<script async
src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
<!-- s.s.agrawal -->
<ins class="adsbygoogle"
style="display:block"
data-ad-client="ca-pub-1156871373620726"
data-ad-slot="2252193298"
data-ad-format="auto"></ins>
<script>
(adsbygoogle = window.adsbygoogle ||
[]).push({});
</script>
|
गुरुवार, 17 सितंबर 2015
पुलिस थर्ड डिग्री यातनाएं क्यों देती है?
रविवार, 6 सितंबर 2015
द्वेत वाद और अद्वेत वाद
स्रष्टि के जन्म के साथ ही अनेक जीव जंतुओं की उत्पत्ति हुयी,इन्ही जीवो में मानव भी दुनिया में आया, जो शेष सभी जीवों से श्रेष्ठ था. जिसके पास सोचने समझने के लिए दिमाग था और वह उसके निरंतर विकास करने की क्षमता रखता था,परिणाम स्वरूप सभी जीव जैसे वे उत्पत्ति के समय थे उसी अवस्था में आज भी रहते हैं.उनकी जीवन शैली आज भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में है. परन्तु मानव ने अपने मस्तिष्क का सदुपयोग करते हुए,पहले सभी जीव जंतुओं को अपने नियंत्रण में कर लिया और पूरी दुनिया में इन्सान का एक छत्र राज्य हो गया तत्पश्चात मानव जाति के लिए अनेक प्रकार की सुख सुविधाएं विक्सित करने का सिल सिला प्रारंभ किया जो आज तक निरंतर जारी है.आज विकास की गति तीव्र से तीव्रतम होती जा रही है.इन्सान में दिमाग होने के कारण, उसे स्रष्टि की उत्पत्ति के बारे में जानने की उत्सुकता हुई और अपने मन में उत्पन्न अनेक पर्श्नों के उत्तर ढूँढने का प्रयास किया. जब जब उसे अपने प्रश्नों का उचित उत्तर नहीं मिला, तो उसे एक अलौकिक शक्ति की कल्पना करने को विवश होना, पड़ा. इसी उधेड़ बुन में कभी उसने एक ऐसी शक्ति की कल्पना की जो पूरी दुनिया की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार है, वही स्रष्टि की पालन हार और संहारक भी है.और अपने साथ होने वाले किसी भी कष्ट दायक स्थिति के लिए उसे ही जिम्मेदार माना गया. यह बात अलग है की दुनिया में इस तथाकथित काल्पनिक शक्ति को अनेक प्रथक प्रथक नामों से जाना गया और पूजा गया,जिसने अनेक पंथों और धर्मों को जन्म दिया.
जब हम इस स्रष्टि के कर्ता धर्ता किसी (स्वयं के अतिरिक्त)अन्य जीव या किसी शक्ति को मानते हैं तो इसे द्वेतवाद माना जाता है अर्थात इस मान्यता के अंतर्गत विश्व के संचालन के लिए अपने से प्रथक किसी अन्य शक्ति के प्रभाव को मानने लगते हैं, उसकी पूजा करते है ताकि उसके प्रकोप से हम बच सकें और अपने सुनहरे भविष्य की कामना कर सकें, जीवन की उलझनों का निवारण पा सकें. विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति इसी मान्यता का परिणाम है.जब हम सिर्फ विश्वास के आधार पर किसी धर्म का अनुसरण करते हैं, उसको ही द्वेतवाद की संज्ञा दी जाती है,अर्थात किसी भी परिस्थिति के लिए अपने से प्रथक किसी अन्य शक्ति को जिम्मेदार मानना.अपने इष्ट देव की पूजा अर्चना कर हम अपने मन की शांति को ढूंढते हैं. हमारा उस अलौकिक शक्ति पर विश्वास हमें कठिन परिस्थिति में भी हिम्मत बंधे रखता है,हमारा मानसिक संतुलन बना रहता है.यही मानसिक संतुलन हमें कठिन परिस्थितियों से बाहर निकल पाने में मदद करता है.
अद्वेत वाद एक प्रथक मान्यता का नाम है, इसके अंतर्गत दुनिया में हर स्थिति के लिए स्वयं(मानव) को जिम्मेदार माना जाता है.इसमें इन्सान स्वयं को ही सब कुछ मानता है अर्थात वह स्वयं सभी सुख दुःख के लिए जिम्मेदार है.वह अहमो-ब्रह्मास्मि के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है.वह स्वयं को भगवान् का स्वरूप मानता है या तथाकथित ईश्वर का अंश मानता है.वह किसी की पूजा अर्चना का समर्थन नहीं करता,वह सारी खुशिया अपने अन्दर ही ढूँढने का प्रयास करता है.दुनिया को वैभवपूर्ण और शांति संपन्न बनाने के लिए अपने प्रयासों पर पूर्ण भरोसा करता है.किसी भी विकट स्थिति के लिए स्वयं को जिम्मवार मानता है और उसका समाधान भी अपने प्रयासों से ढूंढ लेने का विश्वास करता है.वह मन की शांति के लिए योग और आत्म चिंतन को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता है.
गुरुवार, 6 अगस्त 2015
भारतीय महिला आज भी कितनी मजबूर---द्वितीय भाग
·
जरा सोचिये पुरुष यदि अमानुषिक कार्य करे तो भी सम्मानीय व्यक्ति जैसे सामाजिक नेता, पंडित, पुरोहित इत्यदि बना रहता है,परन्तु यदि स्त्री का कोई कार्य संदेह के घेरे में आ जाये तो उसको निकम्मी
,पतित जैसे अलंकारों से विभूषित कर अपमानित किया जाता है।
·
आज भी ऐसे लालची माता पिता विद्यमान हैं जो अपनी बेटी को जानवरों की भांति किसी बूढ़े, अपंग ,अथवा अयोग्य वर से विवाह कर देते हैं, अथवा बेच देते हैं।
·
पुरुष के विधुर होने पर उसको दोबारा विवाह रचाने में कोई आपत्ति नहीं होती ,परन्तु नारी के विधवा होने पर आज भी पिछड़े इलाकों में लट्ठ के बल पर ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाता है।
·
शादी के पश्चात् सिर्फ नारी को ही अपना सरनेम बदलने को मजबूर किया जाता है।
·
सिर्फ महिला को ही श्रृंगार करने की मजबूरी क्यों? श्रृंगार के नाम पर कान छिदवाना,
नाक बिंधवाना नारी के लिए ही आवश्यक क्यों?
कुंडल,टोप्स,
पायल, चूडियाँ,
बिछुए सुहाग की निशानी हैं अथवा पुरुष की गुलामी का प्रतीक?
·
आज भी नारी का आभूषण प्रेम क्या गुलामी मानसिकता की निशानी नहीं है?शादी शुदा नारी की पहचान सिंदूर एवं बिछुए जैसे प्रतीक चिन्ह होते हैं,परन्तु पुरुष के शादी शुदा होने की पहचान क्या है ? जो यह बता सके की वह भी एक खूंटे से बन्ध चुका है, अर्थात विवाहित है।
·
सिर्फ महिला ही विवाह के पश्चात् 'कुमारी' से ' श्रीमती ' हो जाती है पुरुष 'श्री' ही रहता है .
सदस्यता लें
संदेश (Atom)