प्रतिवर्ष सैंकड़ो व्यक्ति अपने आस्था के केन्द्रों पर आने वाली
विभिन्न प्रकार की विपदाओं के कारण मौत के शिकार होते हैं।आस्था के केन्द्रों से
तात्पर्य , विभिन्न धार्मिक स्थानों से
है अर्थात मंदिरों, मठों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, या फिर पवित्र नदियों के घाटों पर(कुम्भ मेले इत्यादि ) या अन्य
स्थानों पर होने वाले धार्मिक आयोजनों से है।उत्तराखंड में गत दिनों में आयी विपदा
को सिर्फ प्राकृतिक विपदा के रूप में नहीं देखा जा सकता।प्राकृतिक घटनाओं पर
नियंत्रण नहीं किया जा सकता परन्तु उचित सावधानियां और कुशल प्रबंधन से उन हादसों
की तीव्रता को कम किया जा सकता है ,जान माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।
अक्सर देखा गया है धार्मिक
स्थलों या धार्मिक आयोजनों में अप्रत्याशित भीड़ जुट जाती है जो संभावनाओं से कहीं
अधिक हो जाती है और स्थानीय प्रशासन द्वारा किये गए सभी प्रबंध बौने साबित होते है
अर्थात अपर्याप्त सिद्ध होते है। किसी भी दुर्घटना की स्थिति में शासन और प्रशासन
की शिथिलता और संवेदनहीनता खुल कर सामने आती है, जो पीड़ितों की परेशानियों को और भी बढ़ा देती हैं।जो यह सिद्ध करती
है की हमारी सरकारें जनता के जान माल के लिए कितनी फिक्रमंद हैं,शायद उनके कार्य शैली में आम व्यक्ति की जान की कोई कीमत नहीं है,हमारे राज नेता विप्पति में भी अपनी राजनीती से बाज नहीं
आते।नौकरशाहों के लिए भी उनका जनता के दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो सिर्फ
अपने आकाओं को खुश रखना ही उनकी नौकरी बचाए रखने के लिए काफी है।
सभी धार्मिक स्थलों पर या धार्मिक आयोजनों के समय
स्थानीय प्रशासन यात्रियों ,आगंतुकों,श्रद्धालुओं
से भारी प्रवेश शुल्क वसूल किया जाता है,फिर भी यात्रियों के जान माल की सुरक्षा और सुविधाओं का सदैव अभाव
बना रहता है।सरकारी मशीनरी द्वारा उपलब्ध कराये गए साधन और सुविधाएँ हमेशा
अपर्याप्त ही होते है।विपत्ति की स्थिति में तो जैसे प्रशासन की नींद बहुत देर से
खुलती है, शायद जब खुलती है जब मीडिया
में बहुत के शोर शराबा होने लगता है।अक्सर देखा गया है पीड़ित व्यक्ति अपने
प्रयासों से ही विप्पत्ति से बहार आता है या फिर किसी हादसे का शिकार होकर अपनी
जान गवां बैठता है।,सिर्फ कुछ निजी संगठनों का
सहयोग ही मिल पाता है जिनके कार्य कर्ताओं में मानवता के प्रति स्नेह होता है और
सेवा भाव झलकता है।निजी संगठनों की अपनी सीमायें होती है वे दुर्घटना को रोकने के
उपाय नहीं कर सकते। किसी भी दुर्घटना की सम्भावना को रोकना शासन या प्रशासन द्वारा
ही संभव है।उनकी जिम्मेदारी है की विकास कार्यों की योजना बनाते समय पर्यावरण की
सुरक्षा का ध्यान रखे और पर्यटक एवं जनता के हितों का भी ध्यान रखा जाय।साथ ही
स्थानीय व्यवस्था को इस प्रकार से निरापद बनाया जाय ताकि कोई भी अनहोनी की आशंका न
रह जाय।जिसके लिए शासकों,योजना
कारों में इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
जनता द्वारा उत्तराखंड की भयानक आपदा के सन्दर्भ में
निम्न प्रश्न शासन से पूछना स्वाभाविक है;
***क्या उत्तराखंड की
प्राकृतिक आपदा की भयानकता को कम करना संभव नहीं था?
***क्या धर्मिक आयोजनों एवं
धार्मिक स्थलों का प्रबंधन और व्यवस्था आधुनिक तकनीक द्वारा संभव नहीं है?
****क्या धार्मिक स्वतंत्रता
के रहते श्रद्धालुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन प्रशासन की नहीं है?या सिर्फ टैक्स वसूलना ही उसकी जिम्मेदारी है ताकि नेताओं की जेबें
लबालब भरती रहें??
(जनता की जिम्मेदारी ;-क्या एक श्रद्धालु का समाज के प्रति कर्तव्य नहीं बनता की वह हर
वर्ष चार धाम की यात्रा न कर, जीवन में सिर्फ एक बार यात्रा का प्रण ले,ताकि अन्य श्रद्धालुओं को सुविधा मिल सके,भीड़ कम हो सके जिससे दुर्घटना की सम्भावना घटती है।क्या उनके लिए
धन और श्रद्धा से बढ़ कर सामाजिक दायित्व नहीं है?)
यदि कुछ निचे लिखे उपायों पर
ईमानदारी से निर्वहन किया जाय तो शायद दुर्घटनाओं को कम किया जा सकता है और किसी
विपत्ति के समय शीघ्रता से राहत कार्य किये जा सकते हैं।
१,पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ यात्री काफी संख्या में पहुँचते हैं,विशेष तौर पर धर्मिक स्थलों जैसे उत्तर के चार धाम,कुंभ मेले,अन्य
पर्यटन स्थल इत्यादि ,ऐसे
स्थानों पर पहुँचने के लिए अनेक मार्ग होने चाहिए,जिसमे अनेक सड़कों के अतिरिक्त रोप वे ,एयर वेज़ इत्यादि। कम से कम दो रोप वे बने और एक ऐसा स्थान बने जहाँ
हवाई जहाज को उतरने की सुविधा हो।
२,पर्वतिये क्षेत्रों के विकास कार्यों की योजना बनाते समय पृकृति का
दोहन करने के लिए पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के उपाय भी होने आवश्यक हैं,और यह सुनिश्चित किया जाय की प्राकृतिक आवेगों के सञ्चालन में कोई
बाधा उत्पन्न न हो पाए।
(प्रकृति के दोहन से तात्पर्य
है —ऊर्जा आवश्यकताओं को पूर्ण
करने के लिए बांध का निर्माण,इंधन या लकड़ीअथवा खाद्य आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए पेड़ों,पौधों की कटाई,निर्माण
कार्य के लिए जंगलों की सफाई,खनिज आवश्यकताओं के लिए खनन कार्य,जानवर के मांस,खाल,दन्त जैसी आवश्यकताओं के लिए वन्य जीवों का वध इत्यादि)
३,धार्मिक स्थल,पर्यटन
स्थल पहाड़ पर हो या मैदान में उनके प्रवेश पर पर्याप्त जाँच व्यवस्था हो,प्रत्येक आगंतुक का परिचय फोटो सहित पंजीकृत किया जाय(जो CCTV द्वारा भी संभव है) ताकि विपत्ति के समय उसकी पहचान और उसके परिजनों
से संपर्क साधने में आसानी हो। साथ ही आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगा रहे।ऐसे सभी
स्थलों पर(धार्मिक हो या अन्य ) जहाँ पर्यटक भारी संख्या में पहुचते हो,आपदा पर्बंधन की टीम पूरे साजो सामान के साथ उपस्थित रहे।
४,प्रत्येक पर्यटक ,यात्री ,श्रद्धालु
,का पर्यटन स्थल पर प्रवेश
करते ही उसका बीमा किया जाये ताकि उसे विपत्ति के समय आर्थिक सहायता मिलने में कोई
संशय न रहे।तुरंत राहत मिल सके।
५,यात्रियों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए प्रवेश के समय टोकन दिए
जाएँ जिन्हें लौटते समय वापिस लिया जाय।और पर्यटन स्थल की क्षमता के अनुसार ही
प्रवेश की इजाजत दी जाय।
उपरोक्त उपायों को अपनाये
जाने से निश्चित ही किसी भी आपदा की आशंका और उसकी भयावहता पर नियंत्रण किया जा
सकता है
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