सिर्फ हमारे देश में ही नहीं विश्व भर के अनेकों देशों में पुनर्जन्म की धारणा चली आ रही है .जबकि चिकित्सा विज्ञानं के शोधों में मानव उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार कारकों का पता लगाया जा चुका है .शोधों के अनुसार पुरुष के जननांग से उत्सर्जित असंख्य (करोड़ों में ) शुक्राणुओं में कोई एक शुक्राणु निषेचित हो कर ही मानव का उद्भव होता है .यह कैसे संभव है करोड़ों शुक्राणुओं में से पुनर्जन्म लेने वाला शुक्राणु हि निषेचित होगा ?पुनर्जन्म की धारणा को पुष्ट करने के लिए समय समय पर अनेक घटनाओ का विवरण दिया जाता है ,जिनका तर्क संगत उत्तर अभी विज्ञानं ढूंढ नहीं पाया है ,परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है की पुनर्जन्म की धारणा को सत्य मान लिया जाय .
कुछ मान्यताओं के अनुसार व्यक्ति मारने के पश्चात् आत्मा के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखता है जिसे विज्ञानं नकार चुका है .चिकत्सा विज्ञानं के अनुसार व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसका अस्तित्व पूर्णतयः ख़त्म हो जाता है .
पुनर्जन्म की घटनाएँ एक ही भाषा वाले समाज के अंतर्गत घटती हैं ?हिंदी बोलने वाला व्यक्ति तमिल भाषी या रूसी भाषी परिवार में जन्म क्यों नहीं लेता .?ब्रिटेन में मारने वाला इन्सान भारत में क्यों नहीं जन्म लेता ? जो स्वयम सिद्ध करता है पुनर्जन्म की धारणा या इसमें विश्वास तर्कहीन एवं कपोलकल्पित है .
श्राद्धों का आयोजन ;
shraddh ka ayojan |
आज के भौतिक वादी युग में अक्सर देखा गया है ,घर में मौजूद जीवित रहते बुजुर्गों की पसंद - नापसंद एवं उनका मान सम्मान करना युवा पीढ़ी भूलती जा रही है . और कभी कभी तो उन्हें बीते वर्ष का केलेंडर मान कर उनकी मौत की प्रतीक्षा करते देखा जाता है .परन्तु मरणोपरांत समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए तथाकथित सजल नेत्रों से श्रद्धा पूर्वक याद करने की परंपरा निभाई जाती है .इस प्रकार श्राद्ध का आयोजन श्रद्धा कम ढोंग प्रपंच अधिक प्रतीत होता है .जीते जी उन्हें संतुष्ट नहीं कर सके तो मननोपरांत श्राद्ध का ढोंग करने का क्या औचित्य है ? यदि उनके जीवन कल में ही उन्हें श्रद्धा भाव तथा सम्मान दे पायें तो इनका वृद्ध जीवन सहज हो सकता है . संतान के लिए यही सबसे बड़ा श्राद्ध है .
जो व्यक्ति अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा नत है तो श्राद्ध के दिन गरीबों को दान देकर उनका स्मरण किया जा सकता है .इस प्रकार से श्राद्ध मानना एक अच्छी और सार्थक परंपरा हो सकती है .
यों तो प्रत्येक नदी में स्नान को महत्वपूर्ण माना गया है ,परन्तु गंगा और यमुना में स्नान को सभी पापों से मुक्ति के साधन माना गया है . गंगा जल के महत्त्व को तो वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है .परन्तु जिस प्रकार कल कारखानों का कचरा एवं नालों का गन्दा पानी गंगा में डाला जाता है ,गंगा जल आज पूर्णतयः प्रदूषित हो चुका है .इसी प्रकार से यमुना नदी भी गंदे नाले में परिवर्तित हो चुकी है और वर्तमान में इन नदियों में नहा कर मुक्ति की आकांक्षा करना बिलकुल अप्रासंगिक हो गया है चिकत्सा शास्त्रियों के अनुसार आज इन नदियों में नहाना तो दूर छूना भी हानिकारक हो चुका है .अतः उसमें नहाकर मुक्ति की कल्पना करना कितना तर्कसंगत है ?
यदि इन नदियों में स्नान कर स्वास्थ्य लाभ लेना है तो पहले उन्हें प्रदूषण मुक्त करना होगा .जब नदियाँ स्वयं अभिशप्त हो चुकी हैं तो किसी को मुक्ति का कारण कैसे बन सकती हैं .इस प्राचीन धरोहर को मानव के लिए हितकारी बनाने के लिए, नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए एक आन्दोलन करना होगा .तत्पश्चात ही उपरोक्त मान्यता सार्थक बन सकती है .
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