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शुक्रवार, 22 मई 2015

अपराधी की सजा सात साल पीड़िता की सजा बयालिस वर्ष


     
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 अरुणा शानबाग अब एक ऐसा चर्चित नाम हो गया है जिस पर प्रत्येक राजनेता और मीडिया अपनी सहानूभूति प्रगट कर रहा है.कोई व्यक्ति कानूनी दांव पेंच को उसकी त्रासदी भरी जीवन यात्रा के लिए जिम्मेदार मानता है, तो कोई उसके लिए सहानुभूति प्रकट करते हुए,उसकी याद में उसके नाम पर बलात्कार के विरुद्ध संघर्ष करने वाले को इनाम देने की पेशकश कर रहा है. मीडिया उसके हालात पर आंसू बहाकर अपनी टीआरपी बढ़ा रहा है,परन्तु यह सब कुछ उसकी मृत्यु के उपरान्त. गत चार दशकों से अस्पताल के एक कमरे में जीवन और मौत के बीच झूलने वाली महिला को जीवित रहते कितने लोग जानते थे.कितने लोग उसके दुखद समय में उसके साथ थे. देश में अनेक सरकारें आयीं गयीं परन्तु किसी नेता या प्रशासक का ध्यान उस निरीह प्राणी पर नहीं गया

.  उसकी मौत के पश्चात् एक तरफ तो इच्छा मृत्यु पर विवाद ने फिर से जीवंत रूप ले लिया है, दूसरी ओर महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लिए सार्वजानिक तौर पर अश्रू धारा एक बार फिर बहने लगी है.कहीं न कहीं हमारी न्याय व्यवस्था पर भी असंतोष जाहिर हो रहा है,क्योंकि एक ओर तो अपराधी जो अरुणा की इस दर्दनाक हालात के लिए जिम्मेदार था मात्र सात  वर्ष की सजा काट कर सामान्य जिन्दगी जी रहा है, तो दूसरी ओर पीड़ित महिला बयालीस वर्ष तक त्रासदी पूर्ण जीवन जीने को मजबूर रही, उसे मौत भी भीख में नहीं मिली. 
दर्द नाक हादसे का संक्षिप्त विवरण;
      हल्दीपुर कर्नाटक की अरुण शानबाग मुम्बई के के.ई.एम्. अस्पताल में नर्स थी जिसके साथ २७ नवम्बर १९७३ को अस्पताल के ही सफाई कर्मी सोहन लाल बाल्मीकि ने बलात्कार किया और गला दबा कर हत्या की कोशिश की,गला दबने से दिमाग की किसी नस को नुकसान होने के कारण उसकी सोचने समझने की क्षमता नहीं रही और उसकी एक आँख भी बेकार हो गयी. अतः वह कोमा में चली गयी जिसे मेडिकल भाषा में Permanent Vegetative State(PSV) के नाम से जाना जाता है, और वह इसी अवस्था में गत बयालीस  वषों तक  जीवन और मौत के मध्य झूलती रही. इसी दौरान उसके माता पिता भी नहीं रहे सम्पूर्ण परिवार ने उससे नाता तोड़ लिया.अस्पताल में गत चार दशक(बयालीस वर्ष) तक उसके साथी(नर्स) स्टाफ ने उसकी अनुकरणीय सेवा की.अंत में १८ मई२०१५ को उसने इस बेरहम दुनिया को अलविदा किया.
     मेडम वीरानी ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की कि वह अस्पताल प्रशासन को आदेश दे की उसे जो बल पूर्वक नली द्वारा भोजन दिया जा रहा है बंद किया जाय ताकि वह अपनी नारकीय जिन्दगी से निजात पा  सके. परिवार में उसके माता पिता नहीं रहे अन्य कोई परिजन उसकी देख भाल के लिए तैयार नहीं है, न ही कोई उससे से सम्बन्ध रखता है. उसके स्वस्थ्य होने के भी कोई आसार नहीं है.अतः उसे जीवन मुक्त किया जाय.परन्तु कोर्ट ने कानून में इच्छा मृत्यु का प्रावधान ने होने के कारण उसकी याचिका ख़ारिज कर दी.
उपरोक्त घटनाक्रम से अनेक प्रश्न मन में उठते हैं
1.      हमारी न्याय व्यवस्था और कानून में बुनियादी कमी है जिसके कारण अपराधी को उसके द्वारा किये गए अपराध की जघन्यता के अनुरूप सजा नहीं मिल पाती.
2.      जब देश के प्रत्येक नागरिक को सम्मान पूर्वक जीने का बुनियादी अधिकार है,तो उसको अपनी इच्छानुसार असहनीय परिस्थति में भी अपने जीवन को समाप्त करने का अधिकार क्यों नही है?
3.      क्या बेसहारा लम्बी बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति के लिए विशेषकर जो किसी अपराधी की करतूत के कारण इस अवस्था तक पहुंचा हो,सरकार को विशेष सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करायी जानी चाहिए.
4.      क्या अरुणा जैसे हादसों के शिकार व्यक्ति के सन्दर्भ में मीडिया द्वारा जनता को समय समय पर  अवगत नहीं कराते रहना चाहिए?ताकि आम जनता भी उसके कष्टों को कम करने में अपना सहयोग दे सके?   
उक्त घटना क्रम को देखते हुए गंभीरता से विचारणीय विषय है,क्या किसी ऐसे इन्सान को स्वेच्छिक रूप से मरने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए है? जो
Ø  स्वस्थ्य जीवन जी पाने में असमर्थ है.लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर जीवित है.
Ø  जो परिवार के साथ सामान्य रूप से जीवन जीने में समर्थ नहीं है.उसका जीवन परिवार के लिए बोझ बन चुका है.
Ø  जो अपनी लम्बी और त्रासद बीमारी से परेशान  हो चुका है और ठीक होने के कोई असर नहीं है.
Ø  जब एक इन्सान को सम्मान से जीने का अधिकार है तो सम्मान के साथ मरने अधिकार क्यों नहीं है?           


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