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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

मृत्यु भोज देना कितना उचित?

                  हिन्दू समाज में जब किसी परिजन की मौत हो जाती है,तो अनेक रस्में निभाई जाती हैं।उनमे सबसे आखिरी रस्म के तौर पर मृत्यु भोज देने की परंपरा निभाई जाती है।जिसके अंतर्गत गाँव या मौहल्ले के सभी लोगों को भोजन कराया जाता है।इस दिन तेरेह ब्राह्मणों को भोजन कराने के तत्पश्चात सभी (अड़ोसी, पडोसी, मित्र गण,रिश्तेदार) आमंत्रित अतिथियों को भोजन कराया जाता है। इस भोज में सभी को पूरी और अन्य व्यंजन परोसे जाते हैं।अब प्रश्न उठता है क्या परिवार में किसी प्रियजन की मृत्यु के पश्चात् इस प्रकार से भोज देना उचित है ?क्या यह हमारी संस्कृति का गौरव है की हम अपने ही परिजन की मौत को जश्न के रूप में मनाएं?अथवा उसके मौत के पश्चात् हुए गम को तेरह दिन बाद मृत्यु भोज देकर इतिश्री कर दें ? क्या परिजन की मृत्यु से हुई क्षति तेरेह दिनों के बाद पूर्ण हो जाती है, अथवा उसके बिछड़ने का गम समाप्त हो जाता है? क्या यह संभव है की उसके गम को चंद दिनों की सीमाओं में बांध दिया जाय और तत्पश्चात ख़ुशी का इजहार किया जाय। क्या यह एक संवेदन शील और अच्छी परंपरा है? हद तो जब हो जाती है जब एक गरीब व्यक्ति जिसके घर पर खाने को पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध नहीं है उसे मृतक की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज देने के लिए मजबूर किया जाता है और उसे किसी साहूकार से कर्ज लेकर मृतक के प्रति अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।और हमेशा के लिए कर्ज में डूब जाता है,सामाजिक या धार्मिक परम्परा निभाते निभाते गरीब और गरीब हो जाता है।कितना तर्कसंगत है यह मृत्यु भोज ?क्या तेरहवी के दिन धार्मिक परम्पराओं का निर्वहन सूक्ष्म रूप से नहीं किया जा सकता,जिसमे फिजूल खर्च को बचाते हुए सिर्फ शोक सभा का आयोजन हो।मृतक को याद किया जाय उसके द्वारा किये गए अच्छे कार्यों की समीक्षा की जाय।उसके न रहने से हुई क्षति का आंकलन किया जाय।सिर्फ दूर से आने वाले प्रशंसकों और रिश्तेदारों को साधारण भोजन की व्यवस्था की जाय।
                अत्यधिक खेद का विषय तो यह है की जब घर में कोई बुजुर्ग मरता है तो उसे ढोल नगाड़ों के साथ श्मशान घाट तक ले जाया जाता है,उसके पार्थिव शरीर को गुब्बारे,झंडियों,पताकाओं ,जैसी अनेक वस्तुओं से सजाया जाता है जिसे विमान का नाम दिया जाता है।और सब कुछ परमपराओं के नाम पर तत्परता से किया जाता है।मरने वाला बूढा हो या कोई जवान, था तो परिवार का एक सदस्य ही।अतः परिजन के बिछुड़ने पर जश्न का माहौल क्यों?इन परम्पराओं को निभाने वालों में कम पढ़े लिखे या पिछड़े वर्ग से ही नहीं होते, अच्छे परिवारों में और उच्च शिक्षित व्यक्ति भी शामिल होते हैं।क्या यह बिना सोचे समझे परम्पराओं को निभाते जाना,लकीर पीटते जाना नही है? क्या यह हमारे रिश्तों में संवेदनशीलता का परिचायक माना जा सकता है? क्या इन दकियानूसी कर्मों में फंसे रह कर हम विकास कर पाएंगे ,विश्व की चाल से चाल मिला पाएंगे?



     {वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर आधारित पुस्तक “जीवन संध्या”  अब ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है.अतः सभी पाठकों से अनुरोध है www.jeevansandhya.wordpress.com पर विजिट करें और अपने मित्रों सम्बन्धियों बुजुर्गों को पढने के लिए प्रेरित करें और इस विषय पर अपने विचार एवं सुझाव भी भेजें. }
मेरा   इमेल पता है ----satyasheel129@gmail.com
 


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रविवार, 21 जुलाई 2013

बुजुर्गो का नजरिया अपनी संतान के प्रति

      अक्सर देखा गया है की बुजुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नजरिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है.वे अपनी संतान को अपने अहसानों के लिए कर्जदार मानते हैं. उनकी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपनी संतान को बचपन से लेकर युवावस्था तक लालन पालन करने में अनेक प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ा,जिसके लिए उन्हें अपने खर्चे काट कर उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा, उनकी आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास किये. ताकि भविष्य में ये बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बने.जब आज वे स्वयं कमाई करने लगे हैं तो उन्हें सिर्फ हमारे लिए सोचना चाहिए, हमारी सेवा करनी चाहिए. कभी कभी तो बुजुर्ग लोग संतान को जड़ खरीद गुलाम के रूप में देखते हैं.

बुजुर्ग लोग दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा विरोधी व्यव्हार से क्षुब्ध रहते हैं.उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान को दोषी मानते हैं.वे उनकी तर्क पूर्ण बातों को बुजुर्गों का अपमान मानते हैं.वे युवा पीढ़ी की बदली जीवन शैली से व्यथित होते हैं.नयी जीवन शैली की आलोचना करते हैं.क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान तो करना चाहती है या करती है परन्तु चापलूसी के विरुद्ध है. परन्तु बुजुर्ग उनके बदल रहे व्यव्हार को अपने निरादर के रूप में देखते हैं. बुजुर्गो के अनुसार उनकी संतान को परंपरागत तरीके से अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए ,नित्य उनके पैर दबाने चाहियें उनकी तबियत बिगड़ने पर हमारी मिजाजपुर्सी को प्राथमिकता पर रखना चाहिए. उन्हें सब काम धंधे छोड़ कर उनकी सेवा में लग जाना चाहिए और यही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए. यही संतान का कर्तव्य होता है.उनके अनुसार संतान की व्यक्तिगत जिन्दगी, उसकी अपनी खुशियाँ, उसका अपना रोजगार, उसका अपना परिवार कोई मायेने नहीं रखता.और जब संतान उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो वे उन्हें अहसान फरामोश ठहराते हैं.
बुजुर्गो के अनुसार आज की नयी पीढ़ी अधिक स्वछन्द और अनुशासन हीन हो गयी है.वह पहनावे के नाम पर अर्ध नग्न कपडे पहनती है, उसके परिधान अश्लील हो गए हैं,देर से उठना, देर से सोना ,जंक फ़ूड खाना इत्यादि सब कुछ अप्राकृतिक हो गया है.ऐसे सभी जीवन शैली के बदलावों से पुरानी पीढ़ी खफा रहती है,आक्रोशित रहती है,और जब वे उन्हें बदल पाने में असफल रहते है तो कुंठा के शिकार होते हैं. परिवर्तन प्रकृति का नियम है इस पर किसी का बस नहीं चलता. प्रत्येक बदलाव से जहाँ कुछ सुविधाएँ जन्म लेती है तो कुछ बुराईयां (बुजुर्गो के अनुसार)भी पैदा होती हैं.और होने वाले परिवर्तनों को कोई नहीं रोक सकता.अतः नए बदलावों को स्वीकार कर ही नयी पीढ़ी से सामंजस्य बनाया जा सकता है यह स्वीकृति ही बुजुर्गो के हित में है.
कभी कभी घर के बुजुर्ग व्यक्ति अपनी संतान के मन में उनके लिए सम्मान को, अपनी मर्जी थोपने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन्हें भावनात्मक रूप से ब्लेक मेल करते हैं.इस प्रकार से यदि कोई बुजुर्ग अपने पुत्र या पुत्रवधू को अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाते हैं,जैसे उन्हें शहर से दूर कही रोजगार के लिए नहीं जाना है या विदेश नहीं जाना,(चाहे उन्हें मिला जॉब का आमंत्रण ठुकराना पड़े.) वर्ना वे उसे कभी माफ़ नहीं करेंगे ,या वे अनशन कर देंगे इत्यादि इत्यादि. इस प्रकार से वे अपनी संतान के भविष्य के साथ तो खिलवाड करते ही हैं, उनके मन में अपने लिए सम्मान भी कम कर देते हैं. और उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं. अतः प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने हित से अधिक संतान के हित के बारे में सोचें ताकि उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो या कम से कम हो.
अनेक परिवारों में देखा गया है की माँ ने अपना पूरा जीवन विधवा या परित्यक्ता होकर भी अनेक कष्ट उठा कर अपने परिवार का पालन पोषण किया होता है, या फिर पिता ने बिना पत्नी के अर्थात बच्चो की माँ के अभाव में अपने बच्चों को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर बड़ा किया होता है,परिवार में पिता की विधवा बहन रहती है जिसे पारिवारिक सुख नसीब नहीं हुआ ,ऐसे परिवारों में जब बच्चे बड़े होकर अपने जीवन साथी के साथ सुखी पारिवारिक जीवन बिताना शुरू करते हैं है तो घर के बड़ों को सहन नहीं होता वे असहज हो जाते हैं.और पुरानी बातों को याद कर परिवार के वातावरण को बोझिल बना देते हैं.कभी कभी तनाव पूर्ण स्थिति भी बन जाती है. क्योंकि वे अपने परिवार के नवयुवक को अपनी पत्नी के साथ हंसी मजाक करते देख खीज का अनुभव करते हैं.जो उनके व्यव्हार से भी स्पष्ट होता रहता है.परन्तु अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं से संतान को आहत करना कितना उचित है? अपनी खीज व्यक्त कर अथवा तनाव पूर्ण वातावरण दे कर किसका भला हो सकता है? ऐसा व्यव्हार शायद आपको नयी पीढ़ी से अलग थलग कर दे. इस सन्दर्भ में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आपके हित में होगा. बल्कि आपको खुश होना चाहिय की आप की मेहनत और तपस्या का ही तो फल है,जो आज आपके बच्चों के जीवन में खुशियाँ आ पायीं. बच्चों की खुशियाँ ,उनकी किलकारियां,आपकी ही महनत का परिणाम है. अतः उनके साथ खुश होना आपका सम्मान बढ़ाएगा .वैसे भी उनकी खुशियों के लिए ही तो आपने अपने जीवन साथी के न होते हुए भी अनेक कष्ट उठा कर उनको यहाँ तक ला पाए और बच्चे को अपने जीवन को हंसी खुशी जीने लायक बन पाए.अपने जीवन के दुखद क्षणों को भूलकर परिवार की खुशियों में अपना योगदान दें और वातावरण को प्रफुल्लित बनायें, उससे ही आपकी संतान के मन में आपके लिए श्रृद्धा भाव जागेगा. और हमेशा यही कामना करें की जैसा कष्टदायक जीवन अपने जिया है आपके बच्चों को उसकी परछाई भी न पड़े. उनके जीवन में दुनिया भर की खुशियाँ सदैव बनी रहें. वे समाज में सम्मान पूर्वक जियें और निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढते रहें. आपका अपने बच्चों के प्रति सकारात्मक नजरिया ही परिवार को प्रफुल्लित करेगा, और आपका शेष जीवन सुखद, शांति पूर्ण, एवं सम्मानजनक व्यतीत होगा.
- सत्य शील अग्रवाल, शास्त्री नगर मेरठ

बुधवार, 3 जुलाई 2013

अभिशप्त आस्था के केंद्र




        प्रतिवर्ष सैंकड़ो व्यक्ति अपने आस्था के केन्द्रों पर आने वाली विभिन्न प्रकार की विपदाओं के कारण मौत के शिकार होते हैं।आस्था के केन्द्रों से तात्पर्य , विभिन्न धार्मिक स्थानों से है अर्थात मंदिरों, मठों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, या फिर पवित्र नदियों के घाटों पर(कुम्भ मेले इत्यादि ) या अन्य स्थानों पर होने वाले धार्मिक आयोजनों से है।उत्तराखंड में गत दिनों में आयी विपदा को सिर्फ प्राकृतिक विपदा के रूप में नहीं देखा जा सकता।प्राकृतिक घटनाओं पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता परन्तु उचित सावधानियां और कुशल प्रबंधन से उन हादसों की तीव्रता को कम किया जा सकता है ,जान माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।

अक्सर देखा गया है धार्मिक स्थलों या धार्मिक आयोजनों में अप्रत्याशित भीड़ जुट जाती है जो संभावनाओं से कहीं अधिक हो जाती है और स्थानीय प्रशासन द्वारा किये गए सभी प्रबंध बौने साबित होते है अर्थात अपर्याप्त सिद्ध होते है। किसी भी दुर्घटना की स्थिति में शासन और प्रशासन की शिथिलता और संवेदनहीनता खुल कर सामने आती है, जो पीड़ितों की परेशानियों को और भी बढ़ा देती हैं।जो यह सिद्ध करती है की हमारी सरकारें जनता के जान माल के लिए कितनी फिक्रमंद हैं,शायद उनके कार्य शैली में आम व्यक्ति की जान की कोई कीमत नहीं है,हमारे राज नेता विप्पति में भी अपनी राजनीती से बाज नहीं आते।नौकरशाहों के लिए भी उनका जनता के दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो सिर्फ अपने आकाओं को खुश रखना ही उनकी नौकरी बचाए रखने के लिए काफी है।
सभी धार्मिक स्थलों पर या धार्मिक आयोजनों के समय स्थानीय प्रशासन यात्रियों ,आगंतुकों,श्रद्धालुओं से भारी प्रवेश शुल्क वसूल किया जाता है,फिर भी यात्रियों के जान माल की सुरक्षा और सुविधाओं का सदैव अभाव बना रहता है।सरकारी मशीनरी द्वारा उपलब्ध कराये गए साधन और सुविधाएँ हमेशा अपर्याप्त ही होते है।विपत्ति की स्थिति में तो जैसे प्रशासन की नींद बहुत देर से खुलती है, शायद जब खुलती है जब मीडिया में बहुत के शोर शराबा होने लगता है।अक्सर देखा गया है पीड़ित व्यक्ति अपने प्रयासों से ही विप्पत्ति से बहार आता है या फिर किसी हादसे का शिकार होकर अपनी जान गवां बैठता है।,सिर्फ कुछ निजी संगठनों का सहयोग ही मिल पाता है जिनके कार्य कर्ताओं में मानवता के प्रति स्नेह होता है और सेवा भाव झलकता है।निजी संगठनों की अपनी सीमायें होती है वे दुर्घटना को रोकने के उपाय नहीं कर सकते। किसी भी दुर्घटना की सम्भावना को रोकना शासन या प्रशासन द्वारा ही संभव है।उनकी जिम्मेदारी है की विकास कार्यों की योजना बनाते समय पर्यावरण की सुरक्षा का ध्यान रखे और पर्यटक एवं जनता के हितों का भी ध्यान रखा जाय।साथ ही स्थानीय व्यवस्था को इस प्रकार से निरापद बनाया जाय ताकि कोई भी अनहोनी की आशंका न रह जाय।जिसके लिए शासकों,योजना कारों में इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
जनता द्वारा उत्तराखंड की भयानक आपदा के सन्दर्भ में निम्न प्रश्न शासन से पूछना स्वाभाविक है;
***क्या उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा की भयानकता को कम करना संभव नहीं था?
***क्या धर्मिक आयोजनों एवं धार्मिक स्थलों का प्रबंधन और व्यवस्था आधुनिक तकनीक द्वारा संभव नहीं है?
****क्या धार्मिक स्वतंत्रता के रहते श्रद्धालुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन प्रशासन की नहीं है?या सिर्फ टैक्स वसूलना ही उसकी जिम्मेदारी है ताकि नेताओं की जेबें लबालब भरती रहें??
(जनता की जिम्मेदारी ;-क्या एक श्रद्धालु का समाज के प्रति कर्तव्य नहीं बनता की वह हर वर्ष चार धाम की यात्रा न कर, जीवन में सिर्फ एक बार यात्रा का प्रण ले,ताकि अन्य श्रद्धालुओं को सुविधा मिल सके,भीड़ कम हो सके जिससे दुर्घटना की सम्भावना घटती है।क्या उनके लिए धन और श्रद्धा से बढ़ कर सामाजिक दायित्व नहीं है?)
यदि कुछ निचे लिखे उपायों पर ईमानदारी से निर्वहन किया जाय तो शायद दुर्घटनाओं को कम किया जा सकता है और किसी विपत्ति के समय शीघ्रता से राहत कार्य किये जा सकते हैं।
,पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ यात्री काफी संख्या में पहुँचते हैं,विशेष तौर पर धर्मिक स्थलों जैसे उत्तर के चार धाम,कुंभ मेले,अन्य पर्यटन स्थल इत्यादि ,ऐसे स्थानों पर पहुँचने के लिए अनेक मार्ग होने चाहिए,जिसमे अनेक सड़कों के अतिरिक्त रोप वे ,एयर वेज़ इत्यादि। कम से कम दो रोप वे बने और एक ऐसा स्थान बने जहाँ हवाई जहाज को उतरने की सुविधा हो।
,पर्वतिये क्षेत्रों के विकास कार्यों की योजना बनाते समय पृकृति का दोहन करने के लिए पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के उपाय भी होने आवश्यक हैं,और यह सुनिश्चित किया जाय की प्राकृतिक आवेगों के सञ्चालन में कोई बाधा उत्पन्न न हो पाए।
(प्रकृति के दोहन से तात्पर्य है ऊर्जा आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए बांध का निर्माण,इंधन या लकड़ीअथवा खाद्य आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए पेड़ों,पौधों की कटाई,निर्माण कार्य के लिए जंगलों की सफाई,खनिज आवश्यकताओं के लिए खनन कार्य,जानवर के मांस,खाल,दन्त जैसी आवश्यकताओं के लिए वन्य जीवों का वध इत्यादि)
,धार्मिक स्थल,पर्यटन स्थल पहाड़ पर हो या मैदान में उनके प्रवेश पर पर्याप्त जाँच व्यवस्था हो,प्रत्येक आगंतुक का परिचय फोटो सहित पंजीकृत किया जाय(जो CCTV द्वारा भी संभव है) ताकि विपत्ति के समय उसकी पहचान और उसके परिजनों से संपर्क साधने में आसानी हो। साथ ही आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगा रहे।ऐसे सभी स्थलों पर(धार्मिक हो या अन्य ) जहाँ पर्यटक भारी संख्या में पहुचते हो,आपदा पर्बंधन की टीम पूरे साजो सामान के साथ उपस्थित रहे।
,प्रत्येक पर्यटक ,यात्री ,श्रद्धालु ,का पर्यटन स्थल पर प्रवेश करते ही उसका बीमा किया जाये ताकि उसे विपत्ति के समय आर्थिक सहायता मिलने में कोई संशय न रहे।तुरंत राहत मिल सके।
,यात्रियों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए प्रवेश के समय टोकन दिए जाएँ जिन्हें लौटते समय वापिस लिया जाय।और पर्यटन स्थल की क्षमता के अनुसार ही प्रवेश की इजाजत दी जाय।
उपरोक्त उपायों को अपनाये जाने से निश्चित ही किसी भी आपदा की आशंका और उसकी भयावहता पर नियंत्रण किया जा सकता है

गुरुवार, 9 मई 2013

विकास के लिए धार्मिक कट्टरवाद से मुक्त होना आवश्यक



 ‘‘किसी भी देश को विकास पथ पर निरंतर आगे बढ़ने के लिए धार्मिक कट्टरवाद से मुक्त होना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। धार्मिक सहिष्णुता और इंसानियत धर्म के पालन से ही विकास संभव है।’
वैश्वीकृत विकास के वर्तमान स्वरूप को समझना होगा। यातायात एवं संचार साधनों के विकास के साथ ही गांव से शहर और शहर से मैट्रो शहर और इसी प्रकार पूरे विश्व के देश आपस में इस प्रकार जुड़ चुके हैं कि पूरा संसार एक संयुक्त गांव की भांति हो गया है। पूरे विश्व का विकास एक साथ हो रहा है और सब देश अन्य देशों पर निर्भर हो गये हैं। सभी देशों को अन्य देशों से व्यापारिक सम्बन्ध बनाये रखना आवश्यक हो गया है। बिना व्यापारिक सम्बन्धों के देश की जनता अपना सामान्य जीवन जीने से भी वंचित हो जाती है,उन्नति तो दूर की बात रह जाती है। भौतिकवादी वर्तमान युग में किसी एक देश के लिए सम्भव नहीं है कि वह अपने संसाधनों, वन संपदा, खनिज संपदा और कारखानों में उत्पादित वस्तुओं से अपनी जनता की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। कोई भी उत्पादक देश अपने उत्पादन को सिर्फ देश तक सीमित कर उत्पादन लाभ नहीं ले सकता। अतः जहाँ विकसित देश अपने उत्पादन बेचने के लिए अविकसित एवं विकासशील देशों में बाजार ढूंढने को मजबूर हैं तो गरीब एवं विकासशील देश की जनता को विभिन्न उत्पादक वस्तुओं के लिए विकसित देशों का सहारा लेना पड़ता है। विकसित देशों के पास पूंजी है परन्तु श्रम शक्ति की कमी है तो विकासशील देशों के पास पूंजी का अभाव है, बेरोजगारी है, अथाह श्रम शक्ति है। अतः सभी देशों को किसी न किसी रूप में एक-दूसरे पर निर्भर रहना होता है।
             उपरोक्त निर्भरता को इस प्रकार समझा जा सकता है। एक बाग में बहुत बड़ी मात्रा में सेब लगे हैं यदि वह स्थानीय बाजार में बेचे जायें तो स्थानीय खपत के पश्चात बहुत बड़ी मात्रा में सेब बच जाता है यदि उसे अन्य किसी शहर और फिर किसी अन्य देश को न भेजा जाये तो बाकी बचा सेब सड़ जायेगा और सेब उत्पादक को अपने उत्पाद का पूरा लाभ न मिलकर कम लाभ से सब्र करना पड़ेगा और शायद अगली फसल के उत्पादन की तैयारी भी कम उत्साह से करेगा । परन्तु यदि उसके सेबों को खरीदने के लिए अन्य शहरों एवं अन्य देशों से व्यापारी आते हैं, उसे बचे सेब की खेप के उचित दाम मिल जाते हैं और व्यापारी जिस देश से आते हैं उस देश की जनता को सेब का रसास्वादन करने को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार विश्व की जनता प्रत्येक देश के उत्पादन का उपभोग कर सकती है, यद्यपि वह वस्तु उसके देश में उत्पादित नहीं होती। और विश्व का प्रत्येक देश अन्य देशों से सम्बद्ध हो चुका है। अन्य देशों पर निर्भरता बढ़ गई है।
        इसी प्रकार यदि किसी देश के अन्य देशों से सम्बंध मधुर नहीं हैं तो उस देश से नवविकसित तकनीक एवं टैक्नीशियन प्राप्त नहीं कर सकता और कारखानों में उत्पादन पुरानी तकनीक से करते रहने को मजबूर होगा। यदि आपस में सबसे मधुर सम्बंध बने हुए हैं किसी देश से आवश्यकतानुसार श्रम शक्ति (इंजीनियर एवं विशेषज्ञ) आयात कर अपने देश की आवश्यकताएं पूर्ति कर सकता है। किसी देश के विकास के लिए पूरे विश्व से सहयोग सहभागिता, व्यापार सम्बंध आवश्यक हैं। धार्मिक कट्टरता विभिन्न देशों से सम्बंधों में मधुरता नहीं ला सकती।
         आज हमारा भौतिक विकास इस स्तर तक पहुंच गया है कि इससे ऊपर विकास करने के लिए विश्व समुदाय को एक साथ मिलकर चलना होगा। कोई भी देश प्रत्येक वस्तु का उत्पादन नहीं कर सकता। सभी देशों की वन सम्पदा, खनिज सम्पदा, बौद्धिक सम्पदा भिन्न जलवायु के कारण अलग-अलग है। विकास के लिए सभी प्रकार के खनिजों, वनस्पतियों एवं बौद्धिक क्षमताओं की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त कल कारखानों के उत्पादन के आदान-प्रदान के लिए प्रत्येक देश को एक-दूसरे की आवश्यकता होती है जो आज के विकास का मुख्य स्रोत बने हुए हैं। कल कारखाने के विकास से ही हमारे जीवन में सुविधाएं उपलब्ध हो पाती हैं और हमारा जीवन स्तर ऊँचा होता है। एक कार निर्माता को कारखाना लगाने के लिए पहले भारी पूंजी जुटानी होती है वह अपने देश और विदेश से धन एकत्र करता है फिर उसकी उत्पादित कारों के लिए विश्व का बाजार चाहिये वरना उसका उत्पादन सीमित रह जायेगा और सीमित उत्पादन से कारखाने की लागत के खर्चे, उत्पादन में नियोजित श्रम एवं मशीनरी की मेंटीनेंस के खर्चे पूरे न हो पाने के कारण कारखाने को चलाते रहना असम्भव हो जायेगा। इसी प्रकार सभी कारखाने विश्व समुदाय के सहयोग से ही चल पाते हैं और वस्तुओं की कीमत हर इंसान की पकड़ में आ पाती है।
         कारखानों के अतिरिक्त आज एक और विकास की ओर मानव उत्सुकता से देख रहा है। वह है ब्रह्मांड की खोज उसकी सौर मंडल की जानकारी और यह अध्ययन किसी एक देश के बूते के बाहर है अनेकों गृहों पर अपने यान भेजना, उपग्रह भेजना काफी मंहगे और श्रम साध्य कार्य हैं। अतः अनेक देश एक साथ एक मिशन बनाकर अपने रिसर्च वर्क को अंजाम देते हैं। उसी प्रकार असाध्य रोगों से लड़ने के लिए शोध कार्य सभी देश आपसी सहयोग से मानव जाति के हित के लिए कार्य करते हैं।
              इतिहास उठाकर देखने से ज्ञात होता है पुराने समय में प्रायः अपने देश के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए अपनी काफी ऊर्जा व्यय करनी पड़ती थी। यद्यपि रक्षा व्यय अब भी काफी होते हैं परन्तु किसी देश का अस्तित्व खतरे में नहीं रहता क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय किसी भी देश को अन्य देश पर कब्जा करने नहीं दे सकता है। अतः विश्व समुदाय से अलग हो देश का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है।
         यदि मानव सामाजिक प्राणी नहीं होता तो जिस विकास की मंजिल पर आज पहुंचा है, पहुंचना सम्भव था। तुम अकेले अथवा कुछ परिवार मिलाकर क्या कर सकते हो? अपने लिए कपड़े बना सकते हो उसको सिलने के लिए मशीन और बटन तैयार कर सकते हो, मशीन के लिए लोहे के कारखाने और खान से लोहा निकाल सकते हो।क्या तुम खेतीबाड़ी में सभी आवश्यक खाद्य पदार्थ अपने लिए पैदा कर सकते हो, जैसे गेहूं, विभिन्न मसाले, सब्जियां बहु प्रकार के फल पैदा कर पाओगे?  क्या कागज और पैन प्राप्त करने के लिए, जूता तैयार करने के लिए, सोना चांदी उत्पादन, विभिन्न दवाईयां प्राप्त करने के लिए स्वयं कारखाने लगाने के लिए सक्षम हो सकते हो?   टी.वी. फ्रिज, मोबाइल, स्कूटर, कार, मकान के लिए सीमेंट, ईंट, क्या-क्या तुम स्वयं तैयार कर सकते हो? यही कारण है अब एक शहर या गांव तक सीमित नहीं रह गया है, पूरे देश के लिए भी असम्भव हो गया है कि वह स्वयं सब कुछ तैयार कर जनता को विश्व स्तरीय जीवन स्तर दिला सके।
        इसी वजह से भारतीय नेताओं ने, विशेषज्ञों ने विश्व उद्यमियों के लिए भारत में उदारता के द्वार खोले और आर्थिक उन्नति के लिए स्वयं को विश्व समुदाय के साथ जोड़ा जिसने सवतंत्र प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया। जनता को रोजगार के अवसर प्राप्त हुए और विश्व स्तरीय वस्तुओं का उपयोग करने का मौका मिला, साथ ही देश के कारखानों, बागानों, खेत खलिहानों के लिए विश्व का बाजार मिला ताकि उन्हें उचित कीमत मिल सके और अधिक उत्पादन के अवसर मिल सकें।
      उपरोक्त उदाहरणों से वस्तु स्थिति स्पष्ट हो गयी होगी कि क्यों विश्व सहयोग चाहिये?कोई भी समाज अथवा देश विकास के पथ पर आगे बढ़ना चाहता है तो धार्मिक उदारता को गले लगाना होगा। सभी धर्मों का सम्मान ही विश्व के अन्य धर्म प्रेमियों को जोड़ सकता है। किसी से व्यापार सम्बन्ध बनाने के लिए जातिवाद, कट्टरवाद काम नहीं आ सकता। स्वतन्त्र प्रतिस्पर्द्धा के लिए सभी धर्मों को आमन्त्रित करना होगा। उनकी धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखना होगा। उन्हें अपने देश में खुलेपन, दूरदर्शिता का वातावरण प्रदान करना होगा। कोई भी देश अपनी शर्तों पर दूसरे देश से स्वछन्द व्यवहार नहीं कर सकता।  आज विश्व में विकसित देशों के अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जो ‘सर्वधर्म सम्भाव’ का उदाहरण बनकर विकसित हुए हैं। अमेरिका, ब्रिटेन अन्य यूरोपीय देश सभी निष्पक्ष न्याय एवं व्यवहार में विश्वास करते हैं। स्वयं ईसाई होते हुए भी सभी अन्य धर्मानुयायी वहाँ निवास करते हैं जिन्होंने वहाँ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। अमेरिका में अनेक उच्च श्रेणी के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, राजनीतिज्ञ भारतीय मूल के हिन्दू या मुसलमान हैं। खाड़ी के देशों का उदाहरण सबके सामने हैं, जिस देश ने धार्मिक उदारता दिखाई विकसित श्रेणी के देशों में खड़ा हो गया जैसे कुवैत, यूएसई, ओमान, बहरीन, कतर इत्यादि सभी मुस्लिम देश हैं परन्तु अपनी उदारता के कारण सर्वसाधन सम्पन्न हो गये। जबकि ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सउदी अरब अपनी कट्टरता को न छोड़ पाने के कारण आज भी विकसित नहीं हैं। जबकि ईरान, इराक, सउदी अरब के पास अकूत तेल सम्पदा है। अफगानिस्तान के पास प्राकृतिक सम्पदा की कोई कमी नहीं है परन्तु कट्टरता के कारण अशांत क्षेत्र है और अविकसित है। अतः धार्मिक उदारता ही विकास की सीढ़ी पर चढ़ने का मौका दे सकती है। क्योंकि विश्व में अब राजतन्त्र के दिन लद चुके हैं। धीरे-धीरे सभी देश लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं। लोकतन्त्र अर्थात जनता के वोट पर आधारित सरकारी तंत्र।
            अतः यह आवश्यक हो जाता है कि जनता के प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक धर्म का सम्मान किया जाये। प्रत्येक देश के लिए धर्मनिरपेक्ष होना आवश्यक होता जा रहा है। देश के कोने-कोने में शांति और विकास की लहर लाने के लिएधार्मिक उदारता मुख्य मार्ग है।(SA-105D)
-     सत्य शील अग्रवाल,   शास्त्री नगर मेरठ

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

क्यों करते हैं हम पूजा


 
 आज ईश्वर  के अस्तित्व को नकारने वालों  की संख्या निरंतर बढती जा रही है।ऐसे लोग बिना तर्कपूर्ण तथ्यों  के सिर्फ आस्था के आधार  पर ईश्वरीय सत्ता को मानने को तैयार नहीं हैं।यदि इश्वर के अस्तित्व को मान  भी लिया जाय ,परन्तु ईश्वर  को खुश रखने के लिए उसकी पूजा अर्चना करना तर्कसंगत नहीं  लगता है। अपने इष्ट देव की पूजा आराधना करने का क्या औचित्य है?यह भी विचार मंथन का विषय है। पूजा के क्या लाभ हैं,क्या पूजा करना आवश्यक है?और क्यों?इश्वर अपनी भक्ति क्यों करवाना चाहता है?क्या वह भी मानव की भांति चापलूस पसंद है?यदि एक सर्वशक्तिमान भी चापलूसी जैसे सांसारिक दोषों का शिकार है तो उसकी सार्वभौमिकता  भी अपने आप में प्रश्न चिन्ह खड़ा करती  है। विश्व पटल पर विद्यमान सभी धर्मों की मान्यता है की, अपने आराध्य देव की पूजा करके उसे खुश किया जा सकता है और अपनी इच्छा पूर्ती के लिए इश्वर का सहयोग लिया जा सकता है। क्या  सिर्फ इश्वर की पूजा आराधना से मनुष्य अधिक सुख शांति पाने का अधिकारी हो जाता है? क्या उसका परिश्रम,अध्यवसाय,ईमानदारी इत्यादि सुख प्राप्त करने के साधन नहीं हैं?क्या कोई व्यक्ति अनैतिक,हिंसक,अवैध कार्य करने के पश्चात् भी पूजा के माध्यम से अपने गुनाहों से मुक्ति पा सकता है? यदि ऐसा संभव है तो  सिर्फ पूजा अर्चना द्वारा खुशियाँ  प्राप्त कर लेने की धारणा इन्सान को निष्क्रिय बनाने की प्रेरणा स्रोत नहीं बन जाती?यानि पहले अनैतिक,अवैधानिक,असामाजिक कार्य कर अपने भौतिक उद्देश्य प्राप्त  कर लें ,तत्पश्चात इश्वर के दरबार में जाकर सारे पापों,सारे दुष्कर्मों से मुक्ति पा लें, दान जैसे धार्मिक कृत्य द्वारा अपने असंगत कार्यों पर पर्दा डाल दिया जाय।
    पूजा, आराधना, प्रेयर,नमाज,धार्मिक मान्यता के अनुसार स्वर्ग,जन्नत या हैविन जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।क्या ईमानदारी,मेहनत,लगन,अहिंसा,परमार्थ जैसे गुण रखने वाला व्यक्ति(परन्तु पूजा में विश्वास न रखने वाला ) सिर्फ पूजा को अपने जीवनका उद्देश्य मानने वाले व्यक्ति के सामने बौना रह जाता है,परन्तु क्यों? जब एक डकैत को विश्वास है, की काली माँ उसके लूटपाट,हिंसा आदि अपराधों को क्षमा कर देगी,तो उसे अधर्म,अनैतिक,असामाजिक एवं हिंसक कार्यों को करने से कैसे रोक जा सकता है?क्या उसकी अराध्य देवी पूजा के माध्यम से उसके गुनाहों को वास्तव में माफ़ कर देगी?
      इश्वर के अस्तित्व की कल्पना अर्थात उसके अस्तित्व को स्वीकार  करना और उसकी आराधना करना दोनों प्रथक प्रथक कल्पनाएँ हैं।शायद इश्वर की कल्पना ने ही उसे पूजा करने की प्रेरणा प्रदान की होगी, ताकि मानव अज्ञात शक्तियों के प्रकोप से बचा रहे और उसकी कृपा पाने से उसके जीवन में सुख समृद्धि का अस्तित्व बना रहे। उसका अशांत,उद्वेलित,मन शांत हो सके। जीवन में आने वाली उलझनों से निजात पा सके। प्रत्येक धर्म ने अपने प्रथक प्रथक पूजा के नियम नियत किये हुए हैं ,और पूजा,अर्चना धर्म के प्रचार,प्रसार का माध्यम बन गया।
     विज्ञान के शोधों द्वारा सिद्ध हो चुका है सभी पूजा पद्धतियां मानव स्वास्थ्य को भी लाभ पहुंचाती हैं। समस्त पूजा सामग्री एवं क्रियाएं मानव को शारीरिक एवं मानसिक लाभ पहुंचती है.पूजा से होने वाले अप्रत्यक्ष, लाभ इन्सान का इश्वर में विश्वास को दृढ कर देता है,वह सोचने लगता है की यह उसकी पूजा का फल है।और इस प्रकार धर्माधिकारियों एवं धर्मों का बर्चस्व बना रहता  है।  

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  सत्य शील अग्रवाल 

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

देश के भावी प्रधान मंत्री -नरेंद्र मोदी या सुषमा स्वराज?


आज पूरे देश में राजनैतिक गलियारों में लोकसभा के आगामी २०१४ में होने वाले आम  चुनावो में जीतने के लिए भावी प्रधान मंत्री की घोषणा को लेकर गर्मागर्म बहस छिड़ गयी है। देश की प्रमुख पार्टियाँ  भावी प्रधानमंत्री के लिए अपने पार्टी के नेता के नाम की घोषणा करने को उत्साहित दीख रही हैं।एक तरफ कांग्रेस पार्टी में राहुल गाँधी को  भावी प्रधानमंत्री के तौर  पर देखने के प्रयास किये जा रहे है, तो कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मनमोहन सिंह द्वारा ही तीसरी पारी खेले जाने  की कयास लगा रहे हैं।कांग्रेस पार्टी में शेष वरिष्ठ नेताओं का नाम नेता के तौर पर उछलना वर्जित है।इस पार्टी में तो गाँधी परिवार का सदस्य ही नेत्रित्व संभाल  सकता है या सोनिया गाँधी द्वारा प्रायोजित व्यक्ति ही प्रधान मंत्री की कुर्सी प्राप्त कर सकता है। अन्यथा पार्टी अनेक भागो में विभाजित हो जाएगी और कोई भी नेत्रित्व सँभालने लायक नहीं होगा।पिछले कुछ समय से देश में व्याप्त महंगाई, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से जनता बुरी तरह से त्रस्त हो चुकी है,देश की जनता का कांग्रेस से मोह भंग हो चुका है।अन्ना के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन ने आग में घी का काम  किया है ,अतः अगले आम चुनावों में कांग्रेस को सत्ता मिलने के कोई आसार नजर नहीं आते। शायद इसी कारण  देश की  प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी सत्ता का सुख चखने को खासी आश्वस्त है और उसके द्वारा घोषित प्रधान मंत्री के उम्मीदवार की आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।  भाजपा में इस बार गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर तिकड़ी लगाने वाले लोकप्रिय नेता नरेन्द्र मोदी को  भावी प्रधान मंत्री के प्रबल दावेदार के रूप में देखा जा रहा है,परन्तु सप्रंग अर्थात NDA की कुछ पार्टियां विशेष रूप से नरेंद्र मोदी के विरुद्ध खड़ी हैं,उन्हें नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार्य नहीं है।विरोध करने वालों में बिहार के वर्तमान मुख्य मंत्री और  JDU (जनता दल यूनाइटेड) के नेता  नितीश कुमार एवं शरद यादव विशेष रूप से सामने हैं।  हैं। जो उन्हें उनके शासनकाल में हुए 2002 के गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार मानते हुए, एक सांप्रदायिक छवि वाला व्यक्ति मानते हैं। उन्हें नरेंद्र मोदी के अतिरिक्त कोई भी अन्य भाजपा नेता स्वीकार्य है।शायद उन्हें बिहार में अपनी मुस्लिम वोटर की चिंता सता रही है,जिसके सहारे वे कांग्रेस को बिहार से दूर रखने में कामयाब हो सकते हैं।या फिर भाजपा के गठबंधन से हट कर अपने भविष्य को अधिक सुरक्षित मान रहे हैं।
       भाजपा में एक खेमा पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता लालकृष्ण अडवाणी को अगले प्रधान मंत्री के तौर पर देखने का  इच्छुक है।परन्तु पार्टी के युवा कार्यकर्त्ता नयी पीढ़ी का प्रधान मंत्री चाहते हैं।इस प्रकार भाजपा में नरेंद्र मोदी से हट कर दो मुख्य वरिष्ठ नेताओं के नाम लिये  जा सकते हैं,वे है अरुण जेटली और सुषमा स्वराज इन दोनों में महिला होने के नाते सुषमा स्वराज की दावेदारी प्रबल लगने लगती है।अंत में भाजपा के दो मुख्य भावी प्रधानमंत्री के दावेदार रह जाते हैं।दोनों नेता ही साफ स्वच्छ छवि वाले निर्विवादित पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं।दोनों ही बेहद सुलझे हुए और योग्य नेता हैं।इस प्रकार  सुषमा और मोदी के नामों पर एक बहस छिड़ चुकी है,क्योंकि जहां बुद्धिजीवियों का एक वर्ग सुषमा को बेहतर बता कर नरेंद्र मोदी को नकारता प्रतीत हो रहा है,तो एक अन्य वर्ग मोदी सबसे उपयुक्त प्रधानमंत्री मानता है।


    सुषमा जी को तीस वर्षों का राजनैतिक अनुभव के साथ केंद्र सरकार में मंत्री के रूप में विभिन्न मंत्रालयों को सँभालने का अनुभव है ,अल्पावधि के लिए दिल्ली के मुख्य मंत्री पद को भी सुशोभित कर चुकी है।भाजपा में लोकप्रिय नेता हैं,और  भाजपा के घटक दल शिव सेना के बल  साहेब ठाकरे की पसंद रही हैं। उन्हें  दिल्ली की पहली  महिला मुख्यमंत्री होने की गौरव प्राप्त है. भाजपा के घटक दल शिव सेना के   बाला साहेब ठाकरे की पसंद रही हैं।न्हें  दिल्ली की पहली  महिला मुख्यमंत्री होने की गौरव प्राप्त है
 भारत की संसद में सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार पाने वाली पहली महिला भी वे ही हैं। वर्तमान में संसद में विपक्ष की नेता हैं। वे तेज तर्रार पार्टी की नेता और प्रवक्ता हैं।उनकी छवि में कोई दाग नहीं है,वे प्रधान मंत्री के पद  पर विद्वान् ,योग्य और सक्षम नेता के तौर पर सिद्ध हो सकती हैं।उन्हें महिला होने का अतिरिक्त समर्थन मिल सकता है,उन पर कट्टर हिन्दू वादी की छाप  भी नहीं लगी है,देश के राजनेताओं के लिए उनके विरुद्ध तथाकथित धर्म निरपेक्षतावाद  की दुहाई देते हुए उन्हें साम्प्रदायिक बताने का कोई कारण नहीं है।अतः उनकी देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में  प्रबल दावेदारी बनती है।
     जब भी गुजरात के वर्तमान मुख्य मंत्री की प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में चर्चा होती है,तो उनके व्यक्तित्व के सामने कोई नहीं टिक पाता।उनकी भाषण शैली किसी की भी बोलती  बंद करने में सक्षम है,उनका  मीडिया मेनेजमेंट गजब का कार्य करता है जो उनको  लोकप्रिय बनाने में सहायक बनता है।वे सिर्फ विकास आधारित राजनीति  में विश्वास करते है,जबकि आज धर्म या जाति आधारित राजनीति  देश पर हावी हो रही है।उनका उद्देश्य अपने प्रदेश के बाद, पूरे देश को और देश की जनता को विकास का लाभ देना है।विकास के लिए उनका अपना विजन है,उदाहरण  के रूप में उनके पास गुजरात का माडल है।जो उनकी विकास के प्रति ईमानदारी और उनकी कार्य क्षमता,कार्य शैली  को इंगित करता है।वे देश की व्यवस्था को सुधारने के लिए नयी टेक्नोलोजी का सहारा लेने के पक्षधर हैं।वे देश में भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने को संकल्प बद्ध लगते हैं।यही कारण है की पार्टी के अधिकतर कार्य कर्ता और देश के शुभेच्छु एवं प्रबुद्ध वर्ग  नरेंद्र मोदी को अगले प्रधान मंत्री के रूप में देखने के लिए खासे उत्साहित हैं,भाजपा के मूल संगठन *आर एस एस* का भी समर्थन नरेंद्र मोदी को प्राप्त है।
   उपरोक्त विश्लेषण मोदी की दावेदारी को मजबूत करता है,और देश का सौभग्य होगा यदि देश को नरेंद्र मोदी का नेतृत्व मिलता है।              


  

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

कैसे हो अपराध मुक्त समाज का निर्माण ?




     किसी भी समाज के निरंतर विकास करने के लिए समाज में शांति और सुरक्षा का वातावरण होना अत्यंत आवश्यक है।समाज में शान्ती का वातावरण बनाये रखने के लिए उसे अपराध मुक्त होना परम आवश्यक है।अतः प्रत्येक देश की सरकार का प्रथम कर्तव्य है की वह समाज को और देश को वाह्य एवं आन्तरिक नकारात्मक शक्तियों से मुक्त रखने के लिए समुचित व्यवस्था करे।
समाज को अपराध मुक्त रखने के लिए अपराध और अपराधी के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है,यदि अपराधी की मनोवैज्ञानिक प्रवृति का अध्ययन कर उसको मजबूर करने वाली परस्थितियों को बनने से ही रोक दिया जाय, तो समाज को अपराधमुक्त करना अथवा न्यूनतम अपराध वाले समाज की श्रेणी में लाने में मदद मिल सकती है।यद्यपि प्रशसनिक विशेषज्ञों को अपराध विज्ञानं की पूरी जानकारी होती है,परन्तु हमारे देश के राजनैतिक आकाओं की इच्छा शक्ति के अभाव में वे पर्याप्त उपाय नहीं कर पाते,और देश में अराजकता की स्थिति बन जाती है,और आज भी बनी हुई है।कभी विदेशी,आतंकी गतिविधियाँ चलाकर देश में अशांति और अस्थिरता फ़ैलाने की कोशिश करते हैं ,तो कभी स्थानीय निवासी अपने प्रति हो रहे अन्याय के विरुद्ध आन्दोलनरत हो जाते हैं, जो कभी कभी हिंसा में परिवर्तित हो जाता है,और क्षेत्र विशेष का विकास प्रभावित होने लगता है।
अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए सत्ताधारी नेता स्थानीय समस्याओं को जान बूझ कर उलझा देते हैं और परिणाम स्वरूप धरना प्रर्दशन,हिंसक आन्दोलन या फिर आतंकवाद पनपने लगते हैं।जिससे स्थानीय विकास अवरुद्ध हो जाता है,देश में अलगाव जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं।इस प्रकार स्थानीय जनता निरन्तर शोषण का शिकार होती रहती है,जब जनता में असंतोष बढ़ने लगता है तो अपराधों की बाढ़ आ जाती है,कुछ सक्षम और महत्वाकांक्षी ,ऊर्जावान,मेधावी लोग उस क्षेत्र से पलायन करने लगते हैं।उद्यमी और व्यापारी अपने कारोबार को अन्यत्र स्थानांतरित कर लेते है,और क्षेत्र विशेष पिछड़ने लगता है।जो लोग समाज और क्षेत्र के विकास करने में सक्षम होते है,योग्य होते हैं, वे अपने क्षेत्र के स्थान पर किसी अन्य शहर,प्रदेश,या देश के विकास में योगदान कर रहे होते हैं।
अतः यह जानना आवश्यक है की देश और समाज को विकास की उन्मुक्त धारा से जोड़े रखने के लिए समाज को अपराधमुक्त कैसे रखा जा सकता है,प्रस्तुत लेख के माध्यम से इस विषय को समझने का प्रयास किया गया है।परिस्थितियों एवं कारणों को समझने के पश्चात् ही उचित कदम उठा कर समस्याओं के समाधान किये जा सकते हैं और समाज और देश को अपराध मुक्त करने के प्रयास किये जा सकते हैं;
१, कोई भी व्यक्ति प्राकृतिक रूप से अपराधी के रूप में पै
दा नहीं होता।उसकी वर्तमान एवं भूतपूर्व परिस्थितियां उसे अपराध की ओर ले जाती हैं।यहाँ पर एक मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले अपराधों को संज्ञान में नहीं लिया जा रहा है। मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले अपराधों की संख्या भी नगण्य होती है,जो समाज को उद्वेलित नहीं कर सकते,तथा विक्षिप्त लोगों की गतिविधियों पर आसानी से अंकुश भी लगाया जा सकता है।जब भी किसी क्षेत्र में आम आदमी अपराधिक् गतिविधियों में संलग्न होने लगता है तो समाज में विकृति आने लगती है।जब स्थानीय निवासियों को अपनी मूल आवश्यकताएं अर्थात रोटी कपडा और मकान,जुटाने में असीमित संघर्ष के पश्चात् भी उपलब्ध नहीं हो पाती तो उसका संघर्ष अपराध की ओर उन्मुख होने लगता है।वह अपनी भूख मिटाने ले लिए अपराधियों से भी हाथ मिला सकता है,वह रोजगार पाने के लिए अनुत्पादक कार्यों में जैसे तस्करी,गैर कानूनी व्यापार,चोरी डकैती हेरा फेरी इत्यादि और वह अपराधी बन जाता है।
२, यदि किसी कार्यरत व्यक्ति से उसका रोजगार छीन लिया जाय ,उसके खेत खलिहान को अधिग्रहण कर उन्हें रोजगार विहीन कर दिया जाय,किसी भवन के मालिक को अन्याय पूर्वक उसका निवास स्थान छीन लिया जाय इत्यादि परिस्थितियों में वह अन्याय के विरुद्ध आवाज उठता है। यदि उसको न्याय नहीं मिलता तो उसका संघर्ष अपराध की और भी मुड़ सकता है। ऐसे पीड़ित लोग अवांछित व्यक्तियों के साथ मिलकर समाज में अशांति पैदा कर सकते हैं।जब किसी क्षेत्र में ऐसे पीड़ितों की संख्या बहुमत में हो जाती है तो समस्त क्षेत्र हिंसा और आतंक की चपेट में आ जाता है।अतः यह आवश्यक है किसी भी क्षेत्र में शासन या प्रशासन को स्थानीय लोगों में बढ़ रहे असंतोष को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए,उसे समय रहते स्थानीय समस्या का समाधान निकल लेना चाहिए।और क्षेत्र विशेष को अराजकता से बचा सकता है।
,अपराधिक गतिविधियों के बढ़ने का बहुत बड़ा कारण होता है,हिंसा की प्रतिक्रिया में हिंसा की उत्पत्ति।यदि किसी परिवार के किसी परिजन के साथ अन्याय होता है, उसके साथ हिंसा होती है,उस हिंसा के फलस्वरूप उसकी मौत हो जाती है,वह विकलांग हो जाता है,तो प्रतिक्रिया स्वरूप पूरा परिवार आक्रोशित हो जाता है।वह अपराधी के विरुद्ध बदले की भावना से जलने लगता है, उसकी यह इर्ष्या हिंसा या अपराध के रूप में परिवर्तित होती है।क्योंकि वह दुश्मन से हिंसा के बदले हिंसा का सहारा लेकर ही आत्म संतोष का अनुभव करता है।अनेक घटनाओं में, विशेष कर देहाती क्षेत्रों में देखा गया है इस प्रतिशोध की ज्वाला में परिवार के परिवार नष्ट हो जाते हैं।कुछ परिवार अपने प्रतिशोध के लिए कानून का वैधानिक तरीका भी अपनाते हैं और अपने दुश्मन को सजा दिलाने के लिए धन दौलत के साथ अपना कार्यकारी समय खर्च कर समस्त जीवन स्वाहा कर देते है, अपनी पुश्तैनी जायदाद और अपना रोजगार भी लुटा देते हैं,और सड़क पर आ जाते हैं।रोजगार विहीन व्यक्ति स्वयं समाज के स्वास्थ्य के लिए घातक होता है।
४, हिंसा और प्रतिहिंसा का साक्षात् उदाहरण हम सबके सामने है,सत्तर और अस्सी के दशक में भारत के अनेक शहरों में,देहातों में बार बार धार्मिक दंगे होते रहते थे।उत्तर प्रदेश के कुछ जिले तो जातीय एवं धार्मिक दंगों के लिए पूरी तरह बदनाम हो चुके थे,जिनमे मेरठ,अलीगढ,मुरादाबाद विशेष दंगा ग्रस्त शहर बन गए थे।इन शहरों का विकास पूरी तरह ठप्प हो गया था।इन हालातों के बनने का मुख्य कारण निरंतर बढती जा रही नफरत एवं प्रतिशोध और इंतकाम की आग ही थी।जिस परिवार का कोई सदस्य धार्मिक दंगों की चपेट में आ जाता था,वह पूरा परिवार दुसरे समुदाय के विरुद्ध बदले में जलने लगता था,उसका नुकसान करके ही अपने परिजन के प्रति श्रद्धांजलि देना ही अपना मकसद बना लेता था और दंगों का न थमने वाला सिलसिला चलता रहता था।परिणाम स्वरूप शहर में बार बार धार्मिक दंगे होते रहते थे। पूरा शहर हिंसा का अखाडा बन गया।बाहर से आने वाले व्यापारियों,पर्यटकों,आगंतुकों ने शहर से लगभग नाता तोड़ लिया,शहर में चल रहे व्यापार ,उद्योग धंधे चौपट होने लगे।शहर में बेरोजगारी ने मुहं खोलना शुरू कर दिया,बेरोजगारी के गुस्से ने दंगो में आग में घी की भांति काम किया।इस प्रकार से निरंतर दंगे भड़कने के कारण बनते रहे।
जब समस्या विकट होने लगी तो प्रशासन की नींद खुली और स्थानीय एवं प्रादेशिक शासन व्यवस्था ने तीव्र इच्छा शक्ति दिखाते हुए दंगो को सख्ती से निपटने के लिए सतर्कता बढाई और यथा संभव अनुकूल प्रयास किये ।चुस्त प्रशासन व्यवस्था के कारण परिणाम भी सार्थक निकले।और अनेको वर्षों तक दंगे नहीं हुए कही किसी ने कोई शरारत की तो उसे वही शीघ्र कुचल दिया गया,कर्फ्यू लगाने की धारणा (जनता में दहशत पैदा करता था) समाप्त कर दी गयी।लगभग बीस वर्षो तक की जाने वाली निगरानी के कारण जनता में बदले की आग ठंडी पड़ने लगी,परिजनों के जख्मों की यादे धुंधली पड़ने लगीं।शहर में शांति बने रहने के कारण सबको रोजगार मिलने लगे कारोबार को फलने फूलने का पर्याप्त समय मिला।जब आम जनता अपने कार्यों में व्यस्त रहने लगी तो वह दंगो के घिनौने विचारों से उबरने लगी, उसमे दहशत ख़त्म होने लगी,सभी को अपनी उन्नति के लिए शांति का महत्त्व समझ में आने लगा।वर्तमान नयी युवा पीढ़ी दंगों की ज्वाला से अनभिज्ञ हो चुकी है,और इस प्रकार एक भयानक आतंकी सिलसिला रुक चुका है।आज यदि कोई अराजक तत्व शहर में आग लगाने का प्रयास भी करता है, तो उसे कामयाबी भी नहीं मिलती।इस प्रकार से सभी दंगों के लिए बदनाम शहर उन्नति की और अग्रसर होने लगे।अब यदि प्रदेश में धार्मिक दंगे होते भी हैं तो किसी नए क्षेत्र में अचानक होते हैं, जिनकी कोई निरंतरता भी नही होती।कहने का तात्पर्य है की जनता में बदले की भावना ख़त्म होते ही दंगों के रूप में हिंसा भी रुक गयी।
५, अपराध बढ़ने के एक और कारण को उदाहरण के रूप में समझने का प्रयास करते हैं,यदि किसी कारण से किसी क्षेत्र की फसल बर्बाद हो जाय,स्थानीय जनता और किसान भूखों मरने लगें,और कर्जदार अपना कर्ज बसूलने के लिए अनुचित दबाव बनाने लगें,ऐसी स्थिति में किसान या कर्जदार या तो आत्महत्या कर लेगा (जो एक अपराध ही है),या फिर लूट मार करेगा, हिंसा करेगा,अर्थात वह अपराधों की ओर रुख कर लेगा।इस प्रकार एक आम व्यक्ति विषम परिस्थितियों में अपराध का सहारा लेने लगता है।अतः शासन और प्रशासन का प्रथम कर्तव्य है की समाज में अराजकता फैलने से रोकने के लिए ,जनता को ऐसी विषम परिस्थियों में जूझने से बचाए।
६, अपने मित्रों रिश्तेदारों या परिचितों में विवाद के तीन मुख्य कारण माने गए हैं,वे हैं जर (धनदौलत ),जोरू(पत्नी या स्त्री),और जमीन(खेत खलिहान,मकान या जायदाद).आज के भौतिकवादी युग में प्रत्येक व्यक्ति धन संग्रह करने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता है,दौलत कमाने और इकट्ठी करने के लिए वह किसी भी हद तक चला जाता है,फिर चाहे उसके लिए उसे हिंसा का सहारा लेना पड़े किसी की हत्या करनी पड़े,अर्थात दौलत पाने के लिए अपराध करने से संकोच नहीं करता।और जमीन जायदाद या खेत आदि पर जायज, नाजायज कब्ज़ा करने के लिए अनेक हथकंडे अपनाता है,वर्तमान में समाज के खुलेपन ने पति पत्नी के बीच संदेह पैदा करने वाले अनेक कारण पैदा कर दिए हैं,जो अनेको बार अपराधों(हिंसा,हत्या)में परिवर्तित होते देखे जाते हैं।सदा जीवन उच्च विचार,त्याग की भावना,आपसी भाई चारे,बफादारी जैसे गुणों के विकास उत्तम उपाय सिद्ध हो सकते हैं।
७, यदि किसी क्षेत्र ,देश या प्रदेश में किसी अन्य क्षेत्र या देश के लोग आकर अपना बर्चस्व बनाने लगें, स्थानीय व्यवस्था पर अपना नियंत्रण करने लगें,स्थानीय लोगों को शासित करने लगें,उन पर अत्याचार करने लगें,स्थानीय लोगों की उपेक्षा होने लगे,ऐसी परिस्थितियों में स्थानीय समाज आक्रोशित होने लगता है,वह विरोध व्यक्त करता है। यदि शासन फिर भी उनकी समस्याओं की अनदेखी करता है,तो आक्रोश,बगावत अथवा क्रांति और हिंसक आन्दोलनों में भी परिवर्तित होने लगता है,परदेसी या परप्रांतीय व्यक्तियों से घृणा बढ़ने लगती है और अपराध बढ़ने लगते हैं।इस प्रकार से अन्य प्रान्त या देश से आये हुए व्यक्ति अपराधों के बढ़ने का कारण बन जाते है।
इस प्रकार की समस्याओं की अनदेखी भयंकर परिणाम दे सकती है।
८, किन्ही दो देशों के बीच युद्ध की ज्वाला भी अपराध पोषक है।जब एक देश की कुटिल साम्राज्यवादी निति, दूसरे देश पर आक्रमण कर उस देश की शांतप्रिय जनता को हिंसा के लिए मजबूर करती है, पूरे समाज में असंतोष एवं सुरक्षा का वातावरण बन जाता है।पूरे देश में अपराध बोध उत्पन्न हो जाता है।इतिहास गवाह है युद्ध प्रभावित देश सदियों के लिए अपने विकास में पिछड़ जाते है।उनकी विकास की गति विपरीत दिशा में चलने लगती है और उन्हें विश्व की प्रतिस्पर्द्धा से लोहा लेने के लिए अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
९, किसी भी समाज में व्याप्त नशाखोरी,सट्टेबाजी जैसे चारित्रिक पतन के कार्य अपराधों और अपराधियों को जन्म देते हैं।यदि उच्च वर्ग का कोई व्यक्ति इस प्रकार के शौक करता है तो वह इन महंगे शौकों के खर्चे उठाने में सक्षम होता है, परन्तु मध्यम आय वर्ग,या निम्न आय वर्ग के व्यक्ति के लिए इनके खर्चों का बोझ उठाना उनकी क्षमता से बाहर होता है।जब कोई नशे जैसे शौक का आदि हो जाता है,तो उसे उस शौक को पूरा करने के लिए धन तो चाहिए ही,और धनाभाव की स्थिति में वह घर के सामान बेचने को मजबूर होता है। यदि फिर भी पूरा नहीं पड़ता तो धोखाधड़ी,लूटमार,राहजनी या गुंडा गर्दी से धन एकत्र कर अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने का प्रयास करता है।जहाँ बाल्मिकी ,हरिजन,या पिछड़ी जातियों के मोहल्ले होते है,उनकी बस्तियों के करीब स्थित दुकानदारों,व्यापारियों या कारोबारियों से उगाही करना, उनके साथ नित्य मारपीट करना इनकी नशे की आदतों का परिणाम होता है।कुल मिला कर निष्कर्ष यह निकलता है की नशाखोरी सट्टेबाजी,या जुए बाजी जैसे चरित्र हनन वाले कार्य समाज में अपराधों के कारण बनते हैं।इस प्रकार के अवांछनीय तत्व क्षेत्र के विकास को अवरुद्ध कर देते हैं।अतः अपराधमुक्त समाज बनाने के लिए जनता के चरित्र निर्माण की भी महती आवश्यकता होती है।
अतः समाज को अपराध मुक्त रखने के लिए आवश्यक है,शिक्षा में चरित्र निर्माण पर विशेष जोर दिया जाय,जनता की मूल समस्याओं का समाधान शीघ्र से शीघ्र किया जाय,समाज में पनपने वाले असंतोष को समय रहते दूर किया जाय,समाज में साधनों की असमानता का अंतर निम्नतम करने के प्रयास हों, अपराधी को शीघ्र से शीघ्र सजा देने की व्यवस्था की जाय,और किसी भी अपराधी को सजा से बच पाने के अवसर न मिल पाए। विदित है इन सभी उपायों के लिए शासन और प्रशासन की इच्छा शक्ति का होना अत्यंत आवश्यक है।
सत्य शील अग्रवाल