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मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

देश के भावी प्रधान मंत्री -नरेंद्र मोदी या सुषमा स्वराज?


आज पूरे देश में राजनैतिक गलियारों में लोकसभा के आगामी २०१४ में होने वाले आम  चुनावो में जीतने के लिए भावी प्रधान मंत्री की घोषणा को लेकर गर्मागर्म बहस छिड़ गयी है। देश की प्रमुख पार्टियाँ  भावी प्रधानमंत्री के लिए अपने पार्टी के नेता के नाम की घोषणा करने को उत्साहित दीख रही हैं।एक तरफ कांग्रेस पार्टी में राहुल गाँधी को  भावी प्रधानमंत्री के तौर  पर देखने के प्रयास किये जा रहे है, तो कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मनमोहन सिंह द्वारा ही तीसरी पारी खेले जाने  की कयास लगा रहे हैं।कांग्रेस पार्टी में शेष वरिष्ठ नेताओं का नाम नेता के तौर पर उछलना वर्जित है।इस पार्टी में तो गाँधी परिवार का सदस्य ही नेत्रित्व संभाल  सकता है या सोनिया गाँधी द्वारा प्रायोजित व्यक्ति ही प्रधान मंत्री की कुर्सी प्राप्त कर सकता है। अन्यथा पार्टी अनेक भागो में विभाजित हो जाएगी और कोई भी नेत्रित्व सँभालने लायक नहीं होगा।पिछले कुछ समय से देश में व्याप्त महंगाई, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से जनता बुरी तरह से त्रस्त हो चुकी है,देश की जनता का कांग्रेस से मोह भंग हो चुका है।अन्ना के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन ने आग में घी का काम  किया है ,अतः अगले आम चुनावों में कांग्रेस को सत्ता मिलने के कोई आसार नजर नहीं आते। शायद इसी कारण  देश की  प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी सत्ता का सुख चखने को खासी आश्वस्त है और उसके द्वारा घोषित प्रधान मंत्री के उम्मीदवार की आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।  भाजपा में इस बार गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर तिकड़ी लगाने वाले लोकप्रिय नेता नरेन्द्र मोदी को  भावी प्रधान मंत्री के प्रबल दावेदार के रूप में देखा जा रहा है,परन्तु सप्रंग अर्थात NDA की कुछ पार्टियां विशेष रूप से नरेंद्र मोदी के विरुद्ध खड़ी हैं,उन्हें नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार्य नहीं है।विरोध करने वालों में बिहार के वर्तमान मुख्य मंत्री और  JDU (जनता दल यूनाइटेड) के नेता  नितीश कुमार एवं शरद यादव विशेष रूप से सामने हैं।  हैं। जो उन्हें उनके शासनकाल में हुए 2002 के गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार मानते हुए, एक सांप्रदायिक छवि वाला व्यक्ति मानते हैं। उन्हें नरेंद्र मोदी के अतिरिक्त कोई भी अन्य भाजपा नेता स्वीकार्य है।शायद उन्हें बिहार में अपनी मुस्लिम वोटर की चिंता सता रही है,जिसके सहारे वे कांग्रेस को बिहार से दूर रखने में कामयाब हो सकते हैं।या फिर भाजपा के गठबंधन से हट कर अपने भविष्य को अधिक सुरक्षित मान रहे हैं।
       भाजपा में एक खेमा पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता लालकृष्ण अडवाणी को अगले प्रधान मंत्री के तौर पर देखने का  इच्छुक है।परन्तु पार्टी के युवा कार्यकर्त्ता नयी पीढ़ी का प्रधान मंत्री चाहते हैं।इस प्रकार भाजपा में नरेंद्र मोदी से हट कर दो मुख्य वरिष्ठ नेताओं के नाम लिये  जा सकते हैं,वे है अरुण जेटली और सुषमा स्वराज इन दोनों में महिला होने के नाते सुषमा स्वराज की दावेदारी प्रबल लगने लगती है।अंत में भाजपा के दो मुख्य भावी प्रधानमंत्री के दावेदार रह जाते हैं।दोनों नेता ही साफ स्वच्छ छवि वाले निर्विवादित पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं।दोनों ही बेहद सुलझे हुए और योग्य नेता हैं।इस प्रकार  सुषमा और मोदी के नामों पर एक बहस छिड़ चुकी है,क्योंकि जहां बुद्धिजीवियों का एक वर्ग सुषमा को बेहतर बता कर नरेंद्र मोदी को नकारता प्रतीत हो रहा है,तो एक अन्य वर्ग मोदी सबसे उपयुक्त प्रधानमंत्री मानता है।


    सुषमा जी को तीस वर्षों का राजनैतिक अनुभव के साथ केंद्र सरकार में मंत्री के रूप में विभिन्न मंत्रालयों को सँभालने का अनुभव है ,अल्पावधि के लिए दिल्ली के मुख्य मंत्री पद को भी सुशोभित कर चुकी है।भाजपा में लोकप्रिय नेता हैं,और  भाजपा के घटक दल शिव सेना के बल  साहेब ठाकरे की पसंद रही हैं। उन्हें  दिल्ली की पहली  महिला मुख्यमंत्री होने की गौरव प्राप्त है. भाजपा के घटक दल शिव सेना के   बाला साहेब ठाकरे की पसंद रही हैं।न्हें  दिल्ली की पहली  महिला मुख्यमंत्री होने की गौरव प्राप्त है
 भारत की संसद में सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार पाने वाली पहली महिला भी वे ही हैं। वर्तमान में संसद में विपक्ष की नेता हैं। वे तेज तर्रार पार्टी की नेता और प्रवक्ता हैं।उनकी छवि में कोई दाग नहीं है,वे प्रधान मंत्री के पद  पर विद्वान् ,योग्य और सक्षम नेता के तौर पर सिद्ध हो सकती हैं।उन्हें महिला होने का अतिरिक्त समर्थन मिल सकता है,उन पर कट्टर हिन्दू वादी की छाप  भी नहीं लगी है,देश के राजनेताओं के लिए उनके विरुद्ध तथाकथित धर्म निरपेक्षतावाद  की दुहाई देते हुए उन्हें साम्प्रदायिक बताने का कोई कारण नहीं है।अतः उनकी देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में  प्रबल दावेदारी बनती है।
     जब भी गुजरात के वर्तमान मुख्य मंत्री की प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में चर्चा होती है,तो उनके व्यक्तित्व के सामने कोई नहीं टिक पाता।उनकी भाषण शैली किसी की भी बोलती  बंद करने में सक्षम है,उनका  मीडिया मेनेजमेंट गजब का कार्य करता है जो उनको  लोकप्रिय बनाने में सहायक बनता है।वे सिर्फ विकास आधारित राजनीति  में विश्वास करते है,जबकि आज धर्म या जाति आधारित राजनीति  देश पर हावी हो रही है।उनका उद्देश्य अपने प्रदेश के बाद, पूरे देश को और देश की जनता को विकास का लाभ देना है।विकास के लिए उनका अपना विजन है,उदाहरण  के रूप में उनके पास गुजरात का माडल है।जो उनकी विकास के प्रति ईमानदारी और उनकी कार्य क्षमता,कार्य शैली  को इंगित करता है।वे देश की व्यवस्था को सुधारने के लिए नयी टेक्नोलोजी का सहारा लेने के पक्षधर हैं।वे देश में भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने को संकल्प बद्ध लगते हैं।यही कारण है की पार्टी के अधिकतर कार्य कर्ता और देश के शुभेच्छु एवं प्रबुद्ध वर्ग  नरेंद्र मोदी को अगले प्रधान मंत्री के रूप में देखने के लिए खासे उत्साहित हैं,भाजपा के मूल संगठन *आर एस एस* का भी समर्थन नरेंद्र मोदी को प्राप्त है।
   उपरोक्त विश्लेषण मोदी की दावेदारी को मजबूत करता है,और देश का सौभग्य होगा यदि देश को नरेंद्र मोदी का नेतृत्व मिलता है।              


  

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

कैसे हो अपराध मुक्त समाज का निर्माण ?




     किसी भी समाज के निरंतर विकास करने के लिए समाज में शांति और सुरक्षा का वातावरण होना अत्यंत आवश्यक है।समाज में शान्ती का वातावरण बनाये रखने के लिए उसे अपराध मुक्त होना परम आवश्यक है।अतः प्रत्येक देश की सरकार का प्रथम कर्तव्य है की वह समाज को और देश को वाह्य एवं आन्तरिक नकारात्मक शक्तियों से मुक्त रखने के लिए समुचित व्यवस्था करे।
समाज को अपराध मुक्त रखने के लिए अपराध और अपराधी के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है,यदि अपराधी की मनोवैज्ञानिक प्रवृति का अध्ययन कर उसको मजबूर करने वाली परस्थितियों को बनने से ही रोक दिया जाय, तो समाज को अपराधमुक्त करना अथवा न्यूनतम अपराध वाले समाज की श्रेणी में लाने में मदद मिल सकती है।यद्यपि प्रशसनिक विशेषज्ञों को अपराध विज्ञानं की पूरी जानकारी होती है,परन्तु हमारे देश के राजनैतिक आकाओं की इच्छा शक्ति के अभाव में वे पर्याप्त उपाय नहीं कर पाते,और देश में अराजकता की स्थिति बन जाती है,और आज भी बनी हुई है।कभी विदेशी,आतंकी गतिविधियाँ चलाकर देश में अशांति और अस्थिरता फ़ैलाने की कोशिश करते हैं ,तो कभी स्थानीय निवासी अपने प्रति हो रहे अन्याय के विरुद्ध आन्दोलनरत हो जाते हैं, जो कभी कभी हिंसा में परिवर्तित हो जाता है,और क्षेत्र विशेष का विकास प्रभावित होने लगता है।
अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए सत्ताधारी नेता स्थानीय समस्याओं को जान बूझ कर उलझा देते हैं और परिणाम स्वरूप धरना प्रर्दशन,हिंसक आन्दोलन या फिर आतंकवाद पनपने लगते हैं।जिससे स्थानीय विकास अवरुद्ध हो जाता है,देश में अलगाव जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं।इस प्रकार स्थानीय जनता निरन्तर शोषण का शिकार होती रहती है,जब जनता में असंतोष बढ़ने लगता है तो अपराधों की बाढ़ आ जाती है,कुछ सक्षम और महत्वाकांक्षी ,ऊर्जावान,मेधावी लोग उस क्षेत्र से पलायन करने लगते हैं।उद्यमी और व्यापारी अपने कारोबार को अन्यत्र स्थानांतरित कर लेते है,और क्षेत्र विशेष पिछड़ने लगता है।जो लोग समाज और क्षेत्र के विकास करने में सक्षम होते है,योग्य होते हैं, वे अपने क्षेत्र के स्थान पर किसी अन्य शहर,प्रदेश,या देश के विकास में योगदान कर रहे होते हैं।
अतः यह जानना आवश्यक है की देश और समाज को विकास की उन्मुक्त धारा से जोड़े रखने के लिए समाज को अपराधमुक्त कैसे रखा जा सकता है,प्रस्तुत लेख के माध्यम से इस विषय को समझने का प्रयास किया गया है।परिस्थितियों एवं कारणों को समझने के पश्चात् ही उचित कदम उठा कर समस्याओं के समाधान किये जा सकते हैं और समाज और देश को अपराध मुक्त करने के प्रयास किये जा सकते हैं;
१, कोई भी व्यक्ति प्राकृतिक रूप से अपराधी के रूप में पै
दा नहीं होता।उसकी वर्तमान एवं भूतपूर्व परिस्थितियां उसे अपराध की ओर ले जाती हैं।यहाँ पर एक मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले अपराधों को संज्ञान में नहीं लिया जा रहा है। मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले अपराधों की संख्या भी नगण्य होती है,जो समाज को उद्वेलित नहीं कर सकते,तथा विक्षिप्त लोगों की गतिविधियों पर आसानी से अंकुश भी लगाया जा सकता है।जब भी किसी क्षेत्र में आम आदमी अपराधिक् गतिविधियों में संलग्न होने लगता है तो समाज में विकृति आने लगती है।जब स्थानीय निवासियों को अपनी मूल आवश्यकताएं अर्थात रोटी कपडा और मकान,जुटाने में असीमित संघर्ष के पश्चात् भी उपलब्ध नहीं हो पाती तो उसका संघर्ष अपराध की ओर उन्मुख होने लगता है।वह अपनी भूख मिटाने ले लिए अपराधियों से भी हाथ मिला सकता है,वह रोजगार पाने के लिए अनुत्पादक कार्यों में जैसे तस्करी,गैर कानूनी व्यापार,चोरी डकैती हेरा फेरी इत्यादि और वह अपराधी बन जाता है।
२, यदि किसी कार्यरत व्यक्ति से उसका रोजगार छीन लिया जाय ,उसके खेत खलिहान को अधिग्रहण कर उन्हें रोजगार विहीन कर दिया जाय,किसी भवन के मालिक को अन्याय पूर्वक उसका निवास स्थान छीन लिया जाय इत्यादि परिस्थितियों में वह अन्याय के विरुद्ध आवाज उठता है। यदि उसको न्याय नहीं मिलता तो उसका संघर्ष अपराध की और भी मुड़ सकता है। ऐसे पीड़ित लोग अवांछित व्यक्तियों के साथ मिलकर समाज में अशांति पैदा कर सकते हैं।जब किसी क्षेत्र में ऐसे पीड़ितों की संख्या बहुमत में हो जाती है तो समस्त क्षेत्र हिंसा और आतंक की चपेट में आ जाता है।अतः यह आवश्यक है किसी भी क्षेत्र में शासन या प्रशासन को स्थानीय लोगों में बढ़ रहे असंतोष को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए,उसे समय रहते स्थानीय समस्या का समाधान निकल लेना चाहिए।और क्षेत्र विशेष को अराजकता से बचा सकता है।
,अपराधिक गतिविधियों के बढ़ने का बहुत बड़ा कारण होता है,हिंसा की प्रतिक्रिया में हिंसा की उत्पत्ति।यदि किसी परिवार के किसी परिजन के साथ अन्याय होता है, उसके साथ हिंसा होती है,उस हिंसा के फलस्वरूप उसकी मौत हो जाती है,वह विकलांग हो जाता है,तो प्रतिक्रिया स्वरूप पूरा परिवार आक्रोशित हो जाता है।वह अपराधी के विरुद्ध बदले की भावना से जलने लगता है, उसकी यह इर्ष्या हिंसा या अपराध के रूप में परिवर्तित होती है।क्योंकि वह दुश्मन से हिंसा के बदले हिंसा का सहारा लेकर ही आत्म संतोष का अनुभव करता है।अनेक घटनाओं में, विशेष कर देहाती क्षेत्रों में देखा गया है इस प्रतिशोध की ज्वाला में परिवार के परिवार नष्ट हो जाते हैं।कुछ परिवार अपने प्रतिशोध के लिए कानून का वैधानिक तरीका भी अपनाते हैं और अपने दुश्मन को सजा दिलाने के लिए धन दौलत के साथ अपना कार्यकारी समय खर्च कर समस्त जीवन स्वाहा कर देते है, अपनी पुश्तैनी जायदाद और अपना रोजगार भी लुटा देते हैं,और सड़क पर आ जाते हैं।रोजगार विहीन व्यक्ति स्वयं समाज के स्वास्थ्य के लिए घातक होता है।
४, हिंसा और प्रतिहिंसा का साक्षात् उदाहरण हम सबके सामने है,सत्तर और अस्सी के दशक में भारत के अनेक शहरों में,देहातों में बार बार धार्मिक दंगे होते रहते थे।उत्तर प्रदेश के कुछ जिले तो जातीय एवं धार्मिक दंगों के लिए पूरी तरह बदनाम हो चुके थे,जिनमे मेरठ,अलीगढ,मुरादाबाद विशेष दंगा ग्रस्त शहर बन गए थे।इन शहरों का विकास पूरी तरह ठप्प हो गया था।इन हालातों के बनने का मुख्य कारण निरंतर बढती जा रही नफरत एवं प्रतिशोध और इंतकाम की आग ही थी।जिस परिवार का कोई सदस्य धार्मिक दंगों की चपेट में आ जाता था,वह पूरा परिवार दुसरे समुदाय के विरुद्ध बदले में जलने लगता था,उसका नुकसान करके ही अपने परिजन के प्रति श्रद्धांजलि देना ही अपना मकसद बना लेता था और दंगों का न थमने वाला सिलसिला चलता रहता था।परिणाम स्वरूप शहर में बार बार धार्मिक दंगे होते रहते थे। पूरा शहर हिंसा का अखाडा बन गया।बाहर से आने वाले व्यापारियों,पर्यटकों,आगंतुकों ने शहर से लगभग नाता तोड़ लिया,शहर में चल रहे व्यापार ,उद्योग धंधे चौपट होने लगे।शहर में बेरोजगारी ने मुहं खोलना शुरू कर दिया,बेरोजगारी के गुस्से ने दंगो में आग में घी की भांति काम किया।इस प्रकार से निरंतर दंगे भड़कने के कारण बनते रहे।
जब समस्या विकट होने लगी तो प्रशासन की नींद खुली और स्थानीय एवं प्रादेशिक शासन व्यवस्था ने तीव्र इच्छा शक्ति दिखाते हुए दंगो को सख्ती से निपटने के लिए सतर्कता बढाई और यथा संभव अनुकूल प्रयास किये ।चुस्त प्रशासन व्यवस्था के कारण परिणाम भी सार्थक निकले।और अनेको वर्षों तक दंगे नहीं हुए कही किसी ने कोई शरारत की तो उसे वही शीघ्र कुचल दिया गया,कर्फ्यू लगाने की धारणा (जनता में दहशत पैदा करता था) समाप्त कर दी गयी।लगभग बीस वर्षो तक की जाने वाली निगरानी के कारण जनता में बदले की आग ठंडी पड़ने लगी,परिजनों के जख्मों की यादे धुंधली पड़ने लगीं।शहर में शांति बने रहने के कारण सबको रोजगार मिलने लगे कारोबार को फलने फूलने का पर्याप्त समय मिला।जब आम जनता अपने कार्यों में व्यस्त रहने लगी तो वह दंगो के घिनौने विचारों से उबरने लगी, उसमे दहशत ख़त्म होने लगी,सभी को अपनी उन्नति के लिए शांति का महत्त्व समझ में आने लगा।वर्तमान नयी युवा पीढ़ी दंगों की ज्वाला से अनभिज्ञ हो चुकी है,और इस प्रकार एक भयानक आतंकी सिलसिला रुक चुका है।आज यदि कोई अराजक तत्व शहर में आग लगाने का प्रयास भी करता है, तो उसे कामयाबी भी नहीं मिलती।इस प्रकार से सभी दंगों के लिए बदनाम शहर उन्नति की और अग्रसर होने लगे।अब यदि प्रदेश में धार्मिक दंगे होते भी हैं तो किसी नए क्षेत्र में अचानक होते हैं, जिनकी कोई निरंतरता भी नही होती।कहने का तात्पर्य है की जनता में बदले की भावना ख़त्म होते ही दंगों के रूप में हिंसा भी रुक गयी।
५, अपराध बढ़ने के एक और कारण को उदाहरण के रूप में समझने का प्रयास करते हैं,यदि किसी कारण से किसी क्षेत्र की फसल बर्बाद हो जाय,स्थानीय जनता और किसान भूखों मरने लगें,और कर्जदार अपना कर्ज बसूलने के लिए अनुचित दबाव बनाने लगें,ऐसी स्थिति में किसान या कर्जदार या तो आत्महत्या कर लेगा (जो एक अपराध ही है),या फिर लूट मार करेगा, हिंसा करेगा,अर्थात वह अपराधों की ओर रुख कर लेगा।इस प्रकार एक आम व्यक्ति विषम परिस्थितियों में अपराध का सहारा लेने लगता है।अतः शासन और प्रशासन का प्रथम कर्तव्य है की समाज में अराजकता फैलने से रोकने के लिए ,जनता को ऐसी विषम परिस्थियों में जूझने से बचाए।
६, अपने मित्रों रिश्तेदारों या परिचितों में विवाद के तीन मुख्य कारण माने गए हैं,वे हैं जर (धनदौलत ),जोरू(पत्नी या स्त्री),और जमीन(खेत खलिहान,मकान या जायदाद).आज के भौतिकवादी युग में प्रत्येक व्यक्ति धन संग्रह करने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता है,दौलत कमाने और इकट्ठी करने के लिए वह किसी भी हद तक चला जाता है,फिर चाहे उसके लिए उसे हिंसा का सहारा लेना पड़े किसी की हत्या करनी पड़े,अर्थात दौलत पाने के लिए अपराध करने से संकोच नहीं करता।और जमीन जायदाद या खेत आदि पर जायज, नाजायज कब्ज़ा करने के लिए अनेक हथकंडे अपनाता है,वर्तमान में समाज के खुलेपन ने पति पत्नी के बीच संदेह पैदा करने वाले अनेक कारण पैदा कर दिए हैं,जो अनेको बार अपराधों(हिंसा,हत्या)में परिवर्तित होते देखे जाते हैं।सदा जीवन उच्च विचार,त्याग की भावना,आपसी भाई चारे,बफादारी जैसे गुणों के विकास उत्तम उपाय सिद्ध हो सकते हैं।
७, यदि किसी क्षेत्र ,देश या प्रदेश में किसी अन्य क्षेत्र या देश के लोग आकर अपना बर्चस्व बनाने लगें, स्थानीय व्यवस्था पर अपना नियंत्रण करने लगें,स्थानीय लोगों को शासित करने लगें,उन पर अत्याचार करने लगें,स्थानीय लोगों की उपेक्षा होने लगे,ऐसी परिस्थितियों में स्थानीय समाज आक्रोशित होने लगता है,वह विरोध व्यक्त करता है। यदि शासन फिर भी उनकी समस्याओं की अनदेखी करता है,तो आक्रोश,बगावत अथवा क्रांति और हिंसक आन्दोलनों में भी परिवर्तित होने लगता है,परदेसी या परप्रांतीय व्यक्तियों से घृणा बढ़ने लगती है और अपराध बढ़ने लगते हैं।इस प्रकार से अन्य प्रान्त या देश से आये हुए व्यक्ति अपराधों के बढ़ने का कारण बन जाते है।
इस प्रकार की समस्याओं की अनदेखी भयंकर परिणाम दे सकती है।
८, किन्ही दो देशों के बीच युद्ध की ज्वाला भी अपराध पोषक है।जब एक देश की कुटिल साम्राज्यवादी निति, दूसरे देश पर आक्रमण कर उस देश की शांतप्रिय जनता को हिंसा के लिए मजबूर करती है, पूरे समाज में असंतोष एवं सुरक्षा का वातावरण बन जाता है।पूरे देश में अपराध बोध उत्पन्न हो जाता है।इतिहास गवाह है युद्ध प्रभावित देश सदियों के लिए अपने विकास में पिछड़ जाते है।उनकी विकास की गति विपरीत दिशा में चलने लगती है और उन्हें विश्व की प्रतिस्पर्द्धा से लोहा लेने के लिए अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
९, किसी भी समाज में व्याप्त नशाखोरी,सट्टेबाजी जैसे चारित्रिक पतन के कार्य अपराधों और अपराधियों को जन्म देते हैं।यदि उच्च वर्ग का कोई व्यक्ति इस प्रकार के शौक करता है तो वह इन महंगे शौकों के खर्चे उठाने में सक्षम होता है, परन्तु मध्यम आय वर्ग,या निम्न आय वर्ग के व्यक्ति के लिए इनके खर्चों का बोझ उठाना उनकी क्षमता से बाहर होता है।जब कोई नशे जैसे शौक का आदि हो जाता है,तो उसे उस शौक को पूरा करने के लिए धन तो चाहिए ही,और धनाभाव की स्थिति में वह घर के सामान बेचने को मजबूर होता है। यदि फिर भी पूरा नहीं पड़ता तो धोखाधड़ी,लूटमार,राहजनी या गुंडा गर्दी से धन एकत्र कर अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने का प्रयास करता है।जहाँ बाल्मिकी ,हरिजन,या पिछड़ी जातियों के मोहल्ले होते है,उनकी बस्तियों के करीब स्थित दुकानदारों,व्यापारियों या कारोबारियों से उगाही करना, उनके साथ नित्य मारपीट करना इनकी नशे की आदतों का परिणाम होता है।कुल मिला कर निष्कर्ष यह निकलता है की नशाखोरी सट्टेबाजी,या जुए बाजी जैसे चरित्र हनन वाले कार्य समाज में अपराधों के कारण बनते हैं।इस प्रकार के अवांछनीय तत्व क्षेत्र के विकास को अवरुद्ध कर देते हैं।अतः अपराधमुक्त समाज बनाने के लिए जनता के चरित्र निर्माण की भी महती आवश्यकता होती है।
अतः समाज को अपराध मुक्त रखने के लिए आवश्यक है,शिक्षा में चरित्र निर्माण पर विशेष जोर दिया जाय,जनता की मूल समस्याओं का समाधान शीघ्र से शीघ्र किया जाय,समाज में पनपने वाले असंतोष को समय रहते दूर किया जाय,समाज में साधनों की असमानता का अंतर निम्नतम करने के प्रयास हों, अपराधी को शीघ्र से शीघ्र सजा देने की व्यवस्था की जाय,और किसी भी अपराधी को सजा से बच पाने के अवसर न मिल पाए। विदित है इन सभी उपायों के लिए शासन और प्रशासन की इच्छा शक्ति का होना अत्यंत आवश्यक है।
सत्य शील अग्रवाल

मंगलवार, 26 मार्च 2013

क्यों बढ़ रही है अराजकता ?



  आज देश में भ्रष्टाचार,अनाचार ,लूट पाट ,धोखाधड़ी ,डकैती,बलात्कार जैसे अनेक अपराधों का बोलबाला है,ऐसे समाचारों से अख़बार भरे रहते हैं।स्पष्ट है हमारा देश अराजकता की ओर अग्रसर है।यह अब एक गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है, की देश में अनेक कठोर कानून होते हुए भी अपराधों पर कोई लगाम नहीं लग पा रही है। आखिर क्या कारण है, नित्य प्रति अपराधों में वृद्धि होती जा रही है? क्यों अपराधियों के हौंसले बुलंद होते जा रहे हैं? क्यों अपराधियों के मन से कानून का डर समाप्त होता जा रहा है?
    क्यों होते हैं अपराध ?
        यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से विकृत होने के कारण कोई अपराध करता है उसके लिए कोई कानून, कोई सख्ती उसको अपराध करने से नहीं रोक सकती। ऐसे अपराधियों को अपराध करने  से रोकने के लिए,समाज के हर व्यक्ति को, अपने परिजन,मित्र ,जानकार व्यक्ति जो मानसिक रूप से विकृत है, के प्रत्येक व्यव्हार पर  पर नजर रखनी होगी और उसको अपराध करने से रोकने के लिए सचेत रहना होगा,  इसका यही एक मात्र विकल्प हो सकता है,क्योंकि ऐसे अपराधी को कानून  भी कोई सजा दे पाने में अक्षम रहता है।यहाँ पर ऐसे व्यक्ति के अपराध विचारणीय भी नहीं है। 
      सामान्य  मानसिक स्थिति वाला कोई भी व्यक्ति अपराध करने का साहस तब करता है, जब उसे कानूनी शिकंजे में फंसने की सम्भावना नहीं होती,या उसे कानूनी शिकंजे से निकलने के लिए पर्याप्त साधन होते हैं।कानूनी दांवपेंच इस्तेमाल कर,सबूतों को अपने प्रभाव से कम करने या मिटा देने की क्षमता रखता हो और अपने को पाक साफ निकाल ले जाने  की सम्भावना होती है।हमारे देश में पुलिस व्यवस्था एवं न्याय प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार उनकी संवेदनहीनता और समाज के प्रति उदासीनता,एक बहुत बड़ा कारण बना हुआ है। साथ ही न्यायालय के निर्णय आने में लगने वाला लम्बा समय जिसमे कभी कभी बीस वर्ष या अधिक भी लग जाते हैं, न्याय में विलम्ब अपराधियों के हौसले निरंतर बढ़ाते हैं।
    अपराधों का मुख्य कारण  होता है  की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव,अर्थात रोटी कपडा और मकान जैसी मूल भूत आवश्यकताओं का अभाव और उसके लिए संघर्ष अपराधों को जन्म देता है। इन्सान अपनी शराफत  अपनी इंसानियत अपनी संवेदनाएं भूल जाता है और किसी भी प्रकार से अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक चला जाता है। फिर चाहे उसे पाने के लिए अपराध का सहारा ही क्यों न लेना पड़े।यही मुख्य वजह है,जो गरीब देशों में अपराधों को बढ़ावा देती है,और गरीब देश अपराधों के गढ़ बन जाते हैं।  
      दूसरा कारण आपसी रंजिश या बदले की भावना अपराधों में वृद्धि करती है यही कारण  है जब भी किसी शहर में सांप्रदायिक दंगे होते हैं तो एक न रुक पाने वाला क्रम चलता रहता है.अतः रोकने के लिए शासन स्तर पर विशेष प्रयास करने पड़ते हैं और सतत निगरानी के पश्चात् दंगों का सिलसिला रुक भी जाता है.आजादी के पश्चात् पिछले छः दशको का अनुभव तो यही बताता है.   
      तीसरा  मुख्य कारण  हमारे समाज में स्वः स्फूर्त इंसानियत का अभाव है।उदाहरण  के तौर पर एक व्यक्ति किसी दुकानदार से कोई वस्तु खरीदने जाता है और उसे सामान की पूरी कीमत चुका  देता है,क्यों? उसके पीछे मुख्य दो कारण होते हैं,उसे डर है की यदि उसने वस्तु का पर्याप्त मूल्य नहीं चुकाया तो दुकानदार उसका अपमान करेगा,उसे मरेगा पीटेगा,और यदि वह स्वयं सक्षम नहीं हुआ तो अन्य उपायों से विरोध करेगा,पडोसी दुकानदारों के साथ मिल कर  विरोध करेगा या कानूनी  सहायता के लिए पुलिस बल को बुलाएगा,इत्यादि।अर्थात ग्राहक के रूप में अपराधी को दण्डित करने का प्रयास करेगा।दूसरा कारण  होता है सामान खरीदने वाला इंसानियत को प्रमुखता देता है और न्यायप्रिय है।उसे मालूम है दुकानदार ग्राहक की  सेवा अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए करता है, उसके अपने खर्चे इस आमदनी से पूरे होते हैं,वह भी सामान किसी उत्पादक या व्यापारी से खरीद कर लाता है। अतः उसे उस वस्तु की उचित कीमत देकर संतुष्ट  करना हमारा कर्तव्य है।यह भावना उसे अपराध नहीं करने  देती,और वह वस्तु की पूरी कीमत दुकानदार को चुकाता है।
    अपराध का एक कारण होता है अपने धन अपनी संपत्ति की पर्याप्त सुरक्षा न करना या उसकी रक्षा के प्रति लापरवाह होना।यदि हम अपने धन,अपने जेवर  को सड़क पर रख दें,या निर्जन सड़क पर गहने लाद कर निकल पड़ें, तो क्या आप उसकी सुरक्षा के लिए आश्वस्त हो सकते हैं? क्या इस प्रकार  पुलिस या स्थानीय  प्रशासन  पर गैर जिम्मेदार होने का आरोप लगाना ठीक होगा? अतः यदि अपने घर को बिना ताला  लगाये या पर्याप्त सुरक्षा का इंतजाम किये छोड़ कर चले जाते हैं तो क्या  हम चोरों को आमंत्रण नही दे रहे होते हैं? सड़क पर नोटों की गड्डियां लहराते  हुए निकलते है या बहुत सारे  गहने पहन कर निकलते हैं, चोरी और छीना झपटी होने की संभावनाओं को हम स्वयं बढ़ा रहे होते हैं। 
       आप खूब परिश्रम कर कामयाबी प्राप्त करते हैं और समृद्धशाली हो जाते हैं,आप अपनी समृद्धि को उत्साहवश  प्रदर्शन  भी करने लगते हैं,आपका ऐश्वर्य  आपके पडोसी,आपके रिश्तेदारों को अखरने लगता है वे आप से इर्ष्या करने लगते हैं।अब आपको अपनों से ही अपने अहित की आशंका लगने लगती है। स्पष्ट है यदि आप अपनी समृद्धि को प्रदर्शित न करें, अपने व्यव्हार में बहुत बड़ा बदलाव न लायें ,अपने व्यव्हार में नम्रता रखें तो आप अधिक सुरक्षित रह सकते हैं।
      इसी प्रकार यदि कोई महिला अपने पहनावे द्वारा अंगप्रदर्शन करती है,तो उसके साथ दुराचार की संभावना भी बढ़ जाती है।यह कटु  सत्य है, पूरे समाज को कभी भी व्यवस्थित नहीं रखा जा सकता, समाज में हर मानसिकता का व्यक्ति विद्यमान होता है,और यह भी सत्य है पुलिस या प्रशासन प्रत्येक स्थान पर अपनी निगेहबानी नहीं कर सकता।आज यह भी सत्य है लचर कानून व्यवस्था और धीमी न्याय प्रक्रिया अपराधियों को निडर बनती है।यह भी उचित है की हम महिलाओं को ड्रेस कोड नहीं दे सकते ,उनके  मोबाइल रखने पर या बहार निकलने पर पाबन्दी नहीं लगा सकते। यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आघात  होगा।अतः हमें महिलाओं को उनकी अपनी सुरक्षा के उपाय सुझाने होंगे, उन्हें नियंत्रित हो कर अपने हित में उचित पहनावा रखने के लिए प्रेरित करना होगा,आखिर अंग प्रदर्शक पहनावा उनके लिए जोखिम बढ़ता है। क्योंकि टक्कर हो जाने या दुर्घटना के भय से हम गाड़ी या स्कूटर चलाना तो बंद नहीं कर सकते,परन्तु गाड़ी चलाने वाले को सुरक्षित चले की हिदायत तो दे सकते हैं।बाकि उसकी मर्जी वह अपने भविष्य का साथ खिलवाड़ करता है या संभल कर गाड़ी चलाता है।इसी प्रकार से महिलाओं की गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता,और न ही लगना  चाहिए,सिर्फ उन्हें सुरक्षित रहने और आत्म रक्षा के उपाए सुझाने होंगे। 
      इस लेख का आशय यही है की हमें स्वयं अपने धन, दौलत, इज्जत की स्वयं रक्षा करने  लिए तत्पर रहना चाहिए।सचेत रहना ही  एक मात्र उपाय है जो हमें  देश में बढ़ रही अराजकता के माहौल में अपने को सुरक्षित रख सकता है।      
          


 


  

गुरुवार, 21 मार्च 2013

युवा वर्ग का नजरिया अपने बुजुर्गों के प्रति


 साधारणतयः परिवार में युवा पुरुष सदस्य परिवार की आय का स्रोत होता है, जिसके द्वारा अर्जित धन से वह अपने बीबी बच्चों के साथ साथ अक्सर घर के बुजुर्गों के भरण पोषण एवं देख भाल  की जिम्मेदारी भी उठाता है. इसलिए बुजुर्गों के प्रति उसका नजरिया महत्वपूर्ण होता है, की वह अपने बुजुर्गों के प्रति क्या विचार रखता है? उन्हें कितना सम्मान देना चाहता है,वह अपने बीबी बच्चों और बुजुर्गों को कितना समय दे पाने में समर्थ है, और क्यों? वह अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति क्या नजरिया रखता है ?वह नए ज़माने को किस नजरिये से देख रहा है?क्योंकि वर्तमान बुजुर्ग जब युवा थे उस समय और आज की जीवन शैली और सोच में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुका है.

            आज का युवा अपने बचपन से ही दुनिया की चकाचौंध से प्रभावित है.उसे बचपन से ही कलर टी.वी.मोबाइल ,कार, स्कूटर,कंप्यूटर, फ्रिज जैसी सुविधाओं को देखा है, जाना है.जिसकी कल्पना भी आज का बुजुर्ग अपने बचपन में नहीं कर सकता था.जो कुछ सुविधाएँ उस समय थी भी तो उन्हें मात्र एक प्रतिशत धनवान लोग ही जुटा पाते थे.आज इन सभी आधुनिक सुविधाओं को जुटाना प्रत्येक युवा के लिए गरिमा का प्रश्न बन चुका है.प्रत्येक युवा का स्वप्न होता है की, वह अपने जीवन में सभी सुख सुविधाओं से सुसज्जित शानदार भवन का मालिक हो. प्रत्येक युवा की इस महत्वाकांक्षा के कारण ही प्रत्येक क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न हुई है.अब वह चाहे शिक्षा पाने के लिए स्कूल या कालेज में प्रवेश का प्रश्न हो या नौकरी पाने के लिए मारामारी हो. रोजगार पाने के लिए व्यापार ,व्यवसाय की प्रतिस्पर्द्धा हो या अपने रोजगार को उच्चतम शिखर पर ले जाने की होड़ हो या फिर अपनी नौकरी में उन्नति पाने के अवसरों की चुनौती हो .प्रत्येक युवा की आकांक्षा उसकी शैक्षिक योग्यता एवं रोजगार में सफलता पर निर्भर करती है यह संभव नहीं है की प्रत्येक युवा सफलता के शीर्ष को प्राप्त कर सके परन्तु यदि युवा ने अपने विद्यार्थी जीवन में भले ही मध्यम स्तर तक सफलता पाई हो परन्तु चरित्र को विचलित होने से बचा लिया है, तो अवश्य ही दुनिया की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है,चाहे वे उच्चतम गुणवत्ता वाली न हों.और वह एक सम्मान पूर्वक जीवन जी पाता है.
सफलता,असफलता प्राप्त करने में ,या चरित्र का निर्माण करने में अभिभावक और माता पिता के योगदान को नाकारा नहीं जा सकता.यदि सफलता का श्रेय माता पिता को मिलता है तो उसके चारित्रिक पतन या उसके व्यक्तित्व विकास के अवरुद्ध होने के लिए भी माता पिता की लापरवाही , उचित मार्गदर्शन दे पाने की क्षमता का अभाव जिम्मेदार होती है.जबकि युवा वर्ग कुछ भिन्न प्रकार से अपनी सोच रखता है.वह सफलता का श्रेय सिर्फ अपनी मेहनत और लगन को देता है और असफलता के लिए बुजुर्गो को दोषी ठहराता है.
आज के युवा के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में विद्यमान मूर्ती की भांति होता है, जिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी,कपडा और दवा दारू की आवश्यकता होती है.उसके नजरिये के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके हैं.उनकी इच्छाएं, भावनाएं, आवश्यकताएं सीमित हो गयी हैं. उन्हें सिर्फ मौत की प्रतीक्षा है. अब हमारी जीने की बारी है.जबकि वर्तमान का बुजुर्ग एक अर्धशतक वर्ष पहले के मुकाबले अधिक शिक्षित है.,स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर है,और मानसिक स्तर भी अधिक अनुभव के कारण अपेक्षाकृत ऊंचा है.(अधिक पढ़े लिखे व्यक्ति का अनुभव भी अधिक समृद्ध होता है) अतः वह अपने जीवन के अंतिम प्रहार को प्रतिष्ठा से जीने की लालसा रखता है,वह वृद्धावस्था को अपने जीवन की दूसरी पारी के रूप में देखता है, जिसमे उस पर कोई जिम्मदारियों का बोझ नहीं होता. और अपने शौक पूरे करने के अवसर के रूप में देखना चाहता है.वह निष्क्रिय न बैठ कर अपनी मन पसंद के कार्य को करने की इच्छा रखता है,चाहे उससे आमदनी हो या न हो.यद्यपि हमारे देश में रोजगार की समस्या होने के कारण युवाओं के लिए रोजगार का अभाव बना रहता है,एक बुजुर्ग के लिए रोजगार के अवसर तो न के बराबर ही रहते हैं.और अधिकतर बुजुर्ग समाज के लिए बोझ बन जाते हैं.उनके ज्ञान,और अनुभव का लाभ देश को नहीं मिल पाता. कभी कभी उनकी इच्छाएं,आकांक्षाएं, अवसाद का रूप भी ले लेती हैं.क्योंकि पराधीन हो कर रहना या निष्क्रिय बन कर जीना उनके लिए परेशानी का कारण बनता है.
आज का युवा अपने बुजुर्ग के तानाशाही व्यक्तित्व के आगे झुक नहीं सकता.सिर्फ बुजुर्ग होने के कारण उसकी अतार्किक बातों को स्वीकार कर लेना उसके लिए असहनीय होता है.परन्तु यह बात बुजुर्गों के लिए कष्ट साध्य होती है.क्योंकि उन्होंने अपने बुजुर्गों को शर्तों के आधार पर सम्मान नहीं दिया था,और न ही उनकी बातों को तर्क की कसौटी पर तौलने का प्रयास किया था.उनके द्वारा बताई गयी परम्पराओं को निभाने में कभी आनाकानी नहीं की थी.उन्हें आज की पीढ़ी का व्यव्हार उद्दंडता प्रतीत होता है.समाज में आ रहे बदलाव उन्हें विचलित करते हैं.
क्या सोचता है आपका पुत्र, क्या चाहता है आपका पुत्र, वह और उसका परिवार आपसे क्या अपेक्षाएं रखता है?इन सभी बातों पर प्रत्येक बुजुर्ग को ध्यान देना आवश्यक है.आज के भौतिकवादी युग में यह संभव नहीं है की अपने पुत्र को आप उसके कर्तव्यों की लिस्ट थमाते रहें और आप निष्क्रिय होकर उसका लाभ उठाते रहें.आपका पुत्र भी चाहता है आप उसे घरेलु वस्तुओं की खरीदारी में यथा संभव मदद करें,उसके बच्चों को प्यार दुलार दें, उनके साथ खेल कर उनका मनोरंजन भी करें,बच्चों को स्कूल से लाने और ले जाने में सहायक सिद्ध हों,बच्चों के दुःख तकलीफ में आवश्यक भागीदार बने, बुजुर्ग महिलाएं गृह कार्यों और रसोई के कार्यों में यथा संभव हाथ बंटाएं,बच्चों को पढाने में योग्यतानुसार सहायता करें,परिवार पर विपत्ति के समय उचित सलाह मशवरा देकर लौह स्तंभ की भांति साबित हों. बच्चों अर्थात युवा संतान द्वारा उपरोक्त अपेक्षाएं करना कुछ गलत भी नहीं है, उनकी अपेक्षाओं पर खरा साबित होने पर परिवार में बुजुर्ग का सम्मान बढ़ जाता है, परिवार में उसकी उपस्थिति उपयोगी लगती है.साथ ही बुजुर्ग को इस प्रकार के कार्य करके उसे खाली समय की पीड़ा से मुक्ति मिलती है,उसे आत्मसंतोष मिलता है, वह आत्मसम्मान से ओत प्रोत रहता है.उसे स्वयं को परिवार पर बोझ होने का बोध नहीं होता.
कुछ विचारणीय प्रश्न.

“क्या हम अपने बुजुर्गों को सहेज कर नहीं रख सकते? क्या वे हमारे मार्ग दर्शक नहीं बन सकते?”
“वर्तमान में युवावस्था के प्रत्येक व्यक्ति को अहसास होना चाहिए की कल वे भी आज के प्रौढों के स्थान पर खड़े होंगे”
(मेरी पुस्तक जीवन संध्या के अंश )

रविवार, 3 मार्च 2013


प्रधानमंत्री के अगले कांग्रेसी उम्मीदवार राहुल गाँधी ही क्यों? 

      आजादी के पश्चात् कांग्रेस अधिकतम समय तक देश की सत्ता पर काबिज रही है।यद्यपि इस दौरान कांग्रेस ने अपने कई स्वरूप ग्रहण किये,अनेकों बार कांग्रेस विभाजित हुयी,अनेक दिग्गज नेता पार्टी को छोड़ कर चले गये ,उन्होंने पृथक दल निर्मित किये।परन्तु वे कांग्रेस को विकल्प नहीं दे पाए।कोई भी अन्य गैर कांग्रेसी दल भी कांग्रेस का मजबूत विकल्प नहीं बन पाया। प्रश्न यह उठता है आखिर क्या कारण है की कांग्रेस को कोई उल्लेखनीय टक्कर नहीं दे पाया? जबकि स्वास्थ्य लोकतंत्र के लिए विपक्ष का मजबूत होना अति आवश्यक है।क्या अन्य दलों में या कांग्रेस से छिटके किसी नेता में इतनी क्षमता नहीं है की वह देश की सत्ता को प्रभावी ढंग से संभाल सके? क्या कांग्रेस के पास अधिक योग्य एवं क्षमतावान नेता हैं, जो सभी अन्य नेताओं को प्रभावी नहीं होने देते? ऐसे क्या कारण हैं जो बार बार जनता, कांग्रेस को ही बहुमत देकर सत्ता हस्तांरित कर देती है? क्या कांग्रेस में पनप रही परिवारवाद की परंपरा या व्यक्ति पूजा लोकतंत्र के हित में मानी जा सकती है? इसी कड़ी में क्या राहुल गाँधी को प्रधान मंत्री का उम्मीदवार बना देना उचित है? क्या गाँधी परिवार से जुड़ा होना ही उनकी प्रधान मंत्री पद की योग्यता का मापदंड मान लेना उचित है? जिस व्यक्ति को कभी कोई मंत्रालय सँभालने का कोई अनुभव न हो, वह प्रधान मंत्री बनने योग्य हो सकता है? क्या एक अनुभव हीन व्यक्ति के हाथों में देश की बागडोर दे देना, देश हित में हो सकता है? क्या कांग्रेस में अनुभवी नेताओं का अभाव है?
उपरोक्त सभी पर्श्नो के उत्तर जानने और समझने के लिए हमें स्वतंत्रता के पश्चात् देश के राजनैतिक इतिहास पर दृष्टिपात करना होगा,आखिर ऐसी क्या मजबूरी है जो कांग्रेस का वरिष्ठ से वरिष्ठतम नेता गाँधी परिवार से जुड़े किसी भी व्यक्ति को साष्टांग प्रणाम करने लगता है, उसके गुणगान करने लगता है ?

         इसके कारणों को समझने के लिए हमें स्वतन्त्र भारत के राजनैतिक इतिहास का विश्लेषण करना होगा।आईये एक नजर डालते है आजादी के पश्चात् के घटनाक्रम पर;–
देश को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात्, क्योंकि आजादी की लडाई लड़ने और उसके कार्य कर्ताओं द्वारा दी गयी आत्माहुति,का मुख्य श्रेय कांग्रेस पार्टी के नाम से संचालित संगठन को दिया गया था।अतःकांग्रेस के अतिरिक्त कोई अन्य पार्टी जनता को स्वीकार्य नहीं हो सकती थी, और कांग्रेस को सत्ता का भार सौंपा जाना निश्चित था।महात्मागाँधी के आशीर्वाद स्वरूप कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री जवाहरलाल नेहरु को प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।और संविधान लागू होने के पश्चात् जब पहली बार आम चुनाव हुए तो नेहरु के संरक्षण में कांग्रेस को,संगठित विरोधी पक्ष के अभाव में अप्रत्याशित जीत हासिल हुयी।और नेहरु जी निरंतर प्रत्येक चुनाव में जीत प्राप्त करते रहे,और अपने अंतिम क्षणों तक अर्थात मई 1964 तक ,कांग्रेस को सत्ता का सुख देते रहे।इस दौरान कोई अन्य पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनने लायक अपने को सक्षम नहीं कर पाई।यद्यपि जनसंघ,कम्युनिस्ट पार्टी,समाजवादी पार्टी इत्यादि अनेक पार्टियाँ अपनी उपस्थिति देश के राजनैतिक पटल पर दर्ज करा चुकी थीं।वे सभी पार्टियाँ अपनी लोकप्रियता में कांग्रेस से बहुत पीछे थी।
          नेहरू जी के देहावसान के पश्चात् कांग्रेस ने अपना नेता श्री लाल बहादुर शास्त्री जी को चुना, जो बेहद ईमानदार,कर्मठ, निष्ठावान नेता थे,देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने।परन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था. मात्र अट्ठारह माह पश्चात् उनकी असामयिक मृत्यु हो गयी।देश एक बार फिर से नेतृत्वहीन हो गया।क्योंकि कांग्रेस में उनके पश्चात् कोई भी सर्वमान्य नेता नहीं था।कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का ख्याल था, नेहरू जी की पुत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को प्रधान मंत्री बना दिया जाय ताकि कांग्रेस को जनता का नेहरू के प्रति स्नेह पहले की भांति मिलता रहेगा और सरकार पर हमारा बर्चस्व भी बना रहेगा। क्योंकि उनके आंकलन के अनुसार इंदिरा गाँधी अपरिपक्व एवं प्रशासनिक तौर पर सक्षम नहीं है,अतः उनके कंधे पर रख कर बंदूक चला कर आसानी से अपने स्वार्थ सिद्ध किये जा सकेंगे।परन्तु नेताओं में एक धड़ा मोरारजी देसाई को प्रधान मंत्री के रूप में देखना चाहता था।इस मतभेद के चलते, सांसदों के मध्य मतदान द्वारा सदन का नेता चुनने का निर्णय लिया गया,और उसमे इंदिरा गाँधी का पलड़ा भारी निकला।अतः इंदिरा गाँधी को संसद का कांग्रेसी नेता चुन लिया गया और प्रधान मंत्री बना दिया गया।24,जनवरी 1966 में श्रीमति इंदिरा गाँधी देश की प्रथम महिला प्रधान मंत्री बनीं,पार्टी में एकता बनाये रखने के लिए श्री मोरारजी देसाई को उप प्रधान मंत्री बनाया गया।
                   परन्तु कांग्रेस पार्टी की आन्तरिक कलह के कारण 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस को काफी नुकसान उठाना पड़ा।फलस्वरूप विरोधी पार्टियों ने अपने पैर ज़माने शुरू कर दिए। परन्तु जिसे कांग्रेसियों ने रबर की गुडिया के तौर प्रधान मंत्री बनाना चाहा था,इंदिरा गाँधी ने नेतृत्व सँभालते ही अपने दृढ व्यव्हार,एवं कुशल प्रशासनिक क्षमता के कारण सभी वरिष्ठ कांग्रेसियों के इरादे धराशाही कर दिए।उन्होंने अनेक कड़े फैसले लेकर सबको हिला दिया।कुछ निर्णय ऐसे थे जिन्हें किसी भी कुशलतम नेता के लिए भी आसान नहीं था,जैसे बेंकों का राष्ट्रियकरण करना ,राजाओं के प्रिवीपर्स समाप्त करना, मुद्रा अवमूल्यन जैसे कठोर कदम उठाकर अपने को एक कुशल प्रशासक सिद्ध कर दिया।और उनकी सत्ता पर पकड़ मजबूत हो गयी।जिन कांग्रेसी नेताओं के अरमान धराशाही हो गए थे,उन्होंने मोरारजी देसाई के संरक्षण में पार्टी के संगठन ने इंदिरा गाँधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित दिया और अपनी पार्टी को वास्तविक कांग्रेस पार्टी सिद्ध करने का पर्यास किया।जब मामला चुनाव आयोग के पास पहुंचा तो उसने किसी को भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस की मान्यता नहीं दी।सत्तारूढ़ पार्टी को ,कांग्रेस (इंदिरा)और दूसरी पार्टी को संगठन कांग्रेस के नाम सेअलग अलग मान्यता दे दी।और इन्ही नामों से 1971 के चुनावो को लड़ा गया जिसमें इंदिरा के नेत्रित्व वाली पार्टी भारी बहुमत से जीत प्राप्त की।और पूरी दृढ़ता के साथ सत्ता पर काबिज हो गयीं।उनके कुशल नेतृत्व में ही पाकिस्तान के साथ 1971 की लडाई लड़ी गयी और बंगला देश का उदय हुआ।जिसने इंदिरा गाँधी का कद बहुत ऊंचा कर दिया था।परन्तु अति उत्साहित हो जाने के कारण अब इंदिरा गाँधी ने अपना निरंकुश व्यव्हार शुरू कर दिया था।उनके इस व्यव्हार के विरोध में समाजवादी नेता श्री जय प्रकाश नारायण ने अपना आन्दोलन चलाया,जिसका जनता से अप्रत्याशित समर्थन प्राप्त हुआ।जिससे इंदिरा सरकार हिल गयी,इसी बीच हाई कोर्ट का फैसला आया ,जिसमे इंदिरा गाँधी के गत चुनावो में अनुचित साधनों के उपयोग का दोषी पाए जाने के कारण, चुनाव निरस्त कर दिया गया , जिससे इंदिरा गाँधी बौखला गयीं।उन्होंने देश में बढ़ रही अराजकता का बहाना बता कर,देश में शांति बहाली के लिए देश पर आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी और सभी विरोधी पार्टी के नेताओं को जेल में डाल दिया।इस दौरान अनेक तानाशाही फरमान सुनाये गए,जनता के संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों को निरस्त कर दिया गया।मीडिया की सभी ख़बरों पर सेंसर कर दिया गया।आपातकाल के दौरान सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए अपने कर्तव्यों का सख्ती से पालन करने के आदेश दिए गए,कर्तव्य के प्रति लापरवाह कर्मियों को सीधे जेल में डालने के आदेश कर दिए गए।आपातकाल के अन्य फारमानों के अतिरिक्त एक मुख्य आदेश के अंतर्गत पुरुष नसबंदी करने को लेकर सख्ती करना सर्वाधिक कष्टदायक था।जिससे जनता बहुत अधिक आक्रोशित हो गयी,वह कांग्रेस और इंदिरा गाँधी से कुपित हो गयी।जिस कारण 1977 में कराये गए चुनावो में इंदिरा कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा ,इंदिरा गाँधी स्वयं अपनी संसदीय सीट भी नहीं बचा पायीं।जनता ने आपातकाल का विरोध करते हुए नवनिर्मित पार्टी जनता पार्टी को भारी बहुमत से जिता दिया।देश में प्रथम बार 24 मार्च 1977 को गैर कांग्रेसी सरकार ने देश की सत्ता संभाली।पहली बार जनता को गैर कांग्रेसी सरकार के शासन का अनुभव हुआ।
जनता पार्टी अनेक महत्वकांक्षी नेताओं की पार्टी थी,अनेक नेता प्रधान मंत्री बनने के इच्छुक थे। उनकी महत्वाकांक्षा के कारण,मात्र 27 माह के अल्प काल में ही मोरारजी देसाई की सरकार लड़खड़ाने लगी।जनता पार्टी की अंतर्कलह का लाभ उठाते हुए कांग्रेस पार्टी ने चौधरी चरण सिंह को अपना समर्थन देकर,प्रधान मंत्री बना दिया और इस प्रकार 28 जुलाई 1979 को जनता पार्टी को सत्ताविहीन कर दिया,और मध्यावधि चुनावों की घोषणा दी।मध्यावधि चुनावो में पुनः विजय प्राप्त कर इंदिरा गाँधी ने 14 जनवरी 1980 को फिर से सत्ता प्राप्त कर ली।जनता ने एक बार फिर डांवाडोल जनता पार्टी की सरकार के स्थान पर इंदिरा की स्थायी कांग्रेस सरकार को पसंद किया।इस प्रकार से विपक्ष की कमजोरी कांग्रेस की जीत का कारण बन गयी।
            शास्त्री जी के निधन के पश्चात् राष्ट्र को एक बा
र फिर से 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या की त्रासदी झेलनी पड़ी,और अस्थायी तौर पर श्रीमती इंदिरा गाँधी के पुत्र 
राजीव गाँधी को सत्ता सौंप दी गयी।श्रीमती इंदिरा की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर ने एक बार फिर कांग्रेस को भारी बहुमत से जिता दिया,और राजीव गाँधी देश के प्रधान मंत्री बन गए।इस प्रकार से देश को फिर से कांग्रेस की सत्ता का साथ मिला।1989 में बोफोर्स मामले में तत्कालीन रक्षा मंत्री,एवं वित्त मंत्री श्री वी पी सिंह को तथाकथित घोटाले के लिए आरोपित किया गया,और मंत्रीमंडल से हटा दिया गया।इसके पश्चात् वी पी सिंह ने कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र देकर जनमोर्चा के नाम से नयी पार्टी बना ली।1989 के आम चुनावों में अनेक विरोधी पार्टियों ने मिल कर जनता दल के नाम से गैर कांग्रेसी मोर्चा बनाया और वी पी के नेतृत्व में दूसरी बार गैर कांग्रसी सरकार गठन किया गया।
परन्तु इस बार भी पूर्व की भांति ही गैर कांग्रसी सरकार का हश्र हुआ,नेताओं की रस्साकशी ने वी पी सिंह सरकार का कार्यकाल पूरा नहीं होने दिया,भारतीय जनता पार्टी ने वी पी सिंह सरकार से हाथ खींच लिया। इस बीच अति महत्वाकांक्षी श्री चन्द्र शेखर अपने 64 सांसदों के साथ जनता दल से अलग हो गए और समाजवादी जनता दल के नाम से एक पार्टी का गठन किया,तथा कांग्रेस के समर्थन से सत्ता ग्रहण कर ली।अपने स्वभाव के अनुसार शीघ्र ही कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस लेकर मध्यावधि चुनावों की घोषणा कर दी।1991 में जब चुनाव अनेक चरणों में चल रहे थे, प्रचार के दौरान ही श्री राजीव गाँधी की हत्या कर दी गयी।और सहानुभूति की लहर में जनता ने एक बार फिर से कांग्रेस को भारी समर्थन दिया।सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के कारण अनेक क्षेत्रीय दलों के समर्थन के साथ पी वी नरसिंघा राव के नेतृत्व एक बार फिर से कांग्रेस की सरकार केंद्र की सत्ता पर आसीन हो गयी।
               उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा भी किया,परन्तु इस अवधि में देश में क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी दखल देनी शुरू कर दी थी। जो एक तीसरे मोर्चे के रूप में मुखरित हो रहे थे।श्री चन्द्र शेखर के कार्यकाल में आयात के भुगतान के लिए देश के सोने को गिरवी रखना पड़ा था, देश लगभग कंगाल हो चुका था।अतः राव कार्यकाल में एक बहुत बड़ा राष्ट्रिय निति में बदलाव किया गया। तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने उदार आर्थिक निति की घोषणा कर सभी विदेशी कम्पनियों के लिए देश में कारोबार करने के लिए भारत के द्वार खोल दिए,ताकि विदेशी मुद्रा का संकट टाला जा सके,आयात निर्यात संतुलन बनाया जा सके और देश के आर्थिक हालत सुधर सकें,जो देश के विकास के लिए बहुत बड़ा कदम था। परन्तु इस कदम को फलीभूत होने के लिए काफी समय की आवश्यकता थी।अतः जनता में इस निति में बदलाव के कारण कोई उत्साह नजर नहीं आया। 1996 के आम चुनावो में जनता कांग्रेस पर लगे अनेकों घोटालों के आरोपों के कारण कांग्रेस से नाराज थी,गाँधी परिवार का कोई चमत्कारिक व्यक्ति चुनावों में शामिल नहीं था। अतःकांग्रेस समेत कोई भी पार्टी बहुमत नहीं जुटा पाई चुनाव परिणाम में लोकसभा त्रिशंकु स्थिति में उभरी।और क्षेत्रीय पार्टियों(तीसरा मोर्चा) को सत्ता तक पहुँचने का सुनहरी अवसर प्राप्त हुआ। बारी बारी से अनेक खिचड़ी सरकारे आती रहीं और जाती रहीं।अंत में 1998 में फिर से मध्यावधि चुनाव करने पड़े,इस बार भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी उभर कर आयी,और 
अन्य पार्टियों से जोड़ तोड़ कर सरकार का गठन किया।परन्तु मात्र तेरह महीने के कार्यकाल में ही अल्प मत में आ गयी और देश को एक बार फिर से मध्यावधि चुनाव झेलना पड़ा।
               1999 में हुए चुनावों के फलस्वरूप भारतीय जनता पार्टी अनेक दलों का समर्थन प्राप्त कर फिर से सत्ता में आ गयी और अपने कार्यकाल को पूर्ण भी किया।यह पहली ऐसे गठबंधन सरकार थी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया।इस बार के चुनावों में कांग्रेस ने राजीव गाँधी की पत्नी श्रीमती सोनिया गाँधी को अपने अध्यक्ष के रूप में स्वीकार कर लिया था अतः यह चुनाव सोनिया के संरक्षण में हुए।अंततः 2004 में सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस को करीब करीब बहुमत मिला गया,कुछ छोटी पार्टियों का समर्थन लेकर देश की बागडोर संभाल ली।इस बार डॉ मनमोहन सिंह सोनिया के आशीर्वाद से प्रधान मंत्री बनाये गए।2009 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के कमजोर प्रदर्शन के कारण, दोबारा कांग्रेस को सत्ता मिली और मनमोहन सिंह दोबारा प्रधानमंत्री बने।
           उपरोक्त सभी घटना क्रमों से यह स्पष्ट हो जाता है की जब जब गाँधी परिवार का कोई भी व्यक्ति कांग्रेस का नेतृत्व संभालता है जनता का समर्थन मिल ही जाता है।यह भी सिद्ध हो चुका है जब भी गैर कांग्रेसी सरकार बनी देश को स्थायी सरकार नहीं दे पाई।जिस नेता ने भी कांग्रेस छोड़ी उसका राजनैतिक भविष्य अंधकार मय हो गया।हर बार जब भी चौबे जी छक्के बन्ने चले और दूबे रह गए।
उपरोक्त वर्णित गत पैंसठ वर्षों के राष्ट्रीय राजनैतिक सफ़र से निष्कर्ष निकलता है की ;
1,देश की स्वतंत्रता की लडाई से सम्बद्ध होने के कारण जनता के मानस पटल पर एक मात्र कांग्रेस पार्टी ही देश की सच्ची हितैषी बनी हुई है,भले ही आज के नेता भ्रष्टाचार के आकंठ डूबे हुए हैं।विभाजन के समय कांग्रेस द्वारा विस्थापितों के लिए मानवीय आवश्यकताओं की व्यवस्था,एवं संविधान में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना के कारण मुस्लिम समुदाय में उसकी पैठ आज भी कही न कहीं बनी हुई है।मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल भी सर्वाधिक कांग्रेस ने ही खेला है।
2,लम्बे समय से सत्ता में बनी रही कांग्रेस पार्टी का आज तक कोई मजबूत जनाधार वाला राष्ट्रिय दल, सत्ताधारी दल का विकल्प नहीं बन सका।जो देश और लोकतंत्र के लिए स्वास्थ्यकर नहीं है।मजबूत विपक्ष अच्छे लोकतंत्र का प्रतीक होता है।
3,गाँधी परिवार के साथ होने वाली त्रासद घटनाओं(पहले इंदिरा गाँधी और फिर राजीव गाँधी की दर्दनाक हत्या ) ने गाँधी परिवार को देश की सत्ता के लिए के मात्र विकल्प बना दिया है।
4,अनेकों बार कांग्रेस के असंतुष्ट और महत्वाकांक्षी नेताओं ने कांग्रेस को छोड़ कर अपनी पार्टी बना कर आगे बढ़ने का प्रयास किया,परन्तु सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने में असफल रहे या कभी सत्ता तक पहुंचे भी तो शीघ्र ही जनाधार खो बैठे,उनका राजनैतिक भविष्य अंधकारमय हो गया।
5,कांग्रेस पार्टी और गाँधी परिवार एक सिक्के के दो पहलू बन चुके हैं।बिना गाँधी परिवार के नेतृत्व के कांग्रेस पार्टी अपना जनाधार खो देती है।अतः वहां वंशवाद पूरी तरह पनप चुका है जो देश और लोकतंत्र के लिए घातक भी है।
6,यदि कांग्रेस पार्टी में गाँधी परिवार से सम्बद्ध कोई भी व्यक्ति कांग्रेस का नेता बनता है तो कांग्रेस के सत्ता में आने की सम्भावना प्रबल हो जाती है।
              यही सब ऐसे कारण बने हुए हैं जो कांग्रेस के वरिष्ठ से वरिष्ठ नेताओं को मजबूर करते हैं की,वे गाँधी परिवार के सदस्यों की चाटुकारिता करें,उनके गुणगान करे और शीर्षस्थ पद पर न सही, सत्ता का सुख तो प्राप्त करते रहें,क्योंकि उन्होंने राजनीती में समाज सेवा की भावना से कदम नहीं रखा, बल्कि एक व्यापारी की नियत लेकर आये हैं। और कांग्रेस पार्टी में सर्वसम्मति से राहुल गाँधी जैसे राजनैतिक अपरिपक्व नेता को अपना नेता चुन लिया गया। उनको 2014 में होने वाले चुनावो के लिए भावी प्रधानमंत्री की हैसियत से प्रदर्शित किये जाने की पूरी सम्भावना है।अब यह तो जनता की सोच पर निर्भर करेगा की वह घोटालों की बरसात करने वाली और महंगाई से जनता को त्रस्त करने वाली पार्टी को ताज पहनती है अथवा किसी अन्य पार्टी को मौका देती है।
  • सत्य शील अग्रवाल

सोमवार, 28 जनवरी 2013

दामाद को लेना होगा पुत्र का स्थान


  परंपरागत मान्यताओं के कारण दामाद और ससुर के संबंधों में सामंजस्य का अभाव बना रहता है.क्योंकि पुरुष सत्तात्मक समाज होने के कारण महिलाओं को दोयम दर्जा दिया जाता है. यही कारण है जहाँ एक तरफ बेटे का पिता होना गौरव का आभास दिलाता है,तो पुत्री का पिता सदैव उसकी ससुराल वालों के समक्ष झुका रहता है.तथा बेटे के बराबर दामाद के सामने भी झुकने को मजबूर होना पड़ता है,कभी कभी तो अपमानित भी होना पड़ता है.दामाद और उसके पिता वर पक्ष के होने के कारण विजयी मुद्रा में देखे जाते हैं, जबकि बेटी का बाप होना  अपमान का प्रतीक बन जाता है.यही अपमान और निरंकुशता समाज में पुत्र को श्रेष्ठ और पुत्री को बोझ ठहरता है. और महिला वर्ग को समान अधिकार और सम्मान से वंचित करता है.

         देश की बढती जनसँख्या को देखते हुए तथा जीवन स्तर को नित्य ऊंचा करने की होड़ के चलते समाज पर परिवार नियोजन का दबाव बढ़ रहा है.परिवार में दो बच्चों से अधिक होना  पिछड़े पन का सूचक बनता जा रहा है.क्योंकि हमारे सामाजिक संरचना और परम्पराओं के कारण पुत्री के पिता को पुत्र के अभाव में अपना भविष्य धुंधला दीखने लगता है.इसलिय परिवार में कम से कम एक पुत्र की आकांक्षा होना स्वाभाविक है.यदि किसी परिवार में एक बेटी पहले से ही है तो दूसरे बच्चे का आगमन से पूर्व अल्ट्रा साउंड टेस्ट द्वारा पता करना पड़ता है, और लड़की की सम्भावना होने पर गैर कानूनी होते हुए भी चोरी छुपे गर्भपात कराना माता पिता की मजबूरी हो जाती है.
यदि समाज में पुत्री के पिता को पुत्र के पिता के समान भरपूर सम्मान मिले ,दामाद अपने सास ससुर को अपने माता पिता का स्थान दे और परिवार में पुत्र की भांति दामाद को भी समान अधिकार प्राप्त हों जाएँ, तो पुत्र प्राप्ति की इच्छा में भ्रूण हत्या को रोका जा सकेगा ,और परिवार में पुत्र के समान ही पुत्री के आगमन पर जश्न मनाया जायेगा. माता पिता को अपनी दोनों संतान (बेटा या बेटी) से भविष्य में बराबर मान-सम्मान और संरक्षण की सम्भावना होने  पर उसे लड़के या लड़की में भेद भाव करने की  आवश्यकता नहीं रह जायेगी.
अब एक नजर उन सामाजिक परम्पराओं पर जो ससुर दामाद की मध्य दीवार खड़ी करती हैं.;
१,लड़की को पराया धन बताया जाता है.अतः बेटी को कन्यादान कर किसी अन्य व्यक्ति के  हाथों  में सौंप देना ही पिता का कर्त्तव्य माना जाता है. अर्थात बेटी का घर पराया घर माना जाता है, जो दामाद को उसकी ससुराल से अलग करता है.
२,दामाद को जमाई अर्थात जम का रूप बताया गया है और उसे यमदूत के रूप में देखा जाता है.जो दामाद से दूरी बनाये रखने को प्रेरित करता है. यह सोच दामाद को गैर परिजन और उसको आतंक का पर्याय बना देती है. अतः उससे सानिध्य बंधन कैसे संभव है.
३, शास्त्रों के अनुसार और हमारी परम्पराओं में दामाद से किसी प्रकार का शारीरिक या आर्थिक सहयोग प्राप्त करना वर्जित माना गया है.उसके घर का पानी पीना बेटी के माता पिता के लिए वर्जित माना गया है,तो उससे किस प्रकार पुत्र के समान कर्तव्यों की आशा की जा सकती है? अतः कठिन परिस्थितियों में भी बेटी के ससुराल वालों से सहायता प्राप्त करना संभव नहीं होता.जो रिश्तेदार सुख दुःख में साथ न दे सके, या उससे मदद लेने में संकोच हो तो उस रिश्तेदारी का क्या लाभ?
४,दामाद अपने सास ससुर के अंतिम संस्कार में कोई सहयोग नहीं कर सकता.उसके लिए तो सास ससुर के अंतिम दर्शन करना भी वर्जित माना जाता है.अतः दामाद चाह कर भी पुत्र बन कर कोई कर्तव्य नहीं निभा सकता .
५.बेटी को विवाह के पश्चात ससुराल भेजने की परंपरा है ,किसी भी स्थिति में दामाद का घर जमाई बन कर ससुराल वालों के साथ रहना मान्य नहीं है.
       इस  प्रकार जहाँ बेटी के कर्तव्य अपनी ससुराल वालो के प्रति असीमित हैं,वहीँ बेटे के अपनी ससुराल वालों के प्रति कर्तव्यों की कोई लिस्ट नहीं होती.यदि उपरोक्त मान्यताओं में बदलाव लाया जा सके तो ससुर और दामाद के सम्बन्ध अपने आप मानवीय स्तर के हो सकते हैं.बेटी भी अपने माएके में अपने को उस परिवार की संतान का फर्ज निभा पायेगी ,समाज में पुत्र प्राप्ति की ललक को विराम लग सकेगा,वृद्धो को पुत्र न होने गम नहीं सता पायेगा .
(मेरी पुस्तक जीवन संध्या से उधृत )

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

सेरोगेसी का व्यापार

            सेरोगेसी का व्यापार आज वैज्ञानिक शोधों ने संभव बना दिया है की जो दंपत्ति शारीरिक अक्षमता के चलते बच्चा प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें कृत्रिम विधि से किसी अन्य महिला को गर्भस्थ करा कर बच्चे का सुख प्राप्त हो सकता है.उन्हें किसी अन्य महिला को गर्भस्थ करने और प्रेगनेंसी के दौरान होने वाले खर्च सहित, उसकी फीस चुकानी होती है.इस प्रकार से प्राप्त बच्चे को किराये की कोख या सेरोगेट मदर की सेवाएं लेने का नाम लिया जाता है.इस प्रकार निःसंतान दंपत्ति के लिए संतान प्राप्त करना संभव हो गया है,और जो धनवान महिलाएं प्रसूति के दौरान होने वाली तकलीफों से बचना चाहती हैं,उनके लिए पैसे के बल पर बिना कष्ट के बच्चा प्राप्त करने का जरिया मिल गया है.
        आज पूरे विश्व में यह व्यापार जोरों से चल रहा है.विश्व के विकसित देशों के दंपत्ति गरीब एशियाई देशों की महिलाओं की सेवाएं ले रहे हैं.कारण,भारत जैसे गरीब देश में मात्र सात हजार डालर किराये की कोख प्राप्त हो जाती जिसके लिए उन्हें अपने देश में पच्चीस हजार डॉलर खर्च करने पड़ते हैं.इस आकर्षण के कारण उपलब्ध आंकड़ो के अनुसार इस फलते फूलते कारोबार से अपने देश को सन २०१२ में २.३ बिलियन डालर की विदेशी मुद्रा प्राप्त होने का अनुमान है.जो भारतीय मुद्रा के अनुसार बारह हजार करोड़ रूपए से भी अधिक रकम बैठती है.उपरोक्त आंकड़े तो सिर्फ एक जानकारी देने मात्र के लिए हैं.ये कोई सेरोगेसी को लाभप्रद साबित करने के लिए नहीं हैं. क्या विदेशी मुद्रा कमाने के नाम पर एक गरीब महिला की मजबूरी का लाभ उठा कर किराये की कोख के व्यापार को उचित माना जा सकता है? क्या कोख किराये पर लेना और बच्चे को किसी अन्य दंपत्ति द्वारा ले जाना महिला का भावनात्मक शोषण नहीं है?तर्क में यह बात भी कही जा सकती है की जब दोनों पक्ष राजी हैं तो किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए.और कानून भी इसके लिए कोई इंकार नहीं करता.इसका उत्तर तो एक भुक्तभोगी महिला ही दे सकती है जब उसे अपने बच्चे को किसी अन्य को सौंपने का समय आता है और भविष्य में भी अपने बच्चे की कोई जानकारी मिल पाने की कोई सम्भावना नहीं होती.अर्थात पैसे के माध्यम से उसके मातृत्व को दांव पर लगाया जाता है.शायद चिकित्सा जगत की उन्नति ने महिलाओं के शोषण का एक नया जरिया खोल दिया.
        यदि हम सिर्फ सेरोगेसी स्वीकार करने वाली महिला की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए सोचते हैं ,तो कुछ हद तक यह उनके जीवन में एक उजाला लेकर आने वाला माध्यम लगता है, जो उन्हें भूखो मरने से निजात दिलाता है .परन्तु जब मानवीय पहलू से सोचा जाये तो यह उसका धन के लिए किया जाने वाला शारीरिक शोषण ही लगता है .अर्थात सेरोगेट मदर बनने वाली महिला की आर्थिक स्थिति ही इस प्रकार के कार्य को स्वीकार करने की मजबूरी है .स्पष्ट है यदि देश में कोई निर्धनता के स्तर से नीचे जीवन यापन करने वाला न हो तो, शायद ही कोई महिला सेरोगेसी को स्वीकार करेगी.जिससे निष्कर्ष निकलता है समस्या सेरोगेसी के चलन में नहीं है बल्कि समस्या हमारे देश या अन्य एशियाई देशो की दरिद्रता में निहित है .सबसे दर्दनाक पहलू जब होता जब वह सेरोगेट मदर बनी महिला अपने बच्चे को अनुबंधित दंपत्ति को सौंपती है .जब तक उसे सभी सुविधाएँ मिलती हैं तो उसे आभास भी नहीं होता की उसने क्या अनुबंध किया है , क्योंकि उसकी दरिद्रता उसे मातृत्व प्रेम के बारे में सोचने ही नहीं देती .वायदे के अनुसार जब उससे उसका बच्चा अलग होता है,यह जानते हुए भी की उसका बच्चा उसे अपने पास रहने से अधिक सुखी जीवन जीएगा ,तब भी उसे जो दर्द होता वह अकल्पनीय है.यदि दुर्भाग्यवश उसका बच्चा मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग पैदा हुआ,और खरीदार दम्पती ने बच्चे को लेने से इंकार कर दिया तो,उसके लिए जीवन भर त्रासदी का रूप ले लेता है.
          यद्यपि हमारे देश में इस समस्या को भयावह बनने से रोकने,और महिलाओं के स्वास्थ्य को ध्यान रखते हुए ,कुछ उपाए  भारत सरकार द्वारा किये गए हैं.२००२ में सेरोगेसी के सन्दर्भ में बने कानून के अनुसार किराये पर कोख की सेवा देने वाली महिला की उम्र कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए.साथ ही किराये पर देने की संख्या को अधिकतम पांच बार तक सीमित किया गया है.अनुबंध में विदेशी खरीदार को बच्चे को अपने देश की नागरिकता दिलाने का आश्वासन भी देना होता है.परन्तु यह कानून सेरोगेसी को रोकने के लिए नहीं है,बल्कि सेरोगेसी की अनुमति देकर, नारी  शोषण को ही   निमंत्रण देता है.
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शनिवार, 24 नवंबर 2012

प्रतिशोध की भावना का कारण----शोषण?


   शोषण और प्रतिशोध की भावना का चोली दामन का साथ है.अक्सर देखने में आता है की प्रत्येक सामाजिक शोषण के पीछे व्यक्तिगत दुश्मनी कम परंपरागत शोषण की भावना अधिक काम करती है. यदि प्रत्येक इंसान अपने स्तर पर ही बदले की भावना का सुख त्याग दे, तो अवश्य ही इंसान समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों,आडंबरों से मुक्त हो सकता है.कुछ ज्वलंत उदहारण प्रस्तुत हैं;
१,मेरी सास स्वयं कोई कार्य करना पसंद नहीं करती थी.वह तो सिर्फ बैठे बैठे मुझे आदेश देती थीमुझ से दिन भर कार्य करवाती थी,मुझ पर अनेक बंदिशें थोपती रहती थी. बात बात पर ताने मारकर मुझे आहत करती रहती थी.मेरे पति को मेरे विरुद्ध भडकाती रहती थी.आज मैं सास बन गयी हूँ,अब मेरा नंबर है,सास का रौब ज़माने का ,तो फिर क्यों न करूं अपनी बहु के साथ? अब यदि मैं सुधारवादी बन जाऊं तो क्या भड़ास निकलने के लिए किसी और जन्म की प्रतीक्षा करूं? यह तो सबका समय आता है, अपनी सास का बदला लेने का. मैं अपनी सास से नहीं उलझ सकती थी.अतः सास के द्वारा किये गए अत्याचारों का बदला लेने का समय आ गया है.

२, मेरे  बहनोई मुझे हर समय नीचा दिखने का प्रयास करता रहता था,वह मेरे से दोयम दर्जे का व्यव्हार करता था.जैसे मैं कोई उसका रिश्तेदार नहीं बल्कि नौकर चाकर हूँ.मैं अपने बहनोई के दामादपने से काफी आहत रहता था, अनेक बार रोते हुए बहन के घर से लौटता था.मेरी शादी में मेरी बहन को भी नहीं भेजा .मेरी शादी के समय बहन बहनोई की अनुपस्थिति सभी घर वालों को नागवार गुजर रही थी.अब मेरी भी शादी हो गयी है मेरे भी दो साले हैं,अब मैं भी एक परिवार का दामाद हो गया हूँ.अब आयेगा मजा चुन चुन का बदले लूँगा.अपने सालों को दिन में तारे न दिखा दिए तो मेरा  भी नाम -----नहीं

३,मेरे पिता तानाशाह पृकृति के रहे हैं.बात बात पर गुस्सा करना,रौब ग़ालिब करना और मुझे बार बार हडकाते रहना उन्हें बहुत भाता है.उनके इस असंगत व्यव्हार से मैं बचपन से आहत रहा हूँ.उनके व्यव्हार के विरुद्ध बोलने की मुझमे हिम्मत नहीं थी.अतः मन मसोस कर ,कडुवे घूँट पीकर रह जाता था.अब मेरा बेटा बड़ा होने लग रहा है.अब तो मेरा रौब चलेगा.अब मैं बोलूँगा और वह सुनेगा.अब मैं उसका बाप हूँ.यही तो समाज का नियम है.

४,जब मैंने मेडिकल कालेज के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया और कालेज जाना प्रारंभ किया.तो कालेज के सीनियर छात्रों ने मेरे साथ कालेज परिसर और होटल में अनेक बार दुर्व्यवहार किया  रेगिंग के नाम पर अनेक प्रकार से परेशान हैरान करते थे.उन्होंने कभी मुझे मुर्गा बना दिया,तो  कभी कीचड में दौड़ने को मजबूर किया,कभी कार्टून बना कर लड़कियों के समक्ष अपमानित किया.कालेज में प्रवेश के पश्चात तीन माह आतंक के साये में कटे.मेरे लिए आतंकी शिविर बन गया था मेरा होस्टल प्रवास.मेरे एक साथी ने तो अमानवीय अत्याचारों से क्षुब्द हो कर आत्महत्या कर ली थी.आज मैं द्वितीय वर्ष का छात्र हो गया हूँ,और मेरे जूनियर कालेज आने वाले हैं,अब मैं भी दिखा दूंगा मैंने क्या क्या सहा था? पिछले वर्ष बल्कि उससे भी अधिक  रुलाउंगा अपने जूनियरों को.मेरे दुःख भरे दिन गए, अब तो बलि का बकरा बनेगा आने वाला नया बैच.जहाँ तक सरकारी कानूनों की बात है अब वह कैसे रोक लेगा जब मैं जुनियर था तब कानून कहाँ था? जब कहाँ थे शासन, प्रशासन?

५, आज जब मैं आफिस पहुंचा तो देखा बॉस का मूड खराब है,उन्होंने मुझे बिना किसी कारण डाटा-धमकाया.शायद अपने घर की किसी परेशानी से दुखी होने के कारण उन्होंने मेरा पूरा दिन खराब कर दिया.मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा था. फिर मैंने भी अपनी भड़ास अपने स्टाफ़ पर निकाल दी,मैंने भी अपने सभी जूनियर स्टाफ को बारी बारी हडका दिया,इस प्रकार से अपने बॉस का बदला अपने स्टाफ से लिया.

६,किसी परिवार में किसी व्यक्ति की हत्या हो जाती है तो बदले में हत्यारे के परिवार के किसी भी सदस्य की हत्या करके मन में उठ रही  प्रतिशोध की ज्वाला को शांत किया जाता है, और यह सिलसिला अंतहीन समय तक जारी रहता है.दोनों परिवार की दुश्मनी परमपरागत दुश्मनी का रूप ले लेती है. इस प्रकार अनेक अपराधों का कारण भी प्रतिशोध होता है.

   शायद उपरोक्त उदाहरणों को पढकर  मेरे विचारों से आप भी सहमत होंगे, की समाज में अत्याचार,दुर्व्यवहार मुख्यतः प्रतिक्रियाओं का न रुकने वाला सिलसिला होता है.यदि मानव हित में हम नियम बना लें की यदि कोई व्यव्हार हमें नापसंद है,तो वह व्यव्हार किसी के साथ न दोहराएँ.तो वास्तव में समाज में अत्याचारों अनाचारों और शोषण का ग्राफ बहुत नीचे आ सकता है.हम तनाव मुक्त शांति युक्त जीवन जी सकते हैं.(SA-73C)
   सत्य शील अग्रवाल, शास्त्री नगर मेरठ 

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

संवेदन हीन होता हमारा समाज

           मानव सभ्यता अपने उद्भव काल के पश्चात् उन्नति के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयी है .उसकी विकास की गति भी तीव्रतम हो गयी है .आज मानव द्वारा किये जाने वाले श्रम -साध्य कार्य मशीनों से कराया जाना संभव हो गया है .दूसरी तरफ उसके मानसिक कार्यों को अधिक तीव्रता से करने के लिए कम्पूटर आ चुका है .विकास के इस उच्च पड़ाव पर जहाँ मानव को अनेक सुख सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं .तो अनेको समस्याओं को भी बल मिला है .जैसे बढती बेरोजगारी ,घटते रोजगार के अवसर ,बढती भौतिकवादी मानसिकता ,गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ,प्रत्येक स्तर पर बढ़ रहे प्रदूषण के कारण व्याधियों का बढ़ता ग्राफ ,अमीर गरीब के मध्य बढती खाई ,साथ ही समाज में निरंतर बढ़ रही मानवता के प्रति सम्वेदनहीनता . विकास की भागम भाग में मनाविये संवेदनाएं ,भावनाए विलुप्त होती जा रही हैं ,जो एक भयानक और भावी कष्टकारी जीवन की ओर संकेत कर रही है .यदि मानव समाज से सहानुभूति ,संवेदनाएं ,भावनाए निकाल दी जाएँ तो मानव समाज और अन्य वन्य जीवों में कोई अंतर नहीं रह जायेगा .आज मानव स्वयं एक रोबोट की भांति होता जा रहा है . जिसमे कार्य करने की तो अदभुत क्षमता होती है ,परन्तु भावनाओं से उसका कोई लेना देना नहीं होता .अतः मानव सभ्यता को बचाने के लिए मनाविये संवेदनहीनता के कारणों पर चिंतन करना आवश्यक हो गया है .कहीं ऐसा न हो भौतिक उन्नति करते करते हम सामजिक पतन को न्योता दे दें .जो हमारी भौतिक उपलब्धियों को निरर्थक कर दे . मानव समाज में बढ़ रही संवेदन हीनता के कारणों को समझने का प्रयास इस लेख के मध्यम से किया जा रहा है .---------
 वर्तमान में इन्सान इतना व्यस्त हो गया है यदि यात्रा करते समय ट्रेन ,बस या किसी अन्य वाहन से कोई दुर्घटनाग्रस्त दिखाई देता है तो उस घायल व्यक्ति या व्यक्तियों को आवश्यक सहायता देने या चिकित्सालय तक ले जाने का समय हमारे पास नहीं होता .अनेको बार दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की समय पर इलाज न मिल पाने के कारण मौत हो जाती है .जो हमारी संवेदन हीनता का प्रतीक है .
      अपने स्वार्थ के कारण (आर्थिक स्वार्थ )समाज के साथ साथ अपने परिजनों के प्रति भी संवेदन हीन होते जा रहे हैं .प्रथम श्रेणी के रिश्तो अर्थात भाई भाई ,भाई बहन ,पिता पुत्र में भी अपनापन समाप्त होता जा रहा है .वह अपने जीवन स्तर के आधार पर ही रिश्तेदारों या परिजनों से सम्बन्ध रखना चाहता है .इस प्रकार से परिवारों में बिखराव आ रहा है . इस दुनिया में व्यक्ति अकेला होता जा रहा है , और मानसिक रूप से असुरक्षित हो गया है .क्योंकि प्रत्येक ख़ुशी भी बिना परिजनों के अधूरी होती है .और दुःख में परिजनों से ही मानसिक शक्ति प्राप्त होती है .शायद भौतिक सुखों की प्राप्ति पर ध्यान केन्द्रित करते करते हम मानसिक असंतोष को न्योता दे रहे हैं .
      समाज की प्रथम इकाई परिवार में पति और पत्नी परिवार रुपी गाड़ी के दो पहिये होते हैं .यदि दोनों पहिये आपस में सामंजस्य बना कर नहीं चल सकते , तो परिवार के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है .परन्तु आज उनमे भी मानसिक लगाव का अभाव हो रहा है .उनमे आपसी संबंधों में स्वार्थ और दौलत का नशा झलकने लगा है .अतः तलाक की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही है .पत्नी को गंभीर बीमारी से ग्रस्त पा कर पति कही और घर बसा लेता है ,या पति की विपन्नता से तंग आ कर पत्नी धनवान प्रेमी के साथ भागने में नहीं हिचकिचाती
      .आज छोटे छोटे स्वार्थ के टकराव तलाक के कारण बन रहे हैं .जो कभी सिर्फ पाश्चात्य देशों में ही होता था .दूरदर्शन के धारावाहिकों में प्रदर्शित होने वाले , व्यभिचार और सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना कहीं न कहीं हमारे समाज की वर्तमान स्थिति को परिलक्षित करते हैं .यह तो निश्चित है पारिवारिक सुख शांति के अभाव में सभी भौतिक उपलब्धियां महत्वहीन हैं .
           विकास के इस दौर में आ रही सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण प्रत्येक व्यक्ति के मन में इर्ष्या ने जन्म ले लिया भाई हो या बहन या कोई अन्य सम्बन्धी , मित्र ,पडोसी या जानकार, इर्ष्या के अनेक कारण हो सकते हैं ,जैसे रहन सहन या जीवन शैली में भारी अंतर ,पारिवारिक स्थिति में अंतर यानि किसी के पुत्र के रूप में संतान अधिक या कम होने का ,शिक्षा स्तर या पद में अंतर ,इत्यादि अर्थात इर्ष्या का कारण कोई भी,किसी भी प्रकार की आपसी तुलना हो सकती है.अब यदि कोई परिचित,रिश्तेदार या मित्र किसी बीमारी से ग्रस्त हो जाता है , दुर्घटना का शिकार हो जाता है ,अथवा किसी मुसीबत में फंस जाता है तो हम उससे सहानुभूति कम इर्श्या वश खुश अधिक होते हैं,.कभी कभी तो सोचते हैं अच्छा हुआ इसके साथ तो ऐसा ही होना चाहिए था,बड़ा घमंड था या बहुत अकड़ता फिरता था.जब इस प्रकार की मानसिकता हो गयी हो तो अपनापन का का अहसास कैसे हो पायेगा ? सबके मन में प्रतिद्वंद्विता और इर्ष्या ने घर बना लिया हैऔर सिर्फ अपनी उन्नति के लिए स्वार्थी हो चुके हैं. अपने आर्थिक हितों के लिए अपने प्रियतम व्यक्ति से भी दूर रहने में कोई झिझक नहीं रह गयी है.और अपने प्रिय व्यक्ति भी अपने अपने दुखों से कम उसके सुखों से दुखी अधिक होते हैं. परिवार और समाज का सुख समाप्त होता जा रहा है.इस प्रकार इर्ष्या ने हमें संवेदनहीन और रूखा बना दिया है .
       सम्वेदनहीनता के कारण मानव द्वारा मानव का ही शोषण किया जा रहा है , जैसे बाल मजदूरी द्वारा , महिला के साथ दुर्व्यवहार ,उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग का शोषण ,पुत्र के पिता का उसकी पत्नी के पिता का शोषण ,(बेटे के बाप द्वारा बेटी के बाप का शोषण )धर्म के नाम पर आतंक द्वारा मानव जाति का शोषण इत्यादि ,घटते जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं . नए से नए हथियारों के उत्पादन कर बड़े बड़े भंडार बनाये जा रहे हैं . एक देश दूसरे देश का शोषण करने के उपाए ढूंढता है ,हथियारों के बल पर अपने स्वार्थ सिद्ध करता है ,उन्नति और विकास के नाम पर मानव अपनी कब्र स्वयं खोद रहा है .
          हमारे देश के सन्दर्भ में ;
 विकसित देशों की तर्ज पर हमारे देश के लोग भी सम्वेदनहीन होते जा रहे हैं ,स्वयं को तटस्थ (reserve)करते जा रहे हैं
        क्या हमारे देश की शासन व्यवस्था विकसित देशों की भांति कर्तव्य परायण है ?जहाँ पर प्रत्येक दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की जिम्मेदारी स्वयं प्रशासन सम्भालता है .उसको सही समय पर सही इलाज कराने को तत्पर रहता है.
          जहाँ पर कानून और न्याय की सेवाएं कम से कम समय में बिना किसी पक्षपात के उपलब्ध होती हैं .जहाँ आम आदमी कानून की अवहेलना करने या अपराध करने का साहस नहीं जुटा पता .
           जहाँ सरकारी हो या निजी अस्पताल मरीज के इलाज के लिए प्रशासन स्तर पर पूर्ण जिम्मेदारी उठाते हैं उसे तीमार दारों   की या सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती ,निजी अस्पताल मरीज के साथ लूटने की मंशा से बिल नहीं बनाते .
        क्योंकि हमारे नौकर शाही तंत्र भ्रष्ट है कोई भी व्यक्ति अपने कार्य के प्रति ईमानदार नहीं है हर क्षेत्र में दबाव या शक्ति प्रदर्शन आवश्यक होता है . यदि कोई व्यक्क्ति समाज से कट कर अपने धन संग्रह में लिप्त रहता है तो जहाँ विदेशों में उसको भले ही अपने लोगों की कमी न खले , परन्तु अपने देश के नागरिक के लिए अभिशाप बन जाता है .हम अभी ऐसे विकसित देश की व्यवस्था नहीं बना पाए हैं जहाँ व्यक्ति अपने आप में पूर्णतयःआत्मनिर्भर हो गया है ,उसकी संवेदनहीनता उसे अधिक परेशान नहीं करती . क्योंकि वह अपने कर्तव्यों को ठीक प्रकार से निर्वहन करता है . अतः हमारे देश के लिए संवेदन हीनता के व्यव्हार हमें शीघ्र ही ले डूबेगा .जहाँ व्यक्ति असुरक्षित हो उसे संगठित होकर रहना ही उसके हित में है. अतः इन्सान को विकास की आधुनिक भागदौड के साथ साथ भावनाओं और संवेदनाओं की रक्षा करने के उपाए भी करने होंगे तन मन धन से अपने संबंधो को सींचना होगा .सभी भौतिक उपलब्धियों का उद्देश्य मानव कल्याण और सुख शांती को बनाना होगा मानव जाति का भविष्य जब ही सुखद हो सकता है जब हम आत्मीयता ,मेल जोल , भाई चारा ,और संवेदनाओं को साथ लेकर चलें.(SA-G4-79)
 सत्य शील अग्रवाल,शास्त्री नगर मेरठ

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

कैसे बने मधुर सास-बहू सम्बन्ध

   किसी भी संयुक्त परिवार में सास एवं बहु अधिकतम समय एक दूसरे के साथ व्यतीत करती हैं,क्योंकि दोनों पर ही घर के कामकाज की जिम्मेदारी होती है. घर में अशांति का मुख्य कारण भी सास एवं बहू के कटु सम्बन्ध होते हैं. इनके मध्य विवादों के कारण अनेक परंपरागत प्रथाएं तो होती ही हैं,अनेकों बार घर की बुजुर्ग महिला यानि सास का अपरिपक्व व्यव्हार भी विवादों का कारण बनता है. सास का आत्मसम्मान उसे तनावयुक्त बना देता है.वह बहू के आगमन को अपने प्रतिद्वंद्वी के आगमन के रूप में देखती है, और उसके आगमन से उसे अपना बर्चस्व घटता हुआ दीखता है. इसी भय की प्रतिक्रिया स्वरूप सास अपनी बहु को नीचा दिखने के उपाय सोचती रहती है. अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए घर के सारे श्रम साध्य कार्य बहू को सौंप देती है, और अपने आदेशों का पालन करने के लिए दबाव बनाती है.अपना रौब ज़माने के लिए उस पर तानाकशी का सहारा लेती है, उसको अपने प्रभाव में बनाये रखने के लिए अपने बेटे के मन में उसके प्रति जहर भरती रहती है ताकि बहु उसकी कृपा पर निर्भर हो जाये, साथ ही बेटे के मन में अपनी माँ की अहमियत बनी रहे. ऐसे दोगले व्यव्हार के कारण बहु सास के प्रति बागी हो जाती है.और परिवार में तनाव बढ़ने लगता है.दूसरी तरफ दूसरे घर से आने वाली बहु भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही होती है.वह भी चाहती है की उसकी बातों का भी परिवार में महत्त्व हो,उसकी इच्छाओं की भी कद्र हो, परिवार के निर्णयों में उसका भी दखल हो.वह भी कहीं न कहीं अपना बर्चस्व बनाने की आकांक्षा रखती है.मुख्तया बर्चस्व की लड़ाई ही सास बहु के बीच टकराव पैदा करती है सास बहु के सम्बन्ध मधुर बने रहने के लिए सास के व्यव्हार में उदारता, धैर्यता,और त्याग का भाव होना आवश्यक है.अपने सभी प्रियजनों को माएके छोड़ कर आयी बहू को प्यार भरा व्यव्हार ही नए परिवार के साथ जोड़ सकता है, उसे अपनेपन का अहसास करा सकता है.और उसके मन में सम्मान और सहयोग की भावना उत्पन्न कर सकता है.बहु को सिर्फ काम करने वाली मशीन न समझ कर परिवार का सम्माननीय सदस्य माना जाये,उसके विचारों ,भावनाओं को महत्त्व दिया जाये,उससे परिवार के विशेष फैसलों में सलाह ली जाय,तो परिवार की सुख शांति बनी रह सकती है.यदि सास घर के सारे काम बहू को न सौंप कर स्वयं भी उसके हर कार्य में सहयोग करती रहे तो उसका स्वयं का स्वास्थ्य भी बना रहेगा और परिवार का वातावरण भी मधुर बना रहेगा. क्योंकि शरीर को स्वास्थ्य रखने के लिए इसे सक्रिय रखना आवश्यक है, निष्क्रिय शरीर जल्द बीमारियों का घर बन जाता है.तो फिर क्यों न काम काज में सक्रिय रह कर अपने शरीर को स्वस्थ्य रखा जाय और परिवार में मधुर वातावरण भी बना रहे.सास का शालीन,धैर्य व् उदारता पूर्ण व्यव्हार,और परिजनों के प्रति त्याग की भावना हो तो अवश्य ही परिवार में सुख और शांति का वास होगा.बहू को अपनी पुत्री के समान प्यार देकर ही सास अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकती है. सास को यह नहीं भूलना चाहिए की वह भी कभी बहू बन कर ही इस परिवार में आयी थी .जो बातें उसे बहु के रूप में अपनी सास की बुरी लगती थीं ,असहनीय लगती थीं,वे बातें अपनी बहू के साथ न दोहराय. कुछ बातें तुम्हारी भी ससुराल वालों ने सहन की होंगी अतः अब तुम्हारी बारी है अपना बड़प्पन दिखने की. छोटी छोटी गलतियों पर उसका अपमान न कर क्षमा करने की प्रवृति होनी चाहिए. जिस प्रकार सास की जिम्मेदारी बड़े होने के नाते बनती है, उसी प्रकार युवा,ऊर्जावान बहू को अपने ससुराल वालों का मन जीतने की आकांक्षा होनी चाहिए. उसे यह भली प्रकार से समझना चाहिए ससुराल में किसी परिजन से (बच्चो को छोड़ कर )उसका खून का रिश्ता नहीं होता, अतः सभी परिजनों के कामकाज में सहयोग देकर ,उनके साथ शालीनता का व्यव्हार कर.उन्हें प्यार और सम्मान देकर ही उनके मन में और परिवार में अपनी जगह बनायीं जा सकती है.पुत्र वधु का कर्तव्य है की वह अपने सास ससुर को माता पिता की भांति स्नेह और सम्मान दे, उनके प्रत्येक कार्य में सहयोग दे. यदि उनके व्यव्हार तानाशाह पूर्ण और अमानवीय नहीं है तो उन्हें पूजनीय मानना चाहिए. उन्हें स्नेह और सम्मान देकर वह अपने पति के दिल को जीत सकती है. एक पत्नी के लिए उसका प्यार उसका पति होता है अतः उसके(पति के) प्यारे यानि उसके माता पिता भी तो पत्नी के प्यारे ही हुए.
 यदि बहु अपने सास ससुर के साथ कुछ निम्न लिखित बातों को अपनाएं तो अवश्य ही वे सबके दिल जीतने में कामयाब हो सकती हैं.
 १,बुजुर्गों के जन्म दिन,विवाह वर्षगाँठ आदि पर उनकी पसंद के फूल अथवा उनकी प्रिय वस्तु भेंट करें जैसे उनके मन पसंद गानों की सी.डी या डी.वी डी.या फिर उनकी पसंदीदा कोई किताब आदि. ऐसे अवसरों पर उन्हें केंडिल डिनर पर ले जाएँ अथवा घर पर उनकी मन पसंद डिश तैयार करें. उनके चहरे पर आने वाली मुस्कान एवं संतोष आपको गौरवान्वित करेगी.और उनके दिलों में आपके लिए प्यार व् स्नेह बढ़ेगा.
 २,थोडा समय निकाल कर परिवार के बुजुर्गों के साथ बैठकर समय व्यतीत करें,उनकी भावनाओं को समझें उनकी शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं को सुनें, उनकी पुरानी यादों को शेयर करें. इस प्रकार से उनके मन का बोझ हल्का होगा. 
३,अपने बच्चों से अपने दादा दादी के साथ समय देने का आग्रह करें.बच्चों को उनके ज्ञान का लाभ मिलेगा, वहीँ बुजुर्ग को परिवार में अपना महत्त्व दिखाई देगा. साथ ही बच्चों की अटपटी हरकतों ,शरारतों से उनका मनोरंजन भी होगा .
 ४,अपने कार्यों एवं व्यव्हार द्वारा उनका दिल जीत कर उनके अनुभवों का लाभ उठा सकती है और परिवार को खुशियों से भर सकती हैं.कठिन परिस्थितियों में भी बुजुर्गों का अनुभव और उनकी सलाह सहायक सिद्ध हो सकते हैं. 
५,जब कभी बुजुर्ग तानाशाही और दखलंदाजी वाली प्रवृति रखते हैं तो विषेश संयम एवं धैर्य का परिचय देना होता है. ऐसे बुजुर्गों के साथ बहस न करें,किसी भी टकराव की स्थिति से बचें और जो भी संभव हो अधिकतम अपने कर्तव्यों का पालन करती रहें. मन को व्यथित करे बिना उनके स्वभाव को उसी प्रकार अपनाने का प्रयास कर अपना व्यक्तिगत पारिवारिक जीवन कलुषित होने से बचाएं. अवांछनीय सन्दर्भों में दूरी बनाने का प्रयास करें. 
जिस प्रकार से बहू के लिए कुछ व्यव्हार परिवार के लिए लाभप्रद हो सकते हैं उसी प्रकार सास के लिए कुछ व्यव्हार परिवार की शांति बनाये रख सकते हैं.जो निम्न प्रकार से हैं.
१, बहु की तानाकशी करने से बचें, कोई त्रुटी नजर आने पर उसे प्यार से समझाएं यदि वह आपकी सलाह को उपयुक्त नहीं मानती तो दोबारा उसे न दोहराएँ.
 २,पोती-पोतों को प्यार दें, उनकी परवरिश में यथा संभव बहू को सहयोग करें.
 ३,घर के कामकाज में अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग करें. अपनी उपस्थिति उनके लिए लाभदायक सिद्ध करें. 
४.बहू के माएके वालों का पूर्ण सम्मान करें,प्यार दें,समय समय पर बहू को माएके वालों से मिलने के अवसर प्रदान करें. उसके माएके वालों का अपमान कभी न करें.उनका अपमान का अर्थ है बहू के मन में अपने प्रति कडुवाहट पैदा करना,अपने प्रति सम्मान को कम करना.
५,बहू के माएके से यदि कोई उपहार आता है तो उसे नतमस्तक होकर अपनाएं,उसमें त्रुटियाँ निकाल कर बहू का अपमान न करें.
 उपरोक्त छोटी छोटी बातों का ध्यान रखा जाय तो परिवार का वातावरण सहज, सुखद, एवं शांतिपूर्ण बन सकता है.परिजनों में आपसी प्रेम एवं सहयोग बना रह सकता है.

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

निश्छल और पारदर्शी व्यक्तित्व का महत्त्व

निश्छल और पारदर्शी व्यक्तित्व का महत्त्व शिक्षा के प्रचार –प्रसार के साथ साथ इन्सान की तर्कशक्ति भी बढती जा रही है .जिसने इन्सान की उन्नति के अनेकों नए आयाम खोले हैं ,वहीँ पर बढती प्रतिस्पर्द्धा एवं बढ़ते भौतिकवाद ने उसे कपटी ,बेईमान ,स्वार्थी जैसे गुणों से अलंकृत भी किया है . आज सिद्धांतों पर आधारित जीवन जीने की चाह रखने वाला व्यक्ति भयाक्रांत रहता है . कहीं उसे इस अनैतिकता भरे समाज में हाशिये पर न धकेल दिया जाय . उसे लगता है आज एक व्यक्ति की उन्नति की राह उसकी शैक्षिक योग्यता से भी अधिक चतुर , चालक ,कपटी ,स्वार्थी जैसी योग्यता में निहित हो गयी है .अर्थात सिद्धांत वादी व्यक्तित्व योग्यता का मापदंड बनता जा रहा है . आज भी बुजुर्ग समाज में अनेक व्यक्ति ऐसे मौजूद हैं जिन्होंने अपना जीवन इमानदारी ,निष्कपट एवं पारदर्शिता के आधार पर व्यतीत किया है .शायद इसी कारण वे अपने जीवन में ऊंचाइयों को नहीं छू सके . शायद उनकी संतान उन्हें दुनिया में जीने के लिए योग्य भी करार दे ,क्योंकि उसके लिए सिद्धांतों के आधार पर जीना असंभव हो चुका है .या यह कहा जाय आज की बढती महत्वाकांक्षाओं के कारण सिद्धांतो पर डटे रहना बीते दिनों की बातें लगने लगी हैं . ऐसा नहीं है की सभी लोग सिद्धान्तहीन हो गए हैं ,या पहले सभी लोग सिद्धांतवादी होते थे .अंतर यह है की पहले सिद्धांतवादी अधिकतर लोग होते थे और सिद्धांत हीन कम लोग होते थे परन्तु आज सिद्धान्तहीन लोगों की बहुतायत हो गयी है और सिद्धांतवादी लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं . यह एक कडुवा सच है की इन्सान का और मानवता का विकास इमानदारी ,पारदर्शिता ,सच्चाई के बिना संभव नहीं है .हमारा समाज कितना भी अनैतिक हो जाय आदर्श और सिद्धांतों का महत्त्व काम नहीं हो सकता . सिद्धांत हमेशा ही प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे .बिना इमानदारी और सच्चाई के आज भी आम जीवन संभव नहीं है .क्योंकि प्रत्येक सिद्धान्तहीन व्यक्ति को भी कहीं न कहीं इमानदारी का साथ निभाना पड़ता है .इस सन्दर्भ को कुछ उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है . जैसे रिश्वत लेना एक सामाजिक अपराध है ,और गैरकानूनी भी है परन्तु हर रिश्वत खोर व्यक्ति या भ्रष्टाचारी जिससे रिश्वत का लाभ प्राप्त करता है उसके कार्य को इमानदारी से पूर्ण करता है यदि किसी कारण वह कार्य पूर्ण नहीं कर पता तो वह पूरी इमानदारी से रिश्वत की रकम को लौटा देता है .अर्थात रिश्वत प्रदाता के साथ बफदारी और ईमानदारी निभाता है .इसी प्रकार से कानून की निगाह में अवैध कार्य करने वाले व्यापारी अपने लेन देन में पूरी इमानदारी रखते हैं .एक डकैत जो पेशे से खूंखार और हिंसक होता है वह भी अपने कुछ सिद्धांतों का पालन करता है ,हर परिस्थिति में निभाता है .व्यापार ,या उद्योग चलाने वाला कितना भी दुष्ट या अपराधी क्यों न हो अपने ग्राहकों के लिए पूर्णतयः ईमानदार ,बफादार और पारदर्शी रहता है या रहने को मजबूर होता है .अन्यथा उसका कारोबार चल पाना संभव नहीं होता .उसे आम आदमी के समक्ष अपनी छवि को उज्जवल ही रखना होता है .क्योंकि गुंडागर्दी , बेइमानी और दुष्टता के बाल पर कोई भी कारोबार संभव नहीं है .नेता लोग कितने भी भ्रष्ट क्यों न हो जाएँ ,जनता के समक्ष उन्हें बेहद बफादार और ईमानदार होने का ढोंग ही करना पड़ता है .जनता से वोट प्राप्त करने के लिए ईमानदार दिखना आवश्यक है .बिना सड़क के नियमों ,कानूनों का इमानदारी से पालन किया , अपने को सड़क पर सुरक्षित रहा पाना संभव नहीं है . उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट है की सिद्धांतों के बिना कुछ भी संभव नहीं है .छल ,कपट ,बेइमानी क्षणिक लाभ तो दे सकते है परन्तु दीर्घावधि तक इसी व्यव्हार से जीवन चला पाना आसान नहीं होता .जो व्यापरी इमानदारी और उच्च आदर्शों के सहारे अपना व्यापार चलते हैं वे ही व्यापार में सर्वाधिक ऊंचाइयों पर पहुँच पाते हैं .जो नेता देश भक्ति और ईमानदारी ,पारदर्शिता को अपनाते हुए देश का नेत्रित्व करते हैं वे ही देश को उत्थान की ओर अग्रसर कर सकते हैं . वर्तमान समय में किसी भी हिंसक ,बेईमान ,धोखेबाज को अधिक साधन संपन्न देखा जा सकता है परन्तु वे हमेशा कानूनी भय ,या सामाजिक अपराध बोध से त्रस्त रहते हैं .मानसिक तनाव हमेश बना रहता है .जबकि निष्कपट ,इम्मंदर ,सच्चा व्यक्ति आत्म संतोष की पूँजी के साथ सुखी रहता है .यह भी कडुवा सत्य है वर्तमान परिस्थिति में किसी व्यक्ति को अपने सिद्धांतों पर अडिग रहा कर जीवन चलाना आसान नहीं होता ,उसका जीवन एक तपस्या बन जाता है .परन्तु जो आत्म संतोष उसे प्राप्त होता है वह सबसे बड़ा धन है . अतः निश्छल , ईमानदारी ,पारदर्शिता का महत्त्व कभी ख़त्म नहीं होने वाला.

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

विश्व में आर्थिक असमानता क्यों ?


पृथ्वी पर समय के साथ सिर्फ मानव ही ऐसा जीव है जो अपनी बुद्धि के बल पर विकास कर सका, और दुनिया के हर क्षेत्र पर अपना अधिपत्य जमा लिया. विकास यात्रा में वह लौह युग से चल कर जेट युग और फिर कंप्यूटर युग में प्रवेश कर गया.अफ़सोस यह है की आज भी अनेक देशों के करोडो लोग ऐसे हैं जिन्हें जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए साधन उपलब्ध नहीं हैं. कुछ लोगों को तो दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती, जबकि एक वर्ग ऐसा भी है जो आवश्यकताओं से अधिक साधनों से संपन्न है.इसी प्रकार विश्व में अनेक देश कहीं अधिक संपन्न है जो अपने नागरिकों की सभी आवश्यकताओं को पूरा कर पाने में सक्षम हैं.और कुछ देश बहुत गरीब हैं.जहाँ हर वर्ष भूख से अनेकों जानें चली जाती हैं.
उन देशों के प्रत्येक नागरिकों का जीवन स्तर एवं देश का बुनियादी ढांचा अन्य गरीब या अविकसित देशों के मुकाबले जमीन असमान के अंतर लिए हुए है.ये देश विकसित दशों की श्रेणी में आते हैं और अन्य देशों को गरीब मुल्क कहा जाता है.
आखिर विकसित देशों और अविकसित देशों में ऐसा क्या है जो इतना बड़ा अंत दिखाई देता है, क्यों कुछ देश पहले विकसित हो गए और अन्य देश अपने नागरिकों के लिय भोजन की व्यवस्था भी नहीं कर पाए . इतनी बड़ी खाई (असमानता) का कारण क्या है. क्या गरीब मुल्कों के पास प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है ?क्या गरीब मुल्कों के लोग महनत नहीं करना चाहते?क्या गरीब मुल्क में बुद्धिमान लोग पैदा नहीं होते. आखिर क्यों विकसित देशों के मुकाबले में विकसित नहीं हो पाए.क्या वे अनुसन्धान कर पाने में अक्षम हैं? क्या उन देशों की बढती आबादी देश को विकसित होने में रूकावट बन रही है? क्या उन देशों की जलवायु या प्राकृतिक वातावरण उन्हें पनपने नहीं देता?
उपरोक्त सभी प्रश्नों का उत्तर सिर्फ है. मानवीय विकास में असमानता क्यों? कारण है जो विकसित देश हैं वे या तो धनवानों द्वारा बसाये गए वे मुल्क हैं, जो स्थानीय जाति को नष्ट कर स्वयं काबिज हो गए, दूसरे वे देश हैं जिन्होंने सैंकड़ों वर्षों तक विश्व के अनेक देशो को गुलाम बनाकर रखा और उनकी धन दौलत से अपने देशों को मालामाल कर दिया अर्थात गुलाम देशों के वाशिंदों द्वारा की गयी कमाई ने इन देशों को आमिर बना दिया.वर्तमान सन्दर्भ में जब विश्व में लगभग सभी देश स्वतन्त्र हो गए हैं तो भी विकसित देश अनेक अड़ंगे लगा कर उनको विकसित होने से रोकते हैं या वे अपनी धन दौलत का रोब जमा कर कुछ विकास शील देशो को उभरने से रोकते रहते है, दो विकास शील देशों को आपस में लडवा कर अपना उल्लू सीशा करते हैं..अब कई देश, अपने दम पर विकास की ओर धीरे धीरे लौटने लगे हैं और अब ऐसा लगता है की विश्व में समानता परचम शीघ्र ही लहराएगा.परन्तु विश्व में असामनता का मुख्य कारण कुछ देशों द्वारा अपनाये जा रहे अमानवीय कार्य हैं.जो मानवता के अभिशाप बने हुए हैं.विकसित देशों को मानवता के दायरे में सोच कर पूरी मानव सभ्यता के कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए.