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गुरुवार, 19 नवंबर 2015

सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता


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 आज देश मे सहिष्णुता और असहिष्णुता के बीच एक जंग छिड़ चुकी है. असहिष्णुता के पक्षधर कलाकार, पत्रकार, वैज्ञानिक, साहित्यकार अपने सम्मान सरकार को लौटा रहे हैं, तो सहिष्णुता के समर्थक,सम्मान लौटने वालों के विरोध में एक आन्दोलन का रूप दे चुके हैं, असहिष्णुता की समस्या जब खड़ी हुई जब देश के प्रतिष्ठित साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार, वैज्ञानिक जैसे विद्वान् लोगों द्वारा भारत सरकार से प्राप्त अपने सम्मान वापस करने वालों की झड़ी लगा दी, जैसे देश में कोई तूफ़ान आ गया हो,या कोई ऐसी अप्रत्याशित घटना घट गयी हो अथवा  घट रही हो, जो देश के इतिहास में अभूतपूर्व हो. सम्मान लौटने वालों का कहना है,गत दिनों में हुई कुछ घटनाओं जैसे गौ मांस को लेकर हुई एक मुस्लिम मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या,शाहजहांपुर में पत्रकार जोगिन्दर सिंह की  जीवित जलाकर हत्या,या फिर फरीदाबाद में दो दलित बच्चो को जीवित जलाकर मार डालना और दक्षिण में हुई एक कन्नड़ साहित्यकार डा.एम्.एम्.कलबर्गी की हत्या इत्यादि से वे आहत हैं और इस प्रकार से देश को असहिष्णुता की ओर बढ़ते हुए नहीं देख सकते. जिन घटनाओं का सम्मान आपिस करने वालों द्वारा जिक्र किया जा रहा है, इस प्रकार की घटनाएँ हर काल खंड में होती आयी हैं. हाँ अब इन घटनाओं की बारम्बारता पहले से अधिक अवश्य हो गयी है, उसका कारण है कानून और व्यवस्था की कमी. जिसके कारण अपराधी अधिक निर्भय हो गए हैं. आजादी के पश्चात् सरकारी विभागों में  व्याप्त भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता ने गत पैंसठ वर्षों में अपराधियों के हौंसले बुलंद कर दिए है, अपराधी प्रकृति के लोग शासन के उच्च पदों तक पहुँच गए है. यह विषय आज अचानक पैदा नहीं हो गया,और जिसका  कारण वर्तमान में केंद्र की भा.ज.पा. सरकार को मान लिया जाय, जैसे उसने सत्तारूढ़ होते ही सारी व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर दिया हो. आज की भयानक स्थिति के लिए जिम्मेदार गत पैसंठ वर्षों से सत्ता संभाले काग्रेस की नीतियां हैं. वैसे भी न्याय व्यवस्था राज्यों का विषय है और अलग अलग राज्य में अलग अलग दलों की सरकारें मौजूद है, जो वर्त्तमान घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं. केंद्र सरकार को दोषी मानना सिर्फ उसके विरुद्ध किया जा रहा विपक्षी पार्टियों का षड्यंत्र है. 
   जरा देश के इतिहास पर नजर डालें,क्या पहले जब सिक्खों का कत्लेआम हो रहा था तब असहिष्णुता नहीं थी,जब देश में आपातकल घोषित कर दिया गया था जब देश में सहिष्णुता का वातावरण था ?, कश्मीर में निरंतर हिन्दुओं का शोषण  होता रहा है हजारों हिन्दू आज भी अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं,घर बार से दूर हैं, वह सहिष्णुता है ? गोधरा कांड जिसमे तीर्थ यात्रियों को जिन्दा जला दिया गया था, वह असहिष्णुता नहीं थी ? कांग्रेस के शासन में बार बार धार्मिक दंगे हुए वह क्या था ? 2013 के मुज्जफ्फरनगर के दंगे हुए जब देश के सम्माननीय(सम्मान प्राप्त) लोग कहाँ थे.क्या एक दादरी कांड से देश में असहिष्णुता फ़ैल गयी, क्या एक साहित्यकार डा.कलबर्गी एवं एक पत्रकार की हत्या होना देश की पहली घटना है, जिसे लेकर देश विदेशों में अपने देश की छवि को बिगाड़ा जा रहा है,देश को अपमानित किया जा रहा है.क्या इन सभी विद्वानों के समक्ष अपना विरोध व्यक्त करने का कोई और माध्यम नहीं बचा था.अपनी अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम मिला. सम्मान वापस करना विरोध नहीं है बल्कि देश का अपमान है जिसके द्वारा प्रदत्त सम्मान अस्वीकार किया जा रहा है.

      कांग्रेस समेत सभी दलों में यह चलन रहा है वे एक मुस्लमान के साथ होने वाले अत्याचार,दुर्व्यवहार को अधिक गंभीरता से लेते हैं और व्यापक रूप से प्रचार करते हैं, किसी अन्य धर्म या समुदाय के साथ होने वाले हादसों को नजर अंदाज कर देते हैं.जो मुस्लिमों के विरुद्ध कार्य करता है साम्प्रदायिक कहलाता है परन्तु अन्य समुदायों के प्रति होने वाले अन्याय उनके लिए सांप्रदायिक नहीं होते.कांग्रेस का यही धर्मनिरपेक्ष स्वरूप है.इन घटनाओं ने साबित कर दिया है ये वही सम्मान प्राप्त लोग हैं जो कांग्रेस के समर्थक रहे हैं,उन्होंने यह सम्मान चापलूसी से या सिफारिश से प्राप्त किया था. अतः अपनी बफादारी दिखाने के लिए पुरस्कार लौटाने की घोषणाएं कर रहे हैं, जिससे वर्तमान सरकार को आरोपित किया जा सके उसकी छवि को देश विदेश में ख़राब किया जा सके,और विपक्षी कांग्रेस को लाभ पहुँचाया जा सके.यदि हम गंभीरता से विश्लेषण करे तो ऐसा लगता है लचर कानून और न्याय व्यवस्था के कारण आम जनता में आक्रोश का परिणाम भी हो सकता है,जब जब जनता का कानून और व्यवस्था पर विश्वास उठता है तब तब जनता अन्याय के विरोध में कानून अपने हाथ में लेने नहीं हिचकती.अतः असहिष्णुता की समस्या जनता को न्याय और चुस्त दुरस्त कानून व्यवस्था दिला कर ही हल की जा सकती है,सम्मान लौटाकर नहीं.लेखको को न्याय के विरोध में अपनी लेखनी को धारदार बनाना होगा,कलाकारों को अपने कला के माध्यम से सरकारों को मजबूर करना होगा ताकि वे जनता को भेद भाव रहित न्याय दिलाने के लिए उपाय करें.(SA-180B) 

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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

अपना बर्चस्व बनाने की घातक प्रवृति

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  हमारे देश में गत कुछ दशकों में शिक्षा का प्रचार और प्रसार तीव्र गति से बढ़ा है. इस कारण आम व्यक्ति का व्यक्तित्व विकास भी तेजी से हुआ है,उसकी महत्वाकांक्षाएं भी उसी गति से बढ़ी हैं.आज प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सुविधा संपन्न होकर जीना चाहता है.प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति उच्च जीवन शैली को अपनाने को उत्सुक है,फिर चाहे उसके पास दो समय के लिए रोटी जुटाना भी उसकी सामर्थ्य से परे हो.परन्तु उसके सपने बहुत ऊंचे हो रहे हैं. इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने परिजनों,संगी साथियों को अपने विचारों ,अपनी इच्छाओं के अनुसार चलाने के लिए उतावला रहता है.अपने बर्चस्व को बनाने के लिए वह अनेक प्रकार के उचित अनुचित उपाय करता है. अपने विचारों को दूसरों पर थोपने के लिए हिंसा से भी परहेज नहीं किया जाता, धार्मिक दंगे इसका जीता जगता उदहारण है.जो अपने धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के प्रति असहिष्णुता दर्शाती है.आज भी खाड़ी के देशों में उभर रही आतंकवादी शक्ति आईएस का उद्देश्य भी यही है की पूरी दुनिया में इस्लाम धर्म का ही बर्चस्व रहे बाकि सभी धर्मों का अस्तित्व समाप्त हो जाय. ऐतिहासिक रूप में अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अनेक ऐसे अनेक उदहारण भरे पड़े है, जब एक शक्तिशाली व्यक्ति (हिटलर,सिकंदर) ने पूरी दुनिया को अपने कब्जे में करने का प्रयास किया, उस प्रयास में उसने भयंकर रूप से कत्लेआम मचाया लोगो को अनेक यातनाएं दी उन्हें गाजर मूली की भांति काट डाला या मार डाला. यदि कोई अधिक धनवान है तो वह अपने धन के बल पर सभी को अपने विचारों के अनुरूप चलने की इच्छा रखता है,यदि कोई उच्च पद पर आसीन है तो वह आम जनता को अपने पैरों की जूती समझता है, यह बात अलग है यदि उससे बड़ा पदाधिकारी उसके समक्ष हो तो उसका व्यव्हार एक दम याचक वाला हो जाता है और बड़ा अधिकारी उसे भी अपने इशारों पर नचाता है. अर्थात सब खेल ताकत का रह गया है.तर्क वितर्क,उचित अनुचित सब पीछे छूट गए लगते हैं.जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहानी चरितार्थ हो रही है.बिलकुल वही स्थिति होती जा रही है जैसे कभी अपराधी प्रवृति के लोगों में ही देखने को मिलता था,जहाँ प्रत्येक बदमाश अपने से अधिक ताकतवर बदमाश के समक्ष नतमस्तक रहता है.परन्तु अपने से कमजोर बदमाश के लिए मौत बना रहता है. बर्चस्व की बढती प्रवृति कही न कही उसकी घटती सहन शक्ति परिलक्षित करती है.वह अपने से कमजोर व्यक्ति के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाता जब तक वह उसके बर्चस्व को स्वीकार न कर ले. कोई भी शक्तिशाली(तन, मन, धन किसी भी रूप में)व्यक्ति अपने मित्रों रिश्तेदारों,परिजनों को भी अपनी इच्छानुसार चलाने की इच्छा रखता है.इसी कारण संयुक्त परिवार एकाकी परिवारों में विभक्त होते जा रहे हैं.परिवार में मिल बाँट कर खाने की प्रवृति समाप्त हो रही है.आज प्रत्येक इन्सान अपने स्वार्थ, अपने हितों की बात सोचता है. यदि वह किसी के लिए कुछ कर भी देता है तो उसे अपने कर्तव्य न मान कर उस पर अहसान मान कर उसे अपने इशारों पर चलाने की इच्छा पाल लेता है.यदि वह व्यक्ति उसके इच्छानुसार उसके लिए कार्य नहीं करता तो उसे अहसान फरामोश करार देता है अहसान फरामोश करार देता है. आज इन्सान अपना अधिपत्य ज़माने के लिए प्रतिस्पर्द्धा में जुट गया है.प्रतिस्पर्द्धा किसी प्रकार से हो सकती है.वह शिक्षा के क्षेत्र में हो,या खेल कूद में अथवा अपने कारोबार में.अपने प्रतिस्पर्द्धी को नीचा दिखाने के लिए वह अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय भी लगा देता है.यानि भले ही उसके जीवन के सुनहरी क्षण चले जाएँ(गुणवत्ता पूर्ण जीवन) परन्तु उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं जीतना चाहिए.यदि फिर भी जीत पक्की दिखाई नहीं देती तो हिंसा, बेईमानी, धोखाधडी, करने से भी परहेज नहीं होता. कार्य क्षेत्र कोई भी हो सकता है जैसे दुकानदारी अर्थात व्यापार, कारखाने में उत्पादन कार्य हो या कोई अन्य व्यवसाय हो अथवा राजनीति हो. और यह भी आवश्यक नहीं की व्यक्ति व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी ही हो आज भाई बहन एवं नजदीकी सम्बन्धी के अपने क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए भी देखना गवारा नहीं होता सिर्फ अपनी उन्नति ही रास आती है क्योंकि उसकी उन्नति से अपना बर्चस्व घट जाता है. जीवन में आगे निकलने की होड़ या अपने बर्चस्व कायम करने की इच्छा इन्सान को अपना स्वाभाविक जीवन(QUALITY LIFE) जीने से वंचित कर देती है.आधुनिक युग में इन्सान ने अपना दिन और रात इसी उधेड़ बुन(प्रतिस्पर्द्धा) में लगा दिया है, जो उसे पहले तनाव देती हैं और फिर अनेक शारीरिक बीमारियाँ लग जाती हैं और अंत में जीवन समाप्त हो जाता है.उसका रॉब,उसका बर्चस्व,उसका अधिपत्य सब कुछ यहीं रह जाता है. यहाँ पर यह बताना भी प्रासंगिक होगा की यदि कोई व्यक्ति नहीं चाहता की वह अपने से छोटे या अपने संपर्क में आने वाले किसी व्यक्ति को अपने दबाब में रखे,अपने विचार उस पर थोपे,उस स्थिति में उसके अंतर्गत आने वाले लोग उस पर हावी होना प्रारंभ कर देते हैं.उससे छोटे स्तर के लोग या परिजन उसको अपने विचारों से प्रभावित करने का प्रयास करते हैं.यानि की यदि कोई अपना डंडा नहीं चलाना चाहता तो लोग उसे डंडा लेकर खड़े हो जाते हैं.अजीब दस्तूर है दुनिया का.(SA-174B)

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

हम सभी भ्रष्टाचारमय हो चुके हैं

अक्सर भ्रष्टाचार को हम सरकारी कामकाज में व्याप्त, नौकरशाहों और राजनैतिक नेताओं द्वारा लिए जाने वाले घूस या कमीशन को ही भ्रष्टाचार मानते हैं.जबकि भ्रष्टाचार एक व्यापक रूप में हमारी रग रग में समां चुका है.बड़े बड़े व्यापारी भी सरकारी स्तर पर अपने कार्य कराने के लिए सक्षम अधिकारी को अनेक प्रलोभन और रिश्वत देते हैं और अपने इच्छानुसार कार्य कराकर अपने आर्थिक हितों को साधते हैं,और कार्य को तुरत फुरत करवा कर अपना समय भी बचा लेते हैं.यदि कोई अधिकारी ईमानदार है और उनके कार्य में अड़चन डालता है तो उसे अनेक प्रकार से धमकाया जाता है. कभी कभी तो उसे मरवा देने की धमकी भी देते है.अनेक बार ऐसे अनेक अफसर घूस खोरी का विरोध करने पर शहीद हो चुके हैं.जो यह सिद्ध करता है की सरकारी विभागों में रिश्वत खोरी के विरुद्ध आवाज उठाने वाले और अपने कार्य को कानून सम्मत करने वालों को अनेक प्रकार की यातनाये सहनी पड़ती हैं.ऐसे ईमानदार अफसरों को सरकार की ओर से कोई संरक्षण नहीं मिलता.इसी कारण भ्रष्टाचार नित्य प्रतिदिन बढाता जाता है और जनता त्रस्त होती रहती है.भ्रष्ट अफसर अपने बॉस का चहेता भी बना रहता है, क्योंकि उसे भी उसकी अवैध कमाई में हिस्सा मिलता है. ऐसे कर्मियों की पदोन्नति भी शीघ्र होती है.जबकि ईमानदार कर्मी को उसकी ईमानदारी की सजा के रूप में बॉस की प्रताड़ना मिलती है,उसे बार बार स्थानान्तरण(ट्रांसफर) के रूप में कष्ट सहना पड़ता है,भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं इस प्रकार उसका शोषण किया जाता है. आज हमें आदत पड़ चुकी है की किसी भी सरकारी कार्यालय में अपने कार्य के लिए जाते हैं, तो सरकारी कर्मी की पूरी चापलूसी करते है और उससे अपेक्षा करते है की वह अपने चाय पानी के पैसे लेकर कार्य को फ़ौरन कर दे और कायदे कानूनों को धता बताकर हमारी मन मुताविक कार्य कर दे. हमें अपने स्वार्थ के आगे कानून या नियम के प्रति प्रतिबद्धता कोई मायने नहीं रखती. और इस प्रकार से हम (आम आदमी)स्वयं भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते है,अर्थात भ्रष्ट आचरण के हम आदि हो गए हैं.अब तो हम वोट भी उसे ही देते हैं जो हमें किसी आर्थिक लाभ का वायदा करता है, अथवा शराब या धन से हमारे वोट की कीमत अदा कर देता है.जब हम रिश्वत लेकर अर्थात धन के लालच से अपना प्रतिनिधि चुनेंगे तो उससे कैसे उम्मीद कर सकते हैं की वह हमें ईमानदार और स्वच्छ प्रशासन देगा? हमारी एक आम धारणा बन गयी है की हमें कानून सम्मत तो कोई कार्य करना ही नहीं है हमें कानून का कोई डर नहीं है. अतः कानून तोडना हमारी फितरत में बस चुका है.हमें पता है यदि कोई सरकारी कार्यवाही होती है तो डीलिंग अफसर को रिश्वत दे कर शांत कर देंगे.यानि हमें सरकारी अफसर को तो रिश्वत देना मंजूर है परन्तु कानून सम्मत कार्य करने में आने वाले खर्च को वहन करना स्वीकार्य नहीं है iऔर खर्च न भी होता हो तो भी कानून के अनुसार कार्य क्यों करें? अधिक कमाई करने के लिए एक दूसरे को धोखा देना,जालसाजी करना,सब्जबाग दिखाना,मिलावट खोरी करना,नकली माल तैयार करना अथवा व्यापार करना परोक्ष रूप से लूट मार के ही रूप हैं और भ्रष्टाचार का ही स्वरूप है. आम जनता में व्याप्त भ्रष्टाचार के उदाहरण के निम्न रूप सर्वविदित हैं, मोटी कमाई के लिए एक डॉक्टर मरीज का अपेन्डिक्स के ओपरेशन का बहाना कर उसकी किडनी,लीवर इत्यादि महत्त्व पूर्ण अंग निकाल कर बेच देता है. एक इन्जिनियर कमीशन के लिए ठेकेदार को ऊंचे रेट पर टेंडर कर देता है और काम की गुणवत्ता को नजर अंदाज करता है. वकील मोटी फीस के लालच में अपने गुनाहगार मुवक्किल को बेगुनाह साबित करने के लिए सारे हथकंडे अपनाता है(सबूत गायब कर या गवाह को तोड़ कर या धमका कर) और मुक़दमे में सच्चाई का गला घोंट देता है,कभी कभी तो बेगुनाह को सजा भी करवा देता है. हम अपना घर तो स्वच्छ रखना चाहते हैं परन्तु सडक पर कचरा डाल कर उसे गन्दा करते रहते हैं,या चुपके से पडोसी के मकान के सामने डाल देते हैं.बस या ट्रेन में सफ़र करते समय साफ सफाई ध्यान रखना अपना फर्ज नहीं समझते. बिजली के बड़े बिल से बचने के लिए सरकारी कर्मचारी मिल कर मीटर में हेरा फेरी करते हैं और धड़ल्ले से बिना बिल चुकाए बिजली का लापरवाही से उपयोग करते हैं.क्योंकि हमें देश में बिजली की कमी से कोई सरोकार नहीं है.इसी प्रकार से पानी का फिजूल खर्च भी हमें नागवार नहीं करता.पानी हो या बिजली उसका उपयोग(सदुपयोग या दुरूपयोग) करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है क्योंकि हम देश के बफादार नागरिक हैं हमारे अंतर्मन में बैठी भ्रष्टाचार की धारणा इतनी गहरा चुकी है की जब सोचते है की मोदी सरकार देश को भ्रष्टाचार मुक्त करेगी तो आम प्रश्न हमारे मस्तिष्क में उठता है क्या हम भ्रष्टाचार मुक्त होकर अपने जीवन को सुचारू रूप से चला पाएंगे.अपने सरकारी कार्यों को करा पाने में सक्षम होंगे? क्या व्यापार और उद्योग चला पाना संभव होगा अथवा कानूनी दांव पेंच में ही फंस कर रह जायेंगे? (SA-173C)

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

सरकारी स्कूल बने सफ़ेद हाथी

यों तो हमारे देश में सभी सरकारी विभाग अपने आप में व्याप्त भ्रष्टाचार,निष्क्रियता,लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना कार्यों के लिए जाने जाते हैं.जिनमे पुलिस विभाग,परिवहन,विद्युत्,शिक्षा,एवं चिकित्सा विभाग सर्वाधिक बदनाम विभाग बन चुके हैं.परन्तु चिकित्सा एवं शिक्षा विभाग समाज के बहुत ही संवेदन शील पहलू से जुड़े होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं जिम्मेदार विभाग हैं,जहाँ एक विभाग पर मानवीय पहलू जुड़ा हुआ है, इन्सान की जिंदगी दांव पर लगी होती है, तो शिक्षा विभाग पर देश के भावी नागरिकों को दशा और दिशा के ज्ञान दिलाने का महत्वपूर्ण दायित्व है,जिसके ऊपर समाज के चरित्र के निर्माण और भविष्य निर्माण का भार होता है.आजादी के पश्चात् सत्तारूढ़ देश और प्रदेश की सभी दलों की सरकारों ने जनता को शिक्षित करने के लिए बेपनाह धन खर्च किया परन्तु नौकर शाही में व्याप्त भ्रष्टाचार और उदासीनता के कारण वांछित परिणाम नहीं मिल सके. मुख्य रूप से गुणवत्ता के सन्दर्भ में तो बहुत ही निराशा जनक परिणाम दिखाई दिए हैं.यही कारण है की कोई भी समृद्ध व्यक्ति अपने बच्चो को सरकारी विद्यालयों में पढाना उनके भविष्य के लिए उचित नहीं मानता और निजी स्कूलों में धन व्यय करके अपने बच्चे को शिक्षा दिलाता है. गत दिनों में इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा दिया गया आदेश सराहनीय है, अपने आदेश में माननीय न्यायालय ने कहा है की सभी सरकारी कर्मचारियों को अपने बच्चो को सिर्फ और सिर्फ सरकारी स्कूलों में ही पढाना होगा अन्यथा उन्हें आर्थिक दंड देना होगा.एक सरकारी कर्मी होते हुए सरकारी स्कूलों से परहेज क्यों? अक्सर देखने में आया है की स्वयं सरकारी स्कूल के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाते है.क्योंकि वे जानते हैं की वे अपने स्कूलों में बच्चो को किस प्रकार से शिक्षित कर रहे हैं. इस आदेश पर अमल होने के बाद ही सरकारी स्कूलों में सुधार आने की सम्भावना बन सकती है.जब बड़े बड़े अधिकारीयों एवं स्वयं अध्यापकों के बच्चे इस सरकारी स्कूलों में पढेंगे तो उन्हें स्वयं अपने बच्चों के भविष्य का ध्यान रखते हुए,सरकारी शिक्षा संस्थानों को सुविधा संपन्न करने में रूचि लेंगे,और शिक्षा विभाग पर शिक्षा में गुणवत्ता लाने के लिए दबाव बनायेंगे और भ्रष्टाचार एवं निश्र्क्रियता पर अंकुश लगाने के सार्थक प्रयास करेंगे. आज प्रत्येक सरकारी स्कूल के शिक्षक को समाज के प्रचलित वेतन मानों से अनेक गुना वेतन दिया जाता है.प्राथमिक शिक्षा के अध्यापक को निजी स्कूलों में आम तौर पर दस हजार वेतन दिया जा रहा है, जिसे अध्यापक संतुष्ट होकर अपनाने को तैयार रहता है, और पूरे परिश्रम से बच्चो को शिक्षित करने का कार्य करता है.निजी विद्यालयों में अध्यापकों की निष्क्रिता को सहन नहीं किया जाता अतः गुणवत्ता बने रहने की सम्भावना अधिक होती है. निजी स्कूलों में तो ऐसे अनेक स्कूल भी है जो अपने अध्यापक को मात्र ढाई से चार हजार तक वेतन देते हैं,बेरोजगार शिक्षित व्यक्तियों को मजबूरन इसी वेतन मान पर कार्य करना पड़ता है जबकि उनके पास कोई भविष्य की सुरक्षा का आश्वासन भी नहीं होता.साथ ही अपने कार्यों को पूरी तत्परता से ईमानदारी से निभाना होता है. वहीँ सरकारी प्राथमिक शिक्षक को पच्चीस से तीस हजार वेतन दिया जाता है.फिर भी अध्यापक पढ़ाने में कोई रूचि नहीं रखता. जहाँ तक सरकारी स्कूलों में सुविधाओं का प्रश्न है तो यहाँ सुविधाओं के नाम पर बहुत कुछ नहीं है,कही फर्नीचर का अभाव है, तो कही जर्जर इमारत में बच्चे पढाई करने को मजबूर हैं.अधिकतर विद्यालयों में शौचालय या मूत्रालय नहीं है, यदि हैं तो उचित देख भाल के अभाव में स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं. पीने के लिए पानी की उचित व्यवस्था नहीं है. लगता है सिर्फ सरकारी योजनाओं को कागजो पर दिखाने के लिए सब प्रपंच हो रहा हो.जहाँ पर प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव हो तो शिक्षा की गुणवत्ता के लिए सोचना तो अप्रासंगिक हो जाता है. यही कारण है,की इन स्कूलों से निकले बच्चे निचले स्तर के कार्य कर पाने योग्य ही बन पाते हैं.वर्तमान प्रतिस्पर्द्धा के दौर में वे कही भी नहीं ठहर पाते इस प्रकार जनता के टैक्स से पोषित सरकारी स्कूलों में व्यय किया हुआ धन व्यर्थ में चला जाता है,और सरकारी धन का लाभ कुछ निष्क्रिय लोग उठाते है या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है. यद्यपि सभी सरकारी स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं है, परन्तु दूर दराज गावों के स्कूलों में नियुक्त शिक्षक मात्र हाजिरी लगा कर अपना वेतन प्राप्त करते है.अनेक शिक्षक तो उपस्थिति भी लगाने की आवश्यकता नहीं समझते,सब सेटिंग कर लेते हैं.जब कोई निरिक्षण होता है तो वहां मोजूद साथी अध्यापक उसकी छुट्टी का प्रार्थना पत्र लगा देते है. कुछ स्मार्ट शिक्षक न्यूनतम वेतन अर्थात तीन चार हजार रूपए में गाँव के ही किसी व्यक्ति को नियुक्त कर देते है जो उसके स्थान पर शिक्षा देने का कार्य करता है और शेष वेतन स्वयं घर बैठे कमाते है हाँ कुछ भेंट ऊपर के अधिकारीयों तक पहुंचानी पड़ती है.जहाँ तक पढने और पढ़ाने का सवाल है यहाँ न तो पढने वाले की पढाई में रूचि होती है न ही पढ़ने वाले की कोई रूचि पढाने में है.शिक्षा के अभाव में गावों में शिक्षा की उपयोगिता को महत्व नहीं दिया जाता. अतः माता पिता को बच्चे को पढाने में कोई रूचि नहीं होती.कुछ बच्चे दोपहर के भोजन के लोभ में स्कूल अवश्य जाते है परन्तु उनकी पढाई में रूचि कम बल्कि दोपहर के भोजन में रूचि अधिक होती है जो उनकी दरिद्रता की मजबूरी है.जब पढ़ाने वाले और पढने वाले दोनों को कोई रूचि नहीं है तो स्कूलों का अस्तित्व ही निरर्थक हो जाता है.और जनता के टैक्स से दिया जा रहा शिक्षकों को वेतन अनुपयोगी खर्चे में चला जाता है.अंततः सरकारी विद्यालय सफ़ेद हाथी साबित हो रहे हैं.(SA-172C)

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

पुलिस थर्ड डिग्री यातनाएं क्यों देती है?

          
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हमारे देश में पुलिस की कस्टडी में मुलजिमों की मौत हो जाना एक आम बात है.आखिर क्या कारण है की न्याय की गिरफ्त में आने वाले व्यक्ति, सरकारी संरक्षण में किसी नागरिक की मौत हो जाती है.या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है.यह देश या प्रदेश की सरकार के लिए शर्मनाक बात है उसकी शासन व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता है हम सभी जानते हैं अक्सर सुनने में आता है की अमुक थाने में किसी व्यक्ति की मौत हो गयी.अर्थात पुलिस द्वारा दी गयी यातनाओं के कारण संदेहग्रस्त व्यक्ति की मौत हो जाती है.आखिर पुलिस इतनी बुरी तरह से किसी भी नागरिक को पीटती क्यों है क्या उसे अधिकार प्राप्त है की वह किसी भी व्यक्ति को संदेह के घेरे में लेकर उस पर यातनाये करे,जुल्म ढाए?क्या पुलिस का यह व्यव्हार देश विदेशी राज की याद नहीं दिला देता.क्या पुलिस की कार्य शैली आज भी सामंतवादी बनी हुई है?क्या पुलिस विभाग का काम जनता में दहशत फैलाना है?क्या पुलिस का अस्तित्व जनता पर सरकार की सत्ता बनाये रखने के लिए है या जनता की सेवा के लिए है, उसे अपराधी तत्वों से सुरक्षा दिलाने के लिए है.थर्ड डिग्री की यातनाओं के कारण ही अक्सर अनेक बेगुनाहों की मौत हो जाती है. क्यों यातनाएं देती है पुलिस; हमारे देश में पुलिस की जिम्मेदारी है की वह किसी भी अपराधिक गतिविधि की जाँच करे और अपराध की तह तक जाकर असली गुनाहगार तक पहुंचे और अदालत के समक्ष प्रस्तुत करे.जिसके शीघ्र से शीघ्र क्रियान्वयन के लिए उसे जनता का दबाव और शासन का दबाव निरंतर झेलना पड़ता है.जिसके कारण पुलिस का व्यव्हार कठोर हो जाता है वह अपने अधिकारीयों को खुश करने या संतुष्ट करने के लिए जनता पर जुल्म ढहाती है.उसके इस व्यव्हार के लिए मुख्य कारण निम्न हैं; १,पुलिस पर शासन अर्थात शासन में बैठे राजनेताओं का अनुचित दबाव झेलना पड़ता है जो कभी कभी जाँच को अपनी इच्छनुसार करने के लिए पुलिस पर असंगत दबाव बनाते हैं उसके कार्यों में अवैध रूप से दखलंदाजी करते हैं और उसे कानून के अनुसार कार्य करने से रोकते रहते है. २,किसी भी अपराध की वास्तविकता पता लगाने के लिए पुलिस अपना श्रम बचाने के लिए संदेह ग्रस्त व्यक्ति को थर्ड डिग्री की यातनाएं देकर जल्दी से जल्दी अपनी जाँच पूरी करना चाहती है,परिणाम स्वरूप अनेक बार निरपराध व्यक्ति पुलिस मार से घबराकर जुल्म को क़ुबूल करने को मजबूर हो जाता है,जो बाद में अदालत में ख़ारिज हो जाता है.अतः पुलिस जाँच को शीघ्र पूरी करने के लिए शोर्ट कट अपनाते हुए सदेह के घेरे में आये व्यक्ति पर जुल्म करती है. ३,किसी भी केस की जाँच के दाएरे में आने वाले किसी भी व्यक्ति पर पुलिस अपने डंडे का डर दिखा पर अपनी आमदनी पक्की करती है,बेगुनाह की खाल का सौदा करती है.यही कारण है की एक आम व्यक्ति थाने जाने से भी घबराता है, जिससे अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं. ४,थानेदार अपने बड़े अफसरों को खुश करने के लिए केस को जल्द से जल्द हल करने के प्रयास में,कागजी खाना पूर्ती के लिए निरपराध व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करता है.और उसे अपराधी के रूप में प्रस्तुत कर देता है.इस प्रकार उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है. ५,पुलिस विभाग में कार्यरत पुलिस कर्मी अत्यधिक कार्य के दबाव के कारण मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाते है, परिणाम स्वरूप अपना गुस्सा हवालात में बंद मुलजिमों पर कहर बरपा कर उतारते हैं. ६,पुलिस की कार्यशैली और सोच अभी भी विदेशी दासता जैसी बनी हुई है वे(पुलिस कर्मी) अपने को जनता का सेवक नहीं मानते बल्कि अपने को सरकारी हुकूमत के कारिंदे मानते हैं और मानते हैं की आम जनता पर रौब ग़ालिब करना.उसके साथ गली गलौच करना या किसी को भी थर्ड डिग्री की यातना देना अपना विशेष अधिकार समझते हैं. क्या आवश्यक रूप से सुधार किये जा सकते हैं. पुलिस विभाग प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है,परन्तु देश के सभी राज्यों में पुलिस की कार्यशैली एक जैसी ही है.अतः देश व्यापी परिवर्तन की आवशयकता है जिसे केंद्र सरकार अपने दिशा निर्देशों द्वारा राज्यों को कानूनों में परिवर्तन कर पुलिस विभाग के व्यव्हार को संतुलित करने की सलाह दे सकती है. १,पुलिस को दिए गए व्यापक अधिकारो को सीमित किया जाय,तथा प्रत्येक पुलिस कर्मी को जनता के प्रति सद्भाव पूर्ण व्यव्हार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाय. २,जाँच का अधिकार पुलिस के पास बहुत ही सीमित रूप में दिया जाय अपराध की गहराई में जाने के लिए अलग से जाँच सेल बनाय जाय. जो ख़ुफ़िया तौर पर जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करे और अपराध की तह तक पहुँच कर केस को हल करे.जो किसी अत्याचार का सहारा न लेकर अपने ख़ुफ़िया जाँच के द्वारा मामले की गहराई तक पहुंचे. ३,पुलिस कर्मियों की मनोस्थिति का अध्ययन किया जाना चाहिए और उनके कल्याण के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए ताकि वे अपनी बीमार मानसिकता को मुलजिमों पर अत्याचार कर के अपना गुस्सा न उतारें. और सभी तथाकथित अपराधियों के साथ इंसानियत के साथ पेश आयें. ३,पुलिस की कार्य शैली और अपराधों की संख्या घटाने के लिए न्याय प्रणाली को सुधारना अत्यंत आवशयक है. शीघ्र न्याय दिलाने के लिए अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाय, तो अदालतों पर असहनीय भार को कम किया जा सकता है और न्याय मिलने में शीघ्रता आ सकती है .अदालतों को भी शीघ्र केस निपटाने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाएँ तो जजों को त्वरित न्याय देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है. 4,अदालतों की कार्य शैली सामन्तवादी कार्य शैली है जो अंग्रेजों की गुलामी की याद दिलाती है,कार्यशैली भी परम्परागत चली आ रही है जिसे समाप्त करना चाहिए और आवश्यक सुधार किये जाने चाहिए ताकि किसी भी नागरिक को दोषी सिद्ध होने तक पर्याप्त सम्मान मिलता रहे जो लोकतान्त्रिक देश में किसी भी नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है.अदालत की कार्यशैली के कारण भी पुलिस आम नागरिक से सभ्य व्यव्हार नहीं करती और एक आम नागरिक को अदालत का डर दिखा कर उसका शोषण करती है. ५,पता नहीं मैं यहाँ पर सही हूँ या नहीं मेरे विचार से अदालत का सम्मान किया जाना चाहिए परन्तु एक जज का नहीं, जो स्वयं एक न्यायिक सेवक है और जनता का सेवक है. उसे भी सभी सेवा शर्तों का इमानदारी से पालन करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए और व्यक्तिगत रूप से किसी भी न्यायाधीश की कार्य शैली पर भी मीडिया को आलोचना करने का अधिकार मिलना चाहिए.अदालत का असम्मान(अवमानना) सिर्फ अदालत के आदेश न मानने तक सीमित होना चाहिए.(SA-163C)<script src="https://www.gstatic.com/xads/publisher_badge/contributor_badge.js" data-width="88" data-height="31" data-theme="light" data-pub-name="Your Site Name" data-pub-id="ca-pub-00000000000"></script>

रविवार, 6 सितंबर 2015

द्वेत वाद और अद्वेत वाद

               स्रष्टि के जन्म के साथ ही अनेक जीव जंतुओं की उत्पत्ति हुयी,इन्ही जीवो में मानव भी दुनिया  में आया, जो शेष सभी जीवों से श्रेष्ठ था. जिसके पास सोचने समझने के लिए दिमाग था और वह उसके निरंतर विकास करने की क्षमता रखता था,परिणाम स्वरूप सभी जीव जैसे वे उत्पत्ति के समय थे उसी अवस्था में आज भी रहते हैं.उनकी जीवन  शैली आज भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में है. परन्तु मानव ने अपने मस्तिष्क का सदुपयोग करते हुए,पहले सभी जीव जंतुओं  को अपने नियंत्रण में कर लिया और पूरी दुनिया में इन्सान का एक छत्र राज्य हो गया तत्पश्चात मानव जाति के लिए अनेक प्रकार की सुख सुविधाएं विक्सित करने का सिल सिला प्रारंभ किया जो आज तक निरंतर जारी है.आज विकास की गति तीव्र से तीव्रतम होती जा रही है.इन्सान में  दिमाग होने के कारण, उसे स्रष्टि की उत्पत्ति के बारे में जानने की उत्सुकता हुई और अपने मन में उत्पन्न अनेक पर्श्नों के उत्तर ढूँढने का प्रयास किया. जब जब उसे अपने प्रश्नों का उचित उत्तर नहीं मिला, तो उसे एक अलौकिक शक्ति की कल्पना करने को विवश होना, पड़ा. इसी उधेड़ बुन में कभी उसने एक ऐसी शक्ति की कल्पना की जो पूरी दुनिया की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार है, वही स्रष्टि की पालन हार और संहारक भी है.और अपने  साथ होने वाले किसी भी कष्ट दायक स्थिति के लिए उसे ही जिम्मेदार माना गया. यह बात अलग है की दुनिया में इस तथाकथित काल्पनिक शक्ति को अनेक प्रथक प्रथक नामों से जाना गया और पूजा गया,जिसने अनेक पंथों और धर्मों को जन्म दिया.
           जब हम इस स्रष्टि के कर्ता धर्ता किसी (स्वयं के अतिरिक्त)अन्य जीव या किसी शक्ति को मानते हैं तो इसे द्वेतवाद माना जाता है अर्थात इस मान्यता के अंतर्गत विश्व के संचालन के लिए अपने से प्रथक किसी अन्य शक्ति के प्रभाव को मानने लगते हैं, उसकी पूजा करते है ताकि उसके प्रकोप से हम बच सकें और अपने सुनहरे भविष्य की कामना कर सकें, जीवन की उलझनों का निवारण पा सकें. विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति इसी मान्यता का परिणाम है.जब हम सिर्फ विश्वास के आधार पर किसी धर्म का अनुसरण करते हैं, उसको ही द्वेतवाद की संज्ञा दी जाती है,अर्थात किसी भी परिस्थिति के लिए अपने से प्रथक किसी अन्य शक्ति को जिम्मेदार मानना.अपने इष्ट देव की पूजा अर्चना कर हम अपने मन की शांति को ढूंढते हैं. हमारा  उस अलौकिक शक्ति पर विश्वास हमें कठिन परिस्थिति में भी हिम्मत बंधे रखता है,हमारा मानसिक संतुलन बना रहता है.यही मानसिक संतुलन हमें कठिन परिस्थितियों से बाहर निकल पाने में मदद करता है.
       अद्वेत वाद एक प्रथक मान्यता का नाम है, इसके अंतर्गत दुनिया में हर स्थिति के लिए स्वयं(मानव) को जिम्मेदार माना जाता है.इसमें इन्सान स्वयं को ही सब कुछ मानता है अर्थात वह स्वयं सभी सुख दुःख के लिए जिम्मेदार है.वह अहमो-ब्रह्मास्मि के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है.वह स्वयं को भगवान् का स्वरूप मानता है या तथाकथित ईश्वर का अंश मानता है.वह किसी की पूजा अर्चना का समर्थन नहीं करता,वह सारी खुशिया अपने अन्दर ही ढूँढने का प्रयास करता है.दुनिया को वैभवपूर्ण और शांति संपन्न बनाने के लिए अपने प्रयासों पर पूर्ण भरोसा करता है.किसी भी विकट स्थिति के लिए स्वयं को जिम्मवार मानता है और उसका समाधान भी अपने प्रयासों से ढूंढ लेने का विश्वास करता है.वह मन की शांति के लिए योग और आत्म चिंतन को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता है.