोलित हो जाने का खतरा भी होता है.यदि सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर जाते हैं तो जनता परेशान  होती है, जो सत्तारूढ़ पार्टी के लिए नुकसान दायक होता है,और विरोधी पार्टियाँ उसका लाभ उठाती हैं. आज हालत यह हो चुकी है केंद्र सरकार के खाते में विभिन्न टेक्सों से आने वाला कुल राजस्व नौ लाख करोड़ के लगभग है, और वर्तमान सातवें वेतन योग की सिफारिशों को लागू करने के पश्चात् सरकारी कर्मचारियों के वेतन,और पेशन धारियों की पेंशन पर पांच लाख करोड़ से भी अधिक खर्च करना होगा. जनता से जो टेक्स वसूला जाता है वह जन कल्याण और जनहित के कार्यों के लिए होता है, जब सरकार आधे से अधिक राजस्व अपने स्टाफ पर ही खर्च कर देगी तो विकास कार्यों के लिए धन कहाँ से आयेगा और जिस प्रकार से भ्रष्टाचार द्वारा सरकारी कार्य होते हैं, तो शेष धन भी जनता के लिए कितना लाभदायक हो पायेगा. जबकि अन्य देशों के मुकाबले भारत की जनता को सर्वाधिक टेक्स का भुगतान करना पड़ता है,वह भी सुविधा रहित.
राज्य सरकारों का भी दिवाला निकला;
      जब केंद्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन बढ़ते हैं तो बाद में प्रदेश की सरकारों भी अपने कर्मियों के वेतनमान बढाने पड़ते हैं,जो उनके सीमित साधनों के रहते उनके लिए इतने भारी वेतनमानों के बोझ को उठा पाना उनकी अर्थव्यवस्था को अस्तव्यस्त कर देता है,कुछ राज्यों के पास तो वेतन देने लायक राजस्व ही नहीं होता और उन्हें भुगतान करने के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर होना पड़ता है.जब सरकार के पास धन ही नहीं बचेगा का तो वह जनता के लिए क्या करेगी?
       वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष के अनुसार अधिकतर राजनेता और राजनैतिक पार्टियों के लिए न तो लोकतंत्र महत्वपूर्ण है और न ही उन्हें देश या देश की जनता के कल्याण की चिंता है. उन्हें सिर्फ सत्ता का सुख चाहिए, उसे पाने के लिए वे नैतिक और अनैतिक आचरणों की भी परवाह नहीं करते.इसी कारण देश को ऐसे भंवर में फंसा दिया है जिससे निकलना आसान नहीं होगा.सहिष्णुता से उनका कोई नाता नहीं है न ही वे धर्म निरपेक्षता में विश्वास करते हैं. वे अपनी सुविधा के अनुसार सहिष्णुता और धर्म निरपेक्षता को परिभाषित करते हैं और दिखावटी तौर पर धर्मनिरपेक्षता व्यक्त करते हैं. यही विडंबना है आज के भारतीय लोकतंत्र की,जो ऐसे चक्रव्यूह में फंस चुका है,जिससे निकल पाना हाल फिलहाल संभव नहीं दीखता.यदि सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकी तो हालात बेहतर हो सकते हैं.


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