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मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

चक्र व्यूह में फंसा भारतीय लोकतंत्र

  
  2005 में जनता को सरकारी विभागों से सूचना पाने का अधिकार ( R.T.I. i.e. RIGHT TO INFORMATION) मिल जाने के पश्चात् नित्य नए घोटाले जनता के समक्ष आने लगे और नेताओं की कारगुजारियों से जनता उद्वेलित होने लगी थी.कुछ घोटाले तो बहुत ही चर्चित और भारी भरकम राजस्व के घोटाले प्रकाश में आ रहे थे, जैसे आदर्श सोसायटी घोटाला,राडिया टेप घोटाला,२जी स्पेक्ट्रम घोटाला,कोल माइन आंवटन घोटाला, इत्यादि जिन्होंने आम जन के मन में सरकार के प्रति  अविश्वास की लहर पैदा कर दी थी. इसी सन्दर्भ को लेकर अन्ना हजारे ने सरकार से संपर्क साधा और राजनैतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध कदम उठाने का आग्रह किया,साथ ही विकल्प के रूप में उन्होंने अपना बनाया हुआ जनलोक पाल बिल को संसद में पास कराने का सुझाव दिया. परन्तु सरकार ने इसमें कोई रूचि नहीं दिखाई. जब वार्तालाप के सभी प्रयास विफल हो गए, तो अन्ना जी ने आन्दोलन का सहारा लेकर,सरकार पर दबाव बनाने और जनता को जागरूक करने का संकल्प लिया, और 5, अप्रेल २०११ को  अन्ना हजारे जी ने जंतर-मंतर नयी दिल्ली पर अपने आन्दोलन को भूख हड़ताल कर प्रारंभ किया. और देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रचार प्रसार किया और इस आन्दोलन के माध्यम से अन्ना जी ने भ्रष्टाचार खत्म  के लिए जन लोकपाल की व्यवस्था की मांग की, ताकि कोई भी राजनेता अथवा सरकारी कर्मी भ्रष्टाचार करने की हिम्मत न जुटा सके. इसके साथ ही पूरे देश में धरना, प्रदर्शन रेलियाँ की गयी और सोशल मीडिया द्वारा जनजागरण कर आन्दोलन को देश व्यापी बनाया गया. इस बीच बाबा रामदेव ने विदेशों में जमा कालाधन वापसी की मांग के समर्थन सरकार के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की. करीब तीन माह तक अन्ना जी के नेतृत्व में यह आन्दोलन चला, देश की जनता का भारी समर्थन इस आन्दोलन को मिला. हर वर्ग का व्यक्ति अन्ना जी के आन्दोलन के समर्थन में खड़ा हो गया. तत्कालीन सत्तारूढ़ दल कांग्रेस ने जनता के व्यापक समर्थन को देखते हुए, भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अपना संकल्प व्यक्त तो किया,परन्तु जनलोकपाल बिल को लाने और उसे पास कराने का सिर्फ नाटक किया और किसी  प्रकार आन्दोलन को निष्प्रभावी करने की योजना बनाते रहे.जो जनता को भ्रमित करने की रणनीति का हिस्सा थी. विरोधी पक्ष में अन्य सभी विरोधी पार्टियों की भांति सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भा.ज.पा भी अन्ना हजारे का समर्थन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. जिसने जनता को यही सन्देश दिया की इस हमाम में सब नंगे हैं सबको भ्रष्ट आचरणों की आवश्यकता है, सभी नेता सिर्फ धन बटोरने के लिए राजनीति करते हैं. देश की और जनता की किसी को फ़िक्र नहीं है. बाद में नाटकीय तौर पर जनता को भ्रमित करने के लिए जो तथाकथित लोकपाल बिल सरकार की ओर से  लाया गया, वह इतना कमजोर था की उसके आने से भ्रष्टाचार को लगाम लग जाएगी ऐसा संभव नहीं था. अतः अन्ना जी का आन्दोलन अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर सका. और अन्ना जी ने अपने आन्दोलन को समाप्त करना ही उचित समझा. परन्तु उनके आन्दोलन से देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आक्रोश चरम पर पहुँच गया और सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध जनमत बनने लगा,साथ ही सभी विरोधी पक्ष की पार्टियों के लिए भी जन आक्रोश गहराता गया. अतः भविष्य में कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने की सम्भावना लगभग समाप्त हो चुकी थी.क्योंकि भा.ज पा ने भी अन्ना का समर्थन करने का साहस नहीं दिखाया था, अतः कांग्रेस समेत सभी पार्टियाँ जनता के कटघरे में थी और खिचड़ी  सरकार बनने की सम्भावना प्रबल थी. जो जनता के लिए भी निराशाजनक और दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति थी.परन्तु उसी समय आर.एस.एस. ने साहस दिखा कर गुजरात में अपनी ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठां के कारण लोकप्रियता के झंडे गाढ़ चुके नरेन्द्र मोदी को देश का भावी प्रधान मंत्री बनाने का बीड़ा उठाया और अपनी सारी ताकत उन्हें जिताने में लगा दी.क्योंकि मोदी की छवि एक ईमानदार और कर्तव्य निष्ठ शासक की थी, उसे भारत की जनता ने हाथो हाथ लिया और सभी समीकरणों को झुठलाते हुए मोदी जी को अप्रत्याशित समर्थन देकर भारी बहुमत से भा.ज पा. को जिता दिया.और नरेंद्र मोदीजी को प्रधान मंत्री के पद पर सुशोभित किया. भारतीय जनता ने बहुत ही उम्मीदों के साथ नरेंद्र मोदी जी को प्रधान मंत्री बनाने के लिए अपना मत दिया और आशा जागी थी, की अब हमारे देश का और देश की जनता का कल्याण होगा देश को एक उचित दिशा प्रदान होगी और हमारा देश विकसित देशो की श्रेणी में गिना जा सकेगा,देश का विश्व में गौरव बढेगा. भारतीय जनता के कष्टों के दिन शीघ्र ही समाप्त होंगे.गरीबी, बेरोजगारी,भ्रष्टाचार जैसे अभिशापों से मुक्ति मिल सकेगी.
विरोधी पार्टियों ने सदन को बंधक बनाया 

         गत अडसठ वषों के दौरान आये अधिकतर शासकों ने देश के विकास की ओर कम अपने विकास पर अधिक ध्यान दिया और देशहित और जनहित को दर किनार कर दिया था. देश में भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता,बेरोजगारी,गरीबी,भुखमरी से जनता को त्रस्त किया, न्याय और कानून धनी व्यक्तियों,बाहु बलियों,अपराधियों के लिए उपलब्ध हो कर रह गया. आजादी का लाभ सिर्फ अनैतिक आचरण करने वालो को ही मिल पाया. धीरे धीरे अपराधियों की धमक सत्ता तक पहुँच गयी जो अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं, उन्हें जनता को मूर्ख बना कर चुनाव जीतना और फिर काला धन एकत्र कर विदेशों में जमा कर, अपनी अगली सात पीढ़ियों की सुख सुविधा जुटाने का उद्देश्य बन कर रह गया. इसी मानसिकता का परिणाम आज के शासको (मोदी सरकार) को भुगतना पड रहा है. सभी विपक्षी पार्टियों ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार के किसी भी जनहित के कार्य में व्यवधान पैदा करना अपना मकसद बना लिया है,कारण उन्हें सत्ता से दूर रहकर रोटी हजम नहीं हो रही. उनकी व्याकुलता इतनी बढ़ गयी है की शायद वे अपनी कब्र स्वयं खोदने को तैयार हो गए हैं. उनकी रणनीति है की यदि मोदी सरकार अपने मकसद में कामयाब हो गयी और जनता को उचित दिशा मिल गयी,उसकी आकांक्षाएं पूर्ण होने लगीं, तो उनके दोबारा सत्ता में आने की उम्मीदें धूमिल होती जाएँगी.भा.ज.पा का शासन काफी समय तक चलेगा. क्योंकि उन्होंने कभी देश हित के लिए,देश के विकास के लिए सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी.उनका सदैव मकसद रहा है की जनता को भ्रमित कर या मूर्ख बनाकर वोट बटोर कर सत्ता प्राप्त करो और अपने स्वार्थ सिद्ध करो. इसी मानसिकता के कारण,आज स्थिति यह हो गयी है की सदन को न चलने और हंगामा करने के अवसर ढूंढे जाते हैं और सरकारी विधेयकों को पास करने में व्यवधान पैदा किये जा रहे हैं.सदन न चल पाने के कारण सरकारी राजस्व का भारी नुकसान देश को उठाना पड रहा है.क्योंकि राज्यसभा में सत्ताधारी पार्टी को पर्याप्त बहुमत नहीं है अतः विपक्षी पार्टियों के समर्थन के बिना विधेयकों को राज्यसभा से पास नहीं कराया जा सकता, इसी स्थिति का लाभ विरोधी पक्ष उठा रहा है और सरकार के विकास कार्यों में रोड़ा साबित हो रहा है.और जनता के लिए दुर्भाग्य बन गया है. मोदी जी के अपने उद्देश्यों (जनता को किये गए वायदों )को पूरे करने में पसीने छूट रहे हैं.जी एस टी जैसे बिलों को पास करने में जितना विलम्ब होगा देश का विकास पिछड़ता जायेगा.एक प्रकार से विरोधी पार्टियों ने सदन को बंधक बना दिया है,और भारतीय लोकतंत्र का मजाक बनाया जा रहा है.एक लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी सरकार को न चलने देना लोकतंत्र का अपमान है, विकास कार्यों में अपने अड़ंगे पैदा करना देश को देश की जनता के साथ धोखा है.

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(इस लेख के शेष भाग में आप पढेंगे-- चुनाव पद्धति में खामिया और जनता की गाढ़ी कमाई की लूट)   

रविवार, 13 दिसंबर 2015

व्यवसायी एवं व्यापारी को भी चाहिए आर्थिक सुरक्षा कवच


               जब कोई जीव दुनिया में जन्म लेता है तो उसे निर्बाध रूप से आवश्यकतानुसार भरपेट भोजन की आवश्यकता होती है.अतः खाद्य सुरक्षा किसी भी जीव के लिए सर्वाधिक आवश्यक तत्व है, बाकी  सभी आवश्यकताएं उसके बाद ही आती हैं. मानव इस सृष्टि की सर्वश्रष्ठ रचना है,उसकी जीवन शैली भी सभी जीवों से हटकर है,इसी कारण उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं में रोटी, कपडा, और मकान आता है. अतः कोई भी व्यक्ति जीवन पर्यंत इन आवश्यकताओं की पूर्ती के बिना नहीं रह सकता. यहाँ पर यह कहना अनुचित न होगा की हमारे देश का पारिवारिक ढांचा ऐसा है की परिवार अपने परिजन के दुःख दर्द में सदैव साथ खड़ा रहता है.परन्तु जिस प्रकार से परिवार विभक्त होते जा रहे हैं,आधुनिकता की दौड़ में आज प्रत्येक व्यक्ति अपनी लडाई स्वयं लड़ने को मजबूर हो रहा है,अतः आर्थिक साधन जुटाने की जिम्मेदारी एकाकी परिवार के मुखिया की होकर रह जाती है. समाज में इसके अतिरिक्त अपवाद भी बहुत होते हैं,जब एक व्यक्ति किसी कारण वश निसहाय हो जाता है,और उसका  सम्मान दांव पर लग जाता है, उसके लिये  दो समय का भोजन जुटाना भी मुश्किल हो जाता है. अतः एक सभ्य और विकसित देश के शासक के लिए आवश्यक है की वह अपने देश के सभी नागरिकों के लिए जीवन भर न्यूनतम आवश्यकताओं की अपूर्ती सुनिश्चित करे. सरकार के लिए  यह दायित्व जब तो और महत्त्व पूर्ण  हो जाता है,जब कोई नागरिक देश के विकास में योगदान करता है, या करता रहा है .उसके बुरे समय में सरकार उसके भरण पोषण की जम्मेदारी उठाकर उसका सम्मान बनाये रखे.
        स्वतन्त्र भारत की सरकारों ने समय समय पर देश और देश की जनता के विकास के लिए अनेक उपाय किये, इंडस्ट्री ,खेती बाड़ी, रोजगार,समाज की मूल अवश्यक्ताओं की पूर्ती इत्यादि के उत्थान के लिए अनेक योजनायें बनायीं गयी,जिनके लाभ भी जनता को मिले, परन्तु भ्रष्टाचार के कारण जनता तक यथावत नहीं पहुँच पाए,फिर भी जो कुछ भी जनता तक पहुंचा, उसी के साथ जनता ने अपने अथाह परिश्रम से देश के विकास को गति प्रदान की और सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार के होते हुए भी अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने में सफलता पाई. अनेक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार उच्च माध्यम वर्ग तक पहुँचने में कामयाब हुए तो मध्यम वर्गीय परिवार अधिक सम्रद्ध हुए. मजदूर व्यक्ति जिसे अंतिम व्यक्ति भी कहा जाता है उसका जीवन स्तर भी बढ़ा है,उसे अनेक अतिरिक्त सुविधाएँ उपलब्ध हो सकीं.
             गत छः दशक में सभी दलों की सरकारों ने देश का शासन संभाला है,सभी ने सरकारी कर्मियों के कल्याण के लिए विभिन्न योजनायें बनायीं, समय समय पर नियुक्त वेतन आयोग सरकारी कर्मियों के  वेतन मान बढ़ने की निरंतर सिफारिश करते  रहे है और जिसे हमारे नेताओं ने सहर्ष स्वीकार किया. परिणाम स्वरूप सरकारी विभागों में वेतनमान देश में प्रचलित वेतनमानों से कई गुना अधिक हो गए,और सिर्फ वेतनमान ही नहीं उसके लिए अनेक प्रकार की चिकित्सा सुविधाएँ और सेवा निवृति के पश्चात् मोटी पेंशन की व्यवस्था कर दी गयी और सरकारी राजस्व का बहुत बड़ा भाग कर्मचारियों के वेतन पर खर्च होने लगा. देश के विकास के नाम पर जनता से जुटाया गया टेक्स सरकारी कर्मियों के कल्याण पर खर्च किया जाने लगा. जिससे देश के विकास को प्रभावित तो होना ही था,देश की अर्थव्यवस्था को हिला कर रख दिया है,परन्तु नेताओं को अपने कर्मियों को खुश रखना मजबूरी है.अन्यथा उनके लिए काम काज करना कष्टप्रद हो जाता,और भ्रष्टाचार कर पाने,और अपनी तिजोरियां भरने में भी मुश्किलें आतीं. दूसरी ओर इसमें उनके जेब का कुछ खर्च नहीं होता, जनता से बसूले गए टेक्स को देने में कोई उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है? सोचने का विषय यह है की क्या सरकार या सत्ता धारी नेताओं का दायित्व सरकारी कर्मियों के कल्याण का ही है.क्या अन्य व्यवसायी,व्यापारी सरकारी सेवा नहीं करते? वे भी जनता से टेक्स वसूल कर सरकारी खजाने में जमा करने का कार्य करते हैं और स्वयं भी कानून के अनुसार अनेक प्रकार के टेक्स देते हैं.  क्या उनका कोई हक़ नहीं बनता की वे कम से कम अपने बुरे समय में सरकार से किसी प्रकार का सहयोग पा सकें और एक सुरक्षित जीवन की कल्पना कर सकें. उस समय जब कोई व्यक्ति(निजी व्यवसायी) किसी प्रकार की अक्षमता के चलते कार्य नहीं कर पाता या वृद्ध शरीर के कारण अपने भरण पोषण के लिए आर्थिक साधन नहीं जुटा पाता,तब भारत का नागरिक होने के नाते वह न्यूनतम स्तर पर भी भरण पोषण की व्यवस्था का हक़दार नहीं होता? जो व्यक्ति बीमा कराते हैं उन्हें भी मरणोपरांत ही बीमित धन राशी मिलती है,और मात्र बीमित राशी से परिवार की भावी आवश्यकताओं की पूर्ती होने संभव नहीं होता,महंगाई के समक्ष बड़ी से बड़ी बचत राशी अपर्याप्त हो जाती है.  
                 आज भी सरकारी खजाने की आय का मुख्य स्रोत व्यवसायी वर्ग एवं व्यापारी, या उद्योगपति है. परन्तु जो सरकारी खजाने को भरने का मुख्य कारक है,उसे अपने समस्त कार्यों को,प्रारंभ करने या संचालित,करने के लिए अनेक प्रकार की सरकारी अनुमति लेने के लिए सरकारी कर्मियों को भेंट भी चढ़ानी पड़ती है, जिसके बिना उसका कोई कार्य नहीं होता.अर्थात सरकारी खजाने को भरने के अतिरिक्त सरकारी कर्मियों की भरपूर सेवा इसी वर्ग के माध्यम से होती है. परन्तु यही वर्ग सर्वाधिक उपेक्षित है, उसके कल्याण के लिए कोई भी योजना सरकार ने नहीं बनायीं. जैसे यह वर्ग सिर्फ टेक्स एकत्र कर देने के लिए बना है, या वह सिर्फ कर दाता ही है. आजाद देश की सरकार से कोई सुविधा पाने का अधिकारी नहीं है. शायद वह आजाद देश का नागरिक है ही नहीं, वह आज भी गुलाम है. विदेशी हुकूमत की भांति टेक्स भरने के लिए है, साथ ही पहले की भांति(गुलाम देश के समय) सरकारी विभागों द्वारा शोषण का भी सर्वाधिक शिकार होता है.सभी उसे कामधेनु गाय समझ कर उसका दूध निकालने का प्रयास करते हैं. 
      व्यापारी वर्ग हो या उद्योगपति अथवा अन्य निजी व्यवसायी सभी अनेक प्रकार के जोखिमों से जूझते रहते है तब कही अपने लिए जीविका की व्यवस्था कर पाते हैं.जब वे कमाते हैं तो अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों को सरकार को अदा करते हैं. ट्रैड टैक्स,रोड टेक्स,कस्टम ड्यूटी,एक्सायीस ड्यूटी,सर्विस टैक्स,मनोरंजन कर के रूप में सरकारी राजस्व निजी व्यवसायी से ही प्राप्त होता है अर्थात यह राजस्व निजी व्यवसायी के माध्यम से ही सरकार को प्राप्त होते हैं. अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी राजस्व को एकत्र करने की जिम्मेदारी निजी व्यवसायी द्वारा उठाई जाती है.जब निजी व्यापार,उद्योग,चलता है तभी राजस्व उत्पन्न होता है,साथ ही लाखों.करोड़ों लोगों को रोजगार भी प्राप्त होता है. इसके अतिरिक्त अपने कारोबार से अर्जित लाभ पर इनकम टेक्स भी अदा करते है.जिससे सरकार के सभी खर्च पूरे होते हैं देश के विकास,देश की रक्षा खर्च, जनसुविधाएँ के लिए होने वाले खर्च, व्यापारियों या निजी व्यसायियों द्वारा अनेक प्रकार के टेक्स एकत्र कर एवं अदा कर  जुटाए जाते हैं.
        सरकारी क्षेत्र के उद्योग अपने एकाधिकार के होते हुए भी घाटे में चलते हैं,और निजी क्षेत्र के उद्योग उन्ही परिस्थितियों में रहते हुए आपसी प्रतिस्पर्द्धा झेलते हुए भी लाभ कमाते हैं.परन्तु यदि उनके व्यापार में घाटा आ जाय,उनके व्यापरिक प्रतिष्ठान में आग लग जाय ,चोरी हो जाय,उद्योग मंदी का शिकार हो जाय तो उनके भविष्य की सुरक्षा के  लिए कोई सरकारी प्रावधान नहीं होता.अक्र्सर निजी व्यवसायी ही लूटमार,चोरी डकैती, अपहरण, रंगदारी जैसी घटनाओं के शिकार होते है.यदि कोई निजी व्यवसायी शरीरिक रूप से(आकस्मिक दुर्घटना,अथवा गंभीर बीमारी के चलते) व्यापार चलाने, उद्योग को चला पाने के योग्य नहीं रहता तो उसे भावी निजी खर्चों के लिए किसी प्रकार के सरकारी योगदान की आशा नहीं होती.
     अतः मैं सभी व्यापारी एवं निजी कारोबारियों से निवेदन करता हूँ की वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होकर आवाज उठायें,और सरकार से अपने हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करें ताकि सरकार हमेशा से उपेक्षित निजी व्यवसायी वर्ग की आर्थिक सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम उठा सकें.(SA-177C)



गुरुवार, 19 नवंबर 2015

सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता


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 आज देश मे सहिष्णुता और असहिष्णुता के बीच एक जंग छिड़ चुकी है. असहिष्णुता के पक्षधर कलाकार, पत्रकार, वैज्ञानिक, साहित्यकार अपने सम्मान सरकार को लौटा रहे हैं, तो सहिष्णुता के समर्थक,सम्मान लौटने वालों के विरोध में एक आन्दोलन का रूप दे चुके हैं, असहिष्णुता की समस्या जब खड़ी हुई जब देश के प्रतिष्ठित साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार, वैज्ञानिक जैसे विद्वान् लोगों द्वारा भारत सरकार से प्राप्त अपने सम्मान वापस करने वालों की झड़ी लगा दी, जैसे देश में कोई तूफ़ान आ गया हो,या कोई ऐसी अप्रत्याशित घटना घट गयी हो अथवा  घट रही हो, जो देश के इतिहास में अभूतपूर्व हो. सम्मान लौटने वालों का कहना है,गत दिनों में हुई कुछ घटनाओं जैसे गौ मांस को लेकर हुई एक मुस्लिम मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या,शाहजहांपुर में पत्रकार जोगिन्दर सिंह की  जीवित जलाकर हत्या,या फिर फरीदाबाद में दो दलित बच्चो को जीवित जलाकर मार डालना और दक्षिण में हुई एक कन्नड़ साहित्यकार डा.एम्.एम्.कलबर्गी की हत्या इत्यादि से वे आहत हैं और इस प्रकार से देश को असहिष्णुता की ओर बढ़ते हुए नहीं देख सकते. जिन घटनाओं का सम्मान आपिस करने वालों द्वारा जिक्र किया जा रहा है, इस प्रकार की घटनाएँ हर काल खंड में होती आयी हैं. हाँ अब इन घटनाओं की बारम्बारता पहले से अधिक अवश्य हो गयी है, उसका कारण है कानून और व्यवस्था की कमी. जिसके कारण अपराधी अधिक निर्भय हो गए हैं. आजादी के पश्चात् सरकारी विभागों में  व्याप्त भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता ने गत पैंसठ वर्षों में अपराधियों के हौंसले बुलंद कर दिए है, अपराधी प्रकृति के लोग शासन के उच्च पदों तक पहुँच गए है. यह विषय आज अचानक पैदा नहीं हो गया,और जिसका  कारण वर्तमान में केंद्र की भा.ज.पा. सरकार को मान लिया जाय, जैसे उसने सत्तारूढ़ होते ही सारी व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर दिया हो. आज की भयानक स्थिति के लिए जिम्मेदार गत पैसंठ वर्षों से सत्ता संभाले काग्रेस की नीतियां हैं. वैसे भी न्याय व्यवस्था राज्यों का विषय है और अलग अलग राज्य में अलग अलग दलों की सरकारें मौजूद है, जो वर्त्तमान घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं. केंद्र सरकार को दोषी मानना सिर्फ उसके विरुद्ध किया जा रहा विपक्षी पार्टियों का षड्यंत्र है. 
   जरा देश के इतिहास पर नजर डालें,क्या पहले जब सिक्खों का कत्लेआम हो रहा था तब असहिष्णुता नहीं थी,जब देश में आपातकल घोषित कर दिया गया था जब देश में सहिष्णुता का वातावरण था ?, कश्मीर में निरंतर हिन्दुओं का शोषण  होता रहा है हजारों हिन्दू आज भी अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं,घर बार से दूर हैं, वह सहिष्णुता है ? गोधरा कांड जिसमे तीर्थ यात्रियों को जिन्दा जला दिया गया था, वह असहिष्णुता नहीं थी ? कांग्रेस के शासन में बार बार धार्मिक दंगे हुए वह क्या था ? 2013 के मुज्जफ्फरनगर के दंगे हुए जब देश के सम्माननीय(सम्मान प्राप्त) लोग कहाँ थे.क्या एक दादरी कांड से देश में असहिष्णुता फ़ैल गयी, क्या एक साहित्यकार डा.कलबर्गी एवं एक पत्रकार की हत्या होना देश की पहली घटना है, जिसे लेकर देश विदेशों में अपने देश की छवि को बिगाड़ा जा रहा है,देश को अपमानित किया जा रहा है.क्या इन सभी विद्वानों के समक्ष अपना विरोध व्यक्त करने का कोई और माध्यम नहीं बचा था.अपनी अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम मिला. सम्मान वापस करना विरोध नहीं है बल्कि देश का अपमान है जिसके द्वारा प्रदत्त सम्मान अस्वीकार किया जा रहा है.

      कांग्रेस समेत सभी दलों में यह चलन रहा है वे एक मुस्लमान के साथ होने वाले अत्याचार,दुर्व्यवहार को अधिक गंभीरता से लेते हैं और व्यापक रूप से प्रचार करते हैं, किसी अन्य धर्म या समुदाय के साथ होने वाले हादसों को नजर अंदाज कर देते हैं.जो मुस्लिमों के विरुद्ध कार्य करता है साम्प्रदायिक कहलाता है परन्तु अन्य समुदायों के प्रति होने वाले अन्याय उनके लिए सांप्रदायिक नहीं होते.कांग्रेस का यही धर्मनिरपेक्ष स्वरूप है.इन घटनाओं ने साबित कर दिया है ये वही सम्मान प्राप्त लोग हैं जो कांग्रेस के समर्थक रहे हैं,उन्होंने यह सम्मान चापलूसी से या सिफारिश से प्राप्त किया था. अतः अपनी बफादारी दिखाने के लिए पुरस्कार लौटाने की घोषणाएं कर रहे हैं, जिससे वर्तमान सरकार को आरोपित किया जा सके उसकी छवि को देश विदेश में ख़राब किया जा सके,और विपक्षी कांग्रेस को लाभ पहुँचाया जा सके.यदि हम गंभीरता से विश्लेषण करे तो ऐसा लगता है लचर कानून और न्याय व्यवस्था के कारण आम जनता में आक्रोश का परिणाम भी हो सकता है,जब जब जनता का कानून और व्यवस्था पर विश्वास उठता है तब तब जनता अन्याय के विरोध में कानून अपने हाथ में लेने नहीं हिचकती.अतः असहिष्णुता की समस्या जनता को न्याय और चुस्त दुरस्त कानून व्यवस्था दिला कर ही हल की जा सकती है,सम्मान लौटाकर नहीं.लेखको को न्याय के विरोध में अपनी लेखनी को धारदार बनाना होगा,कलाकारों को अपने कला के माध्यम से सरकारों को मजबूर करना होगा ताकि वे जनता को भेद भाव रहित न्याय दिलाने के लिए उपाय करें.(SA-180B) 

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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

अपना बर्चस्व बनाने की घातक प्रवृति

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  हमारे देश में गत कुछ दशकों में शिक्षा का प्रचार और प्रसार तीव्र गति से बढ़ा है. इस कारण आम व्यक्ति का व्यक्तित्व विकास भी तेजी से हुआ है,उसकी महत्वाकांक्षाएं भी उसी गति से बढ़ी हैं.आज प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सुविधा संपन्न होकर जीना चाहता है.प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति उच्च जीवन शैली को अपनाने को उत्सुक है,फिर चाहे उसके पास दो समय के लिए रोटी जुटाना भी उसकी सामर्थ्य से परे हो.परन्तु उसके सपने बहुत ऊंचे हो रहे हैं. इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने परिजनों,संगी साथियों को अपने विचारों ,अपनी इच्छाओं के अनुसार चलाने के लिए उतावला रहता है.अपने बर्चस्व को बनाने के लिए वह अनेक प्रकार के उचित अनुचित उपाय करता है. अपने विचारों को दूसरों पर थोपने के लिए हिंसा से भी परहेज नहीं किया जाता, धार्मिक दंगे इसका जीता जगता उदहारण है.जो अपने धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के प्रति असहिष्णुता दर्शाती है.आज भी खाड़ी के देशों में उभर रही आतंकवादी शक्ति आईएस का उद्देश्य भी यही है की पूरी दुनिया में इस्लाम धर्म का ही बर्चस्व रहे बाकि सभी धर्मों का अस्तित्व समाप्त हो जाय. ऐतिहासिक रूप में अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अनेक ऐसे अनेक उदहारण भरे पड़े है, जब एक शक्तिशाली व्यक्ति (हिटलर,सिकंदर) ने पूरी दुनिया को अपने कब्जे में करने का प्रयास किया, उस प्रयास में उसने भयंकर रूप से कत्लेआम मचाया लोगो को अनेक यातनाएं दी उन्हें गाजर मूली की भांति काट डाला या मार डाला. यदि कोई अधिक धनवान है तो वह अपने धन के बल पर सभी को अपने विचारों के अनुरूप चलने की इच्छा रखता है,यदि कोई उच्च पद पर आसीन है तो वह आम जनता को अपने पैरों की जूती समझता है, यह बात अलग है यदि उससे बड़ा पदाधिकारी उसके समक्ष हो तो उसका व्यव्हार एक दम याचक वाला हो जाता है और बड़ा अधिकारी उसे भी अपने इशारों पर नचाता है. अर्थात सब खेल ताकत का रह गया है.तर्क वितर्क,उचित अनुचित सब पीछे छूट गए लगते हैं.जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहानी चरितार्थ हो रही है.बिलकुल वही स्थिति होती जा रही है जैसे कभी अपराधी प्रवृति के लोगों में ही देखने को मिलता था,जहाँ प्रत्येक बदमाश अपने से अधिक ताकतवर बदमाश के समक्ष नतमस्तक रहता है.परन्तु अपने से कमजोर बदमाश के लिए मौत बना रहता है. बर्चस्व की बढती प्रवृति कही न कही उसकी घटती सहन शक्ति परिलक्षित करती है.वह अपने से कमजोर व्यक्ति के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाता जब तक वह उसके बर्चस्व को स्वीकार न कर ले. कोई भी शक्तिशाली(तन, मन, धन किसी भी रूप में)व्यक्ति अपने मित्रों रिश्तेदारों,परिजनों को भी अपनी इच्छानुसार चलाने की इच्छा रखता है.इसी कारण संयुक्त परिवार एकाकी परिवारों में विभक्त होते जा रहे हैं.परिवार में मिल बाँट कर खाने की प्रवृति समाप्त हो रही है.आज प्रत्येक इन्सान अपने स्वार्थ, अपने हितों की बात सोचता है. यदि वह किसी के लिए कुछ कर भी देता है तो उसे अपने कर्तव्य न मान कर उस पर अहसान मान कर उसे अपने इशारों पर चलाने की इच्छा पाल लेता है.यदि वह व्यक्ति उसके इच्छानुसार उसके लिए कार्य नहीं करता तो उसे अहसान फरामोश करार देता है अहसान फरामोश करार देता है. आज इन्सान अपना अधिपत्य ज़माने के लिए प्रतिस्पर्द्धा में जुट गया है.प्रतिस्पर्द्धा किसी प्रकार से हो सकती है.वह शिक्षा के क्षेत्र में हो,या खेल कूद में अथवा अपने कारोबार में.अपने प्रतिस्पर्द्धी को नीचा दिखाने के लिए वह अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय भी लगा देता है.यानि भले ही उसके जीवन के सुनहरी क्षण चले जाएँ(गुणवत्ता पूर्ण जीवन) परन्तु उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं जीतना चाहिए.यदि फिर भी जीत पक्की दिखाई नहीं देती तो हिंसा, बेईमानी, धोखाधडी, करने से भी परहेज नहीं होता. कार्य क्षेत्र कोई भी हो सकता है जैसे दुकानदारी अर्थात व्यापार, कारखाने में उत्पादन कार्य हो या कोई अन्य व्यवसाय हो अथवा राजनीति हो. और यह भी आवश्यक नहीं की व्यक्ति व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी ही हो आज भाई बहन एवं नजदीकी सम्बन्धी के अपने क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए भी देखना गवारा नहीं होता सिर्फ अपनी उन्नति ही रास आती है क्योंकि उसकी उन्नति से अपना बर्चस्व घट जाता है. जीवन में आगे निकलने की होड़ या अपने बर्चस्व कायम करने की इच्छा इन्सान को अपना स्वाभाविक जीवन(QUALITY LIFE) जीने से वंचित कर देती है.आधुनिक युग में इन्सान ने अपना दिन और रात इसी उधेड़ बुन(प्रतिस्पर्द्धा) में लगा दिया है, जो उसे पहले तनाव देती हैं और फिर अनेक शारीरिक बीमारियाँ लग जाती हैं और अंत में जीवन समाप्त हो जाता है.उसका रॉब,उसका बर्चस्व,उसका अधिपत्य सब कुछ यहीं रह जाता है. यहाँ पर यह बताना भी प्रासंगिक होगा की यदि कोई व्यक्ति नहीं चाहता की वह अपने से छोटे या अपने संपर्क में आने वाले किसी व्यक्ति को अपने दबाब में रखे,अपने विचार उस पर थोपे,उस स्थिति में उसके अंतर्गत आने वाले लोग उस पर हावी होना प्रारंभ कर देते हैं.उससे छोटे स्तर के लोग या परिजन उसको अपने विचारों से प्रभावित करने का प्रयास करते हैं.यानि की यदि कोई अपना डंडा नहीं चलाना चाहता तो लोग उसे डंडा लेकर खड़े हो जाते हैं.अजीब दस्तूर है दुनिया का.(SA-174B)

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

हम सभी भ्रष्टाचारमय हो चुके हैं

अक्सर भ्रष्टाचार को हम सरकारी कामकाज में व्याप्त, नौकरशाहों और राजनैतिक नेताओं द्वारा लिए जाने वाले घूस या कमीशन को ही भ्रष्टाचार मानते हैं.जबकि भ्रष्टाचार एक व्यापक रूप में हमारी रग रग में समां चुका है.बड़े बड़े व्यापारी भी सरकारी स्तर पर अपने कार्य कराने के लिए सक्षम अधिकारी को अनेक प्रलोभन और रिश्वत देते हैं और अपने इच्छानुसार कार्य कराकर अपने आर्थिक हितों को साधते हैं,और कार्य को तुरत फुरत करवा कर अपना समय भी बचा लेते हैं.यदि कोई अधिकारी ईमानदार है और उनके कार्य में अड़चन डालता है तो उसे अनेक प्रकार से धमकाया जाता है. कभी कभी तो उसे मरवा देने की धमकी भी देते है.अनेक बार ऐसे अनेक अफसर घूस खोरी का विरोध करने पर शहीद हो चुके हैं.जो यह सिद्ध करता है की सरकारी विभागों में रिश्वत खोरी के विरुद्ध आवाज उठाने वाले और अपने कार्य को कानून सम्मत करने वालों को अनेक प्रकार की यातनाये सहनी पड़ती हैं.ऐसे ईमानदार अफसरों को सरकार की ओर से कोई संरक्षण नहीं मिलता.इसी कारण भ्रष्टाचार नित्य प्रतिदिन बढाता जाता है और जनता त्रस्त होती रहती है.भ्रष्ट अफसर अपने बॉस का चहेता भी बना रहता है, क्योंकि उसे भी उसकी अवैध कमाई में हिस्सा मिलता है. ऐसे कर्मियों की पदोन्नति भी शीघ्र होती है.जबकि ईमानदार कर्मी को उसकी ईमानदारी की सजा के रूप में बॉस की प्रताड़ना मिलती है,उसे बार बार स्थानान्तरण(ट्रांसफर) के रूप में कष्ट सहना पड़ता है,भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं इस प्रकार उसका शोषण किया जाता है. आज हमें आदत पड़ चुकी है की किसी भी सरकारी कार्यालय में अपने कार्य के लिए जाते हैं, तो सरकारी कर्मी की पूरी चापलूसी करते है और उससे अपेक्षा करते है की वह अपने चाय पानी के पैसे लेकर कार्य को फ़ौरन कर दे और कायदे कानूनों को धता बताकर हमारी मन मुताविक कार्य कर दे. हमें अपने स्वार्थ के आगे कानून या नियम के प्रति प्रतिबद्धता कोई मायने नहीं रखती. और इस प्रकार से हम (आम आदमी)स्वयं भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते है,अर्थात भ्रष्ट आचरण के हम आदि हो गए हैं.अब तो हम वोट भी उसे ही देते हैं जो हमें किसी आर्थिक लाभ का वायदा करता है, अथवा शराब या धन से हमारे वोट की कीमत अदा कर देता है.जब हम रिश्वत लेकर अर्थात धन के लालच से अपना प्रतिनिधि चुनेंगे तो उससे कैसे उम्मीद कर सकते हैं की वह हमें ईमानदार और स्वच्छ प्रशासन देगा? हमारी एक आम धारणा बन गयी है की हमें कानून सम्मत तो कोई कार्य करना ही नहीं है हमें कानून का कोई डर नहीं है. अतः कानून तोडना हमारी फितरत में बस चुका है.हमें पता है यदि कोई सरकारी कार्यवाही होती है तो डीलिंग अफसर को रिश्वत दे कर शांत कर देंगे.यानि हमें सरकारी अफसर को तो रिश्वत देना मंजूर है परन्तु कानून सम्मत कार्य करने में आने वाले खर्च को वहन करना स्वीकार्य नहीं है iऔर खर्च न भी होता हो तो भी कानून के अनुसार कार्य क्यों करें? अधिक कमाई करने के लिए एक दूसरे को धोखा देना,जालसाजी करना,सब्जबाग दिखाना,मिलावट खोरी करना,नकली माल तैयार करना अथवा व्यापार करना परोक्ष रूप से लूट मार के ही रूप हैं और भ्रष्टाचार का ही स्वरूप है. आम जनता में व्याप्त भ्रष्टाचार के उदाहरण के निम्न रूप सर्वविदित हैं, मोटी कमाई के लिए एक डॉक्टर मरीज का अपेन्डिक्स के ओपरेशन का बहाना कर उसकी किडनी,लीवर इत्यादि महत्त्व पूर्ण अंग निकाल कर बेच देता है. एक इन्जिनियर कमीशन के लिए ठेकेदार को ऊंचे रेट पर टेंडर कर देता है और काम की गुणवत्ता को नजर अंदाज करता है. वकील मोटी फीस के लालच में अपने गुनाहगार मुवक्किल को बेगुनाह साबित करने के लिए सारे हथकंडे अपनाता है(सबूत गायब कर या गवाह को तोड़ कर या धमका कर) और मुक़दमे में सच्चाई का गला घोंट देता है,कभी कभी तो बेगुनाह को सजा भी करवा देता है. हम अपना घर तो स्वच्छ रखना चाहते हैं परन्तु सडक पर कचरा डाल कर उसे गन्दा करते रहते हैं,या चुपके से पडोसी के मकान के सामने डाल देते हैं.बस या ट्रेन में सफ़र करते समय साफ सफाई ध्यान रखना अपना फर्ज नहीं समझते. बिजली के बड़े बिल से बचने के लिए सरकारी कर्मचारी मिल कर मीटर में हेरा फेरी करते हैं और धड़ल्ले से बिना बिल चुकाए बिजली का लापरवाही से उपयोग करते हैं.क्योंकि हमें देश में बिजली की कमी से कोई सरोकार नहीं है.इसी प्रकार से पानी का फिजूल खर्च भी हमें नागवार नहीं करता.पानी हो या बिजली उसका उपयोग(सदुपयोग या दुरूपयोग) करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है क्योंकि हम देश के बफादार नागरिक हैं हमारे अंतर्मन में बैठी भ्रष्टाचार की धारणा इतनी गहरा चुकी है की जब सोचते है की मोदी सरकार देश को भ्रष्टाचार मुक्त करेगी तो आम प्रश्न हमारे मस्तिष्क में उठता है क्या हम भ्रष्टाचार मुक्त होकर अपने जीवन को सुचारू रूप से चला पाएंगे.अपने सरकारी कार्यों को करा पाने में सक्षम होंगे? क्या व्यापार और उद्योग चला पाना संभव होगा अथवा कानूनी दांव पेंच में ही फंस कर रह जायेंगे? (SA-173C)

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

सरकारी स्कूल बने सफ़ेद हाथी

यों तो हमारे देश में सभी सरकारी विभाग अपने आप में व्याप्त भ्रष्टाचार,निष्क्रियता,लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना कार्यों के लिए जाने जाते हैं.जिनमे पुलिस विभाग,परिवहन,विद्युत्,शिक्षा,एवं चिकित्सा विभाग सर्वाधिक बदनाम विभाग बन चुके हैं.परन्तु चिकित्सा एवं शिक्षा विभाग समाज के बहुत ही संवेदन शील पहलू से जुड़े होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं जिम्मेदार विभाग हैं,जहाँ एक विभाग पर मानवीय पहलू जुड़ा हुआ है, इन्सान की जिंदगी दांव पर लगी होती है, तो शिक्षा विभाग पर देश के भावी नागरिकों को दशा और दिशा के ज्ञान दिलाने का महत्वपूर्ण दायित्व है,जिसके ऊपर समाज के चरित्र के निर्माण और भविष्य निर्माण का भार होता है.आजादी के पश्चात् सत्तारूढ़ देश और प्रदेश की सभी दलों की सरकारों ने जनता को शिक्षित करने के लिए बेपनाह धन खर्च किया परन्तु नौकर शाही में व्याप्त भ्रष्टाचार और उदासीनता के कारण वांछित परिणाम नहीं मिल सके. मुख्य रूप से गुणवत्ता के सन्दर्भ में तो बहुत ही निराशा जनक परिणाम दिखाई दिए हैं.यही कारण है की कोई भी समृद्ध व्यक्ति अपने बच्चो को सरकारी विद्यालयों में पढाना उनके भविष्य के लिए उचित नहीं मानता और निजी स्कूलों में धन व्यय करके अपने बच्चे को शिक्षा दिलाता है. गत दिनों में इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश सराहनीय है, अपने आदेश में माननीय न्यायालय ने कहा है की सभी सरकारी कर्मचारियों को अपने बच्चो को सिर्फ और सिर्फ सरकारी स्कूलों में ही पढाना होगा अन्यथा उन्हें आर्थिक दंड देना होगा.एक सरकारी कर्मी होते हुए सरकारी स्कूलों से परहेज क्यों? अक्सर देखने में आया है की स्वयं सरकारी स्कूल के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाते है.क्योंकि वे जानते हैं की वे अपने स्कूलों में बच्चो को किस प्रकार से शिक्षित कर रहे हैं. इस आदेश पर अमल होने के बाद ही सरकारी स्कूलों में सुधार आने की सम्भावना बन सकती है.जब बड़े बड़े अधिकारीयों एवं स्वयं अध्यापकों के बच्चे इस सरकारी स्कूलों में पढेंगे तो उन्हें स्वयं अपने बच्चों के भविष्य का ध्यान रखते हुए,सरकारी शिक्षा संस्थानों को सुविधा संपन्न करने में रूचि लेंगे,और शिक्षा विभाग पर शिक्षा में गुणवत्ता लाने के लिए दबाव बनायेंगे और भ्रष्टाचार एवं निश्र्क्रियता पर अंकुश लगाने के सार्थक प्रयास करेंगे. आज प्रत्येक सरकारी स्कूल के शिक्षक को समाज के प्रचलित वेतन मानों से अनेक गुना वेतन दिया जाता है.प्राथमिक शिक्षा के अध्यापक को निजी स्कूलों में आम तौर पर दस हजार वेतन दिया जा रहा है, जिसे अध्यापक संतुष्ट होकर अपनाने को तैयार रहता है, और पूरे परिश्रम से बच्चो को शिक्षित करने का कार्य करता है.निजी विद्यालयों में अध्यापकों की निष्क्रिता को सहन नहीं किया जाता अतः गुणवत्ता बने रहने की सम्भावना अधिक होती है. निजी स्कूलों में तो ऐसे अनेक स्कूल भी है जो अपने अध्यापक को मात्र ढाई से चार हजार तक वेतन देते हैं,बेरोजगार शिक्षित व्यक्तियों को मजबूरन इसी वेतन मान पर कार्य करना पड़ता है जबकि उनके पास कोई भविष्य की सुरक्षा का आश्वासन भी नहीं होता.साथ ही अपने कार्यों को पूरी तत्परता से ईमानदारी से निभाना होता है. वहीँ सरकारी प्राथमिक शिक्षक को पच्चीस से तीस हजार वेतन दिया जाता है.फिर भी अध्यापक पढ़ाने में कोई रूचि नहीं रखता. जहाँ तक सरकारी स्कूलों में सुविधाओं का प्रश्न है तो यहाँ सुविधाओं के नाम पर बहुत कुछ नहीं है,कही फर्नीचर का अभाव है, तो कही जर्जर इमारत में बच्चे पढाई करने को मजबूर हैं.अधिकतर विद्यालयों में शौचालय या मूत्रालय नहीं है, यदि हैं तो उचित देख भाल के अभाव में स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं. पीने के लिए पानी की उचित व्यवस्था नहीं है. लगता है सिर्फ सरकारी योजनाओं को कागजो पर दिखाने के लिए सब प्रपंच हो रहा हो.जहाँ पर प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव हो तो शिक्षा की गुणवत्ता के लिए सोचना तो अप्रासंगिक हो जाता है. यही कारण है,की इन स्कूलों से निकले बच्चे निचले स्तर के कार्य कर पाने योग्य ही बन पाते हैं.वर्तमान प्रतिस्पर्द्धा के दौर में वे कही भी नहीं ठहर पाते इस प्रकार जनता के टैक्स से पोषित सरकारी स्कूलों में व्यय किया हुआ धन व्यर्थ में चला जाता है,और सरकारी धन का लाभ कुछ निष्क्रिय लोग उठाते है या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है. यद्यपि सभी सरकारी स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं है, परन्तु दूर दराज गावों के स्कूलों में नियुक्त शिक्षक मात्र हाजिरी लगा कर अपना वेतन प्राप्त करते है.अनेक शिक्षक तो उपस्थिति भी लगाने की आवश्यकता नहीं समझते,सब सेटिंग कर लेते हैं.जब कोई निरिक्षण होता है तो वहां मोजूद साथी अध्यापक उसकी छुट्टी का प्रार्थना पत्र लगा देते है. कुछ स्मार्ट शिक्षक न्यूनतम वेतन अर्थात तीन चार हजार रूपए में गाँव के ही किसी व्यक्ति को नियुक्त कर देते है जो उसके स्थान पर शिक्षा देने का कार्य करता है और शेष वेतन स्वयं घर बैठे कमाते है हाँ कुछ भेंट ऊपर के अधिकारीयों तक पहुंचानी पड़ती है.जहाँ तक पढने और पढ़ाने का सवाल है यहाँ न तो पढने वाले की पढाई में रूचि होती है न ही पढ़ने वाले की कोई रूचि पढाने में है.शिक्षा के अभाव में गावों में शिक्षा की उपयोगिता को महत्व नहीं दिया जाता. अतः माता पिता को बच्चे को पढाने में कोई रूचि नहीं होती.कुछ बच्चे दोपहर के भोजन के लोभ में स्कूल अवश्य जाते है परन्तु उनकी पढाई में रूचि कम बल्कि दोपहर के भोजन में रूचि अधिक होती है जो उनकी दरिद्रता की मजबूरी है.जब पढ़ाने वाले और पढने वाले दोनों को कोई रूचि नहीं है तो स्कूलों का अस्तित्व ही निरर्थक हो जाता है.और जनता के टैक्स से दिया जा रहा शिक्षकों को वेतन अनुपयोगी खर्चे में चला जाता है.अंततः सरकारी विद्यालय सफ़ेद हाथी साबित हो रहे हैं.(SA-172C)