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गुरुवार, 14 मई 2015

वर्तमान भौतिक वादी युग में बच्चों को कैसे संस्कारित किया जाये ? (प्रथम भाग)


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          [दुनिया ,देश और समाज के भविष्य को सुखद बनाने के लिए नयी पीढ़ी को आदर्शों और सिद्धांतों के प्रति प्ररिबद्ध करना आवश्यक है ,साथ ही साथ उन्हें इस प्रकार से संस्कारित किया जाय ताकि भविष्य में आने वाले तूफानों से वे अपने को बचा सकें .हमारे दिए हुए सार्थक संस्कारों की जड़ें इतनी मजबूत हों की वे कभी दिग्भ्रमित न हो पायें ,विचलित न हो पायें ,गलत राह पर न चले जाएँ .अर्थात प्रतिकूल वातावरण में भी अपने सिद्धांतों ,नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रख सकें.कुछ इस प्रकार से भी कह सकते हैं उन्हें तत्कालीन व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना आवश्यक है.हमारा स्वयं का आचरण भी महत्वपूर्ण है,बच्चों को संस्कारित करने के लिए.बच्चे के जन्म से पूर्व अपने आचरण को सुधार लें.]
          शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार मानव विकास की प्रथम सीढ़ी है .गत पचास वर्षों में हमारे देश में शिक्षा के प्रसार में द्रुत गति से प्रगति हुयी है .देश में शिक्षितों की संख्या तीव्रता से बढ़ी है सिर्फ पचास वर्ष पूर्व जहाँ स्नातक ढूँढने से ही मिलते थे . आज स्नातक की शिक्षा प्राप्त कर लेना प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर लेने के समान हो गया है.व्यावसायिक क्षेत्र में किया गया स्नातक अवश्य महत्त्व पूर्ण माना जाता है आज किसी कारोबारी क्षेत्र में स्नाकोत्तर किया हुआ व्यक्ति विद्वान् या योग्य व्यक्ति कहलाता है .जैसे मेडिकल लाइन में ,इंजीनियरिंग लाइन में ,वित्तीय लाइन में , इत्यादि में योग्यता प्राप्त करना सम्मान जनक होता है. आज  समय की मांग है की समाज में अपनी विद्वता का डंका बजाना है तो किसी भी क्षेत्र में विशेषज्ञता पाना आवश्यक है .आधुनिक युग में शैक्षिक विकास के साथ साथ भोतिकवाद की दौड़ भी तेज हुयी है .प्रत्येक व्यक्ति येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक सुख सुविधाएँ जुटा लेने को प्रयासरत है .जिसने गला काट प्रतिद्वंद्विता को जन्म दिया है .झूंठ ,मक्कारी धोखेबाजी ,चापलूसी ,हिंसा जैसे अवगुणों को अपनाना उसकी मजबूरी बन गयी है अर्थात नैतिकता का अस्तित्व समाप्त प्रायः होता जा रहा है .यह तो कटु सत्य है की बिना, नैतिक उत्थान के सिद्धांतों , की रक्षा किये मानव विकास संभव नहीं है . क्या ऐसे वातावरण में हमें आदर्शों को भूल जाना चाहिए ,या अपने बच्चों को आदर्शों पर अडिग रहने के लिए प्रेरित करना उचित होगा ? क्या वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में आदर्शों को कट्टरता से अपनाये रहने से ,वह उन्नति कर पायेगा ? क्या कोई अभिभावक अपने बच्चे को ज़माने की दौड़ में पिछड़ता हुआ देखना चाहेगा ? तो क्या बच्चों को आदर्शों से दूर रहने को कहना ठीक होगा ? क्या नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देना पड़ेगा ? क्या बिना नैतिक आचरण के समाज का कल्याण संभव है ? फिर कौन सा रास्ता अपनाया जाये ताकि आदर्शों की रक्षा भी हो सके और संतान की उन्नति भी प्रभावित न हो ?
          उपरोक्त सभी प्रश्नों को उत्तर यही है की हमें अपने बच्चों को इस प्रकार से संस्कारित करना होगा ताकि वे उसके भावी जीवन में आने वाले हर तूफ़ान का सामना कर सके , साथ ही जीवन के आदर्शों की रक्षा भी हो सके .उसके संस्कारों की जड़ें इतनी गहरी हों ताकि कोई उसे हिला न पाए .उसे दिग्भ्रमित न कर पाए ,वह विचलित न हो सके ,वह गलत रस्ते पर न चला जाये .और अपने जीवन की रक्षा भी कर सके .प्रतिकूल वातावरण में भी अपने नैतिक मूल्यों को संजो सके,उन्हें सुरक्षित रख सके .जैसे जैसे इन्सान शिक्षित होता जाता है उसकी तर्क शक्ति भी बढती जाती है.आज अपने बच्चों को अपनी सलाह मानने को मजबूर इसलिए नहीं कर सकते,की आप उसके बड़े हैं ,शिक्षक हैं , या माता पिता हैं.उसे कोई सलाह को मानने के लिए प्रेरित करना है तो अपनी सलाह देने के पीछे उसे तार्किक कारण भी समझाना होगा .यदि आप उसे ठीक प्रकार से समझा पाए तो ही वह आपकी शिक्षा या सलाह पर अमल करेगा.यही बढ़ी हुई तर्कशक्ति का समाज के कल्याण में उपयोग हो सकता और उचित दिशा निर्देश के अभाव में दुरूपयोग भी किया जा सकता है .क्योंकि यह मानव प्रकृति है की वह किसी शिक्षा के नकारात्मक पहलू को शीघ्र अपना लेता है ,जबकि सकारत्मक पहलू को देर से ग्रहण करता है .इसी कारण शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के साथ साथ दुनिया में चालबाजियां ,मक्कारियां ,बेईमानियाँ ,एवं गैर कानूनी गतिविधियों का ग्राफ भी तेजी से बढा है अब अपराध भी उच्च तकनीक वाले होते हैं.जो समाज को चुनौती देते रहते हैं.प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में आज जब कोई सिद्धांतों की बात करता है तो उसे पिछड़े पन का द्योतक माना जाता है .उसे पुराने ज़माने का सूफी सन्यासी मान कर नकार दिया जाता है.चतुर ,चालक ,स्वार्थी ,भौतिक वादी इन्सान को स्मार्ट एवं आधुनिक माना जाता है .ऐसे वातावरण में यदि हम अपने बच्चे को समाज के आदर्शों का पाठ पढ़ाते हैं ,तो वर्तमान परिपेक्ष में बच्चों के लिए समस्या बन जाती है उन्हें समझ नहीं आता की वे अपने शिक्षक की बातों या अपने अभिभावकों की बातों को मानकर उनके बताये आदर्शों पर चलें या समाज के माहौल के अनुसार चल कर अपने भविष्य में आगे बढ़ें . इस उहा पोह की स्थिति में शिक्षक के आदर्शों का पलड़ा हल्का हो जाता है और बच्चा उनकी उपेक्षा करने लगता है .शिक्षक के बताये आदर्शों को यदि पाठ्यक्रम के अनुरूप,परीक्षा पास करने के लिए, कंठस्थ करना आवश्यक है तो वह उस सन्देश को परीक्षा देने तक याद रखता है, तत्पश्चात भूल जाता है .क्या वर्तमान समय को देखते हुए क्या आदर्श की शिक्षा देना बंद कर देना चाहिए? क्या समाज में आदर्शों का कोई महत्व नहीं रहा गया है ?क्या कोई ऐसा मार्ग नहीं खोजा जा सकता ताकि आदर्शों की रक्षा भी हो सके और हमारी संतान सीना तान कर ज़माने से लड़ते हुए कामयाबी की सीढियों पर चढ़ सके .अर्थात आदर्शों की शिक्षा देने का तरीका इस प्रकार हो जो बच्चों का भविष्य चमका सके और उसमे दुनिया की बुराइयों से लड़ने की योग्यता भी विकसित हो सके .गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा में आदर्शों के साथ आगे बढ़ सके .इसके लिए हमें आदर्शों का परिचय कराते समय उसके व्यावहारिक स्वरूप को अपनाने के लिए प्रेरित करना होगा .आदर्शों को लचीलेपन के साथ अपनाया जाये आदर्शों को कट्टरता से न अपना कर परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जाये .बच्चों को नैतिक शिक्षा देते हुए उसके व्यावहारिक रूप में अपनाने के उपाय बताये जाएँ .ताकि बच्चे ज़माने के साथ चल कर अपने आदर्शों को भी अपनाते रहें और आदर्शों का अस्तित्व भी बना रहे .क्योंकि स्वास्थ्य समाज के विकास के लिए मानव को सभ्यता ,शिष्टता ,एवं अन्य आदर्श मानवीय मूल्यों को अपनाना भी नितांत आवश्यक है
व्याहारिक आदर्शों की शिक्षा की व्याख्या कुछ इस प्रकार की जा सकती है;-
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क्या हमें हमेशा सत्य बोलना चहिये ;
विश्वसनीयता कायम करने के लिए सत्य का दामन थामना व्यक्ति के लिए आवश्यक है . परन्तु आज के माहौल में सिर्फ सत्य बोलना अर्थात असत्य बोलने से परहेज करना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है.अतः सत्य का पाठ पढ़ाते समय पहले सत्य का जीवन में महत्त्व बताया जाय,सत्य व्यक्ति को समाज में सम्माननीय बनाता है ,विश्वसनीय बनाता है अतः सत्य बोलने का संकल्प लेना जीवन में कामयाब होने के लिए आवश्यक है. परन्तु विपरीत परिस्थितियों में असत्य बोलना भी किसी का जीवन बचा सकता है ,आपके किसी परिजन या मित्र के हितों की रक्षा के लिए ,या किसी षड्यंत्रकारी के फरेब से बचने के लिए झूंठ का दामन थामना कोई गलत नहीं होता .यदि झूंठ बोलने से किसी अपने का विश्वास टूटता है ,किसी के साथ धोखा होता है , ऐसे झूंठ से सदैव बचना चाहिए .यानि की सत्य बोल कर किसी का अहित नहीं करना चाहिय परन्तु झूंठ बोलकर किसी के साथ धोखा या विश्वासघात नहीं करना चाहिए . अतः यदि बच्चों को सिखाया जाय की सत्य बोलना एक उच्च आदर्श आचरण होता है और सफलता पाने का माध्यम भी.परन्तु विपरीत परिस्थितियों में कट्टरता के साथ सत्य का दामन पकडे रहना भी उचित नहीं है
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अह्निसा को अपनाना कितना उचित है ;
यह एक चिर परिचित आदर्श है और हमारे देश की पहचान भी.अतः हिंसा से दूर रहना इंसानियत का धर्म है .हिंसा शब्दों द्वारा भी हो सकती है और हथियारों से भी, दोनों ही हिंसा त्याज्य हैं ,अनुचित हैं .हमारे देश में सदैव दया भाव एवं अहिंसा की पूजा की गयी है .परन्तु यदि आपका दुश्मन आप पर वार करने का प्रयास करता है या वार कर देता है तो अपने बचाव के लिए हिंसा का सहारा लेना भी आवश्यक होता है.आत्मरक्षा में हिंसा का प्रयोग अनुचित नहीं है,साथ ही अपने परिजनों को असुरक्षित छोड़ कर खतरों से दूर भागने का नाम अहिंसा नहीं हो सकती,परन्तु निरपराध व् निरीह प्राणियों से हिंसक व्यव्हार करना अवांछनीय है.वास्तविकता यह है की मांसाहारी व्यक्ति भी हिंसक ही हुआ,परन्तु सिर्फ उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में ही शुद्ध शाकाहारी लोग है ,अन्यथा समस्त विश्व में मांसाहार किया जाता है.अब यदि आप अपने बच्चे को शुद्ध शाकाहारी रहने की सख्त हिदायत देते हैं तो उसके लिए दुनिया के सभी क्षेत्र वर्जित हो जायेंगे ,अर्थात आपका बालक कुएं का मैण्डक बन कर रह जायेगा .वर्तमान वैश्वीकरण के युग में समस्त विश्व मानव का कार्यक्षेत्र बन चुका है अतः उन्नत रोजगार प्राप्त करने ,उन्नत व्यापार करने ,शिक्षा प्राप्त करने या फिर मात्र भ्रमण करने के लिए विदेशों में जाना साधारण बात हो गयी है .आपके बच्चे के लिए अहिंसा का पाठ उसके विकास में बाधक बनकर खड़ा रहेगा , क्या आदर्श का यह स्वरूप आपके बच्चे के सुखद भविष्य के लिए उचित होगा ?.क्योंकि अहिंसा पर अमल करते हुए वह शाकाहारी भोजन न मिल पाने की स्थिति में कैसे जीवित रह सकेगा ?अतः क्या यह उचित नहीं होगा उसे पढाया जाये की मांसाहर करना उचित नहीं है , परन्तु अन्य विकल्प के अभाव में यदि मांसाहार करके भूख मिटाई जा सकती है , तो अपने जीवन को बचाने के लिए मांसाहार करना त्याज्य नहीं है .और जब भी .शाकाहारी भोजन उपलब्ध हो जाय, तुरंत मांसाहार से अलग हो जाना चाहिए| परन्तु यह भी आवश्यक है मांसाहार को आपका शरीर स्वीकार कर ले अन्यथा भूखे रह जाना ही श्रेयस्कर होगा .
अहिंसा को इस रूप में समझा जाये ,हमलावर मत बनो परन्तु यदि कोई आप के ऊपर हमला करता है, तो आत्म रक्षा में हिंसा करना ,हमलावर को माकूल जवाब देना कोई गुनाह नहीं है

( शेष भाग अगले ब्लॉग में ).

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