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शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

हिंदी के समर्थन के लिए अंग्रेजी की उपेक्षा घातक!


    हिंदी का उत्थान उसका  प्रचार प्रसार ,उसकी समृद्धि,उसकी लोकप्रियता सभी देश वासियों के लिए गौरव की बात है।विदेशों में हिंदी को सम्मान मिलना,उसको एक भारतीय भाषा के रूप में सम्मान मिलना प्रत्येक भारतवासी का सम्मान है।अतः प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य है की वह अपनी राष्ट्र भाषा का सम्मान करे उसके प्रचार प्रसार में अपना योगदान दे,आपसी बातचीत में नित्य व्यव्हार में लाये।हिंदी साहित्य का अध्ययन करे और उसे समृद्ध करने में सहायक बने।हिंदी भाषा ही पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोकर वार्तालाप का सुलभ माध्यम बन सकती है, प्रत्येक देशवासी को अपनेपन का अहसास करा सकती है।
     सरकारी काम काज की भाषा हिंदी होने से  देश का प्रत्येक नागरिक,सरकारी कानून,सरकारी आदेश,सरकारी सन्देश,एवं समस्त सरकारी गतिविधियों का लेखा जोखा आसानी से समझ सकता है।उसे देश के कानूनों का पालन करने में आसानी होती है।देश का प्रत्येक नागरिक चुनावों में उचित एवं योग्य उम्मीदवार को वोट देकर देश के विकास में अपना सार्थक योगदान दे सकता है।अतः यह तो निश्चित  है,सर्वसाधारण द्वारा समझी जाने वाली भाषा ही देश के विकास में सहायक सिद्ध हो सकती है।समाज में शान्ति की स्थापना में सहायता मिल सकती है।किसी भी सरकार के लिए जनता से संपर्क बनाना और शासन व्यवस्था बनाये रखना आसान हो सकता है। 
    वर्तमान में हिंदी भाषी राज्यों में जनता दो वर्गों में विभाजित है,एक वर्ग बोलने में तो हिंदी का ही प्रयोग करता है परन्तु अपने कामकाज अंग्रेजी में करना अपनी शान समझता है,अपनी विद्वता की निशानी मानता है।उसके विचार से अंग्रेजी में कामकाज करना उसे आम व्यक्ति से ऊंचा करता है।इसलिए अंग्रेजी को छोड़ना नहीं चाहता,अंग्रेजी के पक्ष में अपनी आवाज को बुलंद करता है,वह हिंदी का समर्थन करने वालों को कम पढ़े लिखे या कम बुद्धिमान कह कर नकारता है।एक दूसरा वर्ग जो हिंदी समर्थक है अंग्रेजी को विदेशी भाषा बताकर उसका विरोध करता है,उसका हर संभव तिरस्कार भी करता है।शायद ये वो लोग हैं जो स्वयं को अंग्रेजी लिखने और पढने में असमर्थ पाते हैं।अतः अपनी अयोग्यता को ढकने के लिए यह वर्ग  अंग्रेजी का विरोध करता है।यह वर्ग हिंदी भाषी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश,बिहार, राजस्थान,इत्यादि में मिलता है,और यह भी सर्व विदित है ये सभी राज्य अन्य राज्यों से पिछड़े हुए भी हैं।शायद अंग्रेजी से दुराव भी उनकी गरीबी या बेरोजगारी का एक कारण हो।दक्षिण भारत के विद्यार्थी अपनी स्थानीय भाषा के साथ साथ,अंग्रेजी और हिंदी पर भी अपनी पकड़ बनाते हैं और राष्ट्रिय प्रतिस्पर्द्धा में आगे बढ़ जाते हैं।  
    वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेजी भाषा का अपना महत्त्व बढ़ गया है,वैश्विक स्तर पर किसी  अन्य देश के व्यक्ति से संपर्क करने के लिए (व्यापार करते समय,विदेशों में कोई जॉब करते समय )वार्तालाप का माध्यम अंग्रेजी भाषा ही होती है जिसे लगभग सभी देश के पढ़े लिखे व्यक्ति समझते हैं बोलते हैं।अतः सिर्फ धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाला युवक बिना किस अन्य योग्यता के भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में जॉब पा लेता है,और अच्छी खासी जिंदगी जीने योग्य हो जाता है।अतः वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में अपने विकास के लिए अंग्रेजी को अपनाना अत्यंत आवश्यक हो गया है, इससे  ही हमारी अपनी और देश की उन्नति निर्भर है।हिंदी भाषा को अपनाते हुए उसे पूर्ण सम्मान देता हुए, अंग्रेजी पर अपनी पकड़ बनाना कोई अपनी संस्कृति का अपमान  नहीं है और न ही देश के सम्मान के साथ कोई खिलवाड़।
     यदि हमें अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए,अपने व्यवसाय को अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर स्थापित करने के लिए,अपने समाज और देश को विकास की ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए ,अंग्रेजी को सीखना और समझना आवश्यक है तो इसमें बुराई क्या है।हिंदी को समर्थन देने का अर्थ यही नहीं हो सकता की हम अंग्रेजी को एक विदेशी भाषा होने के कारण नकार दें।अंग्रेजी की उपेक्षा करना स्वयं अपने साथ अन्याय होगा।वर्तमान दौर में हमारा देश विकासोन्मुख है,हमें विश्व स्तर पर अपनी योग्यता,अपनी कार्यक्षमता एवं गुणवत्ता साबित करनी है,विश्व में हमें विकसित देश के तौर पर अपनी पहचान बनानी है।जब हम अपने देश को विकसित देशो की श्रेणी में खड़ा कर लेंगे,तो अन्य  देश वासियों को मजबूर कर सकेंगे की वे हमारी भाषा में हमसे व्यव्हार करें,जब हम अपनी शर्तों पर व्यापार कर सकेंगे। दुनिया हमारे सामने नत मस्तक होगी और हमारी भाषा को सीखने को मजबूर होगी। तब हम वास्तव में अंग्रेजी को नकार सकते हैं।अतः अभी अपने देश को अपने समाज को उन्नत बनाने के लिए अंग्रेजी का तिरस्कार करना आत्मघाती हो सकता है।  



 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

दिल्ली के मुख्य मंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल

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<!-- End BidVertiser code --> हमारे देश के इतिहास में पहली बार व्यवस्था परिवर्तन,भ्रष्टाचार,काला धन महंगाई जैसे मुद्दों को लेकर समाज सेवी श्री अन्ना हजारे के नेतृत्व में आन्दोलन करने के पश्चात् कोई पार्टी (आप पार्टी) अस्तित्व में आयी और दिल्ली विधानसभा के चुनावों में हिस्सा लिया, और मात्र चौदह महीने के जीवन में ही चुनावों में अप्रत्याशित जीत प्राप्त की. आप पार्टी ने अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली विधानसभा की सत्तर सीटों में अठाईस सीटों पर कब्ज़ा जमा कर पूरे देश को आश्चर्य चकित कर दिया,जिसका शायद स्वयं आप पार्टी को आभास भी नहीं होगा. देश की सभी सत्तासीन पार्टियों में खलबली मच गयी. जिससे स्पष्ट है की जनता वर्तमान सभी पार्टीयों से त्रस्त थी और उनके विकल्प की तलाश में थी. जो उनकी समस्याओं को सुलझा सके,देश में व्याप्त महंगाई ,भ्रष्टाचार,एवं अव्यवस्था से छुटकारा दिला सके. अन्ना जी के नेतृत्व में भ्रष्टाचार और अव्यवस्था के विरुद्ध चलाए गये आन्दोलन के दौरान मिले जनता के विशाल समर्थन से जनता में आक्रोश सर्वविदित हो गया था. और जनता की मंशा का आंकलन करते हुए श्री अरविन्द केजरीवाल ने आप पार्टी का गठन कर राजनीति में उतरने का निर्णय लिया.और प्रथम बार दिल्ली विधान सभा के लिए जी तोड़ महनत कर जनता को आश्वस्त किया की वे उनकी आकाँक्षाओं के अनुरूप विकल्प देने को तैयार हैं और जनता ने उन्हें चुनावों के माध्यम से विशाल समर्थन दिया. सभी भ्रष्ट राजनेताओं को एक सन्देश दे दिया की अब उनके दिन लदने वाले हैं.अब यदि जनता का नेतृत्व करना है तो भ्रष्ट आचरणों को त्यागना होगा.

विधानसभा में बहुमत प्राप्त करने के लिए,और सरकार बनाने के लिए छतीस विधायकों के समर्थन की आवश्यकता थी. अतः स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण केजरीवाल ने विपक्ष में अपनी भूमिका निभाते हुए जनता की सेवा करने का फैसला लिया.परन्तु भा.ज.पा के पास बत्तीस सीटें होते हुए भी सरकार बनाने में अपनी असमर्थता जाहिर की, वह भी आवश्यक बहुमत प्राप्त करने के लिए मात्र चार विधायक भी नहीं जुटा सकी. शायद उसे उम्मीद नहीं थी जोड़ तोड़ कर खरीदे गए विधायकों पर धन खर्च करना विपक्ष में आप पार्टी के रहते,बेकार जायेगा.और जनता के समक्ष भी गलत सन्देश जायेगा, जिसका खामियाजा उसे १०१४ के लोक सभा के आम चुनावों में भुगतना पड़ सकता है.अतः हमेशा सत्ता के लिए लड़ने वाली पार्टी ने सरकार बनाने में कोई रूचि नहीं ली और अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी.और गेंद आप पार्टी के पाले में डाल दी.भारत के इतिहास में यह पहली बार देखा गया की बहुमत के इतना करीब आने के बाद भी किसी पार्टी ने सत्ता सँभालने में असमर्थता दिखाई. अतः सबसे बड़ी पार्टी के न करने के पश्चात् दूसरी सबसे बड़ी पार्टी यानि आप पार्टी की सरकार बनाने की जिम्मेदारी थी. परन्तु स्पष्ट बहुमत के अभाव में केजरीवाल सरकार बनाने के इच्छुक नहीं थे. क्योंकि वे अपनी सरकार बनाने के लिए किसी पार्टी से समर्थन न लेने की निती पर कायम थे.परन्तु इस बीच कांग्रेस ने अपना पासा फैंकते हुए,जनता की सहानुभूति पाने के लिए,आप पार्टी को सरकार बनाने के लिए बिना शर्त समर्थन देने की पेशकश कर दी. अब दोनों पार्टियाँ केजरीवाल को जिम्मेदारी से भागने का आरोप भी लगाने लगीं. उनका कहना था ‘जनता को ऐसे सपने दिखाए गए हैं जिन्हें आप पार्टी पूरा नहीं कर सकती अतः सत्ता में आने से कतरा रही है.आप पार्टी जनादेश का अपमान कर रही है और जनता को एक बार फिर चुनाव में घसीट कर जनता पर आर्थिक बोझ डालना चाहती है.
इस प्रकार से आप पार्टी को दोनों पार्टियों ने अपने षड्यंत्र में फंसा दिया.अब केजरीवाल के पास एक ही विकल्प बचा था की वे कांग्रेस से मिल रहे बिना शर्त समर्थन से अपनी सरकार बनायें या फिर अपनी जिम्मेदारी से भागने का आरोप झेलें और चुनावों का सामना करें.यद्यपि पार्टी मुखिया अरविन्द केजरीवाल भी दोबारा चुनाव कराकर स्पष्ट बहुमत पाने के पश्चात् सरकार बनाने के पक्ष में थे.अप्रत्याशित समर्थन देने वाली पार्टी कांग्रेस की बदनियत को भांपते हुए उन्होंने कांग्रेस को अपने कार्यक्रम की अट्ठारह सूत्री लिस्ट भेजी, जिन कार्यक्रमों को उसे समर्थन देना होगा.जब कांग्रेस की ओर से सकारात्मक संकेत मिले तो उसने जनता से जनमत संग्रह कर जनता की राय मांगी,क्या उन्हें सरकार बनानी चाहिए. जब जनता की ओर से पर्याप्त समर्थन मिल गया तो वे अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए जनता की आकाँक्षाओं को पूरा करने के लिए सरकार बनाने को तैयार हुए. केजरीवाल जी जानते हैं की कांग्रेस पार्टी कभी भी अपना समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा सकती है,परन्तु कांग्रेस पार्टी कानूनी बाध्यता के चलते एक बार समर्थन देने के पश्चात् छः माह से पहले समर्थन वापिस नहीं ले सकती. अतः श्री केजरीवाल के लिए परीक्षा की घडी है की वे मात्र छः माह में या इससे पूर्व ही जनता की उम्मीदों को पूरा करने का प्रयास करें.लोकसभा के होने वाले २०१४ के आम चुनावों में जनता का दिल जीतने के लिए अपनी नयी राजनीती का उदाहरण भी प्रस्तुत करना होगा.
उपरोक्त घटना क्रम से स्पष्ट है की आप पार्टी सत्ता की लालची नहीं है बल्कि वह यह आरोप भी नहीं झेलना चाहती की पार्टी अपने वायदे पूरे करने से बच रही है.अर्थात उसने अव्यवहारिक वायदे कर चुनाव जीता है. इन्ही परिस्थितियों को देखते हुए उसने सरकार बनाने का मन बनाया. विरोधी मानसिकता के लोग तो उनके प्रत्येक कदम का विरोध ही करेंगे,और अरविन्द केजरीवाल को मौका परस्त साबित करने का प्रयास करेंगे. परन्तु आप पार्टी ने सिर्फ जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए सरकार बनाने का कदम उठाया है,न की अपनी या अपनी पार्टी की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए.अब क्योंकि जनता की राय लेकर केजरीवाल ने सरकार बनाने का निर्णय लिया है.और यह भी सर्व विदित है की केजरीवाल ने किसी पार्टी से समर्थन नहीं माँगा या पाने का प्रयास किया. अतः जनता में सत्ता के लालची होने का सन्देश जाने का कोई कारण नहीं रह गया है. उन्होंने हालातो के अनुसार जो भी कदम उठाया है वह पूर्णतया उचित है. पार्टी या श्री अरविन्द केजरीवाल का स्वार्थ कहीं भी सिद्ध नहीं होता,परन्तु जिसे इस पूरे घटनाक्रम को अपने अतार्किक चश्मे से देखना है तो उसके लिए कुछ भी ठीक नहीं हो सकता
    .किसी भी न्याय प्रिय,ईमानदार नागरिक को श्री केजरीवाल का हौसला बढ़ने के प्रयास करने चाहिए और आशा करनी चाहिए, की आप पार्टी अपने मकसद में कामयाब हो और देश का कल्याण करे.

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ता हमारा देश

 
पिछले कुछ समय से घटित देश की राजनैतिक गतिविधियों को देखें तो लगता है हमारा  देश उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ने लगा है.देश में  नित्य बढ़ रही अराजकता ,अत्याचार ,अनाचार ,हिंसा,विषमता को लगाम लगने की आशा जगी है.         जानते हैं कैसे;--
  १, गुजरात के मुख्य मंत्री  नरेन्द्र मोदी को अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की और से भावी प्रधान मंत्री का उम्मीदवार घोषित किया गया है.यहाँ पर यह बताना उचित होगा की मोदी को बी. जे. पी. का उम्मीदवार घोषित किया गया यह महत्वपूर्ण नहीं है ,महत्त्व पूर्ण है बहुत समय पश्चात् राष्ट्र पटल पर एक ऐसा नेता उभर कर आया है जिसके  पास देश के विकास के लिए अपनी सोच है.उसके अन्दर देश को विक्सित करने की इच्छा शक्ति  है,उसके पास अनेक उत्साहवर्द्धक योजनायें हैं,और उन योजनाओं को कार्यरूप देने की क्षमता भी है,अतः यदि आज का निराश मतदाता उस पर विश्वास करके उसे जिताता है और देश के सुखद भविष्य के सपने देखता है कुछ भी गलत न होगा।
२,अन्ना हजारे जैसे क्रांतिकारी नेताओं के प्रयास से देश को सूचना का अधिकार प्राप्त हुआ(RTI) ,जिस कानून के कारण सरकार  और नौकर शाही के काले कारनामे जनता के समक्ष आ सके,सत्तारूढ़ नेताओं की कार्यशैली का भंडाफोड़ हुआ.जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त टैक्स की बर्बादी जनता के सामने आ सकी.
३,सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश के अंतर्गत फैसला  दिया की जो भी व्यक्ति किसी भी अदालत द्वारा दोषी ठहराया जाता है और उसे दो वर्ष या उससे अधिक सजा दी जाती है,तो वह जनप्रतिनिधि के पद से वंचित हो जायेगा,और सजा काटने के उपरांत अगले छः वर्ष तक चुनाव नहीं लड़ सकेगा। 
४,हमारे नेताओं ने तुरंत सुप्रीम कोर्ट के आदेश को प्रभावहीन करने के लिए अध्यादेश तैयार कर लागू करने का प्रस्ताव किया, जो जनता के सर्वव्यापी विरोध के कारण,और माननीय राष्ट्रपति महोदय की सक्रियता के कारण, सरकार को वापस लेना पड़ा,जिसे जनता की बहुत बड़ी जीत के रूप में देखा जा सकता है. और सभी पार्टियों को उस अध्यादेश का विरोध करने का उपक्रम करना पड़ा.इस अध्यादेश के रद्द हो जाने से सभी पार्टियों को दागी नेताओं को चुनाव लडाने से बचना होगा, जो देश के विकास के  लिए सकारात्मक उपलब्धि सिद्ध होगा 
      यदि देश के नेता अपराधी नहीं होगे, स्वच्छ छवि वाले, मेधावी और राष्ट्रभक्त होंगे,देश की सेवा की भावना से ओत  प्रोत होगे तो,वे अपनी तिजोरी भरने की कम देश की और देश की जनता के भलाई के  लिए अधिक  सोच पाएंगे,सार्थक योजनायें बनायेंगे, जिससे देश का विकास निश्चित है। कानून व्यवस्था सुधरेगी,भ्रष्टाचार को लगाम लग सकेगी, जो जनता के लिए राहत कारी होगा,कल्याणकारी  होगा,देश का भविष्य उज्जवल बन सकेगा।     
​ 
 
 
 

  सत्य शील अग्रवाल 
  

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

हिंदी के समर्थन के लिए अंग्रेजी की उपेक्षा घातक!

हिंदी के समर्थन के लिए अंग्रेजी की उपेक्षा घातक!
    हिंदी का उत्थान उसका  प्रचार प्रसार ,उसकी समृद्धि,उसकी लोकप्रियता सभी देश वासियों के लिए गौरव की बात है।विदेशों में हिंदी को सम्मान मिलना,उसको एक भारतीय भाषा के रूप में सम्मान मिलना प्रत्येक भारतवासी का सम्मान है।अतः प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य है की वह अपनी राष्ट्र भाषा का सम्मान करे उसके प्रचार प्रसार में अपना योगदान दे,आपसी बातचीत में नित्य व्यव्हार में लाये।हिंदी साहित्य का अध्ययन करे और उसे समृद्ध करने में सहायक बने।हिंदी भाषा ही पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोकर वार्तालाप का सुलभ माध्यम बन सकती है, प्रत्येक देशवासी को अपनेपन का अहसास करा सकती है।
     सरकारी काम काज की भाषा हिंदी होने से  देश का प्रत्येक नागरिक,सरकारी कानून,सरकारी आदेश,सरकारी सन्देश,एवं समस्त सरकारी गतिविधियों का लेखा जोखा आसानी से समझ सकता है।उसे देश के कानूनों का पालन करने में आसानी होती है।देश का प्रत्येक नागरिक चुनावों में उचित एवं योग्य उम्मीदवार को वोट देकर देश के विकास में अपना सार्थक योगदान दे सकता है।अतः यह तो निश्चित  है,सर्वसाधारण द्वारा समझी जाने वाली भाषा ही देश के विकास में सहायक सिद्ध हो सकती है।समाज में शान्ति की स्थापना में सहायता मिल सकती है।किसी भी सरकार के लिए जनता से संपर्क बनाना और शासन व्यवस्था बनाये रखना आसान हो सकता है। 
    वर्तमान में हिंदी भाषी राज्यों में जनता दो वर्गों में विभाजित है,एक वर्ग बोलने में तो हिंदी का ही प्रयोग करता है परन्तु अपने कामकाज अंग्रेजी में करना अपनी शान समझता है,अपनी विद्वता की निशानी मानता है।उसके विचार से अंग्रेजी में कामकाज करना उसे आम व्यक्ति से ऊंचा करता है।इसलिए अंग्रेजी को छोड़ना नहीं चाहता,अंग्रेजी के पक्ष में अपनी आवाज को बुलंद करता है,वह हिंदी का समर्थन करने वालों को कम पढ़े लिखे या कम बुद्धिमान कह कर नकारता है।एक दूसरा वर्ग जो हिंदी समर्थक है अंग्रेजी को विदेशी भाषा बताकर उसका विरोध करता है,उसका हर संभव तिरस्कार भी करता है।शायद ये वो लोग हैं जो स्वयं को अंग्रेजी लिखने और पढने में असमर्थ पाते हैं।अतः अपनी अयोग्यता को ढकने के लिए यह वर्ग  अंग्रेजी का विरोध करता है।यह वर्ग हिंदी भाषी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश,बिहार, राजस्थान,इत्यादि में मिलता है,और यह भी सर्व विदित है ये सभी राज्य अन्य राज्यों से पिछड़े हुए भी हैं।शायद अंग्रेजी से दुराव भी उनकी गरीबी या बेरोजगारी का एक कारण हो।दक्षिण भारत के विद्यार्थी अपनी स्थानीय भाषा के साथ साथ,अंग्रेजी और हिंदी पर भी अपनी पकड़ बनाते हैं और राष्ट्रिय प्रतिस्पर्द्धा में आगे बढ़ जाते हैं।  
    वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेजी भाषा का अपना महत्त्व बढ़ गया है,वैश्विक स्तर पर किसी  अन्य देश के व्यक्ति से संपर्क करने के लिए (व्यापार करते समय,विदेशों में कोई जॉब करते समय )वार्तालाप का माध्यम अंग्रेजी भाषा ही होती है जिसे लगभग सभी देश के पढ़े लिखे व्यक्ति समझते हैं बोलते हैं।अतः सिर्फ धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाला युवक बिना किस अन्य योग्यता के भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में जॉब पा लेता है,और अच्छी खासी जिंदगी जीने योग्य हो जाता है।अतः वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में अपने विकास के लिए अंग्रेजी को अपनाना अत्यंत आवश्यक हो गया है, इससे  ही हमारी अपनी और देश की उन्नति निर्भर है।हिंदी भाषा को अपनाते हुए उसे पूर्ण सम्मान देता हुए, अंग्रेजी पर अपनी पकड़ बनाना कोई अपनी संस्कृति का अपमान  नहीं है और न ही देश के सम्मान के साथ कोई खिलवाड़।
     यदि हमें अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए,अपने व्यवसाय को अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर स्थापित करने के लिए,अपने समाज और देश को विकास की ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए ,अंग्रेजी को सीखना और समझना आवश्यक है तो इसमें बुराई क्या है।हिंदी को समर्थन देने का अर्थ यही नहीं हो सकता की हम अंग्रेजी को एक विदेशी भाषा होने के कारण नकार दें।अंग्रेजी की उपेक्षा करना स्वयं अपने साथ अन्याय होगा।वर्तमान दौर में हमारा देश विकासोन्मुख है,हमें विश्व स्तर पर अपनी योग्यता,अपनी कार्यक्षमता एवं गुणवत्ता साबित करनी है,विश्व में हमें विकसित देश के तौर पर अपनी पहचान बनानी है।जब हम अपने देश को विकसित देशो की श्रेणी में खड़ा कर लेंगे,तो अन्य  देश वासियों को मजबूर कर सकेंगे की वे हमारी भाषा में हमसे व्यव्हार करें,जब हम अपनी शर्तों पर व्यापार कर सकेंगे। दुनिया हमारे सामने नत मस्तक होगी और हमारी भाषा को सीखने को मजबूर होगी। तब हम वास्तव में अंग्रेजी को नकार सकते हैं।अतः अभी अपने देश को अपने समाज को उन्नत बनाने के लिए अंग्रेजी का तिरस्कार करना आत्मघाती हो सकता है। 

-    सत्य शील अग्रवाल,  532/6, शास्त्री नगर मेरठ 
             



 

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

मृत्यु भोज देना कितना उचित?

                  हिन्दू समाज में जब किसी परिजन की मौत हो जाती है,तो अनेक रस्में निभाई जाती हैं।उनमे सबसे आखिरी रस्म के तौर पर मृत्यु भोज देने की परंपरा निभाई जाती है।जिसके अंतर्गत गाँव या मौहल्ले के सभी लोगों को भोजन कराया जाता है।इस दिन तेरेह ब्राह्मणों को भोजन कराने के तत्पश्चात सभी (अड़ोसी, पडोसी, मित्र गण,रिश्तेदार) आमंत्रित अतिथियों को भोजन कराया जाता है। इस भोज में सभी को पूरी और अन्य व्यंजन परोसे जाते हैं।अब प्रश्न उठता है क्या परिवार में किसी प्रियजन की मृत्यु के पश्चात् इस प्रकार से भोज देना उचित है ?क्या यह हमारी संस्कृति का गौरव है की हम अपने ही परिजन की मौत को जश्न के रूप में मनाएं?अथवा उसके मौत के पश्चात् हुए गम को तेरह दिन बाद मृत्यु भोज देकर इतिश्री कर दें ? क्या परिजन की मृत्यु से हुई क्षति तेरेह दिनों के बाद पूर्ण हो जाती है, अथवा उसके बिछड़ने का गम समाप्त हो जाता है? क्या यह संभव है की उसके गम को चंद दिनों की सीमाओं में बांध दिया जाय और तत्पश्चात ख़ुशी का इजहार किया जाय। क्या यह एक संवेदन शील और अच्छी परंपरा है? हद तो जब हो जाती है जब एक गरीब व्यक्ति जिसके घर पर खाने को पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध नहीं है उसे मृतक की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज देने के लिए मजबूर किया जाता है और उसे किसी साहूकार से कर्ज लेकर मृतक के प्रति अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।और हमेशा के लिए कर्ज में डूब जाता है,सामाजिक या धार्मिक परम्परा निभाते निभाते गरीब और गरीब हो जाता है।कितना तर्कसंगत है यह मृत्यु भोज ?क्या तेरहवी के दिन धार्मिक परम्पराओं का निर्वहन सूक्ष्म रूप से नहीं किया जा सकता,जिसमे फिजूल खर्च को बचाते हुए सिर्फ शोक सभा का आयोजन हो।मृतक को याद किया जाय उसके द्वारा किये गए अच्छे कार्यों की समीक्षा की जाय।उसके न रहने से हुई क्षति का आंकलन किया जाय।सिर्फ दूर से आने वाले प्रशंसकों और रिश्तेदारों को साधारण भोजन की व्यवस्था की जाय।
                अत्यधिक खेद का विषय तो यह है की जब घर में कोई बुजुर्ग मरता है तो उसे ढोल नगाड़ों के साथ श्मशान घाट तक ले जाया जाता है,उसके पार्थिव शरीर को गुब्बारे,झंडियों,पताकाओं ,जैसी अनेक वस्तुओं से सजाया जाता है जिसे विमान का नाम दिया जाता है।और सब कुछ परमपराओं के नाम पर तत्परता से किया जाता है।मरने वाला बूढा हो या कोई जवान, था तो परिवार का एक सदस्य ही।अतः परिजन के बिछुड़ने पर जश्न का माहौल क्यों?इन परम्पराओं को निभाने वालों में कम पढ़े लिखे या पिछड़े वर्ग से ही नहीं होते, अच्छे परिवारों में और उच्च शिक्षित व्यक्ति भी शामिल होते हैं।क्या यह बिना सोचे समझे परम्पराओं को निभाते जाना,लकीर पीटते जाना नही है? क्या यह हमारे रिश्तों में संवेदनशीलता का परिचायक माना जा सकता है? क्या इन दकियानूसी कर्मों में फंसे रह कर हम विकास कर पाएंगे ,विश्व की चाल से चाल मिला पाएंगे?



     {वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं पर आधारित पुस्तक “जीवन संध्या”  अब ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है.अतः सभी पाठकों से अनुरोध है www.jeevansandhya.wordpress.com पर विजिट करें और अपने मित्रों सम्बन्धियों बुजुर्गों को पढने के लिए प्रेरित करें और इस विषय पर अपने विचार एवं सुझाव भी भेजें. }
मेरा   इमेल पता है ----satyasheel129@gmail.com
 


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रविवार, 21 जुलाई 2013

बुजुर्गो का नजरिया अपनी संतान के प्रति

      अक्सर देखा गया है की बुजुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नजरिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है.वे अपनी संतान को अपने अहसानों के लिए कर्जदार मानते हैं. उनकी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपनी संतान को बचपन से लेकर युवावस्था तक लालन पालन करने में अनेक प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ा,जिसके लिए उन्हें अपने खर्चे काट कर उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा, उनकी आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास किये. ताकि भविष्य में ये बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बने.जब आज वे स्वयं कमाई करने लगे हैं तो उन्हें सिर्फ हमारे लिए सोचना चाहिए, हमारी सेवा करनी चाहिए. कभी कभी तो बुजुर्ग लोग संतान को जड़ खरीद गुलाम के रूप में देखते हैं.

बुजुर्ग लोग दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा विरोधी व्यव्हार से क्षुब्ध रहते हैं.उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान को दोषी मानते हैं.वे उनकी तर्क पूर्ण बातों को बुजुर्गों का अपमान मानते हैं.वे युवा पीढ़ी की बदली जीवन शैली से व्यथित होते हैं.नयी जीवन शैली की आलोचना करते हैं.क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान तो करना चाहती है या करती है परन्तु चापलूसी के विरुद्ध है. परन्तु बुजुर्ग उनके बदल रहे व्यव्हार को अपने निरादर के रूप में देखते हैं. बुजुर्गो के अनुसार उनकी संतान को परंपरागत तरीके से अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए ,नित्य उनके पैर दबाने चाहियें उनकी तबियत बिगड़ने पर हमारी मिजाजपुर्सी को प्राथमिकता पर रखना चाहिए. उन्हें सब काम धंधे छोड़ कर उनकी सेवा में लग जाना चाहिए और यही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए. यही संतान का कर्तव्य होता है.उनके अनुसार संतान की व्यक्तिगत जिन्दगी, उसकी अपनी खुशियाँ, उसका अपना रोजगार, उसका अपना परिवार कोई मायेने नहीं रखता.और जब संतान उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो वे उन्हें अहसान फरामोश ठहराते हैं.
बुजुर्गो के अनुसार आज की नयी पीढ़ी अधिक स्वछन्द और अनुशासन हीन हो गयी है.वह पहनावे के नाम पर अर्ध नग्न कपडे पहनती है, उसके परिधान अश्लील हो गए हैं,देर से उठना, देर से सोना ,जंक फ़ूड खाना इत्यादि सब कुछ अप्राकृतिक हो गया है.ऐसे सभी जीवन शैली के बदलावों से पुरानी पीढ़ी खफा रहती है,आक्रोशित रहती है,और जब वे उन्हें बदल पाने में असफल रहते है तो कुंठा के शिकार होते हैं. परिवर्तन प्रकृति का नियम है इस पर किसी का बस नहीं चलता. प्रत्येक बदलाव से जहाँ कुछ सुविधाएँ जन्म लेती है तो कुछ बुराईयां (बुजुर्गो के अनुसार)भी पैदा होती हैं.और होने वाले परिवर्तनों को कोई नहीं रोक सकता.अतः नए बदलावों को स्वीकार कर ही नयी पीढ़ी से सामंजस्य बनाया जा सकता है यह स्वीकृति ही बुजुर्गो के हित में है.
कभी कभी घर के बुजुर्ग व्यक्ति अपनी संतान के मन में उनके लिए सम्मान को, अपनी मर्जी थोपने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन्हें भावनात्मक रूप से ब्लेक मेल करते हैं.इस प्रकार से यदि कोई बुजुर्ग अपने पुत्र या पुत्रवधू को अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाते हैं,जैसे उन्हें शहर से दूर कही रोजगार के लिए नहीं जाना है या विदेश नहीं जाना,(चाहे उन्हें मिला जॉब का आमंत्रण ठुकराना पड़े.) वर्ना वे उसे कभी माफ़ नहीं करेंगे ,या वे अनशन कर देंगे इत्यादि इत्यादि. इस प्रकार से वे अपनी संतान के भविष्य के साथ तो खिलवाड करते ही हैं, उनके मन में अपने लिए सम्मान भी कम कर देते हैं. और उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं. अतः प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने हित से अधिक संतान के हित के बारे में सोचें ताकि उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो या कम से कम हो.
अनेक परिवारों में देखा गया है की माँ ने अपना पूरा जीवन विधवा या परित्यक्ता होकर भी अनेक कष्ट उठा कर अपने परिवार का पालन पोषण किया होता है, या फिर पिता ने बिना पत्नी के अर्थात बच्चो की माँ के अभाव में अपने बच्चों को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर बड़ा किया होता है,परिवार में पिता की विधवा बहन रहती है जिसे पारिवारिक सुख नसीब नहीं हुआ ,ऐसे परिवारों में जब बच्चे बड़े होकर अपने जीवन साथी के साथ सुखी पारिवारिक जीवन बिताना शुरू करते हैं है तो घर के बड़ों को सहन नहीं होता वे असहज हो जाते हैं.और पुरानी बातों को याद कर परिवार के वातावरण को बोझिल बना देते हैं.कभी कभी तनाव पूर्ण स्थिति भी बन जाती है. क्योंकि वे अपने परिवार के नवयुवक को अपनी पत्नी के साथ हंसी मजाक करते देख खीज का अनुभव करते हैं.जो उनके व्यव्हार से भी स्पष्ट होता रहता है.परन्तु अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं से संतान को आहत करना कितना उचित है? अपनी खीज व्यक्त कर अथवा तनाव पूर्ण वातावरण दे कर किसका भला हो सकता है? ऐसा व्यव्हार शायद आपको नयी पीढ़ी से अलग थलग कर दे. इस सन्दर्भ में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आपके हित में होगा. बल्कि आपको खुश होना चाहिय की आप की मेहनत और तपस्या का ही तो फल है,जो आज आपके बच्चों के जीवन में खुशियाँ आ पायीं. बच्चों की खुशियाँ ,उनकी किलकारियां,आपकी ही महनत का परिणाम है. अतः उनके साथ खुश होना आपका सम्मान बढ़ाएगा .वैसे भी उनकी खुशियों के लिए ही तो आपने अपने जीवन साथी के न होते हुए भी अनेक कष्ट उठा कर उनको यहाँ तक ला पाए और बच्चे को अपने जीवन को हंसी खुशी जीने लायक बन पाए.अपने जीवन के दुखद क्षणों को भूलकर परिवार की खुशियों में अपना योगदान दें और वातावरण को प्रफुल्लित बनायें, उससे ही आपकी संतान के मन में आपके लिए श्रृद्धा भाव जागेगा. और हमेशा यही कामना करें की जैसा कष्टदायक जीवन अपने जिया है आपके बच्चों को उसकी परछाई भी न पड़े. उनके जीवन में दुनिया भर की खुशियाँ सदैव बनी रहें. वे समाज में सम्मान पूर्वक जियें और निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढते रहें. आपका अपने बच्चों के प्रति सकारात्मक नजरिया ही परिवार को प्रफुल्लित करेगा, और आपका शेष जीवन सुखद, शांति पूर्ण, एवं सम्मानजनक व्यतीत होगा.
- सत्य शील अग्रवाल, शास्त्री नगर मेरठ

बुधवार, 3 जुलाई 2013

अभिशप्त आस्था के केंद्र




        प्रतिवर्ष सैंकड़ो व्यक्ति अपने आस्था के केन्द्रों पर आने वाली विभिन्न प्रकार की विपदाओं के कारण मौत के शिकार होते हैं।आस्था के केन्द्रों से तात्पर्य , विभिन्न धार्मिक स्थानों से है अर्थात मंदिरों, मठों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, या फिर पवित्र नदियों के घाटों पर(कुम्भ मेले इत्यादि ) या अन्य स्थानों पर होने वाले धार्मिक आयोजनों से है।उत्तराखंड में गत दिनों में आयी विपदा को सिर्फ प्राकृतिक विपदा के रूप में नहीं देखा जा सकता।प्राकृतिक घटनाओं पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता परन्तु उचित सावधानियां और कुशल प्रबंधन से उन हादसों की तीव्रता को कम किया जा सकता है ,जान माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।

अक्सर देखा गया है धार्मिक स्थलों या धार्मिक आयोजनों में अप्रत्याशित भीड़ जुट जाती है जो संभावनाओं से कहीं अधिक हो जाती है और स्थानीय प्रशासन द्वारा किये गए सभी प्रबंध बौने साबित होते है अर्थात अपर्याप्त सिद्ध होते है। किसी भी दुर्घटना की स्थिति में शासन और प्रशासन की शिथिलता और संवेदनहीनता खुल कर सामने आती है, जो पीड़ितों की परेशानियों को और भी बढ़ा देती हैं।जो यह सिद्ध करती है की हमारी सरकारें जनता के जान माल के लिए कितनी फिक्रमंद हैं,शायद उनके कार्य शैली में आम व्यक्ति की जान की कोई कीमत नहीं है,हमारे राज नेता विप्पति में भी अपनी राजनीती से बाज नहीं आते।नौकरशाहों के लिए भी उनका जनता के दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो सिर्फ अपने आकाओं को खुश रखना ही उनकी नौकरी बचाए रखने के लिए काफी है।
सभी धार्मिक स्थलों पर या धार्मिक आयोजनों के समय स्थानीय प्रशासन यात्रियों ,आगंतुकों,श्रद्धालुओं से भारी प्रवेश शुल्क वसूल किया जाता है,फिर भी यात्रियों के जान माल की सुरक्षा और सुविधाओं का सदैव अभाव बना रहता है।सरकारी मशीनरी द्वारा उपलब्ध कराये गए साधन और सुविधाएँ हमेशा अपर्याप्त ही होते है।विपत्ति की स्थिति में तो जैसे प्रशासन की नींद बहुत देर से खुलती है, शायद जब खुलती है जब मीडिया में बहुत के शोर शराबा होने लगता है।अक्सर देखा गया है पीड़ित व्यक्ति अपने प्रयासों से ही विप्पत्ति से बहार आता है या फिर किसी हादसे का शिकार होकर अपनी जान गवां बैठता है।,सिर्फ कुछ निजी संगठनों का सहयोग ही मिल पाता है जिनके कार्य कर्ताओं में मानवता के प्रति स्नेह होता है और सेवा भाव झलकता है।निजी संगठनों की अपनी सीमायें होती है वे दुर्घटना को रोकने के उपाय नहीं कर सकते। किसी भी दुर्घटना की सम्भावना को रोकना शासन या प्रशासन द्वारा ही संभव है।उनकी जिम्मेदारी है की विकास कार्यों की योजना बनाते समय पर्यावरण की सुरक्षा का ध्यान रखे और पर्यटक एवं जनता के हितों का भी ध्यान रखा जाय।साथ ही स्थानीय व्यवस्था को इस प्रकार से निरापद बनाया जाय ताकि कोई भी अनहोनी की आशंका न रह जाय।जिसके लिए शासकों,योजना कारों में इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
जनता द्वारा उत्तराखंड की भयानक आपदा के सन्दर्भ में निम्न प्रश्न शासन से पूछना स्वाभाविक है;
***क्या उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा की भयानकता को कम करना संभव नहीं था?
***क्या धर्मिक आयोजनों एवं धार्मिक स्थलों का प्रबंधन और व्यवस्था आधुनिक तकनीक द्वारा संभव नहीं है?
****क्या धार्मिक स्वतंत्रता के रहते श्रद्धालुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी शासन प्रशासन की नहीं है?या सिर्फ टैक्स वसूलना ही उसकी जिम्मेदारी है ताकि नेताओं की जेबें लबालब भरती रहें??
(जनता की जिम्मेदारी ;-क्या एक श्रद्धालु का समाज के प्रति कर्तव्य नहीं बनता की वह हर वर्ष चार धाम की यात्रा न कर, जीवन में सिर्फ एक बार यात्रा का प्रण ले,ताकि अन्य श्रद्धालुओं को सुविधा मिल सके,भीड़ कम हो सके जिससे दुर्घटना की सम्भावना घटती है।क्या उनके लिए धन और श्रद्धा से बढ़ कर सामाजिक दायित्व नहीं है?)
यदि कुछ निचे लिखे उपायों पर ईमानदारी से निर्वहन किया जाय तो शायद दुर्घटनाओं को कम किया जा सकता है और किसी विपत्ति के समय शीघ्रता से राहत कार्य किये जा सकते हैं।
,पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ यात्री काफी संख्या में पहुँचते हैं,विशेष तौर पर धर्मिक स्थलों जैसे उत्तर के चार धाम,कुंभ मेले,अन्य पर्यटन स्थल इत्यादि ,ऐसे स्थानों पर पहुँचने के लिए अनेक मार्ग होने चाहिए,जिसमे अनेक सड़कों के अतिरिक्त रोप वे ,एयर वेज़ इत्यादि। कम से कम दो रोप वे बने और एक ऐसा स्थान बने जहाँ हवाई जहाज को उतरने की सुविधा हो।
,पर्वतिये क्षेत्रों के विकास कार्यों की योजना बनाते समय पृकृति का दोहन करने के लिए पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के उपाय भी होने आवश्यक हैं,और यह सुनिश्चित किया जाय की प्राकृतिक आवेगों के सञ्चालन में कोई बाधा उत्पन्न न हो पाए।
(प्रकृति के दोहन से तात्पर्य है ऊर्जा आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए बांध का निर्माण,इंधन या लकड़ीअथवा खाद्य आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए पेड़ों,पौधों की कटाई,निर्माण कार्य के लिए जंगलों की सफाई,खनिज आवश्यकताओं के लिए खनन कार्य,जानवर के मांस,खाल,दन्त जैसी आवश्यकताओं के लिए वन्य जीवों का वध इत्यादि)
,धार्मिक स्थल,पर्यटन स्थल पहाड़ पर हो या मैदान में उनके प्रवेश पर पर्याप्त जाँच व्यवस्था हो,प्रत्येक आगंतुक का परिचय फोटो सहित पंजीकृत किया जाय(जो CCTV द्वारा भी संभव है) ताकि विपत्ति के समय उसकी पहचान और उसके परिजनों से संपर्क साधने में आसानी हो। साथ ही आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगा रहे।ऐसे सभी स्थलों पर(धार्मिक हो या अन्य ) जहाँ पर्यटक भारी संख्या में पहुचते हो,आपदा पर्बंधन की टीम पूरे साजो सामान के साथ उपस्थित रहे।
,प्रत्येक पर्यटक ,यात्री ,श्रद्धालु ,का पर्यटन स्थल पर प्रवेश करते ही उसका बीमा किया जाये ताकि उसे विपत्ति के समय आर्थिक सहायता मिलने में कोई संशय न रहे।तुरंत राहत मिल सके।
,यात्रियों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए प्रवेश के समय टोकन दिए जाएँ जिन्हें लौटते समय वापिस लिया जाय।और पर्यटन स्थल की क्षमता के अनुसार ही प्रवेश की इजाजत दी जाय।
उपरोक्त उपायों को अपनाये जाने से निश्चित ही किसी भी आपदा की आशंका और उसकी भयावहता पर नियंत्रण किया जा सकता है