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रविवार, 6 मार्च 2016

व्यवसायी एवं व्यापारी को भी चाहिए आर्थिक सुरक्षा कवच (द्वितीय भाग)


       अनेकों बार करोड़ पति निजी व्यवसायी या व्यापारी, उद्योगपति विषम परिस्थितियों में दिवालिया की स्थिति तक पहुँच जाते हैं,उस समय उनके लिए अपने भरण पोषण के लिए आर्थिक व्यवस्था कर पाना असंभव हो जाता है,कोई भी उसकी सहायता के लिए सामने नहीं आता,सरकार से भी किसी प्रकार की मदद नहीं मिल पाती और वह  अपना शेष जीवन अभावों और अपमान के साथ जीने को मजबूर हो जाता है.जो व्यक्ति इस विपदा को सहन नहीं कर पाते वे,तनाव के कारण अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं,और कभी कभी समय से पूर्व ही काल का ग्रास बन जाते हैं.
     अनेक बार निजी व्यवसायी किसी दुर्घटना का शिकार हो जाता है वह अपंग हो जाता है,या किसी गंभीर बीमारी के शिकार हो जाता है और महीनो तक सामान्य स्थिति में नहीं आ पाता ताकि वह अपने कारोबार या व्यवसाय को संभाल सके, यदि उसके पास कोई अपना अन्य विकल्प भी नहीं है.ऐसे व्यक्ति के लिए स्वयम का और परिवार का भरण पोषण करना असंभव हो जाता है.
      जब व्यापारी ,उद्योगपति अथवा व्यवसायी वृद्ध अवस्था में पहुँच जाता है तो सभी के पास विकल्प(उत्तराधिकारी) मौजूद नही होते,ऐसी स्थिति में उसे अपना कारोबार समेटना पड़ता है अथवा कर्मियों के सहारे काम चलाना पड़ता है, जो उसे कष्टदायक स्थिति तक ले सकता है और आर्थिक संकट से जूझने को मजबूर कर देता है, उनका जीवन भर का मान सम्मान धूमिल हो जाता है.वे अपने जीवन के निम्नतम स्तर पर जीवन बसर करने को मजबूर हो जाते है.यह भी आवशयक नहीं है की प्रत्येक कारोबारी के पास इतनी धनराशी हो जिसके ब्याज से वह अपने शेष जीवन व्यतीत कर सके. निरंतर बढती महंगाई बड़ी से बड़ी जमा पूँजी को महत्वहीन कर देती है.
  अनेक कारोबारियों के सामने जब विकट स्थिति हो जाती है, जब उसका कारोबार तो बहुत अच्छा होता है परन्तु वृद्धावस्था में उसकी संतान उसके कारोबार में मददगार नहीं होती, वह अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य पर पहुँच चुकी  होती है,कुछ युवा विदेश में जाकर बस जाते हैं.अतः कारोबार को समेटना उसकी मजबूरी हो जाती है.यह भी आवश्यक नहीं है सबकी संताने अपने परिवार की जिम्मेदारी को समझते हों.और परिवार को यथा संभव योगदान देते हों.
     कुछ पेशेवर कारोबारी ऐसे होते है जो अपने कारोबार को सीधे सीधे अपनी संतान को नहीं सौंप सकते और संतान उसके समान योग्यता प्राप्त नहीं कर पाती,जैसे डॉक्टर,इंजिनियर,वकील इत्यादि.और वह पारंपरिक व्यवसाय से हट कर किसी अन्य व्यवसाय में भी इतने सफल नहीं हो पाते,जिससे वह अपने वृद्ध माता पिता को आर्थिक योगदान कर सके.ऐसी स्थिति में कारोबारी के लिए अपना  शेष जीवन सम्मान सहित निकलना असंभव हो जाता है.
      सभी माता पिता इतने भाग्यशाली नहीं होते जब उनके पुत्र या पुत्री मेंधावी,परिश्रमी,बफादार,चरित्रवान और जिम्मेदार हों. गलत रास्तों पर निकल चुकी संतान के माता पिता के लिए तो अपने द्वारा कमाए धन की रक्षा कर पाना भी मुश्किल हो जाता है और भविष्य पूर्णतयः अंधकार मय दिखाई देने लगता है.जब संतान अपना भरण पोषण के योग्य भी नहीं हो पाती तो माता पिता के लिए क्या कर सकेगी.
उपरोक्त कारोबारियों की समस्याओं के समाधान के लिए कुछ सुझाव नीचे प्रस्तुत हैं;

    व्यवसायी से प्राप्त सभी प्रकार के टेक्स के रूप में राजस्व को उसके खाते में दर्ज किया जाय और इस कुल जमा की राशी के अनुपात में उसे उसके आपात काल में कुछ सहायता देने का प्रावधान किया जाय,और वृद्धावस्था में जब तक उसके खाते में जमा कुल धनराशी के ब्याज के बराबर उसे पेंशन की सुविधा दी जाय,इस प्रकार से वह सुरक्षित जीवन जी सकेगा,साथ ही अपने कार्यकाल में अधिक से अधिक टेक्स देने का प्रयास करेगा ताकि उसका भविष्य सुरक्षित हो जाय. इस प्रकार से सरकार को अतिरिक्त राजस्व भी प्राप्त होने की सम्भावना बनेगी, आम कारोबारी कर अपवंचन की सोच छोड़ सकेगा.
     कुछ ऐसे छोटे कारोबारी,व्यापारी भी होते हैं जिन पर टेक्स अदा करने की जिम्मेदारी नहीं होती,वे सिर्फ(उत्तर प्रदेश) श्रम विभाग में पंजीकृत होते हैं, और प्रति वर्ष पंजीयन शुल्क देते हैं,ऐसे छोटे कारोबारी को उसके द्वारा दिए गए पंजीयन शुल्क में से कुछ अंश बीमा कम्पनी को देकर उनका बीमा कर दिया जाय,और बीमा धारी को आकस्मिक म्रत्यु पर मिलने वाले लाभ के अतिरिक्त बीमा पालिसी के परिक्पक्व होने पर बीमा राशी और बोनस बीमाधारी को न दे कर उसके साठ वर्ष की आयु पहुँचने तक राशी बीमा कम्पनी के पास बनी रहे.और उसे पर ब्याज की राशी को जोड़ती रहे. साठ की आयु होने पर उसकी कुल राशी पर उसे आजीवन ब्याज उपलब्ध कराया जाय. उसके मरणोपरांत उसके उत्तराधिकारी को शेष राशी दे दी जाय. इस प्रकार से उसका  शेष जीवन अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक हो सकेगा        
      जिनकी संतान उसके बुढ़ापे में उसकी पूरी जिम्मेदारी निभाती है,उनकी शारीरिक,मानसिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं को यथा शक्ति पूर्ण करती हैं. परन्तु माता पिता के लिए उस पर निर्भर रहना उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है और उसे अपना अस्तित्व परिवार पर बोझ का अहसास कराता है.जो कभी अपने कारोबार का बॉस था और परिवार उसकी अर्जित आय से चलता था परन्तु अंत में उसे निर्भर होने को मजबूर करता है.यदि संतान को उसकी अपने माता पिता के भरण पोषण के बदले में उसके द्वारा की जा रही आय में से घर के बुजुर्ग पर किये गए खर्च को आय कर मुक्त कर दिया जाय. ताकि परिवार  के बुजुर्ग अपने को किसी की दया का पात्र बनने का अहसास न हो सके.और संतान उत्साह के साथ उसे आर्थिक योगदान कर सके.
      वर्तमान में सभी बैंकों में वरिष्ठ नागरिको को उनकी मियादी जमा राशी पर आधा प्रतिशत ब्याज अतिरिक्त दिया जाता है.यदि यह अतिरिक्त ब्याज आधे से बढ़कर दो प्रतिशत कर दिया जाय तो बुजुर्गो को कुछ राहत मिल सकती है,परिवार के अन्य सदस्य भी उस बुजुर्ग के नाम से ऍफ़,डी कर अतिरिक्त ब्याज से बुजुर्ग की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकेंगे.बेंको द्वारा दिया गया अतिरिक्त ब्याज को केंद्र सरकार वहन  करे ताकि बेंकों के हितों को नुकसान न हो.
      व्यवसायी सरकारी विभाग में जहाँ भी पंजीकृत हो उसे चिकित्सा बीमा सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जाय ताकि उसे कार्यकारी दिवसों और वृद्धावस्था में चिकित्सा सम्बन्धी समस्या न आये.और खुश हाल जीवन जी सके,उसके बीमार होने पर सरकारी राजस्व की हानि भी तो होती है.
      जो कारोबारी साठ की आयु पार करने के बाद भी कार्य रत हैं उनके द्वारा अर्जित आय पर न्यूनतम स्लेब के अनुसार टैक्स लिया जाय,इस प्रकार  से उसका परिवार में मान सम्मान बढेगा.उसे संतान द्वारा अपदस्थ किये जाने की संभावना बहुत कम हो जाएगी,और उसे कार्य रत रहने के लिए परिजनों का विशेष सहयोग मिलेगा और उसका बुढ़ापा अच्छी देखभाल के साथ व्यतीत होगा.
   सभी व्यापारिक,एवं व्यासायिक संगठनों को इस विषय पर गंभीरता से सोचना चाहिए,जो कारोबारी दुर्भाग्य वश किसी अनहोनी का शिकार हो जाते हैं, वे भी आपके अपने हैं. अतः उनसे एकदम नाता तोड़ देना भी ठीक नहीं है और हादसे किसी के साथ भी हो सकते हैं.अतः संगठनों के अधिकारी निजी स्वार्थ और राजनीती से अलग सोचते हुए अपने समूह के सदस्यों के हितों को साधने के लिए वित्तमंत्रालय और श्रम मंत्रालयों से संपर्क बनाये और उनसे कारोबारी के हितों को मनवाने में दबाव बनायें.उन पर दबाव बनाने के लिए  व्यापक स्तर पर आंदोलनों  का सहारा लें  ताकि राजनैतिक पार्टियाँ अपने चुनवा घोषणा पत्र  में कारोबारियों के कल्याण की योजनायें पेश कर सकें और सत्ता में आने पर यथा संभव प्रयास कर सकें. निजी कारोबारी के उत्थान से ही देश का उत्थान संभव है.(SA-178C)




                   

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

भारतीय कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ

(घर में सम्मान पाने ,घरेलु हिंसा से बचने,एवं परिजनों के अपमान से बचने के लिए जब एक महिला आत्म निर्भर होने के लिए घर से बाहर निकलती है, तो उसे समाज और पुरुष सत्तात्मक सोच रखने वालों से सामना करना पड़ता है,अनेक लोगों की टीका टिप्पड़ियों,अर्थात तानाकशी, घूरती निगाहों से सामना करना पड़ता है.) 
 भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति सदियों से दयनीय रही है, उनका हर स्तर पर शोषण और अपमान होता रहा है. पुरुष प्रधान समाज होने के कारण सभी नियम, कायदे, कानून पुरुषों के हितों को ध्यान में रख कर बनाये जाते रहे. खेलने और शिक्षा ग्रहण करने की उम्र में बेटियों की शादी कर देना और फिर बाल्यावस्था में ही गर्भ धारण कर लेना, उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होता रहा है. महिला को सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन बना कर रखा गया (आज भी पिछड़े क्षेत्रों में यह परम्परा जारी है). परिणाम स्वरूप प्रत्येक महिला अपने जीवन में दस से बारह बच्चो की माँ बन जाती थी, इस प्रक्रिया के कारण उन्हें कभी स्वास्थ्य को ठीक करने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिलता था. अनेकों बार,कमजोर शरीर के रहते गर्भ धारण के दौरान अथवा प्रसव के दौरान उन्हें अपना जीवन भी गवाना पड़ता था, स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण जीवन अनेक बीमारियों के साथ व्यतीत करना पड़ता था. सदियों तक देश में विदेशी शासन होने के कारण उनकी समस्याओं की कही कोई सुनवाई भी नहीं की गयी, शिक्षा के अभाव में वे इसे ही अपना नसीब मान कर सहती रहती थी. इसके अतिरिक्त दहेज़ प्रथा जैसी कुरीतियों के कारण भी महिलाओं को कभी भी सम्मान से नहीं देखा गया. अक्सर परिवार में पुत्री के होने को ही अपने दुर्भाग्य की संज्ञा दी जाती रही है.बहू के मायके वालों के साथ अपमान जनक व्यव्हार आज भी जारी है.इसी कारण परिवार में लड़की के जन्म को टालने के लिए हर संभव प्रयास किये जाते रहे, जो आज कन्या भ्रूण हत्या के रूप में भयानक रूप ले चुका है. देश को आजादी मिलने के पश्चात् भारतीय संविधान ने महिलाओं के प्रति संवेदना दिखाते हुए, उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किये, और आजाद देश की सरकारों ने महिलाओं के हितों में समय समय पर अनेक कानून बनाये, शिक्षा के प्रचार प्रसार को महत्व दिया गया और बच्चियों को पढने के लिए प्रेरित किया गया इस प्रकार से जनजागरण होने के कारण महिलाओं ने अपने हक़ को पाने के लिए और पुरुषों द्वारा किये जा रहे अन्याय के विरुद्ध अनेक आन्दोलनो के माध्यम से अपनी आवाज बुलंद की,और समाज में पुरुषों के समान अधिकारों की मांग की. देश में महिला के हितों के लिए महिला आयोग का गठन किया गया, जो महिलाओं के प्रति होने वाले अन्याय के लिये संघर्ष करती है,उनके कल्याण के लिए शासन और प्रशासन से संपर्क कर महिलाओं की समस्याओं का समाधान कराती हैं. २०१२ में प्राप्त आंकड़ों के अनुसार कामकाजी महिलाओं की कुल भागीदारी मात्र २७% है. अर्थात इतना सब कुछ होने के बाद भी, आज भी महिलाओं की स्थिति में बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता है, अभी तो अधिकतर महिलाओं को यह आभास भी नहीं है की वे शोषण का शिकार हो रही हैं और स्वयं एक अन्य महिला का शोषण करने में पुरुष समाज को सहयोग कर रही है. महिलाओं को परिवार और समाज में अपना सम्मान पाने के लिए आर्थिक रूप से निर्भर होने की सलाह दी जाती है.यद्यपि प्राचीन काल से मजदूर वर्ग की महिलाये अनेक प्रकार के काम काज करती रही हैं,कुछ क्षेत्रों में जैसे घरों, सड़कों इत्यादि की साफ सफाई,कपडे धोना,नर्सिंग(दाई),सिलाई बुनाई,खेती बाड़ी सम्बन्धी कार्य इत्यादि में तो इनका एकाधिकार रहा है.अतिशिक्षित परिवारों,एवं उच्च शिक्षित परिवारों की महिलाएं पहले से ही उच्च पदों पर आसीन होकर कामकाज करती रही हैं. जहाँ तक उच्च शिक्षित परिवारों की महिलाओं की बात की जाय तो उन परिवारों में महिलाएं अपेक्षाकृत हमेशा से ही सम्मान प्राप्त रही हैं. परन्तु मजदूर वर्ग में शिक्षा के अभाव में रूढीवादी समाज के कारण आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी अपमानित होती रहती थीं और आज भी विशेष बदलाव नहीं हो पाया है. महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने,और शिक्षित होने के चलते मध्य वर्गीय परिवार की महिलाएं भी नौकरी, दुकानदारी अर्थात व्यापार, ब्यूटी पारलर,डॉक्टर जैसे व्यवसायों में पुरुषो के समान कार्यों को अंजाम देने लगी हैं.डॉक्टर,वकील,आई.टी.,सी.ए.पोलिस जैसे क्षेत्रों में आज महिलाओं की बहुत मांग है. परन्तु हमारे समाज का ढांचा कुछ इस प्रकार का है की महिला को कामकाजी होने के बाद भी नए प्रकार के संघर्ष से झूझना पड़ता है,अब उन्हें अपने कामकाज के साथ घर की जिम्मेदारी भी यथावत निभानी पड़ती है. उसके लिए उन्हें सवेरे जल्दी उठ कर अपने परिवार अर्थात बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों के लिए भोजन इत्यादि की व्यवस्था करनी होती है, बच्चों के सभी कार्यों को शीघ्र निबटाना पड़ता है,उसके पश्चात् संध्या समय लौटने के बाद गृह कार्यों में लगना होता है.क्योंकि परिवार के पुरुष आज भी घर के कार्यों की जिम्मेदारी सिर्फ घर की महिला की ही मानते हैं.कुछ पुरुष तो कुछ भी सहयोग करने को तैयार नहीं होते, यदि महिला उन पर दबाब बनाती है तो अक्सर पुरुषो को कहते सुना जाता है, की अपनी नौकरी अथवा कामकाज छोड़ कर घर के कार्यों को ठीक से निभाओं,महिला की जिम्मेदारी घर सँभालने की होती है. मजबूरन महिला दो पाटन के बीच पिस कर रह जाती है.जो महिलाये आर्थिक रूप से सक्षम होती है वे अवश्य घर के कार्यों को निबटाने के लिए, बच्चो के कार्यों में सहयोग के लिए आया और कुक की व्यवस्था कर लेती हैं, परन्तु गरीब एवं अल्प मध्य वर्गीय परिवारों की महिलाओं के लिए आज भी यह सब कुछ संभव नहीं है. महिला के लिए नियोक्ता भी सहज नहीं दीखता,क्योकि हमारे देश के कानून में महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी नियोक्त पर होती है, वह उससे देर रात तक कार्य नहीं ले सकता,उसे सवेतन मातृत्व अवकाश भी देना होता है, पुरुष कर्मियों के समान भारी कार्यों को उन्हें नहीं सौंप सकता, व्यासायिक कार्यालय से बाहर के कार्यों को भी उनसे कराना उनकी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए जोखिम पूर्ण होता है इत्यादि. परन्तु अनेक पदों पर जैसे यात्रियों को घर जैसा अनुभव देने के लिए एयर होस्टेस, महिला एक ममता की प्रतिमूर्ति होने के कारण अस्पतालों में नर्स, आगंतुकों, ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए बड़े बड़े वाणिज्यिक संस्थानों के स्वागत कक्ष में रिसेप्निष्ट, मार्केटिंग के लिए सेल्स गर्ल, छोटे छोटे ढाबो में ग्राहकों को घर के खाने जैसा स्वाद की कल्पना करने के लिए अधेड़ या बूढी महिला को नियुक्त करना,उनकी मजबूरी भी होती है.महिलाओं की ईमानदारी,बफादारी,कर्मठता के कारण भी महिलाओं की नियुक्ति करना नियोक्ता के हित में होता है. घर में सम्मान पाने ,घरेलु हिंसा से बचने,एवं परिजनों के अपमान से बचने के लिए जब एक महिला आत्म निर्भर होने के लिए घर से बाहर निकलती है, तो उसे समाज और पुरुष सत्तात्मक सोच रखने वालों से सामना करना पड़ता है,अनेक लोगों की टीका टिप्पड़ियों,अर्थात तानाकशी, घूरती निगाहों से सामना करना पड़ता है. उद्दंड व्यक्तियों की छेड़खानियों से बचने के लिए उपक्रम करने होते हैं,कभी कभी तो बलात्कार और प्रतिरोध स्वरूप हत्या का शिकार भी होना पड़ता है. जब वह अपने कार्य स्थल अर्थात ऑफिस,फेक्ट्री पर पहुँचती है तो उसे अपने सहयोगियों और बॉस की दुर्भावनाओं का शिकार होना पड़ता है. संध्या समय अपने कार्य स्थल से लौटते समय भी उसे अनेक अनहोनी घटनाओं की आशंका से ग्रस्त रहना पड़ता है.उसके मन में व्याप्त असुरक्षा की भावना आज भी उसकी उसके लिए जीवन को कष्ट दायक बनाये हुए है. पुलिस से भी उसे कोई सकारात्मक पहल की उम्मीद नहीं होती अनेक बार तो वह उनके दुर्व्यवहार का भी शिकार हो जाती है. महिलाओं को अपने वेतन के मामले में भी शोषण का शिकार होना पड़ता है, जब उन्हें पुरुषों के मुकाबले (गुप चुप तरीके से—गैर कानूनी होने के कारण) कम वेतन के लिए कार्य करना पड़ता है. पुरुष प्रधान समाज की सोच में अभी उल्लेखनीय परिवर्तन देखने को नहीं मिलता,साथ ही हमारी लचर न्याय व्यवस्था के कारण,यदि कोई महिला सरेआम किसी अत्याचार का शिकार होती है तो समाज के लोग उसका बचाव करने से भी डरते हैं. अतः उसे समाज और भीड़ से भी अपने पक्ष में माहौल मिलने की सम्भावना कम ही रहती है.यदि यह कहा जाय की जिस शोषण की स्थिति से निकलने के लिए वह घर की चार दिवारी से बाहर आई थी, उस मकसद में सफल होना अभी दूर ही दिखाई देता है.(SA-182D)
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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

चक्र व्यूह में फंसा भारतीय लोकतंत्र (अंतिम भाग)


चुनाव पद्धति में खामिया;
    गत दिनों बिहार में ऐसे घुर विरोधी दल महागठबंधन में शामिल हो गए जो कभी स्पष्ट रूप से एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे, सिर्फ इसलिए ताकि भा.ज पा सत्ता में न आ जाये.क्योंकि आज नेताओं के कोई सिद्धांत बाकी  नहीं रह गए हैं उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए. उनकी रणनीति कारगर साबित हुई और परस्पर विरोधी सिद्धांतों के दल (आर.जे.डी.और जे. डी.यू.) एक साथ सत्ता के भागी दार बन गए. यहाँ पर यह कहना भी अनुचित न होगा कही न कही हमारी चुनावी प्रक्रिया में खामिया भी है, जिसके कारण मात्र २५% प्रतिशत जनता के वोट प्राप्त कर कोई भी दल या उम्मीदवार सत्ता पर काबिज हो जाता है,कहने का तात्पर्य है की सत्ताधारी  दल जनता के बहुमत से जीता हुआ नहीं होता बल्कि जनता उसके विरोध में अधिक होती है. क्योंकि उसके मत विभिन्न दलों में बंटें हुए होते है और जिसे अधिक मत मिलता है वह जीत जाता है, न की कुल मतदाताओं के बहुमत से.इस प्रकार से अधिकतर चुनाव की जीत वास्तविक जनता की इच्छा को परिलक्षित नहीं कर पाती. यही वजह थी बिहार में एक हो गए तमाम विरोधी पार्टियों के गठबंधन को जीत प्राप्त हो गयी और सभी  दलों से अधिक मत पाने वाली भा.ज पा सत्ता से बाहर रह गयी.एक प्रकार से कहा जा सकता है हमारे देश में अभी सच्चे लोकतंत्र का अभाव रहा है जो जनता की वास्तविक भावनाओं को परिलक्षित कर सके और अधिकतर जीतने वाला प्रतिनिधि जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करता,चुनाव में आधे से अधिक मत उसके विरोध में पड़ते है अर्थात किसी अन्य  उम्मीदवार को मिले होते हैं.इस प्रकार आजादी के पश्चात् से अक्सर बहुमत में जनता का मत विरोध में पड़ने के बाद भी कांग्रेस के  उम्मीदवार जीतते रहे और कांग्रेस को सत्ता प्राप्त होती रही क्योंकि जनता के वोट अनेक दलों में बाँट कर महत्वहीन हो जाते रहे हैं. अतः हमारी चुनावी पद्धति में खामियों के कारण हमारी चुनी हुई सरकार जनता का वास्तव में प्रतिनिधित्व नहीं करती, और सरकार जन  भावना के अनुरूप कार्य नहीं करतीं. अतः यह भी आवश्यक है हमें अपनी चुनाव प्रक्रिया में इस प्रकार से बदलाव करें ताकि जीतने वाले उम्मीदवार को कुल मत दाताओं के आधे से अधिक मतदाताओं का समर्थन प्राप्त हो तब ही वह जीत का हक़दार बने.सही मायने में वही जनता का वास्तविक प्रतिनिधि होगा और जन आकाँक्षाओं के अनुरूप कार्य कर सकेगा,जन कल्याण की बात सोच सकेगा.
जनता की गाढ़ी कमाई की लूट;
   कुछ दिनों पूर्व ही  सातवे वेतन योग की रिपोर्ट आयी थी, जिसमें हर बार की भांति इस बार भी सरकारी कर्मचारियों को दिल खोलकर वेतन वृद्धि का तोहफा दिया गया है,साथ ही पेंशनर्स को भी भरपूर बिना कुछ किये घर बैठे भारी राशी उपलब्ध करायी जा रही है,नित्य नए नए फ़ॉर्मूले अपना कर उन्हें धन लाभ उपलब्ध कराया जा रहा है इस सबका बोझ सीधे सीधे जनता पर पड़ता है,उस पर अनाप शनाप टेक्स का बोझ डालकर वसूल किया जाता है और उससे वसूले गए टेक्स से प्राप्त राजस्व को अपने कर्मचारियों के वेतन पर खुलकर.असंगत तरीके से खर्च कर दिया जाता है. पेंशनर्स को पेंशन देने का अभिप्राय था उनका शेष जीवन का भरण पोषण, बिना कष्ट के चलता रहे,और यह तर्क संगत भी है, की सरकारी सेवा से निवृत कर्मचारियों के भरण पोषण की व्यवस्था की जाय.परन्तु पेंशन का अर्थ उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं तक सीमित होना चाहिए था,जनता से वसूले गए टेक्स से उनकी सभी इच्छाओं की व्यवस्था करना जनता के साथ अन्याय है.इसके अतिरिक्त सरकार की जिम्मेदारी जनता के अन्य वर्ग के प्रति भी है विशेष तौर से जो अपने कार्यकाल में  सरकारी खजाने को भरने में अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करते हैं,जैसे व्यापारी,व्यवसायी या निजी कारोबारी.उन्हें भी कभी कभी बुरे समय(व्यक्तिगत दुर्घटना,व्यावसायिक स्थल पर आगजनी,चोरी डकैती,हेरा फेरी,रंगदारी,अपहरण,संतान से बैर या उसका दुर्व्यवहार इत्यादि) का सामना करना पड़ता है जब उन्हें भरण पोषण करने लायक भी साधन नहीं होते. क्या सरकार के खजाने को भरने में सहयोग करने वालों को उनके बुरे समय में जीवन चलाने के लिए पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार नहीं है.इसी प्रकार आज भी करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो गरीबी रेखा से जीवन को जीने को मजबूर हैं,जिन्हें दो समय का भोजन भी उपलब्ध नहीं हो पाता,क्या सरकार का उनके प्रति कोई कर्तव्य नहीं बनता,ताकि वे भी इन्सान की जिन्दगी जी सकें.समाज वाद और समानता का अधिकार सिर्फ सरकारी कर्मियों तक ही सीमित है.क्या जनता से प्राप्त टेक्स को सरकारी कर्मचारियों में बाँटने का ही सरकार का कर्तव्य है? जनता द्वारा भारी मात्रा में  टैक्स देने के बाद भी विकास कार्य नहीं हो पाते, क्योंकि उसके  टेक्स से प्राप्त राजस्व का बहुत बड़ा भाग सरकारी कर्मियों के बेतहाशा बढे वेतन और पेंशन में चला जाता है और वर्तमान व्यवस्था के अनुसार आगे भी जाता रहेगा.
     यह बात मानी जा सकती है की सरकारी कर्मी को आम तौर में बाजार के वेतन मानों से अधिक वेतन दिया जाय ताकि उनमें जनहित के कार्य करने की इच्छा बनी रहे.परन्तु बाजार में प्रचलित वेतन मान से अनेक गुना वेतन देना, किसी भी प्रकार से देश के हित में नहीं माना जा सकता.एक आम स्कूल अध्यापक का वेतन वर्तमान जीवन शैली,और प्रचलित मूल्यों के अनुसार पंद्रह हजार आम तौर से स्वीकार्य है, जबकि बेरोजगारी के कारण आज भी तीन हजार से पांच हजार तक प्रति माह में अनेक युवा कार्य करने को तैयार रहते हैं और निजी स्कूलों में कार्यरत भी हैं. परन्तु सरकारी अध्यापकों को उसी श्रेणी में पैतीस से चालीस हजार मिलते हैं, जबकि वे कार्य के नाम पर सिर्फ उपस्थिति दर्ज करने में अपनी रूचि रखते हैं, सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों की प्रतिभा का आंकलन कर ज्ञात किया जा सकता है,की वे क्या पढ़ रहे हैं.सरकारी स्कूलों के कितने बच्चे वर्तमान प्रतिस्पर्द्धा को झेल पाते हैं. यही कारण है सरकारी अध्यापक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढाना उचित मानते हैं.आखिर क्यों, ऐसे अध्यापको को इतना अधिक वेतन उपलब्ध कराया जाय,जो सिर्फ जनता के धन की बर्बादी है.
       इसी प्रकार से अन्य पदों पर विराजमान अन्य सरकारी कर्मियों के वेतन का भी यही हाल  है.एक अन्य उदाहरण के तौर पर एक साधारण क्लर्क जो पंद्रह हजार में उपलब्ध हो सकता है, सरकार उन्हें चालीस हजार से साठ हजार तक वेतन उपलब्ध कराती है और आगे भी नियमित बढ़त जारी रहती है. सरकारी इंजिनियर जो टेक्नीकल ज्ञान के लिए नियुक्त किये जाते हैं परन्तु उनकी रूचि सिर्फ टेंडर पास करने और माल खरीदने में ही रहती है, ताकि उनकी अतिरिक्त आमदनी की  सम्भावना हो सके. आधे से अधिक इंजिनियर तो तकनिकी ज्ञान  भूल भी चुके होते हैं और अपने अंतर्गत छोटे कर्मचारियों पर पूरी तरह से निर्भर रहते हैं, परन्तु उन्हें वेतनमान  निजी कम्पनी में कार्य करने वाले इंजिनियर से भी अधिक उपलब्ध कराया जाता है और उनका भविष्य भी पूर्णतया सुरक्षित होता है. आज बढ़ते वेतनमान और सेवा शर्तों के कारण सरकारी कर्मी काफी महंगा पड़ता है,इसीलिए सभी सरकारी विभाग अपने कार्यों को निजी संस्थाओं से कराना लाभप्रद मानते हैं और अपने अधिकतर कार्य निजी ठेकेदारों से कार्य करा रहे हैं.सरकारी विभागों में पदों की संख्या भी घटाई जा रही है,यह इस बात सबूत है की वे प्राप्त कर रहे वेतनमान के अनुरूप उत्पादक सिद्ध नहीं होते,और विभाग के लिए बोझ साबित हो रहे हैं.
     रेल मंत्री श्री सुरेश प्रभु ने एक सक्षात्कार में सी.एन.बी.सी.आवाज को बताया की सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के पश्चात् रेल मंत्रालय पर प्रतिवर्ष बत्तीस  हजार करोड़(32,000crore) रूपए का अतिरिक्त भार पड़ेगा. जिसे वहन करना रेल विभाग के लिए चुनौती बन जायेगा. क्योंकि रेल विभाग पहले से ही वित्तीय संकट से जूझ रहा है, साथ ही उस पर सुरक्षा एवं अनेक प्रकार के सुधारों की अपेक्षाओं को पूरा करने की चुनौती है. आगे से यात्री किराया बढ़ाना या माल भाडा बढ़ाना भी आसान नहीं होगा.
      असीमित वेतन वृद्धि का कारण वेतन आयोग है, जिसे हर दस वर्ष बाद वेतन पुनः निर्धारित करने के लिए नियुक्त किया जाता है और जिसके सदस्य सरकारी अधिकारी(नौकर शाह) ही होते हैं, अतः उनके  निर्णय तो सरकारी कर्मियों के पक्ष में होना स्वाभाविक है,अब जब उसकी सिफारिशों को सरकार द्वारा  पास करने की बात आती  है, तो सरकार में बैठे नेताओं की मजबूरी है की उन्हें जिनसे कार्य कराना है उनकी मांगों को माना जाय अन्यथा उनसे वैध और अवैध कार्य कैसे कराये जा सकेंगे और फिर उनकी कौन सा जेब से कुछ खर्च हो रहा है जनता का पैसा है खर्च होने दो. राजनेताओं पर वेतन आयोग की बातें मानने का एक कारण यह भी है की उन्हें विभिन्न सरकारी कर्मचारी संगठनों के आंदोलित हो जाने का खतरा भी होता है.यदि सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर जाते हैं तो जनता परेशान  होती है, जो सत्तारूढ़ पार्टी के लिए नुकसान दायक होता है,और विरोधी पार्टियाँ उसका लाभ उठाती हैं. आज हालत यह हो चुकी है केंद्र सरकार के खाते में विभिन्न टेक्सों से आने वाला कुल राजस्व नौ लाख करोड़ के लगभग है, और वर्तमान सातवें वेतन योग की सिफारिशों को लागू करने के पश्चात् सरकारी कर्मचारियों के वेतन,और पेशन धारियों की पेंशन पर पांच लाख करोड़ से भी अधिक खर्च करना होगा. जनता से जो टेक्स वसूला जाता है वह जन कल्याण और जनहित के कार्यों के लिए होता है, जब सरकार आधे से अधिक राजस्व अपने स्टाफ पर ही खर्च कर देगी तो विकास कार्यों के लिए धन कहाँ से आयेगा और जिस प्रकार से भ्रष्टाचार द्वारा सरकारी कार्य होते हैं, तो शेष धन भी जनता के लिए कितना लाभदायक हो पायेगा. जबकि अन्य देशों के मुकाबले भारत की जनता को सर्वाधिक टेक्स का भुगतान करना पड़ता है,वह भी सुविधा रहित.
राज्य सरकारों का भी दिवाला निकला;
      जब केंद्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन बढ़ते हैं तो बाद में प्रदेश की सरकारों भी अपने कर्मियों के वेतनमान बढाने पड़ते हैं,जो उनके सीमित साधनों के रहते उनके लिए इतने भारी वेतनमानों के बोझ को उठा पाना उनकी अर्थव्यवस्था को अस्तव्यस्त कर देता है,कुछ राज्यों के पास तो वेतन देने लायक राजस्व ही नहीं होता और उन्हें भुगतान करने के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर होना पड़ता है.जब सरकार के पास धन ही नहीं बचेगा का तो वह जनता के लिए क्या करेगी?
       वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष के अनुसार अधिकतर राजनेता और राजनैतिक पार्टियों के लिए न तो लोकतंत्र महत्वपूर्ण है और न ही उन्हें देश या देश की जनता के कल्याण की चिंता है. उन्हें सिर्फ सत्ता का सुख चाहिए, उसे पाने के लिए वे नैतिक और अनैतिक आचरणों की भी परवाह नहीं करते.इसी कारण देश को ऐसे भंवर में फंसा दिया है जिससे निकलना आसान नहीं होगा.सहिष्णुता से उनका कोई नाता नहीं है न ही वे धर्म निरपेक्षता में विश्वास करते हैं. वे अपनी सुविधा के अनुसार सहिष्णुता और धर्म निरपेक्षता को परिभाषित करते हैं और दिखावटी तौर पर धर्मनिरपेक्षता व्यक्त करते हैं. यही विडंबना है आज के भारतीय लोकतंत्र की,जो ऐसे चक्रव्यूह में फंस चुका है,जिससे निकल पाना हाल फिलहाल संभव नहीं दीखता.यदि सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकी तो हालात बेहतर हो सकते हैं.


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मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

चक्र व्यूह में फंसा भारतीय लोकतंत्र

  
  2005 में जनता को सरकारी विभागों से सूचना पाने का अधिकार ( R.T.I. i.e. RIGHT TO INFORMATION) मिल जाने के पश्चात् नित्य नए घोटाले जनता के समक्ष आने लगे और नेताओं की कारगुजारियों से जनता उद्वेलित होने लगी थी.कुछ घोटाले तो बहुत ही चर्चित और भारी भरकम राजस्व के घोटाले प्रकाश में आ रहे थे, जैसे आदर्श सोसायटी घोटाला,राडिया टेप घोटाला,२जी स्पेक्ट्रम घोटाला,कोल माइन आंवटन घोटाला, इत्यादि जिन्होंने आम जन के मन में सरकार के प्रति  अविश्वास की लहर पैदा कर दी थी. इसी सन्दर्भ को लेकर अन्ना हजारे ने सरकार से संपर्क साधा और राजनैतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध कदम उठाने का आग्रह किया,साथ ही विकल्प के रूप में उन्होंने अपना बनाया हुआ जनलोक पाल बिल को संसद में पास कराने का सुझाव दिया. परन्तु सरकार ने इसमें कोई रूचि नहीं दिखाई. जब वार्तालाप के सभी प्रयास विफल हो गए, तो अन्ना जी ने आन्दोलन का सहारा लेकर,सरकार पर दबाव बनाने और जनता को जागरूक करने का संकल्प लिया, और 5, अप्रेल २०११ को  अन्ना हजारे जी ने जंतर-मंतर नयी दिल्ली पर अपने आन्दोलन को भूख हड़ताल कर प्रारंभ किया. और देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रचार प्रसार किया और इस आन्दोलन के माध्यम से अन्ना जी ने भ्रष्टाचार खत्म  के लिए जन लोकपाल की व्यवस्था की मांग की, ताकि कोई भी राजनेता अथवा सरकारी कर्मी भ्रष्टाचार करने की हिम्मत न जुटा सके. इसके साथ ही पूरे देश में धरना, प्रदर्शन रेलियाँ की गयी और सोशल मीडिया द्वारा जनजागरण कर आन्दोलन को देश व्यापी बनाया गया. इस बीच बाबा रामदेव ने विदेशों में जमा कालाधन वापसी की मांग के समर्थन सरकार के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की. करीब तीन माह तक अन्ना जी के नेतृत्व में यह आन्दोलन चला, देश की जनता का भारी समर्थन इस आन्दोलन को मिला. हर वर्ग का व्यक्ति अन्ना जी के आन्दोलन के समर्थन में खड़ा हो गया. तत्कालीन सत्तारूढ़ दल कांग्रेस ने जनता के व्यापक समर्थन को देखते हुए, भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अपना संकल्प व्यक्त तो किया,परन्तु जनलोकपाल बिल को लाने और उसे पास कराने का सिर्फ नाटक किया और किसी  प्रकार आन्दोलन को निष्प्रभावी करने की योजना बनाते रहे.जो जनता को भ्रमित करने की रणनीति का हिस्सा थी. विरोधी पक्ष में अन्य सभी विरोधी पार्टियों की भांति सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भा.ज.पा भी अन्ना हजारे का समर्थन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. जिसने जनता को यही सन्देश दिया की इस हमाम में सब नंगे हैं सबको भ्रष्ट आचरणों की आवश्यकता है, सभी नेता सिर्फ धन बटोरने के लिए राजनीति करते हैं. देश की और जनता की किसी को फ़िक्र नहीं है. बाद में नाटकीय तौर पर जनता को भ्रमित करने के लिए जो तथाकथित लोकपाल बिल सरकार की ओर से  लाया गया, वह इतना कमजोर था की उसके आने से भ्रष्टाचार को लगाम लग जाएगी ऐसा संभव नहीं था. अतः अन्ना जी का आन्दोलन अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर सका. और अन्ना जी ने अपने आन्दोलन को समाप्त करना ही उचित समझा. परन्तु उनके आन्दोलन से देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आक्रोश चरम पर पहुँच गया और सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध जनमत बनने लगा,साथ ही सभी विरोधी पक्ष की पार्टियों के लिए भी जन आक्रोश गहराता गया. अतः भविष्य में कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने की सम्भावना लगभग समाप्त हो चुकी थी.क्योंकि भा.ज पा ने भी अन्ना का समर्थन करने का साहस नहीं दिखाया था, अतः कांग्रेस समेत सभी पार्टियाँ जनता के कटघरे में थी और खिचड़ी  सरकार बनने की सम्भावना प्रबल थी. जो जनता के लिए भी निराशाजनक और दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति थी.परन्तु उसी समय आर.एस.एस. ने साहस दिखा कर गुजरात में अपनी ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठां के कारण लोकप्रियता के झंडे गाढ़ चुके नरेन्द्र मोदी को देश का भावी प्रधान मंत्री बनाने का बीड़ा उठाया और अपनी सारी ताकत उन्हें जिताने में लगा दी.क्योंकि मोदी की छवि एक ईमानदार और कर्तव्य निष्ठ शासक की थी, उसे भारत की जनता ने हाथो हाथ लिया और सभी समीकरणों को झुठलाते हुए मोदी जी को अप्रत्याशित समर्थन देकर भारी बहुमत से भा.ज पा. को जिता दिया.और नरेंद्र मोदीजी को प्रधान मंत्री के पद पर सुशोभित किया. भारतीय जनता ने बहुत ही उम्मीदों के साथ नरेंद्र मोदी जी को प्रधान मंत्री बनाने के लिए अपना मत दिया और आशा जागी थी, की अब हमारे देश का और देश की जनता का कल्याण होगा देश को एक उचित दिशा प्रदान होगी और हमारा देश विकसित देशो की श्रेणी में गिना जा सकेगा,देश का विश्व में गौरव बढेगा. भारतीय जनता के कष्टों के दिन शीघ्र ही समाप्त होंगे.गरीबी, बेरोजगारी,भ्रष्टाचार जैसे अभिशापों से मुक्ति मिल सकेगी.
विरोधी पार्टियों ने सदन को बंधक बनाया 

         गत अडसठ वषों के दौरान आये अधिकतर शासकों ने देश के विकास की ओर कम अपने विकास पर अधिक ध्यान दिया और देशहित और जनहित को दर किनार कर दिया था. देश में भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता,बेरोजगारी,गरीबी,भुखमरी से जनता को त्रस्त किया, न्याय और कानून धनी व्यक्तियों,बाहु बलियों,अपराधियों के लिए उपलब्ध हो कर रह गया. आजादी का लाभ सिर्फ अनैतिक आचरण करने वालो को ही मिल पाया. धीरे धीरे अपराधियों की धमक सत्ता तक पहुँच गयी जो अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं, उन्हें जनता को मूर्ख बना कर चुनाव जीतना और फिर काला धन एकत्र कर विदेशों में जमा कर, अपनी अगली सात पीढ़ियों की सुख सुविधा जुटाने का उद्देश्य बन कर रह गया. इसी मानसिकता का परिणाम आज के शासको (मोदी सरकार) को भुगतना पड रहा है. सभी विपक्षी पार्टियों ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार के किसी भी जनहित के कार्य में व्यवधान पैदा करना अपना मकसद बना लिया है,कारण उन्हें सत्ता से दूर रहकर रोटी हजम नहीं हो रही. उनकी व्याकुलता इतनी बढ़ गयी है की शायद वे अपनी कब्र स्वयं खोदने को तैयार हो गए हैं. उनकी रणनीति है की यदि मोदी सरकार अपने मकसद में कामयाब हो गयी और जनता को उचित दिशा मिल गयी,उसकी आकांक्षाएं पूर्ण होने लगीं, तो उनके दोबारा सत्ता में आने की उम्मीदें धूमिल होती जाएँगी.भा.ज.पा का शासन काफी समय तक चलेगा. क्योंकि उन्होंने कभी देश हित के लिए,देश के विकास के लिए सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी.उनका सदैव मकसद रहा है की जनता को भ्रमित कर या मूर्ख बनाकर वोट बटोर कर सत्ता प्राप्त करो और अपने स्वार्थ सिद्ध करो. इसी मानसिकता के कारण,आज स्थिति यह हो गयी है की सदन को न चलने और हंगामा करने के अवसर ढूंढे जाते हैं और सरकारी विधेयकों को पास करने में व्यवधान पैदा किये जा रहे हैं.सदन न चल पाने के कारण सरकारी राजस्व का भारी नुकसान देश को उठाना पड रहा है.क्योंकि राज्यसभा में सत्ताधारी पार्टी को पर्याप्त बहुमत नहीं है अतः विपक्षी पार्टियों के समर्थन के बिना विधेयकों को राज्यसभा से पास नहीं कराया जा सकता, इसी स्थिति का लाभ विरोधी पक्ष उठा रहा है और सरकार के विकास कार्यों में रोड़ा साबित हो रहा है.और जनता के लिए दुर्भाग्य बन गया है. मोदी जी के अपने उद्देश्यों (जनता को किये गए वायदों )को पूरे करने में पसीने छूट रहे हैं.जी एस टी जैसे बिलों को पास करने में जितना विलम्ब होगा देश का विकास पिछड़ता जायेगा.एक प्रकार से विरोधी पार्टियों ने सदन को बंधक बना दिया है,और भारतीय लोकतंत्र का मजाक बनाया जा रहा है.एक लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी सरकार को न चलने देना लोकतंत्र का अपमान है, विकास कार्यों में अपने अड़ंगे पैदा करना देश को देश की जनता के साथ धोखा है.

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(इस लेख के शेष भाग में आप पढेंगे-- चुनाव पद्धति में खामिया और जनता की गाढ़ी कमाई की लूट)   

रविवार, 13 दिसंबर 2015

व्यवसायी एवं व्यापारी को भी चाहिए आर्थिक सुरक्षा कवच


               जब कोई जीव दुनिया में जन्म लेता है तो उसे निर्बाध रूप से आवश्यकतानुसार भरपेट भोजन की आवश्यकता होती है.अतः खाद्य सुरक्षा किसी भी जीव के लिए सर्वाधिक आवश्यक तत्व है, बाकी  सभी आवश्यकताएं उसके बाद ही आती हैं. मानव इस सृष्टि की सर्वश्रष्ठ रचना है,उसकी जीवन शैली भी सभी जीवों से हटकर है,इसी कारण उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं में रोटी, कपडा, और मकान आता है. अतः कोई भी व्यक्ति जीवन पर्यंत इन आवश्यकताओं की पूर्ती के बिना नहीं रह सकता. यहाँ पर यह कहना अनुचित न होगा की हमारे देश का पारिवारिक ढांचा ऐसा है की परिवार अपने परिजन के दुःख दर्द में सदैव साथ खड़ा रहता है.परन्तु जिस प्रकार से परिवार विभक्त होते जा रहे हैं,आधुनिकता की दौड़ में आज प्रत्येक व्यक्ति अपनी लडाई स्वयं लड़ने को मजबूर हो रहा है,अतः आर्थिक साधन जुटाने की जिम्मेदारी एकाकी परिवार के मुखिया की होकर रह जाती है. समाज में इसके अतिरिक्त अपवाद भी बहुत होते हैं,जब एक व्यक्ति किसी कारण वश निसहाय हो जाता है,और उसका  सम्मान दांव पर लग जाता है, उसके लिये  दो समय का भोजन जुटाना भी मुश्किल हो जाता है. अतः एक सभ्य और विकसित देश के शासक के लिए आवश्यक है की वह अपने देश के सभी नागरिकों के लिए जीवन भर न्यूनतम आवश्यकताओं की अपूर्ती सुनिश्चित करे. सरकार के लिए  यह दायित्व जब तो और महत्त्व पूर्ण  हो जाता है,जब कोई नागरिक देश के विकास में योगदान करता है, या करता रहा है .उसके बुरे समय में सरकार उसके भरण पोषण की जम्मेदारी उठाकर उसका सम्मान बनाये रखे.
        स्वतन्त्र भारत की सरकारों ने समय समय पर देश और देश की जनता के विकास के लिए अनेक उपाय किये, इंडस्ट्री ,खेती बाड़ी, रोजगार,समाज की मूल अवश्यक्ताओं की पूर्ती इत्यादि के उत्थान के लिए अनेक योजनायें बनायीं गयी,जिनके लाभ भी जनता को मिले, परन्तु भ्रष्टाचार के कारण जनता तक यथावत नहीं पहुँच पाए,फिर भी जो कुछ भी जनता तक पहुंचा, उसी के साथ जनता ने अपने अथाह परिश्रम से देश के विकास को गति प्रदान की और सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार के होते हुए भी अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने में सफलता पाई. अनेक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार उच्च माध्यम वर्ग तक पहुँचने में कामयाब हुए तो मध्यम वर्गीय परिवार अधिक सम्रद्ध हुए. मजदूर व्यक्ति जिसे अंतिम व्यक्ति भी कहा जाता है उसका जीवन स्तर भी बढ़ा है,उसे अनेक अतिरिक्त सुविधाएँ उपलब्ध हो सकीं.
             गत छः दशक में सभी दलों की सरकारों ने देश का शासन संभाला है,सभी ने सरकारी कर्मियों के कल्याण के लिए विभिन्न योजनायें बनायीं, समय समय पर नियुक्त वेतन आयोग सरकारी कर्मियों के  वेतन मान बढ़ने की निरंतर सिफारिश करते  रहे है और जिसे हमारे नेताओं ने सहर्ष स्वीकार किया. परिणाम स्वरूप सरकारी विभागों में वेतनमान देश में प्रचलित वेतनमानों से कई गुना अधिक हो गए,और सिर्फ वेतनमान ही नहीं उसके लिए अनेक प्रकार की चिकित्सा सुविधाएँ और सेवा निवृति के पश्चात् मोटी पेंशन की व्यवस्था कर दी गयी और सरकारी राजस्व का बहुत बड़ा भाग कर्मचारियों के वेतन पर खर्च होने लगा. देश के विकास के नाम पर जनता से जुटाया गया टेक्स सरकारी कर्मियों के कल्याण पर खर्च किया जाने लगा. जिससे देश के विकास को प्रभावित तो होना ही था,देश की अर्थव्यवस्था को हिला कर रख दिया है,परन्तु नेताओं को अपने कर्मियों को खुश रखना मजबूरी है.अन्यथा उनके लिए काम काज करना कष्टप्रद हो जाता,और भ्रष्टाचार कर पाने,और अपनी तिजोरियां भरने में भी मुश्किलें आतीं. दूसरी ओर इसमें उनके जेब का कुछ खर्च नहीं होता, जनता से बसूले गए टेक्स को देने में कोई उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है? सोचने का विषय यह है की क्या सरकार या सत्ता धारी नेताओं का दायित्व सरकारी कर्मियों के कल्याण का ही है.क्या अन्य व्यवसायी,व्यापारी सरकारी सेवा नहीं करते? वे भी जनता से टेक्स वसूल कर सरकारी खजाने में जमा करने का कार्य करते हैं और स्वयं भी कानून के अनुसार अनेक प्रकार के टेक्स देते हैं.  क्या उनका कोई हक़ नहीं बनता की वे कम से कम अपने बुरे समय में सरकार से किसी प्रकार का सहयोग पा सकें और एक सुरक्षित जीवन की कल्पना कर सकें. उस समय जब कोई व्यक्ति(निजी व्यवसायी) किसी प्रकार की अक्षमता के चलते कार्य नहीं कर पाता या वृद्ध शरीर के कारण अपने भरण पोषण के लिए आर्थिक साधन नहीं जुटा पाता,तब भारत का नागरिक होने के नाते वह न्यूनतम स्तर पर भी भरण पोषण की व्यवस्था का हक़दार नहीं होता? जो व्यक्ति बीमा कराते हैं उन्हें भी मरणोपरांत ही बीमित धन राशी मिलती है,और मात्र बीमित राशी से परिवार की भावी आवश्यकताओं की पूर्ती होने संभव नहीं होता,महंगाई के समक्ष बड़ी से बड़ी बचत राशी अपर्याप्त हो जाती है.  
                 आज भी सरकारी खजाने की आय का मुख्य स्रोत व्यवसायी वर्ग एवं व्यापारी, या उद्योगपति है. परन्तु जो सरकारी खजाने को भरने का मुख्य कारक है,उसे अपने समस्त कार्यों को,प्रारंभ करने या संचालित,करने के लिए अनेक प्रकार की सरकारी अनुमति लेने के लिए सरकारी कर्मियों को भेंट भी चढ़ानी पड़ती है, जिसके बिना उसका कोई कार्य नहीं होता.अर्थात सरकारी खजाने को भरने के अतिरिक्त सरकारी कर्मियों की भरपूर सेवा इसी वर्ग के माध्यम से होती है. परन्तु यही वर्ग सर्वाधिक उपेक्षित है, उसके कल्याण के लिए कोई भी योजना सरकार ने नहीं बनायीं. जैसे यह वर्ग सिर्फ टेक्स एकत्र कर देने के लिए बना है, या वह सिर्फ कर दाता ही है. आजाद देश की सरकार से कोई सुविधा पाने का अधिकारी नहीं है. शायद वह आजाद देश का नागरिक है ही नहीं, वह आज भी गुलाम है. विदेशी हुकूमत की भांति टेक्स भरने के लिए है, साथ ही पहले की भांति(गुलाम देश के समय) सरकारी विभागों द्वारा शोषण का भी सर्वाधिक शिकार होता है.सभी उसे कामधेनु गाय समझ कर उसका दूध निकालने का प्रयास करते हैं. 
      व्यापारी वर्ग हो या उद्योगपति अथवा अन्य निजी व्यवसायी सभी अनेक प्रकार के जोखिमों से जूझते रहते है तब कही अपने लिए जीविका की व्यवस्था कर पाते हैं.जब वे कमाते हैं तो अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों को सरकार को अदा करते हैं. ट्रैड टैक्स,रोड टेक्स,कस्टम ड्यूटी,एक्सायीस ड्यूटी,सर्विस टैक्स,मनोरंजन कर के रूप में सरकारी राजस्व निजी व्यवसायी से ही प्राप्त होता है अर्थात यह राजस्व निजी व्यवसायी के माध्यम से ही सरकार को प्राप्त होते हैं. अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी राजस्व को एकत्र करने की जिम्मेदारी निजी व्यवसायी द्वारा उठाई जाती है.जब निजी व्यापार,उद्योग,चलता है तभी राजस्व उत्पन्न होता है,साथ ही लाखों.करोड़ों लोगों को रोजगार भी प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त अपने कारोबार से अर्जित लाभ पर इनकम टेक्स भी अदा करते है.जिससे सरकार के सभी खर्च पूरे होते हैं देश के विकास,देश की रक्षा खर्च, जनसुविधाएँ के लिए होने वाले खर्च, व्यापारियों या निजी व्यसायियों द्वारा अनेक प्रकार के टेक्स एकत्र कर एवं अदा कर  जुटाए जाते हैं.
        सरकारी क्षेत्र के उद्योग अपने एकाधिकार के होते हुए भी घाटे में चलते हैं,और निजी क्षेत्र के उद्योग उन्ही परिस्थितियों में रहते हुए आपसी प्रतिस्पर्द्धा झेलते हुए भी लाभ कमाते हैं.परन्तु यदि उनके व्यापार में घाटा आ जाय,उनके व्यापरिक प्रतिष्ठान में आग लग जाय ,चोरी हो जाय,उद्योग मंदी का शिकार हो जाय तो उनके भविष्य की सुरक्षा के  लिए कोई सरकारी प्रावधान नहीं होता.अक्र्सर निजी व्यवसायी ही लूटमार,चोरी डकैती, अपहरण, रंगदारी जैसी घटनाओं के शिकार होते है.यदि कोई निजी व्यवसायी शरीरिक रूप से(आकस्मिक दुर्घटना,अथवा गंभीर बीमारी के चलते) व्यापार चलाने, उद्योग को चला पाने के योग्य नहीं रहता तो उसे भावी निजी खर्चों के लिए किसी प्रकार के सरकारी योगदान की आशा नहीं होती.
     अतः मैं सभी व्यापारी एवं निजी कारोबारियों से निवेदन करता हूँ की वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होकर आवाज उठायें,और सरकार से अपने हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करें ताकि सरकार हमेशा से उपेक्षित निजी व्यवसायी वर्ग की आर्थिक सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम उठा सकें.(SA-177C)



गुरुवार, 19 नवंबर 2015

सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता


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 आज देश मे सहिष्णुता और असहिष्णुता के बीच एक जंग छिड़ चुकी है. असहिष्णुता के पक्षधर कलाकार, पत्रकार, वैज्ञानिक, साहित्यकार अपने सम्मान सरकार को लौटा रहे हैं, तो सहिष्णुता के समर्थक,सम्मान लौटने वालों के विरोध में एक आन्दोलन का रूप दे चुके हैं, असहिष्णुता की समस्या जब खड़ी हुई जब देश के प्रतिष्ठित साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार, वैज्ञानिक जैसे विद्वान् लोगों द्वारा भारत सरकार से प्राप्त अपने सम्मान वापस करने वालों की झड़ी लगा दी, जैसे देश में कोई तूफ़ान आ गया हो,या कोई ऐसी अप्रत्याशित घटना घट गयी हो अथवा  घट रही हो, जो देश के इतिहास में अभूतपूर्व हो. सम्मान लौटने वालों का कहना है,गत दिनों में हुई कुछ घटनाओं जैसे गौ मांस को लेकर हुई एक मुस्लिम मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या,शाहजहांपुर में पत्रकार जोगिन्दर सिंह की  जीवित जलाकर हत्या,या फिर फरीदाबाद में दो दलित बच्चो को जीवित जलाकर मार डालना और दक्षिण में हुई एक कन्नड़ साहित्यकार डा.एम्.एम्.कलबर्गी की हत्या इत्यादि से वे आहत हैं और इस प्रकार से देश को असहिष्णुता की ओर बढ़ते हुए नहीं देख सकते. जिन घटनाओं का सम्मान आपिस करने वालों द्वारा जिक्र किया जा रहा है, इस प्रकार की घटनाएँ हर काल खंड में होती आयी हैं. हाँ अब इन घटनाओं की बारम्बारता पहले से अधिक अवश्य हो गयी है, उसका कारण है कानून और व्यवस्था की कमी. जिसके कारण अपराधी अधिक निर्भय हो गए हैं. आजादी के पश्चात् सरकारी विभागों में  व्याप्त भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता ने गत पैंसठ वर्षों में अपराधियों के हौंसले बुलंद कर दिए है, अपराधी प्रकृति के लोग शासन के उच्च पदों तक पहुँच गए है. यह विषय आज अचानक पैदा नहीं हो गया,और जिसका  कारण वर्तमान में केंद्र की भा.ज.पा. सरकार को मान लिया जाय, जैसे उसने सत्तारूढ़ होते ही सारी व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर दिया हो. आज की भयानक स्थिति के लिए जिम्मेदार गत पैसंठ वर्षों से सत्ता संभाले काग्रेस की नीतियां हैं. वैसे भी न्याय व्यवस्था राज्यों का विषय है और अलग अलग राज्य में अलग अलग दलों की सरकारें मौजूद है, जो वर्त्तमान घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं. केंद्र सरकार को दोषी मानना सिर्फ उसके विरुद्ध किया जा रहा विपक्षी पार्टियों का षड्यंत्र है. 
   जरा देश के इतिहास पर नजर डालें,क्या पहले जब सिक्खों का कत्लेआम हो रहा था तब असहिष्णुता नहीं थी,जब देश में आपातकल घोषित कर दिया गया था जब देश में सहिष्णुता का वातावरण था ?, कश्मीर में निरंतर हिन्दुओं का शोषण  होता रहा है हजारों हिन्दू आज भी अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं,घर बार से दूर हैं, वह सहिष्णुता है ? गोधरा कांड जिसमे तीर्थ यात्रियों को जिन्दा जला दिया गया था, वह असहिष्णुता नहीं थी ? कांग्रेस के शासन में बार बार धार्मिक दंगे हुए वह क्या था ? 2013 के मुज्जफ्फरनगर के दंगे हुए जब देश के सम्माननीय(सम्मान प्राप्त) लोग कहाँ थे.क्या एक दादरी कांड से देश में असहिष्णुता फ़ैल गयी, क्या एक साहित्यकार डा.कलबर्गी एवं एक पत्रकार की हत्या होना देश की पहली घटना है, जिसे लेकर देश विदेशों में अपने देश की छवि को बिगाड़ा जा रहा है,देश को अपमानित किया जा रहा है.क्या इन सभी विद्वानों के समक्ष अपना विरोध व्यक्त करने का कोई और माध्यम नहीं बचा था.अपनी अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम मिला. सम्मान वापस करना विरोध नहीं है बल्कि देश का अपमान है जिसके द्वारा प्रदत्त सम्मान अस्वीकार किया जा रहा है.

      कांग्रेस समेत सभी दलों में यह चलन रहा है वे एक मुस्लमान के साथ होने वाले अत्याचार,दुर्व्यवहार को अधिक गंभीरता से लेते हैं और व्यापक रूप से प्रचार करते हैं, किसी अन्य धर्म या समुदाय के साथ होने वाले हादसों को नजर अंदाज कर देते हैं.जो मुस्लिमों के विरुद्ध कार्य करता है साम्प्रदायिक कहलाता है परन्तु अन्य समुदायों के प्रति होने वाले अन्याय उनके लिए सांप्रदायिक नहीं होते.कांग्रेस का यही धर्मनिरपेक्ष स्वरूप है.इन घटनाओं ने साबित कर दिया है ये वही सम्मान प्राप्त लोग हैं जो कांग्रेस के समर्थक रहे हैं,उन्होंने यह सम्मान चापलूसी से या सिफारिश से प्राप्त किया था. अतः अपनी बफादारी दिखाने के लिए पुरस्कार लौटाने की घोषणाएं कर रहे हैं, जिससे वर्तमान सरकार को आरोपित किया जा सके उसकी छवि को देश विदेश में ख़राब किया जा सके,और विपक्षी कांग्रेस को लाभ पहुँचाया जा सके.यदि हम गंभीरता से विश्लेषण करे तो ऐसा लगता है लचर कानून और न्याय व्यवस्था के कारण आम जनता में आक्रोश का परिणाम भी हो सकता है,जब जब जनता का कानून और व्यवस्था पर विश्वास उठता है तब तब जनता अन्याय के विरोध में कानून अपने हाथ में लेने नहीं हिचकती.अतः असहिष्णुता की समस्या जनता को न्याय और चुस्त दुरस्त कानून व्यवस्था दिला कर ही हल की जा सकती है,सम्मान लौटाकर नहीं.लेखको को न्याय के विरोध में अपनी लेखनी को धारदार बनाना होगा,कलाकारों को अपने कला के माध्यम से सरकारों को मजबूर करना होगा ताकि वे जनता को भेद भाव रहित न्याय दिलाने के लिए उपाय करें.(SA-180B) 

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