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बुधवार, 14 सितंबर 2016

क्या हिंदी देश की सर्वमान्य भाषा बन पायेगी?

 सैंकड़ो  वर्ष पूर्व जब अंग्रेजों  ने हमारे देश पर शासन स्थापित कर लिया , तो उन्हें शासकीय कामकाज के लिए  क्लर्क तथा अन्य छोटे स्टाफ की आवश्यकता थी,जो अंग्रेजी में कार्य कर उन्हें सरकारी कामकाज में  मदद कर सकें। उन दिनों देश में शिक्षा का प्रचार प्रसार बहुत कम था. अतः उन्होंने अपनी  स्वार्थपूर्ती  के लिए अनेक स्कूलों  की स्थापना की. जिसमें सिर्फ अंग्रेजी की पढाई पर विशेष ध्यान दिया गया. स्थानीय भाषाओँ एवं हिंदी या अन्य विषयों की पढाई  पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. अतः जन मानस में शिक्षित होने का अर्थ हो गया,जो अंग्रेजी का ज्ञाता हो,अंग्रेजी धारा प्रवाह  बोल सकता हो वही व्यक्ति शिक्षित है.यदि कोई व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जनता, तो उसका अन्य विषयों में ज्ञान होना, महत्वहीन हो गया, यही मानसिकता आजादी के करीब सत्तर वर्ष  पश्चात् आज भी बनी हुई है.
वैश्विकरण के वर्तमान युग में हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का, अंतर्राष्ट्रीय  भाषा  होने के कारण दबदबा बढ़ता जा रहा है, यह एक कडवा सच है की आज यदि विश्व स्तर पर अपने अस्तित्व को बनाये रखना है और विकास  की दौड़ में शामिल होना है ,तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा  अंग्रेजी  से विरक्त होकर आगे बढ़ना संभव नहीं है. देश  में  स्थापित  अनेक  विदेशी  कम्पनियों  में  रोजगार  पाने  के  लिए   अंग्रेजी पढना समझना आवश्यक हो गया है,साथ ही दुनिया के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखना जरूरी है.परन्तु  अंग्रेजी  के  साथ  साथ  हिंदी  के  महत्त्व   को  भी  नहीं  नाकारा  जा  सकता .राष्ट्र  भाषा  के  रूप  में  हिंदी  के  विकास  के  बिना  दुनिया  में  देश  की  पहचान  नहीं  बन  सकती  .राष्ट्रभाषा हिंदी  ही  देश  को  एक  सूत्र  में   बांधने   का  कार्य  कर  सकती  है.
असली समस्या जब आती है जब हम अपने अंग्रेजी  प्रेम के लिए अपनी मात्र भाषा या राष्ट्र भाषा की उपेक्षा  करने लगते हैं.यहाँ  तक की अहिन्दी भाषियों द्वारा ही नहीं बल्कि हिंदी भाषियों द्वारा भी हिंदी को एवं  हिंदी में वार्तालाप करने वालों को हिकारत की दृष्टि से देखते हैं ,उन्हें पिछड़ा हुआ या अशिक्षित समझते है.सभी सरकारी विभागों जैसे पुलिस विभाग,बैंक,बिजली दफ्तर,आर टी ओ इत्यादि में अंग्रेजी बोलने वाले को विशेष प्रमुखता  दी जाती है,जबकि हिंदी में बात करने वाले को लो प्रोफाइल का मान कर उपेक्षित  व्यव्हार किया जाता है.यह व्यव्हार हमारी गुलामी मानसिकता को दर्शाता  है. जो  अपने देश के साथ अन्याय है,अपनी राष्ट्र भाषा का अपमान है. क्या हिंदी भाषी व्यक्ति विद्वान् नहीं हो सकता? क्या सभी अंग्रेजी के जानकार बुद्धिमान  होते हैं.?सिर्फ  भाषा  ज्ञान   को  किसी  व्यक्ति  की   विद्वता  का  परिचायक  नहीं   माना   जा   सकता. अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करना गलत नहीं है परन्तु हिंदी को नकारना शर्म की बात है.
अपने  देश  की  भाषा  हिंदी  को  राष्ट्र  भाषा  का  स्थान  देने  से  ,उसको  अपनाने  से  सभी  देशवासियों  को  आपस  में  व्यापार  करना  भ्रमण  करना  और  रोजगार  करना  सहज  हो  जाता  है  साथ  ही    हिंदी भाषा  का ज्ञान उन्हें भारतीय होने का गौरव प्रदान करता है  और   उनकी  जीवनचर्या  को सुविधाजनक बनाता  है.यदि कोई भारतवासी अपने ही देश के नागरिक से संपर्क करने के लिए विदेशी भाषाओँ का सहारा लेता है,तो यह राष्ट्रिय अपमान है शर्म की बात है. अतः हिंदी में बोलने,लिखने समझने की योग्यता प्रत्येक भारतवासी के लिए   गौरव की बात भी है.
आज भी हम अंग्रेजी को पढने और समझने को क्यों मजबूर हैं, इसका भी एक  कारण है ,उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है,मान लीजिये हम किसी बड़े  कारोबारी,व्यापारी या दूकानदार से व्यव्हार करते है (जिसे हम एक विकसित देश की भांति मान सकते हैं)तो हम उसकी समस्त शर्तों को सहर्ष स्वीकार कर लेते है,जैसे उसके द्वारा लगाये गए समस्त सरकारी टेक्स,अतिरक्त चार्ज के तौर पर जोड़े गए पैकिंग,हैंडलिंग डिलीवरी चार्ज को स्वीकार कर लेते हैं,यहाँ तक की जब किसी बड़े रेस्टोरेंट का  मालिक, ग्राहक को अपना सामान देने से पूर्व कीमत देकर टोकन लेने के लिए आग्रह करता है, तो हम टोकन लेने के लिए पंक्ति में लग जाते है,मेरे कहने का तात्पर्य  है की हम उसकी समस्त शर्तो को मान लेते है,उसकी शर्तों पर ही उससे लेनदेन करते है,परन्तु जब हम किस छोटे कारोबारी या दुकानदार( अल्प विकसित या विकास शील देश की भांति) के पास जाते है तो वहां पर उसे हमारी सारी  शर्ते माननी पड़ती हैं,अर्थात वह हमारी सुविधा के अनुसार व्यापार  करने को मजबूर होता है.वहां पर हमारी शर्तें प्राथमिक हो जाती हैं.
इसी प्रकार जब हमारा देश पूर्ण विकसित हो जायेगा तो विदेशी व्यापारी  स्वयं हमारी भाषा हिंदी में व्यापार करने को मजबूर होंगे।फिर सभी देश हमारी शर्तों पर हमसे व्यापार करने को मजबूर होंगे. हमें अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा पढने  की मजबूरी नहीं होगी।  तत्पश्चात हिंदी भाषा सर्वमान्य ,राष्ट्रव्यापी भाषा बन जाएगी।प्रत्येक भारत वासी के लिए हिंदी का अध्ययन करना उसके लिए आजीविका का साधन होगा और  उसके लिए गौरव का विषय होगा।परन्तु देश के विकसित होने तक  हमें  अपनी  राष्ट्र  भाषा  हिंदी  को  अपनाना,  सीखना,  समझना  होगा,उसे पूर्ण सम्मान देना होगा.तब  ही  हम  अपने  लक्ष्य  को  प्राप्त  कर  पाएंगे.

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

कन्या भ्रूण हत्या के वास्तविक कारण

       आजकल मीडिया सोशल हो, इलेक्ट्रॉनिक हो या फिर प्रिंट मीडिया सभी में भ्रूण हत्या को लेकर बहुत ही शोर शराबा होता रहता है. महिला, पुरुष के गिरते अनुपात को लेकर भयावह तस्वीर नजर आती है,जो वास्तव में विचारणीय भी है.  यह सर्वविदित है वर्तमान में देश में एक हजार पुरुषों के सापेक्ष महिलाओं की संख्या मात्र 914 है. अल्ट्रा साउंड की नयी तकनीक ने इस समस्या को और भी बढ़ा दिया है.जिसके माध्यम से माता पिता बच्चे के लिंग की पहचान कर पाते  हैं और अपनी इच्छा के विरुद्ध लिंग वाले बच्चे को विकसित होने से रोक देते हैं. यद्यपि देश में गर्भस्थ शिशु के लिंगपरीक्षण  और कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध कड़ा कानून बनाया गया है.फिर भी एक अनुमान के अनुसार देश में प्रतिवर्ष छः लाख बेटियों की गर्भ में मौत दे दी जाती है.

       मोदी सरकार भी कन्या भ्रूण हत्या और बेटियों के प्रति समाज में होने वाले भेदभाव को लेकर गंभीर है. इसी कारण बेटी बचाओं बेटी बढाओ का अभियान चला रही है.जिसके माध्यम से भ्रूण हत्या के अपराध से जनता को जागरूक किया जा सके और परिवार में बेटियों को बेटों के बराबर का हक़ मिले, उसे पढ़ने के और अपने जीवन में उन्नति के पर्याप्त अवसर मिल सकें. परन्तु इस समस्या के पीछे मनोवैज्ञानिक कारणों को कभी भी समझने का प्रयास नहीं किया गया. इसी कारण व्यापक प्रचार प्रसार के बावजूद  महिला और पुरुष अनुपात निरंतर घटता जा रहा है.जिससे स्पष्ट होता  है की चोरी छुपे भ्रूण हत्या अभी भी जारी है.समाज की इसी विचार धारा के कारण अवैध कार्य करने वाले डाक्टरों की चांदी हो रही है.आखिर क्यों कोई माता पिता जोखिम लेकर भी कन्या के जन्म को रोकने का उपाय कर रहे हैं.  
      गिरते लैंगिक अनुपात से चिंतित होना संवेदन शील समाज के लिए स्वाभाविक है,और भविष्य में सामाजिक संतुलन के लिए खतरनाक भी है.परन्तु इस समस्या की जड़ में जाना भी आवश्यक है,आखिर वो कौन से कारण हैं जिसकी वजह से माता पिता और परिवार बेटियों के जन्म को रोकने के लिए अपराध करने को मजबूर हैं और अपने बच्चे को ही दुनिया में आने से रोक देते हैं.आईये चंद सामाजिक विसंगतियों पर प्रकाश डालते हैं,
दहेज़ समस्या;
     इस समस्या का सबसे प्रमुख कारण है, दहेज विरोधी अनेक कानून होने के बावजूद दहेज़ के दानव से समाज मुक्त नहीं हो पा रहा है.बल्कि दिन प्रतिदिन इसकी मांग बढती जा रही है.दहेज़ लेना और देना गैर कानूनी होने के कारण एक तरफ तो कालेधन का उपयोग बढ़ता है और दूसरी और बेटियों के प्रति अभिभावकों का नकारात्मक व्यव्हार बढ़ता है.और परिवार में  बेटी को एक बोझ और एक जिम्मेदारी के रूप में देखता है.यदि बेटी पढ़ लिखकर योग्य बन गयी है और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हो गयी हैं, फिर भी माता पिता के लिए उसकी शादी के लिए दहेज़ की व्यवस्था करने को मजबूर होना पड़ता है.मान लीजिये कुछ परिवार दहेज़ के विरोध में खड़े होकर गंभीर हो जाते हैं और बिना दहेज़ की शादी करने का आव्हान करते हैं, फिर भी विवाह की पूरी रस्म को निभाने के लिए आयोजन अर्थात मंडप,भोजन इत्यादि का सारा खर्च तो बेटी वाले के जिम्मे ही रहता है. उसको रोकने के लिए कोई कानून भी नहीं है. बेटी वाले की हैसियत है या नहीं सारा खर्च तो उसे ही वहन करना पड़ता है.अर्थात बाप को अपनी बेटी को ब्याहने के लिए बड़े खर्च से होकर गुजरना ही होगा.आखिर उसका क्या अपराध है यदि उसके घर में बेटी ने जन्म लिया.समाज के इस व्यव्हार से बेटी को एक बोझ माना जाता है और उसके आगमन को रोकने के प्रयास किये जाते हैं.
महिला का समाज में स्थान
                     सदियों से हमारे समाज में महिलाओं को दोयम दर्जा दिया गया है और पुरुष वर्ग को हमेशा वरीयता दी गयी है. परिवार में बेटे और बेटी के प्रति व्यव्हार में भेद भाव  किया जाता है. जो खान पान और शिक्षा इत्यादि की सुविधाएँ बेटे को दी जाती हैं बेटी को पराया धन कह कर उसे उन सुविधाओं से वंचित रखा जाता है.उसे अपने जन्मदाता परिवार द्वारा ही पालन पोषण में उपेक्षित किया जाता है.बेटे को परिवार का चिराग माना जाता है उसे वंश को आगे बढाने वाला माना जाता है. अतः उसकी सभी इच्छाएं भावनाएं पूरी करना परिवार अपना कर्तव्य मानता है जबकि बेटी के मामले में वह इतना उत्साहित नहीं रहता.अतः बेटी   के साथ भेदभाव उसके जन्मदाता परिवार से ही प्रारंभ होना हो जाता है, जो परिवार अपनी बेटी के साथ न्याय नहीं करता वह परिवार अन्य परिवार से बहू के रूप में आने वाली किसी की बेटी से न्याय संगत व्यव्हार कैसे कर पायेगा?
बेटी  के परिवार को निम्न दृष्टि से देखने की प्रवृति
यद्यपि सभी परिवारों में बेटा और बेटियां होती है, फिर भी  अक्सर देखा जाता है जब कोई बेटी का बाप या भाई(अभिभावक) अपनी बेटी का रिश्ता(प्रस्ताव) लेकर किसी बेटे के बाप के घर जाता है तो उसे बड़ी ही विचित्र द्रष्टि से देखा जाता है जैसे कोई व्यक्ति अजायब घर से निकल कर आ गया हो. कुछ की निगाह,बेटी की योग्यताओं पर कम अभिभावक की जेब के वजन पर अधिक रहती है.विवाह के पश्चात् भी बेटे के ससुराल वालों के साथ सम्मानजनक व्यव्हार नहीं किया जाता कभी कभी तो बहू को उसके परिवार वालों को लेकर अपमानित किया जाता है.यह व्यव्हार निन्दनिये है.यदि परिवार में बेटी ने जन्म लिया है या कोई बेटी वाला है तो वह कोई अपराधी नहीं है, जिससे दोयम दरजे के नागरिकों जैसा समझा जाय.यदि परिवार अपने बेटे और बेटी के परिवार के साथ एक जैसा व्यवहार करने लगे तो परिवार में बेटी के साथ भेदभाव वाला व्यव्हार ख़त्म हो जायेगा और बेटी के आगमन पर खुशिया आने लगेंगी. अंततः कन्या भ्रूण हत्या पर स्वयं लगाम लग जाएगी.
बेटी के अधिकारों का अभाव
                       हमारे समाज की विडंबना है की बेटी को अपने परिवार में ही  अधिकारों का भी अभाव रहता है. उसके हर व्यव्हार को बेटे से अलग रख कर देखा जाता है,
उदाहरण के तौर पर,
®    बेटी को उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा जाता है,बेटी तो पराया धन है उसे अधिक पढाने से क्या लाभ?
®    बेटी को पुत्र के समान माता पिता के चरण स्पर्श करना पाप माना जाता है, अर्थात बेटी को अपने माता पिता के चरण स्पर्श की अनुमति नहीं है. वह भी तो संतान ही है.
®    परिवार के बहुत सारे संस्कारों में पुत्र का योगदान आवश्यक होता है, पुत्री को ये अधिकार नहीं होते यहाँ तक की यदि परिवार में कोई बेटा नहीं है तो भी बेटी को माता या पिता के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देने का अधिकार नहीं है.उसके द्वारा किये जाने वाले कृत्य को पाप माना जाता है.यह मान्यता बेटे की चाहना बढाती है.
®    बेटी को परिवार की जायदाद में हिस्सेदारी से वंचित रखा जाता है, यद्यपि अब कानून में दोनों को परिवार की जायदाद पर समान अधिकार दिए गए हैं परन्तु समाज अभी भी मूलतः स्वीकार नहीं करता.
®    बेटी को माता पिता की सेवा करने से वंचित रखा जाता है या बेटी का कोई कर्तव्य नहीं माना जाता,जब की वह भी अपने माता पिता की सेवा करने की उतनी ही हक़दार है, जितना  की बेटा. हमारे देश का कानून भी सिर्फ बेटे पर ही परिवार की जिम्मेदारी सौंपता है, जबकि अधिकार बेटी को बेटों के समान वितरित करता है,आखिर क्यों?
®    सामाजिक मान्यता है की बेटी के माता पिता उसके ससुराल के यहाँ कुछ भी नहीं खा पी सकते अर्थात कुछ भी ग्रहण करना,या बेटी की कमाई ग्रहण करना वर्जित(पाप) माना जाता है,आवश्यकता इस धारणा को बदलने की,तभी तो बेटी अपने परिवार में सम्मान पा सकेगी,या परिवार के लिए महत्वपूर्ण बन सकेगी.
®    यदि किसी परिवार में बेटा नहीं है और बूढ़े माता पिता के लिए बेटी की कमाई खाना वर्जित है.ऐसी स्थिति में माता पिता को अपना भविष्य(बुढ़ापा) अंधकारमय नजर आता है, अतः बेटे को लेकर उनका महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक ही है.यदि सामाजिक मान्यताओं और सोच में परिवर्तन आ जाय तो बेटियों की उपेक्षा अपने आप समाप्त हो जाएगी         
बेटी के कर्त्तव्य और अधिकार दोनों ही बेटे के समान होने चाहिए. बेटी के माध्यम से दामाद सभी अधिकारों की मांग करता देखा जा सकता है. परन्तु अपने ससुराल वालों के साथ सहयोगात्मक  व्यव्हार मुश्किल से ही देखने को मिलता है उसके अपने सास ससुर या अन्य ससुराल के परिजनों के प्रति कोई  कर्तव्य नियत नहीं गए हैं.जब उस परिवार की धन दौलत पर वह अपना अधिकार मानता  है तो उसे कर्तव्य भी गिनाये जाने चाहिए.जैसे उसके माता पिता हैं ऐसे ही पत्नी का माता पिता भी सम्माननीय होने चाहिए.सिर्फ अधिकार प्राप्त होने के कारण vahवह ससुराल वालों के प्रति उपेक्षित व्यव्हार करता है.और माता पिता के लिए बेटी का अस्तित्व उपेक्षित रहता है.

    अक्सर यह माना जाता है की भ्रूण हत्या का मुख्य कारण देश में व्याप्त अशिक्षा है या गरीबी है.यह मान्यता गलत है क्योंकि गरीब देशों में अमीर देशों से अधिक बेटियों की संख्या है, और देश के शिक्षित राज्यों में  कन्या भ्रूण हत्या के मामले अधिक होते हैं, यही कारण है अधिक शिक्षित राज्यों में लिंगानुपात बिगड़ा हुआ है, जबकि पिछड़े और अशिक्षित बहुल राज्यों में अपेक्षाकृत लिंगानुपात अधिक संतुलित है. अतः भ्रूण हत्या का मुख्य कारण सामाजिक मान्यताएं,परंपरागत मान्यताएं और हमारी अविकसित सोच का परिणाम है.(SA-193D)

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रविवार, 3 जुलाई 2016

वरिष्ठ नागरिक समाज कल्याण हेतु केंद्र सरकार से अपेक्षा








Jara-Sochiye

शुक्रवार, 20 मई 2016

जनसँख्या विस्फोट बना देश के विकास में अवरोधक



       [भारत का जनसँख्या घनत्व 2011 जनगणना के अनुसार 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर थी, जबकि चीन में 2015 की गणना के अनुसार में 142 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है.अर्थात हमारे देश में जनसँख्या घनत्व चीन को काफी पीछे छोड़ चुका है.]
 
               देश की सुरसा की भांति बढती आबादी ने स्वतंत्रता के पश्चात् देश की प्रगति में सर्वाधिक प्रभावित किया है. देश की सुरसा की भांति बढती जनसँख्या जो आजादी के समय मात्र चौतीस करोड़ पचास लाख थी, आज एक सौ इक्कीस करोड़ हो चुकी है. भारत का जनसँख्या घनत्व 2011 जनगणना के अनुसार 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर थी, जबकि चीन में 2015 की गणना के अनुसार में 142 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है.अर्थात हमारे देश में जनसँख्या घनत्व चीन को काफी पीछे छोड़ चुका है. बढती आबादी ने अडसठ वर्षों में हुई सारी प्रगति को प्रभाव हीन कर दिया है. देश में खाद्य उत्पादन जो 1950-51 में 50.83 मिलियन टन था 2013-14 में बढ़ कर 263 मिलियन टन तक पहुँच गया.इतना बड़ा उत्पादन इसलिए संभव  हो पाया क्योंकि कृषि भूमि क्षेत्रफल 1960 में 133 मिलियन हेक्टयर था 2010 में बढ़ कर 142 मिलियम हेक्टयर हो गया और प्रति हेक्टेयर उपज जो 1960 में 700 किलो प्रति हक्टेयर थी 2010 में वैज्ञानिक संसाधनों का अधिकतम प्रयोग करने के कारण बढ़ कर 1900 किलो प्रति हेक्टेयर हो गयी अर्थात उपलब्ध साधनों का अधिकतम उपयोग किये जाने के पश्चात् ही यह संभव हो पाया. अब  और अधिक वृद्धि होने की सम्भावना नहीं हो सकती. खाद्य उत्पादन में इतनी वृद्धि होने के बावजूद,आर्थिक असन्तुलन के कारण आज भी  देश की बहुत बड़ी जनसँख्या को एक समय का भोजन ही नसीब होता है.वर्तमान समय में देश में पर्याप्त खाद्य भण्डार होने के कारण, खाद्य तेलों के अतिरिक्त अन्य  खाद्य पदार्थ को विदेश से मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती. परन्तु यदि जनसँख्या वृद्धि नहीं रूकती है तो अवश्य ही हमें खाद्यान्न भी विदेशों से मंगा कर ही जनता का पेट भरना पड़ेगा. खाद्यान्न के अतिरिक्त अन्य सभी उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में आशातीत वृद्धि होने के बावजूद देश की सारी जनता के लिए सारी वस्तुएं,सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पायीं हैं. अतः गरीबी बढती जाती है दूसरी तरफ बढती आबादी ने बेरोजगारी के ग्राफ को कहीं अधिक किया है जिसके कारण भी गरीबी को बढ़ावा मिलता है,देश का विकास प्रभावित होता है
            अधिक आबादी के कारण सड़कों पर ट्रैफिक नित्य प्रति बढ़ रहा है जिसके कारण सड़कों पर जाम तो लगता ही है, प्रदूषण की मात्रा भी भयावह स्थति तक पहुँच जाती है.जिससे अनेक प्रकार की बीमारियों को निमंत्रण मिलता है इसका प्रभाव अधिक  आबादी वाले शहरों पर अधिक पड़ता है.अच्छे स्वास्थ्य के बिना विकास का कोई महत्व नहीं रह जाता.
           खाद्य पदार्थों की उत्पादन से अधिक मांग होने के कारण व्यापारियों को मिलावट जैसे घिनोने अपराधों के लिए प्रेरित करता है,जिससे जनता का स्वास्थ्य दावं पर लग जाता है.और अनेक बार तो मिलावट का शिकार  अकाल मृत्यु तक पहुच जाता है   
    प्रत्येक प्राकृतिक स्रोत की एक सीमा होती है यदि वह सीमा पार हो जाती है तो स्रोत समाप्त हो जाते हैं और अभाव का माहौल बनना निश्चित है,यही स्थिति आज अपने देश की बेतहाशा बढ़ चुकी आबादी का है जिसके कारण सभी प्राकृतिक स्रोत अपनी क्षमता खो चुके हैं.वनों की संख्या अपना वजूद खोते जा रहे हैं.आवास की समस्या हल करते करते और उद्योगों  के लिए जमीन उपलब्ध कराते कराते और अन्य विकास के लिए आवश्यक जमीन उपलब्ध कराने के कारण खेती के लिए जमीन ख़त्म होती जा रही है. जबकि बढती आबादी के लिए और अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता है और निरंतर बढती जा रही है.हमारे देश में आबादी  का घनत्व विश्व पटल पर सर्वाधिक हो चूका है.अतः बढती आबादी को रोकना किसी भी सरकार के लिए प्राथमिकता के रूप में लिया जाना नितांत आवश्यक है यदि अब भी आबादी इसी प्रकार बढती रही तो देश के लिए विकास करना तो दूर यथा स्थिति में रह पाना भी मुश्किल हो जायेगा.
       आजादी के पश्चात् सर्वप्रथम परिवार नियोजन के सम्बन्ध में इंदिरा सरकार द्वारा गंभीरता से प्रयास किये गए थे. प्रयास तो सही समय पर सही कदम था परन्तु उसको लागू किये जाने का तरीका गलत था, अतः एक अच्छा प्रयास फेल हो गया. क्योंकि परिवार नियोजन के लिए जनता को जागरूक कर उसे परिवार नियोजन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए था,अनेक प्रोत्साहन देकर इस कार्य के लिए जनता का समर्थन जुटाना चाहिए था. परन्तु इंदिरा सरकार ने देश पर आपातकाल थोप कर जबरन अपने इरादों को लागू करने का प्रयास किया,नौकर शाही के अत्याचारों के कारण जनता में रोष उत्पन्न हो गया,जनता के विरोध के कारण सरकार की नीतियों को पलीता लग गया और बाद में इंदिरा सरकार के पतन का कारण भी बना.इंदिरा गाँधी को भरी पराजय का मुहं देखना पड़ा. उसके बाद किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं हो पायी की वह परिवार नियोजन की योजना भी लागू कर सके.एक और सबसे बड़ा कारण यह भी है परिवार नियोजन का महत्त्व देश का जागृत हिदू तो समझता है, परन्तु अशिक्षित हिन्दू और मुसलमान परिवार नियोजन के महत्त्व को नहीं समझ रहा जिसके कारण मुस्लिम आबादी के बढ़ने की तीव्रता हिन्दुओं से कही अधिक हो गयी है. देश में मुस्लिम की आबादी तेजी से बढ़ना हिन्दुओं के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है, अतः कही न कही वे न चाहते हुए भी परिवार नियोजन को अपनाने से हिचकते दिखाई देने लगे हैं.कुल मिला कर देश के लिए सभी देश वासियों को सामान रूप से सोचना आवश्यक है.आपके बच्चों के जीवन की गुणवत्ता सीमित परिवार के रहते ही संभव है,और हम सभी का,देश का विकास संभव हो सकता है.आगे आने वाले समय की भयावहता से बचा जा सकता है.
    अतः बढती आबादी भी देश के विकास के लिए रोड़ा बन चुकी है राजनेताओं के लिए इस दिशा में कदम उठा पाना असंभव हो रहा है अतः यह समस्या देश के लिए घातक हो चुकी है.देश के विकास पर प्रश्नचिन्ह बन चुकी है.देश बढती जनसख्या के दुष्चक्र में फंस गया है.  http://jarasochiye.com/single.aspx?id=GP231671  

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रविवार, 6 मार्च 2016

व्यवसायी एवं व्यापारी को भी चाहिए आर्थिक सुरक्षा कवच (द्वितीय भाग)


       अनेकों बार करोड़ पति निजी व्यवसायी या व्यापारी, उद्योगपति विषम परिस्थितियों में दिवालिया की स्थिति तक पहुँच जाते हैं,उस समय उनके लिए अपने भरण पोषण के लिए आर्थिक व्यवस्था कर पाना असंभव हो जाता है,कोई भी उसकी सहायता के लिए सामने नहीं आता,सरकार से भी किसी प्रकार की मदद नहीं मिल पाती और वह  अपना शेष जीवन अभावों और अपमान के साथ जीने को मजबूर हो जाता है.जो व्यक्ति इस विपदा को सहन नहीं कर पाते वे,तनाव के कारण अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं,और कभी कभी समय से पूर्व ही काल का ग्रास बन जाते हैं.
     अनेक बार निजी व्यवसायी किसी दुर्घटना का शिकार हो जाता है वह अपंग हो जाता है,या किसी गंभीर बीमारी के शिकार हो जाता है और महीनो तक सामान्य स्थिति में नहीं आ पाता ताकि वह अपने कारोबार या व्यवसाय को संभाल सके, यदि उसके पास कोई अपना अन्य विकल्प भी नहीं है.ऐसे व्यक्ति के लिए स्वयम का और परिवार का भरण पोषण करना असंभव हो जाता है.
      जब व्यापारी ,उद्योगपति अथवा व्यवसायी वृद्ध अवस्था में पहुँच जाता है तो सभी के पास विकल्प(उत्तराधिकारी) मौजूद नही होते,ऐसी स्थिति में उसे अपना कारोबार समेटना पड़ता है अथवा कर्मियों के सहारे काम चलाना पड़ता है, जो उसे कष्टदायक स्थिति तक ले सकता है और आर्थिक संकट से जूझने को मजबूर कर देता है, उनका जीवन भर का मान सम्मान धूमिल हो जाता है.वे अपने जीवन के निम्नतम स्तर पर जीवन बसर करने को मजबूर हो जाते है.यह भी आवशयक नहीं है की प्रत्येक कारोबारी के पास इतनी धनराशी हो जिसके ब्याज से वह अपने शेष जीवन व्यतीत कर सके. निरंतर बढती महंगाई बड़ी से बड़ी जमा पूँजी को महत्वहीन कर देती है.
  अनेक कारोबारियों के सामने जब विकट स्थिति हो जाती है, जब उसका कारोबार तो बहुत अच्छा होता है परन्तु वृद्धावस्था में उसकी संतान उसके कारोबार में मददगार नहीं होती, वह अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य पर पहुँच चुकी  होती है,कुछ युवा विदेश में जाकर बस जाते हैं.अतः कारोबार को समेटना उसकी मजबूरी हो जाती है.यह भी आवश्यक नहीं है सबकी संताने अपने परिवार की जिम्मेदारी को समझते हों.और परिवार को यथा संभव योगदान देते हों.
     कुछ पेशेवर कारोबारी ऐसे होते है जो अपने कारोबार को सीधे सीधे अपनी संतान को नहीं सौंप सकते और संतान उसके समान योग्यता प्राप्त नहीं कर पाती,जैसे डॉक्टर,इंजिनियर,वकील इत्यादि.और वह पारंपरिक व्यवसाय से हट कर किसी अन्य व्यवसाय में भी इतने सफल नहीं हो पाते,जिससे वह अपने वृद्ध माता पिता को आर्थिक योगदान कर सके.ऐसी स्थिति में कारोबारी के लिए अपना  शेष जीवन सम्मान सहित निकलना असंभव हो जाता है.
      सभी माता पिता इतने भाग्यशाली नहीं होते जब उनके पुत्र या पुत्री मेंधावी,परिश्रमी,बफादार,चरित्रवान और जिम्मेदार हों. गलत रास्तों पर निकल चुकी संतान के माता पिता के लिए तो अपने द्वारा कमाए धन की रक्षा कर पाना भी मुश्किल हो जाता है और भविष्य पूर्णतयः अंधकार मय दिखाई देने लगता है.जब संतान अपना भरण पोषण के योग्य भी नहीं हो पाती तो माता पिता के लिए क्या कर सकेगी.
उपरोक्त कारोबारियों की समस्याओं के समाधान के लिए कुछ सुझाव नीचे प्रस्तुत हैं;

    व्यवसायी से प्राप्त सभी प्रकार के टेक्स के रूप में राजस्व को उसके खाते में दर्ज किया जाय और इस कुल जमा की राशी के अनुपात में उसे उसके आपात काल में कुछ सहायता देने का प्रावधान किया जाय,और वृद्धावस्था में जब तक उसके खाते में जमा कुल धनराशी के ब्याज के बराबर उसे पेंशन की सुविधा दी जाय,इस प्रकार से वह सुरक्षित जीवन जी सकेगा,साथ ही अपने कार्यकाल में अधिक से अधिक टेक्स देने का प्रयास करेगा ताकि उसका भविष्य सुरक्षित हो जाय. इस प्रकार से सरकार को अतिरिक्त राजस्व भी प्राप्त होने की सम्भावना बनेगी, आम कारोबारी कर अपवंचन की सोच छोड़ सकेगा.
     कुछ ऐसे छोटे कारोबारी,व्यापारी भी होते हैं जिन पर टेक्स अदा करने की जिम्मेदारी नहीं होती,वे सिर्फ(उत्तर प्रदेश) श्रम विभाग में पंजीकृत होते हैं, और प्रति वर्ष पंजीयन शुल्क देते हैं,ऐसे छोटे कारोबारी को उसके द्वारा दिए गए पंजीयन शुल्क में से कुछ अंश बीमा कम्पनी को देकर उनका बीमा कर दिया जाय,और बीमा धारी को आकस्मिक म्रत्यु पर मिलने वाले लाभ के अतिरिक्त बीमा पालिसी के परिक्पक्व होने पर बीमा राशी और बोनस बीमाधारी को न दे कर उसके साठ वर्ष की आयु पहुँचने तक राशी बीमा कम्पनी के पास बनी रहे.और उसे पर ब्याज की राशी को जोड़ती रहे. साठ की आयु होने पर उसकी कुल राशी पर उसे आजीवन ब्याज उपलब्ध कराया जाय. उसके मरणोपरांत उसके उत्तराधिकारी को शेष राशी दे दी जाय. इस प्रकार से उसका  शेष जीवन अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक हो सकेगा        
      जिनकी संतान उसके बुढ़ापे में उसकी पूरी जिम्मेदारी निभाती है,उनकी शारीरिक,मानसिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं को यथा शक्ति पूर्ण करती हैं. परन्तु माता पिता के लिए उस पर निर्भर रहना उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है और उसे अपना अस्तित्व परिवार पर बोझ का अहसास कराता है.जो कभी अपने कारोबार का बॉस था और परिवार उसकी अर्जित आय से चलता था परन्तु अंत में उसे निर्भर होने को मजबूर करता है.यदि संतान को उसकी अपने माता पिता के भरण पोषण के बदले में उसके द्वारा की जा रही आय में से घर के बुजुर्ग पर किये गए खर्च को आय कर मुक्त कर दिया जाय. ताकि परिवार  के बुजुर्ग अपने को किसी की दया का पात्र बनने का अहसास न हो सके.और संतान उत्साह के साथ उसे आर्थिक योगदान कर सके.
      वर्तमान में सभी बैंकों में वरिष्ठ नागरिको को उनकी मियादी जमा राशी पर आधा प्रतिशत ब्याज अतिरिक्त दिया जाता है.यदि यह अतिरिक्त ब्याज आधे से बढ़कर दो प्रतिशत कर दिया जाय तो बुजुर्गो को कुछ राहत मिल सकती है,परिवार के अन्य सदस्य भी उस बुजुर्ग के नाम से ऍफ़,डी कर अतिरिक्त ब्याज से बुजुर्ग की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकेंगे.बेंको द्वारा दिया गया अतिरिक्त ब्याज को केंद्र सरकार वहन  करे ताकि बेंकों के हितों को नुकसान न हो.
      व्यवसायी सरकारी विभाग में जहाँ भी पंजीकृत हो उसे चिकित्सा बीमा सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जाय ताकि उसे कार्यकारी दिवसों और वृद्धावस्था में चिकित्सा सम्बन्धी समस्या न आये.और खुश हाल जीवन जी सके,उसके बीमार होने पर सरकारी राजस्व की हानि भी तो होती है.
      जो कारोबारी साठ की आयु पार करने के बाद भी कार्य रत हैं उनके द्वारा अर्जित आय पर न्यूनतम स्लेब के अनुसार टैक्स लिया जाय,इस प्रकार  से उसका परिवार में मान सम्मान बढेगा.उसे संतान द्वारा अपदस्थ किये जाने की संभावना बहुत कम हो जाएगी,और उसे कार्य रत रहने के लिए परिजनों का विशेष सहयोग मिलेगा और उसका बुढ़ापा अच्छी देखभाल के साथ व्यतीत होगा.
   सभी व्यापारिक,एवं व्यासायिक संगठनों को इस विषय पर गंभीरता से सोचना चाहिए,जो कारोबारी दुर्भाग्य वश किसी अनहोनी का शिकार हो जाते हैं, वे भी आपके अपने हैं. अतः उनसे एकदम नाता तोड़ देना भी ठीक नहीं है और हादसे किसी के साथ भी हो सकते हैं.अतः संगठनों के अधिकारी निजी स्वार्थ और राजनीती से अलग सोचते हुए अपने समूह के सदस्यों के हितों को साधने के लिए वित्तमंत्रालय और श्रम मंत्रालयों से संपर्क बनाये और उनसे कारोबारी के हितों को मनवाने में दबाव बनायें.उन पर दबाव बनाने के लिए  व्यापक स्तर पर आंदोलनों  का सहारा लें  ताकि राजनैतिक पार्टियाँ अपने चुनवा घोषणा पत्र  में कारोबारियों के कल्याण की योजनायें पेश कर सकें और सत्ता में आने पर यथा संभव प्रयास कर सकें. निजी कारोबारी के उत्थान से ही देश का उत्थान संभव है.(SA-178C)




                   

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

भारतीय कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ

(घर में सम्मान पाने ,घरेलु हिंसा से बचने,एवं परिजनों के अपमान से बचने के लिए जब एक महिला आत्म निर्भर होने के लिए घर से बाहर निकलती है, तो उसे समाज और पुरुष सत्तात्मक सोच रखने वालों से सामना करना पड़ता है,अनेक लोगों की टीका टिप्पड़ियों,अर्थात तानाकशी, घूरती निगाहों से सामना करना पड़ता है.) 
 भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति सदियों से दयनीय रही है, उनका हर स्तर पर शोषण और अपमान होता रहा है. पुरुष प्रधान समाज होने के कारण सभी नियम, कायदे, कानून पुरुषों के हितों को ध्यान में रख कर बनाये जाते रहे. खेलने और शिक्षा ग्रहण करने की उम्र में बेटियों की शादी कर देना और फिर बाल्यावस्था में ही गर्भ धारण कर लेना, उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होता रहा है. महिला को सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन बना कर रखा गया (आज भी पिछड़े क्षेत्रों में यह परम्परा जारी है). परिणाम स्वरूप प्रत्येक महिला अपने जीवन में दस से बारह बच्चो की माँ बन जाती थी, इस प्रक्रिया के कारण उन्हें कभी स्वास्थ्य को ठीक करने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिलता था. अनेकों बार,कमजोर शरीर के रहते गर्भ धारण के दौरान अथवा प्रसव के दौरान उन्हें अपना जीवन भी गवाना पड़ता था, स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण जीवन अनेक बीमारियों के साथ व्यतीत करना पड़ता था. सदियों तक देश में विदेशी शासन होने के कारण उनकी समस्याओं की कही कोई सुनवाई भी नहीं की गयी, शिक्षा के अभाव में वे इसे ही अपना नसीब मान कर सहती रहती थी. इसके अतिरिक्त दहेज़ प्रथा जैसी कुरीतियों के कारण भी महिलाओं को कभी भी सम्मान से नहीं देखा गया. अक्सर परिवार में पुत्री के होने को ही अपने दुर्भाग्य की संज्ञा दी जाती रही है.बहू के मायके वालों के साथ अपमान जनक व्यव्हार आज भी जारी है.इसी कारण परिवार में लड़की के जन्म को टालने के लिए हर संभव प्रयास किये जाते रहे, जो आज कन्या भ्रूण हत्या के रूप में भयानक रूप ले चुका है. देश को आजादी मिलने के पश्चात् भारतीय संविधान ने महिलाओं के प्रति संवेदना दिखाते हुए, उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किये, और आजाद देश की सरकारों ने महिलाओं के हितों में समय समय पर अनेक कानून बनाये, शिक्षा के प्रचार प्रसार को महत्व दिया गया और बच्चियों को पढने के लिए प्रेरित किया गया इस प्रकार से जनजागरण होने के कारण महिलाओं ने अपने हक़ को पाने के लिए और पुरुषों द्वारा किये जा रहे अन्याय के विरुद्ध अनेक आन्दोलनो के माध्यम से अपनी आवाज बुलंद की,और समाज में पुरुषों के समान अधिकारों की मांग की. देश में महिला के हितों के लिए महिला आयोग का गठन किया गया, जो महिलाओं के प्रति होने वाले अन्याय के लिये संघर्ष करती है,उनके कल्याण के लिए शासन और प्रशासन से संपर्क कर महिलाओं की समस्याओं का समाधान कराती हैं. २०१२ में प्राप्त आंकड़ों के अनुसार कामकाजी महिलाओं की कुल भागीदारी मात्र २७% है. अर्थात इतना सब कुछ होने के बाद भी, आज भी महिलाओं की स्थिति में बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता है, अभी तो अधिकतर महिलाओं को यह आभास भी नहीं है की वे शोषण का शिकार हो रही हैं और स्वयं एक अन्य महिला का शोषण करने में पुरुष समाज को सहयोग कर रही है. महिलाओं को परिवार और समाज में अपना सम्मान पाने के लिए आर्थिक रूप से निर्भर होने की सलाह दी जाती है.यद्यपि प्राचीन काल से मजदूर वर्ग की महिलाये अनेक प्रकार के काम काज करती रही हैं,कुछ क्षेत्रों में जैसे घरों, सड़कों इत्यादि की साफ सफाई,कपडे धोना,नर्सिंग(दाई),सिलाई बुनाई,खेती बाड़ी सम्बन्धी कार्य इत्यादि में तो इनका एकाधिकार रहा है.अतिशिक्षित परिवारों,एवं उच्च शिक्षित परिवारों की महिलाएं पहले से ही उच्च पदों पर आसीन होकर कामकाज करती रही हैं. जहाँ तक उच्च शिक्षित परिवारों की महिलाओं की बात की जाय तो उन परिवारों में महिलाएं अपेक्षाकृत हमेशा से ही सम्मान प्राप्त रही हैं. परन्तु मजदूर वर्ग में शिक्षा के अभाव में रूढीवादी समाज के कारण आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी अपमानित होती रहती थीं और आज भी विशेष बदलाव नहीं हो पाया है. महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने,और शिक्षित होने के चलते मध्य वर्गीय परिवार की महिलाएं भी नौकरी, दुकानदारी अर्थात व्यापार, ब्यूटी पारलर,डॉक्टर जैसे व्यवसायों में पुरुषो के समान कार्यों को अंजाम देने लगी हैं.डॉक्टर,वकील,आई.टी.,सी.ए.पोलिस जैसे क्षेत्रों में आज महिलाओं की बहुत मांग है. परन्तु हमारे समाज का ढांचा कुछ इस प्रकार का है की महिला को कामकाजी होने के बाद भी नए प्रकार के संघर्ष से झूझना पड़ता है,अब उन्हें अपने कामकाज के साथ घर की जिम्मेदारी भी यथावत निभानी पड़ती है. उसके लिए उन्हें सवेरे जल्दी उठ कर अपने परिवार अर्थात बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों के लिए भोजन इत्यादि की व्यवस्था करनी होती है, बच्चों के सभी कार्यों को शीघ्र निबटाना पड़ता है,उसके पश्चात् संध्या समय लौटने के बाद गृह कार्यों में लगना होता है.क्योंकि परिवार के पुरुष आज भी घर के कार्यों की जिम्मेदारी सिर्फ घर की महिला की ही मानते हैं.कुछ पुरुष तो कुछ भी सहयोग करने को तैयार नहीं होते, यदि महिला उन पर दबाब बनाती है तो अक्सर पुरुषो को कहते सुना जाता है, की अपनी नौकरी अथवा कामकाज छोड़ कर घर के कार्यों को ठीक से निभाओं,महिला की जिम्मेदारी घर सँभालने की होती है. मजबूरन महिला दो पाटन के बीच पिस कर रह जाती है.जो महिलाये आर्थिक रूप से सक्षम होती है वे अवश्य घर के कार्यों को निबटाने के लिए, बच्चो के कार्यों में सहयोग के लिए आया और कुक की व्यवस्था कर लेती हैं, परन्तु गरीब एवं अल्प मध्य वर्गीय परिवारों की महिलाओं के लिए आज भी यह सब कुछ संभव नहीं है. महिला के लिए नियोक्ता भी सहज नहीं दीखता,क्योकि हमारे देश के कानून में महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी नियोक्त पर होती है, वह उससे देर रात तक कार्य नहीं ले सकता,उसे सवेतन मातृत्व अवकाश भी देना होता है, पुरुष कर्मियों के समान भारी कार्यों को उन्हें नहीं सौंप सकता, व्यासायिक कार्यालय से बाहर के कार्यों को भी उनसे कराना उनकी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए जोखिम पूर्ण होता है इत्यादि. परन्तु अनेक पदों पर जैसे यात्रियों को घर जैसा अनुभव देने के लिए एयर होस्टेस, महिला एक ममता की प्रतिमूर्ति होने के कारण अस्पतालों में नर्स, आगंतुकों, ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए बड़े बड़े वाणिज्यिक संस्थानों के स्वागत कक्ष में रिसेप्निष्ट, मार्केटिंग के लिए सेल्स गर्ल, छोटे छोटे ढाबो में ग्राहकों को घर के खाने जैसा स्वाद की कल्पना करने के लिए अधेड़ या बूढी महिला को नियुक्त करना,उनकी मजबूरी भी होती है.महिलाओं की ईमानदारी,बफादारी,कर्मठता के कारण भी महिलाओं की नियुक्ति करना नियोक्ता के हित में होता है. घर में सम्मान पाने ,घरेलु हिंसा से बचने,एवं परिजनों के अपमान से बचने के लिए जब एक महिला आत्म निर्भर होने के लिए घर से बाहर निकलती है, तो उसे समाज और पुरुष सत्तात्मक सोच रखने वालों से सामना करना पड़ता है,अनेक लोगों की टीका टिप्पड़ियों,अर्थात तानाकशी, घूरती निगाहों से सामना करना पड़ता है. उद्दंड व्यक्तियों की छेड़खानियों से बचने के लिए उपक्रम करने होते हैं,कभी कभी तो बलात्कार और प्रतिरोध स्वरूप हत्या का शिकार भी होना पड़ता है. जब वह अपने कार्य स्थल अर्थात ऑफिस,फेक्ट्री पर पहुँचती है तो उसे अपने सहयोगियों और बॉस की दुर्भावनाओं का शिकार होना पड़ता है. संध्या समय अपने कार्य स्थल से लौटते समय भी उसे अनेक अनहोनी घटनाओं की आशंका से ग्रस्त रहना पड़ता है.उसके मन में व्याप्त असुरक्षा की भावना आज भी उसकी उसके लिए जीवन को कष्ट दायक बनाये हुए है. पुलिस से भी उसे कोई सकारात्मक पहल की उम्मीद नहीं होती अनेक बार तो वह उनके दुर्व्यवहार का भी शिकार हो जाती है. महिलाओं को अपने वेतन के मामले में भी शोषण का शिकार होना पड़ता है, जब उन्हें पुरुषों के मुकाबले (गुप चुप तरीके से—गैर कानूनी होने के कारण) कम वेतन के लिए कार्य करना पड़ता है. पुरुष प्रधान समाज की सोच में अभी उल्लेखनीय परिवर्तन देखने को नहीं मिलता,साथ ही हमारी लचर न्याय व्यवस्था के कारण,यदि कोई महिला सरेआम किसी अत्याचार का शिकार होती है तो समाज के लोग उसका बचाव करने से भी डरते हैं. अतः उसे समाज और भीड़ से भी अपने पक्ष में माहौल मिलने की सम्भावना कम ही रहती है.यदि यह कहा जाय की जिस शोषण की स्थिति से निकलने के लिए वह घर की चार दिवारी से बाहर आई थी, उस मकसद में सफल होना अभी दूर ही दिखाई देता है.(SA-182D)
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