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गुरुवार, 17 सितंबर 2015

पुलिस थर्ड डिग्री यातनाएं क्यों देती है?

          
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हमारे देश में पुलिस की कस्टडी में मुलजिमों की मौत हो जाना एक आम बात है.आखिर क्या कारण है की न्याय की गिरफ्त में आने वाले व्यक्ति, सरकारी संरक्षण में किसी नागरिक की मौत हो जाती है.या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है.यह देश या प्रदेश की सरकार के लिए शर्मनाक बात है उसकी शासन व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता है हम सभी जानते हैं अक्सर सुनने में आता है की अमुक थाने में किसी व्यक्ति की मौत हो गयी.अर्थात पुलिस द्वारा दी गयी यातनाओं के कारण संदेहग्रस्त व्यक्ति की मौत हो जाती है.आखिर पुलिस इतनी बुरी तरह से किसी भी नागरिक को पीटती क्यों है क्या उसे अधिकार प्राप्त है की वह किसी भी व्यक्ति को संदेह के घेरे में लेकर उस पर यातनाये करे,जुल्म ढाए?क्या पुलिस का यह व्यव्हार देश विदेशी राज की याद नहीं दिला देता.क्या पुलिस की कार्य शैली आज भी सामंतवादी बनी हुई है?क्या पुलिस विभाग का काम जनता में दहशत फैलाना है?क्या पुलिस का अस्तित्व जनता पर सरकार की सत्ता बनाये रखने के लिए है या जनता की सेवा के लिए है, उसे अपराधी तत्वों से सुरक्षा दिलाने के लिए है.थर्ड डिग्री की यातनाओं के कारण ही अक्सर अनेक बेगुनाहों की मौत हो जाती है. क्यों यातनाएं देती है पुलिस; हमारे देश में पुलिस की जिम्मेदारी है की वह किसी भी अपराधिक गतिविधि की जाँच करे और अपराध की तह तक जाकर असली गुनाहगार तक पहुंचे और अदालत के समक्ष प्रस्तुत करे.जिसके शीघ्र से शीघ्र क्रियान्वयन के लिए उसे जनता का दबाव और शासन का दबाव निरंतर झेलना पड़ता है.जिसके कारण पुलिस का व्यव्हार कठोर हो जाता है वह अपने अधिकारीयों को खुश करने या संतुष्ट करने के लिए जनता पर जुल्म ढहाती है.उसके इस व्यव्हार के लिए मुख्य कारण निम्न हैं; १,पुलिस पर शासन अर्थात शासन में बैठे राजनेताओं का अनुचित दबाव झेलना पड़ता है जो कभी कभी जाँच को अपनी इच्छनुसार करने के लिए पुलिस पर असंगत दबाव बनाते हैं उसके कार्यों में अवैध रूप से दखलंदाजी करते हैं और उसे कानून के अनुसार कार्य करने से रोकते रहते है. २,किसी भी अपराध की वास्तविकता पता लगाने के लिए पुलिस अपना श्रम बचाने के लिए संदेह ग्रस्त व्यक्ति को थर्ड डिग्री की यातनाएं देकर जल्दी से जल्दी अपनी जाँच पूरी करना चाहती है,परिणाम स्वरूप अनेक बार निरपराध व्यक्ति पुलिस मार से घबराकर जुल्म को क़ुबूल करने को मजबूर हो जाता है,जो बाद में अदालत में ख़ारिज हो जाता है.अतः पुलिस जाँच को शीघ्र पूरी करने के लिए शोर्ट कट अपनाते हुए सदेह के घेरे में आये व्यक्ति पर जुल्म करती है. ३,किसी भी केस की जाँच के दाएरे में आने वाले किसी भी व्यक्ति पर पुलिस अपने डंडे का डर दिखा पर अपनी आमदनी पक्की करती है,बेगुनाह की खाल का सौदा करती है.यही कारण है की एक आम व्यक्ति थाने जाने से भी घबराता है, जिससे अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं. ४,थानेदार अपने बड़े अफसरों को खुश करने के लिए केस को जल्द से जल्द हल करने के प्रयास में,कागजी खाना पूर्ती के लिए निरपराध व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करता है.और उसे अपराधी के रूप में प्रस्तुत कर देता है.इस प्रकार उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है. ५,पुलिस विभाग में कार्यरत पुलिस कर्मी अत्यधिक कार्य के दबाव के कारण मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाते है, परिणाम स्वरूप अपना गुस्सा हवालात में बंद मुलजिमों पर कहर बरपा कर उतारते हैं. ६,पुलिस की कार्यशैली और सोच अभी भी विदेशी दासता जैसी बनी हुई है वे(पुलिस कर्मी) अपने को जनता का सेवक नहीं मानते बल्कि अपने को सरकारी हुकूमत के कारिंदे मानते हैं और मानते हैं की आम जनता पर रौब ग़ालिब करना.उसके साथ गली गलौच करना या किसी को भी थर्ड डिग्री की यातना देना अपना विशेष अधिकार समझते हैं. क्या आवश्यक रूप से सुधार किये जा सकते हैं. पुलिस विभाग प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है,परन्तु देश के सभी राज्यों में पुलिस की कार्यशैली एक जैसी ही है.अतः देश व्यापी परिवर्तन की आवशयकता है जिसे केंद्र सरकार अपने दिशा निर्देशों द्वारा राज्यों को कानूनों में परिवर्तन कर पुलिस विभाग के व्यव्हार को संतुलित करने की सलाह दे सकती है. १,पुलिस को दिए गए व्यापक अधिकारो को सीमित किया जाय,तथा प्रत्येक पुलिस कर्मी को जनता के प्रति सद्भाव पूर्ण व्यव्हार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाय. २,जाँच का अधिकार पुलिस के पास बहुत ही सीमित रूप में दिया जाय अपराध की गहराई में जाने के लिए अलग से जाँच सेल बनाय जाय. जो ख़ुफ़िया तौर पर जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करे और अपराध की तह तक पहुँच कर केस को हल करे.जो किसी अत्याचार का सहारा न लेकर अपने ख़ुफ़िया जाँच के द्वारा मामले की गहराई तक पहुंचे. ३,पुलिस कर्मियों की मनोस्थिति का अध्ययन किया जाना चाहिए और उनके कल्याण के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए ताकि वे अपनी बीमार मानसिकता को मुलजिमों पर अत्याचार कर के अपना गुस्सा न उतारें. और सभी तथाकथित अपराधियों के साथ इंसानियत के साथ पेश आयें. ३,पुलिस की कार्य शैली और अपराधों की संख्या घटाने के लिए न्याय प्रणाली को सुधारना अत्यंत आवशयक है. शीघ्र न्याय दिलाने के लिए अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाय, तो अदालतों पर असहनीय भार को कम किया जा सकता है और न्याय मिलने में शीघ्रता आ सकती है .अदालतों को भी शीघ्र केस निपटाने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाएँ तो जजों को त्वरित न्याय देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है. 4,अदालतों की कार्य शैली सामन्तवादी कार्य शैली है जो अंग्रेजों की गुलामी की याद दिलाती है,कार्यशैली भी परम्परागत चली आ रही है जिसे समाप्त करना चाहिए और आवश्यक सुधार किये जाने चाहिए ताकि किसी भी नागरिक को दोषी सिद्ध होने तक पर्याप्त सम्मान मिलता रहे जो लोकतान्त्रिक देश में किसी भी नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है.अदालत की कार्यशैली के कारण भी पुलिस आम नागरिक से सभ्य व्यव्हार नहीं करती और एक आम नागरिक को अदालत का डर दिखा कर उसका शोषण करती है. ५,पता नहीं मैं यहाँ पर सही हूँ या नहीं मेरे विचार से अदालत का सम्मान किया जाना चाहिए परन्तु एक जज का नहीं, जो स्वयं एक न्यायिक सेवक है और जनता का सेवक है. उसे भी सभी सेवा शर्तों का इमानदारी से पालन करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए और व्यक्तिगत रूप से किसी भी न्यायाधीश की कार्य शैली पर भी मीडिया को आलोचना करने का अधिकार मिलना चाहिए.अदालत का असम्मान(अवमानना) सिर्फ अदालत के आदेश न मानने तक सीमित होना चाहिए.(SA-163C)<script src="https://www.gstatic.com/xads/publisher_badge/contributor_badge.js" data-width="88" data-height="31" data-theme="light" data-pub-name="Your Site Name" data-pub-id="ca-pub-00000000000"></script>

रविवार, 6 सितंबर 2015

द्वेत वाद और अद्वेत वाद

               स्रष्टि के जन्म के साथ ही अनेक जीव जंतुओं की उत्पत्ति हुयी,इन्ही जीवो में मानव भी दुनिया  में आया, जो शेष सभी जीवों से श्रेष्ठ था. जिसके पास सोचने समझने के लिए दिमाग था और वह उसके निरंतर विकास करने की क्षमता रखता था,परिणाम स्वरूप सभी जीव जैसे वे उत्पत्ति के समय थे उसी अवस्था में आज भी रहते हैं.उनकी जीवन  शैली आज भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में है. परन्तु मानव ने अपने मस्तिष्क का सदुपयोग करते हुए,पहले सभी जीव जंतुओं  को अपने नियंत्रण में कर लिया और पूरी दुनिया में इन्सान का एक छत्र राज्य हो गया तत्पश्चात मानव जाति के लिए अनेक प्रकार की सुख सुविधाएं विक्सित करने का सिल सिला प्रारंभ किया जो आज तक निरंतर जारी है.आज विकास की गति तीव्र से तीव्रतम होती जा रही है.इन्सान में  दिमाग होने के कारण, उसे स्रष्टि की उत्पत्ति के बारे में जानने की उत्सुकता हुई और अपने मन में उत्पन्न अनेक पर्श्नों के उत्तर ढूँढने का प्रयास किया. जब जब उसे अपने प्रश्नों का उचित उत्तर नहीं मिला, तो उसे एक अलौकिक शक्ति की कल्पना करने को विवश होना, पड़ा. इसी उधेड़ बुन में कभी उसने एक ऐसी शक्ति की कल्पना की जो पूरी दुनिया की उत्पत्ति के लिए जिम्मेदार है, वही स्रष्टि की पालन हार और संहारक भी है.और अपने  साथ होने वाले किसी भी कष्ट दायक स्थिति के लिए उसे ही जिम्मेदार माना गया. यह बात अलग है की दुनिया में इस तथाकथित काल्पनिक शक्ति को अनेक प्रथक प्रथक नामों से जाना गया और पूजा गया,जिसने अनेक पंथों और धर्मों को जन्म दिया.
           जब हम इस स्रष्टि के कर्ता धर्ता किसी (स्वयं के अतिरिक्त)अन्य जीव या किसी शक्ति को मानते हैं तो इसे द्वेतवाद माना जाता है अर्थात इस मान्यता के अंतर्गत विश्व के संचालन के लिए अपने से प्रथक किसी अन्य शक्ति के प्रभाव को मानने लगते हैं, उसकी पूजा करते है ताकि उसके प्रकोप से हम बच सकें और अपने सुनहरे भविष्य की कामना कर सकें, जीवन की उलझनों का निवारण पा सकें. विभिन्न धर्मों की उत्पत्ति इसी मान्यता का परिणाम है.जब हम सिर्फ विश्वास के आधार पर किसी धर्म का अनुसरण करते हैं, उसको ही द्वेतवाद की संज्ञा दी जाती है,अर्थात किसी भी परिस्थिति के लिए अपने से प्रथक किसी अन्य शक्ति को जिम्मेदार मानना.अपने इष्ट देव की पूजा अर्चना कर हम अपने मन की शांति को ढूंढते हैं. हमारा  उस अलौकिक शक्ति पर विश्वास हमें कठिन परिस्थिति में भी हिम्मत बंधे रखता है,हमारा मानसिक संतुलन बना रहता है.यही मानसिक संतुलन हमें कठिन परिस्थितियों से बाहर निकल पाने में मदद करता है.
       अद्वेत वाद एक प्रथक मान्यता का नाम है, इसके अंतर्गत दुनिया में हर स्थिति के लिए स्वयं(मानव) को जिम्मेदार माना जाता है.इसमें इन्सान स्वयं को ही सब कुछ मानता है अर्थात वह स्वयं सभी सुख दुःख के लिए जिम्मेदार है.वह अहमो-ब्रह्मास्मि के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है.वह स्वयं को भगवान् का स्वरूप मानता है या तथाकथित ईश्वर का अंश मानता है.वह किसी की पूजा अर्चना का समर्थन नहीं करता,वह सारी खुशिया अपने अन्दर ही ढूँढने का प्रयास करता है.दुनिया को वैभवपूर्ण और शांति संपन्न बनाने के लिए अपने प्रयासों पर पूर्ण भरोसा करता है.किसी भी विकट स्थिति के लिए स्वयं को जिम्मवार मानता है और उसका समाधान भी अपने प्रयासों से ढूंढ लेने का विश्वास करता है.वह मन की शांति के लिए योग और आत्म चिंतन को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता है.

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

भारतीय महिला आज भी कितनी मजबूर---द्वितीय भाग




·        जरा सोचिये पुरुष यदि अमानुषिक कार्य करे तो भी सम्मानीय व्यक्ति जैसे सामाजिक नेता, पंडित, पुरोहित इत्यदि बना रहता है,परन्तु यदि स्त्री का कोई कार्य संदेह के घेरे में जाये तो उसको निकम्मी ,पतित जैसे अलंकारों से विभूषित कर अपमानित किया जाता है।
·        आज भी ऐसे लालची माता पिता विद्यमान हैं जो अपनी बेटी को जानवरों की भांति किसी बूढ़े, अपंग ,अथवा अयोग्य वर से विवाह कर देते हैं, अथवा बेच देते हैं।
·        पुरुष के विधुर होने पर उसको दोबारा विवाह रचाने में कोई आपत्ति नहीं होती ,परन्तु नारी के विधवा होने पर आज भी पिछड़े इलाकों में लट्ठ के बल पर ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाता है।
·        शादी के पश्चात् सिर्फ नारी को ही अपना सरनेम बदलने को मजबूर किया जाता है।
·        सिर्फ महिला को ही श्रृंगार करने की मजबूरी क्यों? श्रृंगार के नाम पर कान छिदवाना, नाक बिंधवाना नारी के लिए ही आवश्यक क्यों? कुंडल,टोप्स, पायल, चूडियाँ, बिछुए सुहाग की निशानी हैं अथवा पुरुष की गुलामी का प्रतीक?
·        आज भी नारी का आभूषण प्रेम क्या गुलामी मानसिकता की निशानी नहीं है?शादी शुदा नारी की पहचान सिंदूर एवं बिछुए जैसे प्रतीक चिन्ह होते हैं,परन्तु पुरुष के शादी शुदा होने की पहचान क्या है ? जो यह बता सके की वह भी एक खूंटे से बन्ध चुका है, अर्थात विवाहित है।
·        सिर्फ महिला ही विवाह के पश्चात् 'कुमारी' से ' श्रीमती ' हो जाती है पुरुष 'श्री' ही रहता है .